स्वप्निल श्रीवास्तव के संस्मरण 'एक सिनेमाबाज की कहानी' का सातवां खण्ड
स्वप्निल श्रीवास्तव |
फिल्म उद्योग की यह विशेषता है कि यहां समय बदलने के साथ नायक महानायक भी बदलते रहते हैं। महानायक वह कहा जाता है जिसके अभिनय को दर्शक सबसे अधिक पसन्द करते हैं। पृथ्वीराज कपूर से शुरू हुआ महानायकत्त्व का यह सिलसिला आज भी चल रहा है। कुंदन लाल सहगल, राज कपूर, दिलीप कुमार, संजीव कुमार, राजकुमार, राजेश खन्ना अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, जितेंद्र, सुनील दत्त, ऋषि कपूर, शत्रुघ्न सिन्हा, गोविंदा, संजय दत्त, सलमान खान, शाहरुख खान, आमिर खान से होते हुए यह क्रम आज रणवीर कपूर जैसे अभिनेताओं तक पहुंच चुका है। व्यावसायिक सिनेमा के समानान्तर कलावादी सिनेमा का भी क्रम चलता रहा जिसके नायक अमोल पालेकर, फारुख शेख, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह जैसे सिनेकार थे। सिनेमा अपने समय का प्रतिमान गढ़ता है। कभी सिनेमा में प्रतिबद्धता और प्रगतिशील मूल्यों की बहुलता थी। लेकिन समय के साथ यह मूल्य अब नदारद होते गए हैं। अब आर्थिक मूल्य ही प्रधान है और इसके लिए जो भी संभव है, वह करने के लिए अभिनेता हमेशा प्रस्तुत रहते हैं। कहना न होगा कि इसी क्रम में बॉलीवुड का सम्बन्ध माफियाओं से जुड़ा। इसी क्रम में कुछ अभिनेताओं का इस्तेमाल नेताओं ने राजनीति में भी किया। कुछ को सफलता मिली तो कुछ को असफलता। असफल अभिनेता थक हार कर अभिनय की दुनिया में फिर से वापस चले गए। 1991 के उदारीकरण के दौड़ के आरंभ के पश्चात भारतीय हिंदी सिनेमा की दुनिया भी काफी बदल गई है। उसका संगीत बदल गया है। धुन बदल गई है। यहां तक कि फिल्मों की कहानियां और उनके मूल्य भी बदल गए हैं। नई पीढ़ी को पुराने गाने अच्छे नहीं लगते तो पुरानी पीढ़ी को इस दौर के इस दौर का संगीत बस शोरगुल पैदा करने वाला ही लगता है। इसे हम पीढ़ियों के अंतर के रूप में भी समझ सकते हैं। इधर सिनेमाबाज़ नौकरी में ट्रांसफर के क्रम में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से अब पूर्वी उत्तर प्रदेश की तरफ आ चुका था और नौकरी के तल्ख अहसासों को शिद्दत से महसूस कर रहा था। नौकरशाही अपनी तरह से फिल्म उद्योग को भी हांक रही थी। ऐसी स्थिति में ईमानदार और कर्मठ लोगों को नौकरी भी झेलाऊ लगने लगती है। फिल्मों के बढ़ते वर्चस्व ने नौटंकी और सर्कस का कारोबार लगभग स्थगित कर दिया था। कौन जानता था कि एक दिन टेलीविजन और मोबाइल भी सिनेमा को अपनी तरह से प्रतिस्थापित कर देंगे। बहरहाल 'सिनेमाबाज की कहानी' का सातवां खंड पहली बार पर आज प्रस्तुत है। पहले की तरह ही इस खंड में भी आपको कई दिलचस्प बातें जानने देखने को मिलेंगी जो सिनेमा बाज की कहानी की विशेषता है। तो आइए आज पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव की 'सिनेमाबाज की कहानी'' का सातवां खंड।
एक सिनेमाबाज की कहानी - 7
स्वप्निल श्रीवास्तव
॥इक्क्कीस॥
नौकरी और जीवन के इन्हीं तनावों के बीच खुशी के पल खोजने पड़ते हैं। दफ्तर में कोई न कोई जहमत आती रहती थी, उसी में दिमाग उलझा रहता था। किराये का मकान मन–मुताबिक नहीं था, किसी तरह उसमें सामान सजाया गया। मैंने थोड़ा रोमांटिक होते हुए सुमन सुकुमारी से कहा - आओ शहर घूमते हैं, उन जगहों पर चलते हैं – जहां हम साथ-साथ घूम चुके हैं।
मेरे प्रस्ताव को सुन कर वे पुलकित हो उठी। उसने अपनी मनपसंद साड़ी के साथ उसी रंग की बिंदी लगायी। बहुत दिनों बाद उसे ध्यान से देख रहा था, वह सचमुच सुंदर दिख रही थी। हम कभी-कभी अपने पास की चीजों से दूर हो जाते हैं और जब इसका इलहाम होता है तो हमें बहुत पछतावा होता है।
सबसे पहले हम यूनिवर्सिटी के पास गोल्फ–ग्राउंड गये और हरे–भरे घास के मैदान में लेट गये। हम वहां पहले प्रेमी–प्रेमिका के रूप में जाते थे अब पति-पत्नी के रिश्ते में बध चुके थे, यह हमारे जीवन का नया अनुभव था। समय किस तरह से हमें बदल देता है। उसके बाद फिल्म ‘सिलसिला’ देखने चले गये। एक दौर था कि हम टिकट खिड़की से टिकट खरीद कर हाल में प्रवेश करते थे अब सीधे हाल मे जा रहे थे, हमें मैंनेजर सुविधाजनक सीट पर बैठा रहा था। इंटरवल में मेरे सामने नाश्ते की प्लेट सज रही थी जिसे देख कर किसी दर्शक ने कहा था –क्या जलवे हैं, ये कोई बड़े अधिकारी जरूर होगे। मैं इन सब औपचारिकताओं से बचता रहता था लेकिन लोग मेरी सहजता के कारण न्योछावर होते रहते थे। मैं अपने सहयोगियो और सिनेमाहाल के मालिकों पर कोई रोब गालिब नहीं करता। जबकि इस पेशे की यही शर्त होती थी कि हमेशा भौकाल बनाये रहो, इससे रोब-दाब बढ़ता है। कुछ लोग तो इसका अभ्यास भी करते रहते थे, यह सब उनकी आंगिक मुद्रा से दिखाई दे जाता था। लुब्बेलुबाब यह कि नौकरी में बदमाश होने की छवि बनी रहे, कोई सीधी गाय की उपमा न देने पाये। अधिकांश लोगों की सींघ नुकीली थी – जहां चाहते थे, वहां हुरपेट देते थे।
फिल्म सिलसिला |
फिल्म सिलसिला त्रिकोणीय प्रेम की कथा थी जिसके गीत–संगीत बहुत मधुर थे, मैंने अपनी प्रिया को याद दिलाई कि मैं उसके प्रेम ऐसी तमाम कवितायें लिख चुका हूं। प्रेम के वे दिन कितने सुरीले थे, वे अब भी याद आते हैं। गलत या सही मुझे किसी ने बताया था कि जब जावेद अख्तर शबाना आजमी के साथ प्रेम में थे, उन्होंने उनके लिए मुहब्बत की नज्में लिखी थीं और वे सब इस फिल्म में इस्तेमाल हुई थीं। इसी तरह साहिर ने अमृता प्रीतम के इश्क में लिखे गीतों का उपयोग फिल्मों में किया लेकिन मेरी नज्में कविता की किताबों तक महदूद रहीं, मेरे जीवन में उनका महत्व तो है ही। गोरखपुर के प्रवास में मैंने उन सभी सिनेमाहालों के चक्कर लगाये जहां हम रोमांस के दिनों में छिप–छिप कर फिल्में देखा करते थे। वे लम्बी प्रतीक्षाओं के दिन थे जिसमें मिलना, चांद से मिलने जैसा था। यहां इस तरह का रोमांच नहीं था लेकिन जब हम अपने लमहों को अपने वर्तमान क्षणों में शामिल कर लेते थे तो उसका स्वाद बढ़ जाता था।
हम लोगों को मार-धाड़ हिंसा और सेक्स प्रधान फिल्में पसंद नहीं थी – हमें रोमांटिक और हल्की–फुल्की कामेडी वाली फिल्में पसंद थी। यह पसंद अंत तक बनी रही – हमें लगता था कि इस तरह की फिल्में हमें स्फूर्ति से भर देती है। पुराने गीतों और उसके संगीत का जादू हमें जीवंत बना देता था। उस दौर के गीत उर्दू और हिंदी के मशहूर शायर लिखते थे और उसकी धुन शास्त्रीय संगीत में पारंगत संगीतकार बनाते थे, आज भी उनके गीत लोगों की जुबान पर चढ़े हुए हैं। उन्हें सुनना ट्रांस में चले जाने जैसा लगता था।
##
नौकरी में इस तरह के पल मुश्किल से मिलते थे। सिनेमा की नौकरी दस बजे सुबह से बारह बजे रात तक चलती थी। हम सरकार के चौबीस घंटों के चाकर थे, हमें कभी भी तलब किया जा सकता था। नौकरी को हमने अपना अमन–चैन बेच दिया था। इस बधुआ मजदूरी को हम शान से नौकरी की संज्ञा देते थे। मुझे नौकरी को ले कर कई तरह की कहावतें याद आने लगी थीं, जैसे –
‘उत्तम खेती मध्यम बान
अधम चाकरी भीख निदान ..।‘
कवि घाघ ने यह कहावत 18वी शताब्दी में लिखी थी जिसमें उन्होंने इसे निकृष्ट किस्म का काम कहा था, आज के समय में होते तो कौन सी कहावत लिखते। मेरे पिता के एक मित्र थे, वह नौकरी के बारे में कहते थे – चाकर है तो नाचा कर, न चाकर है तो न नाचा कर। तात्पर्य यह है कि नौकरीपेशा लोगों को सरकार की धुन पर नाचना पड़ता है। सबहिं नचावत राम गुसाई... में मुझे राम नहीं यह निजाम नचा रहा था। मुझे फिल्म शोले के गब्बर सिंह की याद आ रही थी जिसके हुक्म पर हेमामालिनी नाच रही थी – उसी तरह हमें अपने आला अफसरों के आदेश पर नाचना पड़ता था। वे गब्बर सिंह से कम क्रूर नहीं थे।
पारिवारिक जीवन जीने के लिए आदमी यह अधम कार्य करता है। लोक जीवन में एक अन्य गीत और भी प्रचलित है – लागल नथुनियां कै धक्का, बलम कलकत्ता निकल गये। आर्थिक दबाव के चलते आदमी अपना घर-द्वार छोड़ कर परदेश चला जाता है। भोजपुरी फिल्मों में इस पीड़ा को अच्छी तरह व्यक्त किया गया है लेकिन हिंदी फिल्मों में यह यथार्थ कम दिखाई देता है। हम अपने जीवन में इस यथार्थ से रूबरू थे। बल्कि हम अनाम फिल्म के पात्र थे। उत्तर प्रदेश के अनेक जिलों से घूमघाम कर, हम अपने इलाके में पहुंच चुके थे। यह मेरे लिए राहत भरी खबर थी।
भिखारी ठाकुर |
भिखारी ठाकुर ने इस बिडम्बना का चित्रण अपने नाटकों में किया है। उनके साहित्य में बिखरते परिवार और यातनाओं के विवरण भरपूर मिलते हैं। भिखारी ठाकुर के पात्र मजदूर और वंचित वर्ग से थे लेकिन हम सफेदपोश मजदूर थे। हमारे उपर विभाग की क्रूरतायें बदस्तूर जारी थीं। जिले और प्रदेश स्तर पर बैठकें होती रहती थीं और टैक्स बढ़ाने और लक्ष्यपूर्ति के दबाव बढ़ते जा रहे थे, जिसका लक्ष्य नहीं पूरा होता था उसके विरूद्ध जबाब-तलब के अलावा अन्य कठोर कार्यवाही प्रस्तावित की जाती थी।
॥बाइस॥
शताब्दी का नौवां दशक हिंदी सिनेमा के इतिहास में परिवर्तनशील था। सोवियत संघ का पतन हो चुका था, अमेरिका का वर्चस्व बढ़ चुका था प्रगतिशील मूल्य खत्म हो रहे थे। देश के प्रधानमंत्री पी. बी. नरसिम्हा राव थे, मनमोहन सिंह वित्तमंत्री थे। उन्होंने उदारीकरण की नीति लागू की, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए देश का दरवाजा खोल दिया था। बहुत सारी विदेशी तकनीक का विस्तार हो रहा था। भारतीय सिनेमा वैश्विक हो रहा था। शहरों और कस्बों में वीडियो-लाइब्रेरी और केबल का बढ़ाव बढ़ रहा था। रामायण और महाभारत के अलावा फिल्मों के कैसेट से बाजार पटा हुआ था। कुकुरमुत्ते की तरह लाइब्रेरियां खुल रही थीं – जैसे सब्जी या चाय की दुकानें खुल रही हों।
फिल्मों का नायक आम आदमी नहीं रह गया, हीरो–हीरोइन अंतरराष्ट्रीय हो चुके थे। अमोल पालेकर, फारूख शेख, ओम पुरी, नसीर, नसीरूद्दीन शाह जैसे नायक, दीप्ति नवल, शबाना आजमी, विद्या सिन्हा, जया भादुरी जैसी नायिकायें फिल्मी परदे से विदा हो चुकी थीं। मध्यवर्गीय जीवन को ले कर कोई फिल्मकार फिल्म बनाने का जोखिम नहीं उठाता था। श्याम बेनेगल, ऋषिकेश मुकर्जी, गुलजार, बासु चटर्जी जैसे निदेशक यदा–कदा फिल्में बनाते थे लेकिन वे इस हाहाकारी दौर में अप्रासंगिक हो चुके थे। मनोज कुमार की धूम मचाने वाली देशभक्ति और मुध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी प्रकट करने वाली फिल्मों का दौर भी जा चुका था। यह सलमान खान, शाहरूख खान और अमीर खान जैसे नये नायकों का जमाना था, ये एक्टर नहीं स्टार थे।
इन्होंने फिल्मों का अर्थशास्त्र बदल कर रख दिया था। फिल्मों में तकनीक बदल चुकी थी - उनकी भव्यता बढ़ रही थी, महंगे-महंगे सेट लगाये जा रहे थे। फिल्में स्टूडियों में नहीं आउटडोर में बन रही थी, स्टूडियों बंद हो रहे थे। उनमें वीरानगी छा गयी थी – वे बिक रहे थे। फिल्मों में माफिया और कारपोरेट का पैसा लग रहा था। फिल्मों की कथा वस्तु आम आदमी के जीवन और संघर्ष से अलग थी। फिल्म की कथायें किसी माफिया या डान के जीवन के वैभव और ताकत के आसपास घूमती थी। यह शुरूआत फिल्म ‘दीवार’ और ‘डान’ जैसी फिल्मों से हो चुकी थी। देश के मध्य वर्ग और आम आदमी के जीवन को केंद्र में रख कर फिल्में नहीं बन रही थीं। मध्य वर्ग की अभिरूचि बदल चुकी थी, वे रियलटी में नहीं फैंटेसी में यकीन करने लग गये थे। मध्य वर्ग उच्च वर्ग में पहुंचने के लिए संघर्षरत था, वह उच्चवर्ग की जीवन–शैली और संस्कृति की नकल कर रहा था।
श्रीदेवी |
श्रीदेवी और जयप्रदा का भी एक समय था। श्रीदेवी तमिल, तेलगू और मलयालम फिल्मों में धूम मचाने के बाद हिंदी के सिनेमा–स्क्रीन पर अवतरित हुई। वे बैजयंती माला और पद्मिनी की तरह दक्षिण से आयी थी। उन्होंने हिम्मतवाला’, तोहफा’, मवाली’ और मिस्टर इंडिया जैसी फिल्मों में काम करने बाद फिल्मी दुनिया में अपना स्थान बनाया। मांसलता के कारण उन्हें थंडर-थाई गर्ल कहा जाने लगा था। निर्देशक श्रीदेवी की सुदीर्घ और उत्तेजक जांघों का क्लोज अप बार–बार दिखाते थे। जितेंद्र के साथ श्रीदेवी की जोड़ी खूब जमी। निर्माता–निर्देशकों ने उसकी देह के भूगोल को खूब दिखाया और दर्शकों में गुदगुदी पैदा करने में सफल रहे। श्रीदेवी प्रतिभाशाली अभिनेत्री थी। सदमा और लम्हें जैसी फिल्मों में उनके अभिनय को याद किया जाता रहा। फिल्मकारों को यह पक्ष पसंद नहीं था, वे श्रीदेवी का इस्तेमाल उत्तेजक और मांसल दृश्यों के लिए करते रहे।
श्रीदेवी का जीवन किसी फिल्मी घटना से कम दिलचस्प नहीं था। उन्होंने अपनी उम्र से बड़े फिल्मकार बोनी कपूर को जीवन-साथी के रूप में स्वीकार कर सबको चकित कर दिया। एक संदिग्ध परिस्थिति में दुबई में उनकी मृत्यु हो गयी। फिल्मी दुनिया ऐसे बहुत सारी आत्महत्यायें और मौतें हैं जो संदेह से परे नहीं है। दिव्या भारती की मृत्यु इसका उदाहरण है। मुम्बई की फिल्मी दुनिया बाहर से जितनी चमकीली लगती है उतनी ही भीतर से बदरंग है। देश के अनेक लड़के–लड़कियां फिल्मों में भाग्य आजमाने आते हैं लेकिन शोषण के शिकार बन जाते हैं।
जयप्रदा |
श्रीदेवी के साथ एक अन्यअभिनेत्री जयप्रदा भी दक्षिण की फिल्मों में कामयाबी के साथ हिंदी फिल्मों की दुनिया में दाखिल हुई। उन्होंने सरगम, शराबी, तोहफा जैसी फिल्मों में काम किया। वे अत्यंत सुंदर अभिनेत्री थीं, जिसके बारे में सत्यजित रे ने कहा था कि वे भारतीय सिनेमा के परदे की सबसे खूबसूरत अभिनेत्री हैं। श्रीदेवी और जयप्रदा की प्रतिद्वंदिता जगजाहिर थी। जब वे लोकप्रियता के शिखर पर थीं अचानक राजनीति में जाने का निर्णय ले लिया। फिल्मी अभिनेताओं का सफर देर और दूर तक चलता है लेकिन अभिनेत्रियों के साथ यह स्थिति नहीं रहती है। जब तक उनकी जोशे-जवानी बरकरार रहती है वे बाजार में सिक्के की तरह चलती हैं उसके बात वे अतीत के तहखानें में फेंक दी जाती हैं। इन दोनों अभिनेत्रियों की खाली जगह को माधुरी दीक्षित ने आबाद किया।
माधुरी दीक्षित |
माधुरी दीक्षित को देख कर लोगों को मधुबाला और अंतराष्ट्रीय हीरोइन मार्लिन मनरो की याद आ रही थी। मधुबाला की तरह माधुरी के पास वही हुश्न और शोखी थी। श्रीदेवी और जयप्रदा की तरह वह भी अभूतपूर्व नृत्यांगना थी और उसके भीतर अपने जमाने की मार्लिन मनरो मधुबाला का प्रतिरूप देखा जा रहा था।‘तेजाब’ जैसी फिल्म में -
एक दो तीन चार पांच छ सात नौ दस ग्यारह बारह तेरह
तेरा करूं दिन गिन– गिन कर इंतजार
आ जा पिया आई बहार
एक दो तीन चार जैसा गीत गा कर दर्शकों के बीच जो उत्तेजना पैदा की थी, उससे दर्शक उसके दीवाने हो गये। अंकगणित की गिनती पर लिखे इस गीत को माधुरी ने अपनी नृत्य–प्रतिभा से यादगार बना दिया। चोली के पीछे क्या है जैसे अनेकार्थी गीत ने दर्शकों के भीतर छिपी हुई काम-वृति को जागृत कर दिया था। साजन, दिल तो पागल हैं, खलनायक, रामलखन दिल, अंजाम जैसी हिट फिल्मों में माधुरी दीक्षित ने अभिनय किया है। इस तरह वह दर्शकों और निर्माताओं की पहली पसंद बनी। प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसेन माधुरी की देहमुद्रा और अभिनय से इतने मुत्तासिर हुए कि उन्होंने माधुरी दीक्षित पर गजगामिनी जैसी फिल्म बनाई। वे, ‘दीदी तेरा देवर दीवाना/ कुड़ियों को डाले दाना’ के फिल्मांकन और नितम्ब पर गुलेल–प्रहार के दृश्य पर वे फिदा थे। मैं अपना पाप क्यों छिपाऊ मैं माधुरी दीक्षित का कम दीवाना नहीं था।
नवें दशक के आरम्भ से खान–मंडली ने फिल्मों पर कब्जा कर लिया उनका आधिपत्य सिर्फ फिल्मों तक सीमित नहीं था बल्कि वे फिल्म वितरण के धंधे में भी आ चुके थे।फिल्मों का बाजार अंतरराष्ट्रीय हो चुका था। फिल्म के हीरो का कारोबार देश के बाहर फैला था। फिल्म के हीरो अब पैदल या सायकिल से नहीं चलते थे, उनके पास दुनिया की सबसे मंहगी कार, रहने के लिए पांच–सितारा होटल और उनका दिल बहलाने के लिए सुंदरियां थी। वह पांचवे और छठे दशक का टटपूंजिया हीरो नहीं था जो दो जून की रोटी के लिए मोहताज था। फिल्मों में जिस तरह के बदलाव दिखायें जाते थे। उस तरह के परिवर्तन जिंदगी में नहीं होते थे। दर्शक भी धीमी रफ्तार के गरीब हीरो को नहीं पसंद करते थे, उन्हें करामाती नायक चाहिए था। देश की आम जनता हकीकत को नहीं फिल्मों जादुई यथार्थ को पसंद करती थी।
......
सलमान खान एक्टर कम बाडी–बिल्डर ज्यादा लगते थे, वे फिल्मों के वन मैन आर्मी थे, एक साथ दर्जनों शातिर गुंडों को परास्त कर सकते थे। उन्हें एक खरोच नहीं लगती थी। उनका फिल्मी सफर –‘मैने प्यार किया’ से शुरू हो कर ‘बागी’,‘करन अर्जुन’, कुछ कुछ होता है’, हम दिल चुके सनम’, दवंग’, ‘सुल्तान’, रेडी’, जय हो’ फिल्मों तक पहुंच चुका है। सलमान खान से यह सीखा जा सकता है कि किसी सफल अभिनेता को चर्चा में बने रहने के लिए क्या करना चाहिए। ऐसे तो मुफ्त पब्लीसिटी तो नहीं मिलती, उसके लिए कुछ रोमांस, किसी के बारे में उल्टे–सुल्टे बयान जरूर देने चाहिए ताकि चैनल और फिल्मी पत्रिकायें उसे लपक लेती थी। सलमान के रोमांस के किस्से सिनेमाबाजों को जरूर याद होगें। सलमान का रोमांस फिल्म के एक अभिनेत्री के साथ बहुत मशहूर हुआ, वह इन दिनों एक फिल्मी घराने की बहू हैं।
शाहरूख खान |
शाहरूख खान फौजी सीरियल से फिल्मी दुनिया में अवतरित हुए, वे सलमान की तरह के बाडी-बिल्डर नहीं थे। उनका कद सलमान खान से छोटा था, किन्ही फिल्मों वे अपने अभिनय का परिचय दे देते थे कि वे अभिनय में नसीरूद्दीन शाह और ओम पुरी के बराबर नहीं थे। फिल्मी दुनिया में एक्टिंग का कोई मतलब नहीं होता था, यह ग्लैमर की दुनिया थी। शाहरूख खान सम्वाद बोलते समय हकलाते थे, उनके इस अवगुण को गुण के रूप में लिया गया। इसी तरह तलत महमूद की आवाज गाते समय कांपती थी लेकिन कालांतर में उनकी इस शैली को स्वीकृति मिल गयी। फिल्मी नायिका रानी मुकर्जी की आवाज में खराश थी लेकिन उसे फिल्मों में उपयोगी बनाया गया। आम जीवन में जिसे अवगुण माना जाता था फिल्मों ने उसे अभिनय के आभूषण के रूप में अपनाया।
॥तेइस॥
उदारीकरण ने दुनिया को एक बड़े बाजार में बदल दिया था, एक तरह के पूंजीवाद का यह विस्तार था। मानवीय मूल्य और समाज का ढ़ांचा बदल रहा था। नैतिकता के मापदंड टूट रहे थे। अमीर बनने के अनेक शार्टकट रास्ते पैदा हो रहे थे –जिस तरह आजादी के बाद अचानक एक वर्ग धनाड्य हो गया था, उसी तर्ज पर उदारीकरण के बाद कुछ लोगों की पूंजी में कई गुना वृद्धि हो गयी थी। जाहिर सी बात थी सत्ता के मेहरबानी के बिना यह बात सम्भव नहीं थी। खलनायक/ प्रतिनायक हुए बिना कोई कम समय में शिखर पर नहीं चढ़ सकता था। खलनायक का गीत – चोली के पीछे क्या है – गीत हो या फिल्म मोहरा का गाना –‘तू चीज बहुत है मस्त–मस्त’ – ये गीत एक स्त्री की अस्मिता को खंड–खंड कर देते हैं। इस उपभोक्ता समाज ने स्त्री को एक वस्तु में बदल दिया था।
क्या इसके लिए वे स्त्रियां जिम्मेदार नहीं है जो खुद बाजार में आ कर खड़ी हो गयी है और पैसे के लोभ में अपने को इस्तेमाल होने की छूट दे रही हैं। हमारे समय के परम्परागत मूल्य अप्रसांगिक हो रहे थे। अब एक ही आदर्श और लक्ष्य रह गया था कि कैसे अमीर बना जाय। इस सारे अमूल्यों का प्रतिनिधित्व हमारे समय के फिल्मी नायक भी कर रहे थे। नायक छलांग भर खलनायक के इलाके में पहुंच चुके थे। खलनायकों को लम्बी छुट्टी पर भेज दिया गया था। तथाकथित नायक एक साथ खलनायक और हास्य अभिनेता की जिम्मेदारी निभा रहे थे। अमिताभ बच्चन और गोविंदा जैसे अभिनेता इसके उदाहरण थे। गोविंदा और कादर खान ने कामेडी के स्तर को इतना गिरा दिया था, वह कामेडी की जगह एक भोड़ापन जैसा लगता था। गोविंदा के साथ करिश्मा की जोड़ी इतनी ख्यात हुई कि करिश्मा को लोग गोविंदी कहने लगे थे। फिल्मों का स्तर निरंतर गिर रहा था लेकिन दर्शकों को ये फिल्में पसंद आ रही थी।
सबसे ज्यादा पतनशीलता प्रेम के क्षेत्र में देखी जा रही थी। जीवन में प्रेम के प्रतीक्षायें नहीं रह गयी थी। पुरानी प्रेम–कहानियां निरर्थक हो चुकी थी। जिस समाज में प्रेम और करूणा के लिए कोई जगह न बची हो, उस समाज को टूटने से कोई नहीं बचा सकता हैं। प्रेम का अर्थ छीनना नहीं बल्कि त्याग है। एक समय में फिल्मों में लैला मजनू, हीर रांझा और सोहनी महीवाल जैसी अमर प्रेम-कथाओं पर फिल्में बन रही थी। अब ये कहानियां अप्रसांगिक हो चुकी थी,उनकी जगह आधुनिक प्रेम कहानियां थी। वे बेहद कृत्रिम और लद्धड़ थी, उसमें प्रेम की जगह शोषण और उपभोग के तत्व थे। प्रेम को हिंसा के जरिये हासिल करने की होड़ थी।
इस संदर्भ में शाहरूख खान की दो फिल्में क्रमश:, डर और अंजाम का जिक्र जरूरी लग रहा है। इन दोनों फिल्में में नायक बलात् नायिका से प्रेम करता, यह जानते हुए कि वह उससे प्रेम नहीं करती। यह प्रेम नहीं प्रेम प्राप्त करने का हिंसक तरीका था। फिल्म डर में नायक अपनी सहपाठी से प्यार करता था लेकिन वह किसी अन्य से प्रेम करती थी। वह उसके पीछे साये की तरह लगा रहता था और उससे बात करते हुए जब किर्र-किर्र्र-किर्र्न कहता था। यह संवाद दर्शको में बहुत मशहूर हुआ, लोग इसकी नकल करते थे। एक जमाने में फिल्म ‘शोले’ के डायलाग बहुत मकबूल हुए थे, वे जगह–जगह लाउसडस्पीकर पर बजते थे।
कुंदन लाल सहगल |
हमारे पिता की पीढ़ी में जिन लोगों ने कुंदन लाल सहगल की फिल्म देवदास देखी थी – वे बताते थे कि जिस तरह कुंदन लाल सहगल देवदास की भूमिका में खांसते थे, उसकी नकल लोग करते थे। हिंदी फिल्म देवदास में देवदास का रोल शाहरूख खान ने किया था लेकिन वे उस उचाई को छू नहीं सके। हां, दिलीप कुमार ने जरूर देवदास की भूमिका जीवंत कर दी थी।
शाहरूख खान की फिल्म बाजीगर को याद करना जरूरी लग रहा है क्योकि इस फिल्म से एक संस्मरण जुड़ा हुआ है। यह घटना हमें बताती है कि किस तरह दर्शक-समाज हिंसक हो चुका है। फिल्म बाजीगर की कहानी में नायक अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए अपने पिता के मित्र मदन चोपड़ा को जिम्मेदार समझता है जिसके कारण उसका परिवार क्षत-विक्षत हो जाता है। वह उसकी बेटी से प्रेम का नाटक करता है और फिर उसे बिल्डिंग से नीचे फेंक देता है और उसकी मौत हो जाती है और एक घटनाक्रम में नायक भी मर जाता है। दिल्ली के एक सिनेमा हाल से लौट रहे अनाम दर्शको के बीच फिल्म की कहानी के अंत को ले कर अलग–अलग लोग चर्चा कर रहे थे। एक वर्ग का मत था कि नायक को अंत में बच जाना चाहिए, दूसरे वर्ग का विचार था कि उसे मर ही जाना चाहिए हिंसा का जबाब हिंसा ही होता है। इस तथ्य को ले कर दोनों पक्षो के बीच में हाथापाई हो गयी थी, उसी बीच एक दर्शक ने दूसरे दर्शक के पेट में छूरा भोक दिया था। दर्शक एक दूसरे के लिए अजनबी थे। इस घटना पर राजधानी के प्रमुख अखबार ने लम्बी सम्पादकीय लिखी थी और जीवन पर सिनेमा के असर को विश्लेषित किया था। हिंदी फिल्मों का कोई तर्कशास्त्र नहीं था, सब कुछ अब्सर्ड घटित होता था। घटनाएं क्रम से नहीं होती थी, शायद हमारा जीवन भी इस तरह बन रहा था। हिंदी फिल्में देख कर मुझे सैमुअल वैकेट के नाटक- वेटिंग फार गोदो की याद आती थी। फिल्मी कहानियों में घटनाओं का कोई क्रम नहीं होता था, सब कुछ एबसर्ड घटित होता था। कहीं का ईट, कहीं का रोड़ा/ भानुमती ने कुनबा जोड़ा – कहावत याद आती थी।
फिल्म का एक गरीब नायक आश्चर्यजनक तरीके से इंटरवल के पहले ही रईस बन जाता है और वह शहर की सबसे खूबसूरत लड़की को हासिल करने की कोशिश में लग जाता है लेकिन बीच में उसका संगदिल बाप दीवार बन कर खड़ा हो जाता है। फिर कई तरह की घटनाएं घटती हैं और फिल्म की अंतिम रील में खल–चरित्रों का ह्र्दय परिवर्तन हो जाता है। 90 फीसदी फिल्मों की कहानियां इन्हीं फार्मूलों के आगे – पीछे चक्कर लगाती थीं।
आमीर खान |
खान–बंधुओं में आमीर खान ने जरूर हट कर अभिनय किया। उन्होंने‘कयामत से कयामत तक’, ‘तारे जमीन पर’,‘लगान’, ‘गज़नी’, ‘थ्री इडियट’, ‘पी के’,‘दंगल’ जैसी फिल्में बनायीं। आमिर अपनी भूमिका के लिए भरपूर तैयारी करते थे। वे सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहे। अपने सीरियल ‘सत्यमेव जयते’ के माध्यम से उन्होंने सामाजिक जीवन के अनेक पात्रों से हमारा परिचय कराया। इस कारण वे मिस्टर परफेक्ट जैसी खिताब से नवाजे गये। अभिनेताओं की यह तिगड़ी वह मुकाम हासिल नहीं कर सकी जो एक जमाने में दिलीप कुमार, राज कपूर, देवानंद जैसी विभूतियों ने हासिल किया था। उनके बीच विविधता और अभिनय के अनेक रंग थे।
फिल्मों का किस तरह समाज पर असर पड़ता है, इन पंक्तियों के लेखक के पास इसके बहुत से किस्से हैं। सिनेमा के वैश्विक होने के कारण विदेशी फिल्मों की नकल पर फिल्में बनायी जाने लगी थीं –ऐसी एक फिल्म थी – इंसाफ का तराजू। यह फिल्म एक सेक्स मैंनियक की रूग्ण कथा है जो लड़कियों को जाल में फंसा कर उनके साथ कुकर्म करता है फिल्म में यह रोल राज बब्बर, जीनत अमान और पद्मिनी कोल्हापुरी ने निभाया है। वह जीनत अमान को पंलग से बांध कर उसके साथ व्यभिचार करता है। यह बहुत बड़ा नीच कर्म था। इसकी निंदा करनी चाहिए लेकिन इसके विपरीत फिल्म के नायक के पास ऐसे तमाम पत्र आये थे जिसमें यह कहा गया था कि प्लीज मेरे साथ उसी तरह रेप कीजिए जैसे आपने फिल्म में किया है। यह फिल्म अमेरिकन फिल्म‘लिपस्टिक’ पर आधारित थी।
हम जानते हैं कि यूरोप का समाज हमारे समाज की तरह नहीं है, अब भी हमारे समाज में पारिवारिक मूल्य बचे हुए हैं। सम्बंधों का पतन नहीं हुआ है। इसलिए हम यूरोपीय जीवन मूल्यों को अपने जीवन में स्वीकार नहीं सकते है। पश्चिम का समाज उत्तर–आधुनिक हो चुका है लेकिन हम अभी पूरी तरह आधुनिक नहीं हो सके हैं इसलिए इस तरह की फिल्मों की स्वीकृति सम्भव नहीं है। यह तो बंदर के हाथ में छूरा थमा देने जैसा काम था। हिंदी फिल्मों में जिस तरह के फिल्मकार आ रहे थे उन्हें समाज की समझ नहीं थी। वे पढ़े–लिखे लोग नहीं शुद्ध सौदागर थे। उनके पास अकूत पैसा था लेकिन सिनेमा बनाने की तमीज नहीं थी। उन्होंने विमल राय, शांताराम, गुरूदत्त जैसे पूर्वज फिल्मसाजों से कुछ नहीं सीखा था। वे ऐसी फिल्में बना रहे थे जिससे उनका खजाना भरता रहे। फिल्म उनके लिए कला या सामाजिक दायित्व नहीं थी, वह उनके लिए ऐसी गाय थी जिससे वे दूध की आखिरी बूंद निचोड़ लेना चाहते थे।
फिल्मों में हिंसा, हत्या, अपहरण, फिरौती, सेक्स की कहानियां मुख्य विषय के रूप में अपनायी जा रही थी। नायक फिल्म के अधिकांश अध्याय में स्मगलर या हत्यारा होता था लेकिन अंत में सुधर जाता था, इस तरह का हृदय–परिवर्तन तो समाज में नहीं होते। दर्शकों का दिमाग आखिरी रील से नहीं बनता, वे नायक के वैभव और रहन–सहन के तरीकों से प्रभावित हो जाते थे। वे यह जानना चाहते थे किस रास्ते से हो कर दौलत हासिल की जा सकती है।
इस दौर के नायक–नायिकायें सिर्फ फिल्म से धनार्जन नहीं करती थीं बल्कि विज्ञापन उनकी कमाई का बड़ा स्रोत था। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपना माल बेचने के लिए इन अभिनेताओं को किराये पर लेती थीं और उनसे मनचाहा विज्ञापन कराती थीं। यह अचानक नहीं था कि ऐश्वर्या राय, सुस्मिता सेन, लारा दत्ता विश्वसुंदरी का ताज पहना दिया गया था, दरअसल ये उदारीकरण के दौर की सेल्स गर्ल थीं। फिल्मी नायकों अमिताभ बच्चन, सलमान खान, शाहरूख खान विज्ञापन के क्षेत्र में बिकाऊ नाम थे। वे एक विज्ञापन के लिए करोड़ो रूपये लेते हैं, किसी जमाने में इस कीमत में एक फिल्म तैयार हो जाती है। इस तरह के विज्ञापन से आकर्षित हो कर लोग सामान खरीदते हैं। इस क्षेत्र में नैतिकता के किसी मापदंड का पालन नहीं किया जाता हैं। शीतल–पेय के विज्ञापन एक खतरनाक खेल की तरह दिखाये जाते हैं, उसके साथ यह चेतावनी भी लगी रहती है कि दर्शक इसे दोहराने की कोशिश न करें। यह चेतावनी सिगरेट की डिब्बी पर लिखी वैधानिक चेतावनी की तरह होती है जो आसानी से तोड़ी जा सकती थी।
महानायक जैसे पदवी से विभूषित अमिताभ बच्चन एक्टिंग नहीं विज्ञापन की दुनिया के सरताज हैं। जिस निष्ठा के साथ वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की कीर्ति पताका उड़ाते हैं उसी समर्पण के साथ सरकार का विज्ञापन करते हुए नहीं अघाते। वे लोभ में ऐसी कम्पनियों को भी कृतार्थ करते रहते हैं जो उनकी प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं होती। पूंजी के प्रति यह अंधभक्ति फिल्मी अभिनेताओं के साथ खिलाड़ियों में देखी जा सकती है यानी राम नाम की लूट है लूट सको तो लूट। पूंजी हमारे समय का बड़ा यथार्थ बन चुका है। अभिनेताओं की प्रतिब्द्धता का कोई अर्थ नहीं रह गया था, वे फिल्मों में जिस तरह की क्रांतिकारिता का अभिनय करते, ठीक उसके उलट अपने जीवन में होते हैं। वे किसी न किसी रूप में सत्ता के साथ जुड़े होते है। कभी–कभी वे नायक से ज्यादा विदूषक लगते हैं, अपना रंग बदलने में वे माहिर होते हैं।
वे पुराने दौर के नायक नहीं है जिनकी समाज के प्रति जिम्मेदारी होती थी, वे जिन मूल्यों को फिल्मों में स्थापित करते थे, उसी की तरह आचरण भी करते हैं। किसी भी विधा का कलाकार हो वह समाज का विपक्ष होता है लेकिन अब यह अवधारणा खंडित हो चुकी है, उनका स्वभाव दरबारी हो चुका है।
..........
बीते दिनों में एक फेस–क्रीम की बहुत चर्चा थी जो सांवले चेहरे को गोरा बनाने का दावा करती थी। इस क्रीम की बिक्री में कई अभिनेत्रियों ने विज्ञापन किया। यह दावा वैज्ञानिक रूप से असत्य था लेकिन कम्पनी ने इस प्रोडक्ट से अकूत सम्पदा कमाई। फिल्मी अभिनेता का काम सिर्फ अभिनय करना नहीं था, कारपोरेट के प्रोडक्ट को बाजार में भी बेचना था। फिल्म के अलावा टी. वी. सीरियल इस काम को बखूबी अंजाम देते हैं जिससे रेडीमेड और कपड़ों के व्यवसायियों के कारखाने चलते थे। सौदर्य–प्रसाधन की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कारोबार चलता रहता है। यह नेटवर्क अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय है। इस अंधी दौड़ में अभिनेता–अभिनेत्री अभिनय से कोसो दूर हो जाते हैं, बस वे स्टार की तरह चमकना ही जानते हैं।
फिल्मी अभिनेताओं का अधिकार–क्षेत्र फिल्मों तक सीमित नहीं रह गया था, वे टेलीविजन कें पर्दे पर अपनी जगह बना रहे थे। अमिताभ बच्चन ने कौन बनेगा करोड़पति शो से बहुत मशहूर हुए, बिग़ बास से सलमान खान को मकबूलियत मिली। टी. बी. ने ऐसे कलाकारों को शरण दी थी जो फिल्मी दुनिया में बेरोजगार हो चुके थे। लेकिन यहां भी शोषण के कई रूप थे। किसी अभिनेत्री ने अपने एक इंटरव्यू में कहा थी कि अधिकांश अभिनेत्रियों को निर्माता–निर्देशक के शयन कक्ष से हो कर गुजरना पड़ता हैं। मर्लिन मनरो ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि हालीवुड में आत्मा बेमोल बिकती है लेकिन यहां एक चुम्बन के हजारों डालर मिलते हैं।
टेलीविजन की दुनिया फिल्मों की दुनिया से कम खतरनाक नहीं है। यहां भी गिद्धों की जमात मौजूद है। जिन अभिनेत्रियों की दुकान नहीं चलती, वे देहव्यापार करने के लिए मजबूर हो जाती हैं। अखबार और चैनल ऐसी बदनसीब अभिनेत्रियों की कहानियों और आत्महत्या की खबरों से भरे रहते हैं। फिल्म और टेलीविजन के चमक–दमक चेहरे के पीछे एक बदरंग और अश्लील सच्चाई छिपी हुई है।
(24)
गोरखपुर के बाद मेरा अगला स्टेशन महराजगंज था। यह जिला 1989 में गोरखपुर जनपद से काट कर बनाया था। यह जनपद देश का सीमांत जनपद था जो नेपाल से मिला हुआ था। इस जनपद में सुनौली और महेशपुर दो बार्डर थे जिससे हो कर नेपाल की सीमा में दाखिल हुआ जा सकता था। सुनौली के पास का कस्बा नौतनवा था जबकि महेशपुर के पास का भारतीय कस्बा ठूठीबारी था। महराजगंज में खूब हरे जंगल थे जिसमें निचलौल के पास का जंगल काफी घना था, इसे सोहगीबरवा वन क्षेत्र कहा जाता है, यह वन्य जीवों का अभयारण्य था जिसका विस्तार बाल्मीकि नगर और नेपाल के रायल चितवन वन–क्षेत्र से जुड़ता थी। इसकी दूसरी सीमा बलरामपुर जनपद से लगती थी। निचलौल के इस इलाके से अलग लक्ष्मीपुर जंगल में कई झीलें और तालाब थे, उसमें तमाम रंग बिरगें पक्षी और घडियाल रहते थे। अंग्रेजों के जमाने में वहां तक पहुंचने के लिये रेलवे लाइन बनी हुई थी, वह तफरीह के लिये जंगल की कीमती लकड़ियों का ढ़ोने का काम करती थी। अब सिर्फ उसके अवशेष बचे हुए है। यह चर्चा भी कुछ दिनों से की जा रही है कि इस रेल–पथ को पुनर्जीवित किया जाय ताकि पर्यटन का विकास हो सके लेकिन पर्यटन न सरकार की प्राथमिकता है और न वह हमारे जीवन की कोई जरूरत ही है। हम सपने देखने वाले देश में पैदा हुए है- उसका हकीकत से कोई सम्बंध नहीं है।
बुद्ध का महापरिनिर्वाण स्थल कुशीनगर |
महराजगंज बुद्ध–भूमि है, इस जनपद में देवदह नाम की जगह है जिसे बुद्ध का ननिहाल कहां जाता है, यह गौतम की मां महामाया देवी के पिता का घर है। नौतनवा से भैयरहवा होते हुए लुम्बिनी भी जाया जा सकता है – उससे थोड़ी दूर श्रावस्ती भी अवस्थित है, जहां बुद्ध ने इक्कीस वर्षा–वास व्यतीत किये थे। बुद्ध का महापरिनिर्वाण स्थल कुशीनगर भी इस जगह से दूर नहीं है। इस क्षेत्र को बौद्ध–पथ के रूप में विकसित किया जा सकता है। सरकार इस तरह के पचड़े में नहीं पड़ती है – उसकी निगाह अपनी सत्ता को बचाने और बने रहने में लगी रहती है।
निचलौल के वन्य–क्षेत्र में एक पुराना डाकबंगला था जो बहुत वीरान था, ये फिंरगियों के बनाये गये डाकबंगले थे जहां वे अपनी मौज–मस्ती के लिये आते थे और शिकार खेलते थे। वे केवल हिरन और बाघ नहीं मारते थे बल्कि स्त्रियों को भी अपना शिकार बनाते थे। यह बात तय है कि अंग्रेज बहादुर अपनी रिहाइस के लिये ठिकाने खोजते रहते थे। पहाड़ की तमाम जगहों की खोज और उसे सुंदर बनाने का काम उन्होंने किया था। तराई क्षेत्र का यह बंगला उस जमाने में हिल स्टेशन की तरह था। मुख्य कमरे में देसी पंखा लगा हुआ था- उससे रस्सी बाहर निकली हुई थी जिसे नौकर खीचते रहते थे और कमरा हवा से भर जाता था। इस बंगले को हम लोग हर 31 दिसम्बर को गुलजार करते थे।
हम जीप में वीडियो- वी. सी. आर. और मनपसंद कैसेटो के साथ वाइन आदि की बोतले भी ले कर जाते थे। बिना उसके जश्न अधूरा लगता था। हम उतना ही पीते थे कि नशा बना रहे और हम भरपूर लुत्फ उठा सके। रात में वहां खाना बनाते और वीडियो देखते थे। ठंड से बचने के लिये फायर–प्लेस में आग जलाते थे। रात में जीप के साथ जंगल में विचरण करते थे। जीप की रोशनी को देख कर हिरन भागते रहते थे। हम पूरी रात जाग कर बिता देते थे। मुंहअंधेरे हम जंगल से निकल जाते थे और नये साल में प्रवेश करते थे। उसके बाद हम जनपद के आला–अधिकारियों को शुभकामनायें देने के लिये निकल जाते थे।नये साल का पहला हप्ता खुमार में बीत जाता था। बार्डर एरिया के उदार सिनेमा–मालिक मुझे उपहार में वाट – 69 या जानीवाकर उपहार में देते थे।जब प्रचलित शराब के बांडों से मन ऊब जाता तो हम उसका सेवन करते थे। तराई क्षेत्र की जलवायु से लड़ने के लिये वाईन अच्छी औषधि थी – कुछ लोगों के लिये यह दैनिक जीवन की जरूरत बन गयी थी।
नये जनपद में अफसरों के बैठने की जगहें बहुत कम थी इसलिए बाज दफ्तर किराये के मकानों में चलते थे। महराजगंज तहसील से जिला बना था इसलिए अधिकांश दफ्तर वही के परिसर में चलते थे। मेरा दफ्तर एक अंधे कुएं के ऊपर बनाया गया था जिसमें मुश्किल से एक मेज और कुछ कुर्सियों की जगह थी। जब सिनेमा मालिक आते थे उनके बैठने के लिये जगह कम पड़ जाती थी। जनपद अभी विकसित हो रहा था, दफ्तरों से ज्यादा यहा व्यापारियों की आमद हो रही थी, नयी–नयी दुकानें और शोरूम खुल रहे थे। इमारतें ढ़ाली जा रही थी, होटलों का शिलान्यास हो रहा था, भींड़ बढ़ रही थी। लेकिन हम लोग छोटी–सी बलिया नदी के किनारे के देसी होटल पर भरोसा करते थे – वह अभी बे–इमान नहीं हुआ था। पास में नदी की कलकल बहती हुई धार थी और हमारी खूबसूरत शामें और कुछ दिल बहलाने वाले लतीफे थे। शाम होते ही हम बेताब हो उठते थे और अपनी खलिश मिटाते थे।
मेरे किराये का मकान कम खंडहर ज्यादा था जैसे मैं किसी भूत बंगलें में रह रहा हूं। रात में सांय–सांय की आवाज आती थी, रात में अक्सर बिजली चली जाती थी तो शहर डरावना लगने लगता था। मेरे मकान के आसपास में झांड़–झंखाड़ थे, उसमें से किसी के कूदने की आवाजें और बिल्लियों का शोर था। तेज चलती हुई हवाओं से खिड़किया खुलती बंद होती रहती थी, इस मंजर को देख कर रह्स्य–रोमांच की फिल्मों की याद आती थी।
जनपद में छोटे-छोटे कस्बे थे जहां सिनेमाहाल चलते थे। जब शहर के बड़े हाल से फिल्में उतरती थी तो इन हालों में प्रदर्शित की जाती थी। उनके प्रिंट घिसे–पिटे होते थे – एक तरह से वे फिल्मों के जूठन थे। फिल्म की रील जब बीच में टूट जाती थी तो सिनेमा-मालिक के सात पुश्तों को तार दिया जाता था।
बार्डर के कस्बे नौतनवा और ठूठीबारी में ज्यादातर दर्शक नेपाल से आते थे। नेपाली औरतें गोल-मटोल होती थी, वे रंग–बिरंगे पोशाक में होती थीं। उनकी साज–सज्जा देखते ही बनती थी, वे इठलाती–इतराती आतीं और सिनेमा देखने के बाद सौदा–सुल्फ खरीद कर चली जाती थी। अधिकांशत: अपने प्रेमियों के साथ आती थी और इस तथ्य को छिपाती नहीं थी - वे हाथ में हाथ डाले या उनसे सट कर चलती थीं । भारत में इस तरह विरल थे। नेपाल भले ही पिछड़ा हुआ देश था लेकिन वहां का समाज खुला हुआ था। इस मामलें स्त्री–पुरूष दोनों उदार थे। भारतीय मर्द इस मंजर को देखकर ईर्ष्या से भर जाते थे और अपना दिल बहलाने नेपाल चले जाते थे।
यहां के अफसर अपने परिवार के साथ नहीं आते थे, वे अपने परिवार को किसी शहर में व्यवस्थित कर देते थे। ज्यादातर अधिकारियों के परिवार लखनऊ में रहते थे और वे वहां आते-जाते रहते थे। सिर्फ अर्थव्यवस्था ही नहीं उदार हुई थी अधिकारी भी अपने स्वभाव में उदार हो गये थे। जनपद का सबसे बड़ा हाकिम जिला मजिस्ट्रट होता था सारे महकमें उसके भीतर समाहित होते थे। उनका रोब-दाब देखते ही बनता था – महकमें के लोग उनके पीछे अपनी दुम हिलाते रहते थे और उनके कृपा–पात्र बनने की कोशिश करते रहते थे – वे उनकी दया–दृष्टि के भूखे थे। ऐसा करते हुए वे हास्यास्पद ज्यादा लगते थे।
##
जैसे पहले लिखा जा चुका है केबल टी. वी और वीडियों लाइब्रेरियो की बढ़ती संख्या का प्रभाव सिनेमाहालों पर पड़ रहा था। लोग वीडियो – वी. सी. आर . किराये पर ले लेते थे और परिवार एक साथ कई फिल्में देख लेता था, शहर में किराये पर वीडियों दिखानेवाले लोग थे। लोगो के लिये यह बड़ी सुविधा थी कि वे घर बैठे सिनेमा देख लेते थे। चोरी से नयी फिल्मों के वीडियो तैयार कर लिये जाते थे, देश–विदेश में इसका बड़ा नेट वर्क काम कर रहा था, यह सब कापीराइट के विरूद्ध था लेकिन वीडियों लाइब्रेरी के मालिक इसे छिप–छिपा कर इसका धंधा करते थे। ऐसी फिल्मों के वीडियो वे अपनी दुकान पर नहीं रखते थे। यह काम सम्बंधित लोगो से मिल कर किया जाता था। वीडियो–लाइब्रेरियों में मुझे ब्लू फिल्मों की सूचना भी मिल रही थी। इन फिल्मों के किराये महंगे थे।
ऐसी फिल्में सिर्फ नौजवान नहीं देखते थे बल्कि इस तरह की फिल्में देखने वाले अधेड़ लोग कम नहीं थी। मुझे सुनने में आया कि वीडियो–लाइब्रेरियो के मालिक इस तरह की फिल्में किराये पर देते थे लेकिन उनका पता लगाना मुश्किल था क्योकि वे दुकानों पर नहीं रखी जाती थीं। मेरे सामने यह समस्या थी, फिल्मों में दर्शक कम हो रहे थे। वैसे छोटे शहरों में नई फिल्में नहीं लगती थीं, जब वे बड़े शहरों के सिनेमाहालों से उतरती थी, तब कहीं जा कर छोटे सिनेमाहालों का मुंह देख पाती थीं। तब तक दर्शक वीडियो-लाइब्रेरी से कैसेट किराये पर ला कर देख लेते थे। कई बार पुलिस के अधिकारियों को लिखा भी गया लेकिन कुछ भी नतीजा नहीं निकला। कापीराइट में पुलिस को अधिकार मिला हुआ था, उनके सहयोग के बिना यह काम सम्भव नहीं था। विभाग की अपनी सीमा के साथ बेरूखी कम नहीं थी, वे तो परिणाम चाहते थे लेकिन विभागीय अधिकारियों को पूर्ण रूप से अधिकृत किये जाने के लिये कोई प्रस्ताव शासन को नहीं भेजते थे लेकिन परिणाम मुकम्मल चाहते थे। हमें जनपद के अन्य अधिकारियों के सहयोग से काम चलाना पड़ता था।
##
विभाग में अच्छे से अच्छे अधिकारी आते थे, बड़ी से बड़ी योजनायें सामने रखते थे लेकिन बाद में सब टाय-टाय-फिस्स हो जाता था। मुख्यालय में एक काकस काम करता था और उन्हें गुमराह करता रहता था, यही कारण था कि विभाग के ढ़ांचे में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं हो सका। इस विभाग की तुलना में अन्य छोटे विभाग की स्थिति में भारी परिवर्तन हो चुका था। महकमा राहत देने की जगह दंड-विधान को ज्यादा तरजीह देता था। हमारे बड़े अफसर कम दंडाधिकारी ज्यादा थे – कोई न कोई सजा हमारे लिये तजबीज करते रहते थे। उन्हें हमें परेशान करने में मजा आता था। उन्हें हमारा अभिभावक होना चाहिए लेकिन वे हमारे शासक थे।
यह कमाल का महकमा था, जिसमें विलक्षण चरित्र अभिनेता और प्रतिनायक थे। कभी मजाक में अपने विभाग के सीनियर अधिकारी से कहा था कि इस विभाग में इतने बड़े अभिनेता हैं कि उनसे मिल कर एक रहस्य और रोमांच की फिल्म तो बनाई ही जा सकती है। लोग बेहद अविश्वशनीय थे इसलिये सावधानी से बात करनी पड़ती थी – जिन्हें हम अच्छे लोग समझते थे। वे बला के चुगुलखोर थे और अपने चेहरे और अचानक स्वभाव बदलने में उस्ताद थे। अब इन सभी बातों का क्या रोना – जो बीत गयी वह बात गयी लेकिन पीछे मुड़ कर ये मंजर तकलीफ के साथ याद आते हैं।
शहर की वीडियो–लाइब्रेरियों का अचानक मुआयना किया, उनसे पूछताछ की लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला, अलबत्ता एक वीडियों लाइब्रेरी के मालिक ने मुझे बताया कि एक लम्बी गाड़ी से किसी आला अफसर की एक लड़की उतरी, उसने धड़ल्ले से पूछा - क्या तुम्हारे पास ब्लू फिल्म है, यह सुन कर वह सनाका खा गया। उसने अपने आप को सम्भालते हुए कहा – क्या यह कोई अंग्रेजी फिल्म है ?
.. बेवकूफ हो क्या ब्लू फिल्म के बारे में नहीं जानते , तुम तो बहुत बैकवर्ड हो।
.. क्या तुम सचमुच ब्लू फिल्म के बारे में नहीं जानते हो?
.. . सर जानता तो था ही, लेकिन कौन उस लड़की के मुंह लगे – वैसे भी मैं इस तरह की फिल्में रखने का खतरा नहीं उठा सकता हूं।
मुआइने में मेरे हाथ खाली थे लेकिन खबरे थी कि इस तरह की फिल्में मिल रही हैं। ऐसे में मेरे हाथ एक सूत्र एक आदमी से मिल गया कि अमुक लाइब्रेरी में इस तरह का वीडियो में इस तरह की फिल्में किरायें पर दी जाती थी। संयोग ही था कि मैं उस लाइब्रेरी के मालिक से परिचित था, बड़े अधिकारियों के लिये उसके यहां से हिंदी फिल्में ले जाता था। मैंने अपने स्टाप के साथ उसके एक–एक कैसेट खंगाल डाले लेकिन इस तरह के कैसेट नहीं मिले।
मैंने उस मुखबिर से कहा – उसके यहां इस तरह की कोई कैसेट नहीं मिली। उसने जो सूचना दी उससे मैं चौक सा गया, उसने बताया कि वह इस तरह के कैसेट रामायण के बालकांड सिरीज के खोल के अंदर रखता है।
दूसरे दिन जब स्टाफ के साथ उसकी दुकान पर गया तो सीधे बालकांड के कैसेट कब्जे में ले लिये और वह चौंक गया। वह मेरे पांव पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगा लेकिन मैं सख्त बना रहा – जैसे मैं उसका कलेजा निकाल कर जा रहा हूं। मेरी दुष्टता कायम रही, मैं टस्स में मस्स नहीं हुआ। मेरे अंदर एक विजय का भाव था कि अब इस बच्चू को सबक सिखाऊंगा। पूरे जिले में मेरे काम की तारीफ होगी, अखबार में नाम छपेगा – एक सांस में न जाने मैंने कितनी कल्पना कर ली थी।
मैंने डी. एम. को एक लम्बी रपट लिखी और उस मजलूम के नाम प्रार्थमिकी दर्ज करने की अनुमति मांगी।
डी. एम. एक जरूरी मीटिंग में थे, मैं उनका इंतजार करता रहा। उन्होंने मुझे बुलाया और उनके सामने कैसेट और खर्रा रख दिया। मैं सोच रहा था कि वे मेरे इस कारनामे पर शाबासी देंगे, वे मेरे कागज और कैसेट को देख कर मुस्कराने लगे।
.. यार इससे क्या फर्क पड़ेगा, लडके तो देखते ही रहते हैं – जब लोग जागरूक नहीं होगे कुछ नहीं बदलने वाला है। जब नयी तकनीक आती है इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं। चलो मैं एस. पी. को लिख देता हूं कि वे अभियान चला कर इसे बंद कराएं।
उन्होंने कैसेट और रिपोर्ट मुझे वापस लौटा दिये। उनकी बात से मेरे हौसले पस्त हो गये, मेरी सारी बहादुरी हवा हो गयी। इसी तरह की बहादुरी मैंने गोरखपुर में दिखाई थी, वहां मैं मुंह के बल गिर पड़ा था, यहां इस घटना की पुनरावृति हो रही थी। लोग कहते कि नौकरी में इस तरह की बहादुरी की जरूरत नहीं है, बस जियो और जीने दो – का फार्मूला अपनाओ तो सुखी रहोगे – दुनिया इसी तरह से चलती है। लेकिन मैं अपने महकमे के प्रति नमकहराम नहीं होना चाहता था जिसके दम से इस समाज में मेरी जगह बनी हुई थी। प्राय: हर महकमें में कसम खायी जाती है कि हम अपना काम ईमानदारी से और जनहित को ध्यान में रखते हुए करेगे लेकिन कुछ दिनों के बाद यह कसम टूटने लगती थी।
हमारे रहनुमा कितनी शिद्दत के साथ संसद में हलफ उठाते हैं लेकिन कुछ दिनों के बाद उनके कदाचार के किस्से जाहिर होने लगते हैं। उर्दू शायरी में यह बात कही जाती है कि वादे हों या कसमें, वे तोड़ने के लिये होती हैं। अब यह सार्वजनिक जीवन का आदर्श बन गया है। बड़े ओहदेदारों के पास प्रलोभन भी बड़े होते है जिसके सामने उनका चरित्र डिगने लगता है।
एक हफ्ते के बाद मुझे डी. एम. ने बुलाया और कहा कि मैं उन्हें उस तरह के वर्जित कैसेट मुहैया कराता रहूं। वे जनपद के खुदा थे और मैं उनका खादिम था – उनके हुक्म की नाफरमानी कैसे कर सकता था। मुझें यह स्वीकर करने में कोई शर्म नहीं है कि मुझे अन्य जिलों में भी यह जिम्मेदारी उठानी पड़ी थी। नौकरी में हमें अपनी आत्मा के विरूद्ध बहुत से काम करने पड़ते थे।
अब ऐसे दौर की शुरूआत हो चुकी थी कि बड़े अधिकारियों का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रह गया था। जिलाधिकारी राजनीतिक सत्ता के ईशारे पर काम करते थे। सांसद – विधायक के सामने वे झुके रहते थे और उनकी रूचि का काम करते थे। जिले का आलाधिकारी हो या जनपद का कोई राजनेता, वे जनता के सेवक होते हैं, जनता के टैक्स से वे शानदार जीवन जीते हैं लेकिन जनता हमेशा बदहाल रहती थी – चाहे जिस पार्टी की सरकार हो, उसकी नियति नहीं बदलती। जनता के तथाकथित सेवक अपने आपको जनता के साथ तानाशाह की तरह पेश आते हैं। दूर–दूर से लोग आते थे और उन्हें वादे के साथ टरका दिया जाता था।
आजादी के बाद इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है – जो व्यवस्था फिरंगियों से विरासत में मिली थी, उसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया था। आला–अधिकारियों के लम्बे–लम्बे बंगले और नौकरों-चाकरों की फौज बरकरार थी। सांसद और विधायकों की स्थिति राजाओं की तरह थी, वे विलासितापूर्ण जीवन जीते थे - जब चुनाव का समय आता, वे प्रकट हो जाते थे और येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीत जाते थे फिर क्षेत्र की ओर मुड़ कर नहीं देखते थे। मतदाताओं को धर्म और जाति में विभाजित करके उन्हें अपने पक्ष में वोट डालने के लिये मजबूर कर देते थे।
###
1991 के बाद यह स्थिति तेजी से बदल रही थी। राजनीति, नौकरशाही, डान - माफिया के बीच जो गठबंधन बन रहा था, उससे समाज की संरचना बदल रही थी। जैसे सरकार बदलती वह अपने पसंद के नौकरशाहों को चुनती थी। आजादी के कुछ वर्षॉ तक यह स्थिति नहीं थी – राजनेता समाज के मूल्यों की रक्षा करते थे। जिन पदाधिकारियों को कभी हम सम्मान की दृष्टि से देखते थे उनके प्रति लोगों का भाव बदल गया था। वे सम्मानजनक सम्बोधनो के योग्य नहीं रह गये थे – लोग उनकी पीठ के पीछे उन्हें अच्छा–बुरा कहते थे।
अपने कार्यकाल में यह स्थिति मैंने बहुत करीब से देखी थी। इस व्यवस्था में बहुत कम मनुष्य बचे थे। अधिकतर पतित हो चुके थे। उनका बर्ताव अमानवीय हो चला था, वे अपने मातहतों को बंधुआ मजदूर समझते थे। कभी–कभी तो मन बहुत ऊब जाता था, मन होता था कि इस अंधेरी सुरंग से बाहर निकल आये लेकिन जायेगे कहां? हर तरफ तो अंधेरा था। सबसे ज्यादा सुखी मूढ़ थे, यह उनके लिये सबसे अच्छा समय था, वे अपने आकाओं से तालमेल बैठा लेते थे और शान की जिंदगी जीते थे। वे हमारे सामने अकड़ कर चलते थे, न जाने किस गर्व से उनका सीना फूला रहता था। वे बिना रीढ़ की हड्डी के केचुयें थे, उन्हें झुकने के लिये जरा भी मेहनत नहीं करनी पड़ती थी।
###
इस स्थिति से बाहर निकलने का एक ही रास्ता, वह था साहित्य। पठन –पाठन के साथ लिखने का काम चलता रहता था। जिस जनपद में पोस्टिंग होती थी उस जनपद में मैं अपने जैसे लोगो को खोज लेता था। शुरू से घूमने की प्रवृति थी इसलिए जिले के इलाकों को धांगता रहता था। महाराजगंज में मेरी मित्रता के. एम. अग्रवाल से हुई, उन्होंने इलाहाबाद और लखनऊ में पत्रकारिता का लम्बा समय बिताया था – वहां से वे असम चले गये। उन दिनों नार्थ–ईस्ट क्षेत्र में उल्फा जैसे उग्रवादी संगठन सक्रिय थे। असम से बाहर के लोग वहां जा कर बस गये थे और अपना व्यवसाय कर रहे थे, उसमें कुछ सम्पन्न कारोबारी थे। उल्फा के लोग उनसे अवैध वसूली करते थे, जो उनका हुक्म नहीं मानते थे, उन्हें गोली का निशाना बना देते थे। अग्रवाल साहब वहां से जान बचा कर महराजगंज आ गये थे और हार्डवेयर की दुकान खोल ली थी। उनके अतिरिक्त वहां के कालेज के हिंदी विभाग के विजयरंजन, घनश्याम पांडेय, दरबारा सिंह से हमारी मित्रता हुई। हम सब मिलकर कोई न कोई गोष्ठी करते थे। कुछ दिनों बाद वहां के एस. पी. हमारी गोल में शामिल हो गये थे।
एक दिन बात-बात में उनसे समाज में पुलिस की भूमिका के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि पुलिस के पास कोई अलादीन का चिराग नहीं है लेकिन पुलिस को सर्वशक्तिमान कहा जाता है, जो काम समाज को करना चाहिए उसे पुलिस से करने की अपेक्षा की जाती है। मसलन एक अपराधी समाज में रहते हुए अनाचार करता लेकिन लोग उसका प्रतिरोध नहीं करते उल्टे उसे हीरो बनाते रहते हैं। नागरिक समाज के भी अपने कर्तव्य हैं – जहां उनकी शक्ति कमजोर होती है, सामाजिक संकट शुरू हो जाता है।
उनकी यह बात मुझे सही लगी। अगर समाज के सभी वर्ग अपने–अपने दायित्व का निर्वाह करें, अपराधी तत्वों के विरूद्ध एकजुट हो जाये तो स्थिति बदल सकती है। यह तो नौवें दशक की स्थिति थी, तब से अब तक दुनिया काफी बदल चुकी है। अपराधी सम्मानजनक हो गये थे, समाज से ले कर राजनीति तक उनका वर्चस्व कायम हो गया थे। जनपद में उनका प्रशासन चलता था। यही है राजनेता, नौकरशाह और माफिया का गठजोड़ जो इस समाज में घुन की तरह काम कर रहे थे, समाज का ढ़ांचा ध्वस्त हो रहा था। ये सब हमारी फिल्मों के वर्ण्य विषय भी हैं। इस तथ्य की तस्दीक करनी हो तो इधर की फिल्में सरकार, सत्या (रामगोपाल वर्मा) राजनीति, अपहरण, आरक्षण (प्रकाश झा), नायक (अनिल कपूर) का नाम लिया जा सकता है जिसमें उपर्युक्त गठबंधन साफ दिखाई देता था। सबसे खतरनाक यह है कि इन दृश्यों को महिमामंडित करके दिखाया जाता था, प्रकारांतर से इस तरह की मूल्यहीनता को सामाजिक स्वीकृति मिलती रहती थी।
प्रकाश झा |
महराजगंज अभी शहर होने की प्रक्रिया में था, उसका कस्बाईपन मुझे मुग्ध करता था। लोग गांव में सौदा-सुल्फ खरीदने आते थे। कस्बे के पास हाट-बाजार लगते थे, उसे देख कर गांव की याद आती थी, वहां बिक रही सब्जियों का स्वाद अदभुत लगता था। मिठाई की दुकानों में गट्टे और गुड़ की बुनिया बिकती थी, जलेबियां भी गुड़ की बनती थी। यह मेरी मनपंसद मिठाई थी, उनका स्वाद इतना गहरा था कि मैं भूल नहीं पाता था। लोग कहते थे कि अभी आपका देहातीपन नहीं गया। लोग सही कहते थे, अभी भी मैं देहाती और गंवई हूं। यही कारण है कि मुझे सिनेमा से ज्यादा नौटंकियों में रस आता था। सिनेमा ने नौटंकियों को हमसे दूर कर दिया था। पहले वे मेलों और बारातों में आती थीं, अब वीडियो–वी. सी. आर . ने उनकी जगह ले ली थी।
###
एक दिन जब मैं शाम के पांच बजे के बाद घर जाने की तैयारी कर रहा था, सिनेमा का मैनेजर ईश्वर एक सांवली औरत को लेकर दफ्तर में दाखिल हुआ। उस औरत को देख कर लगा कि वह जवानी में बहुत खूबसूरत रही होगी, उसके कटस बहुत तीखे थे। मैंने ईश्वर से पूछा - क्या बात है? सर ये नौटंकी की मालकिन सीता देवी हैं, यहां नौटंकी लगाना चाहती हैं। यह सुन कर मैं कुर्सी से उठ कर उनका अभिवादन करने लगा। मेरी इस हरकत से दोनों एक साथ आश्चर्यचकित रह गये।
एक जमाने में सीता देवी का रूतबा था, उनकी नौटंकी को देखने दूर-दूर से लोग आते थे। मैंने उनके महत्व के बारे में बताया तो वे भावुक हो गईं। मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि उन्हें जल्दी ही अनुमति दे दी जायेगी, नौटंकी कर मुक्त है, उसके लिये औपचारिक अनुमति की जरूरत है। दूसरे दिन फाइल लिख कर प्रभारी के पास भेज दी, वे कृतार्थ होना चाहते थे – मैंने उनसे कहा कि यह कला खत्म होती जा रही है, इसलिए आपकी यह मांग उचित नहीं है। पुलिस का नो अब्जेक्सन प्रमाणपत्र भी इसी कारण लम्बित हो गया था। मेरी व्यक्तिगत कोशिश से यह व्यवधान दूर हो गया। एक माह तक नौटंकी छूम से चली। सिनेमा वालों का दबाव था कि उनकी फिल्में नहीं चल रही हैं। मैंने उन्हें भी समझाया कि हर आदमी को अपनी रोजी–रोटी चलाने का हक है।
जब मैंने सीता देवी से कहा – आप बहुत अच्छा काम कर रही हैं - आप जैसे लोगों के दम से यह नौटंकी की कला जीवित है। मेरी यह बात सुन कर उनका चेहरा दमक गया, वह बोली आप जैसे लोग मेरी कला को सराहते हैं लेकिन मेरे बच्चे मेरे साथ मेरा नाम नहीं जोड़ते है जबकी नौटंकी की आमदनी से वे अच्छे कालेज के हास्टल में रहकर ऊंची शिक्षा हासिल कर रहे हैं – यह कहते हुए उनके चेहरे पर तकलीफ की लकीर खिंच गयी।
जब नौटंकी में एक सप्ताह का समय बाकी रह गया तो सीता देवी बोली – सर आपको कुछ इनाम देना चाहती हूं ताकि जीवन भर मुझे याद करे।
.. मुझे कोई इनाम नहीं चाहिए बस आप मुझे याद करती रहे और इस कला को जीवित रखे।
... आपको मैं कैसे भूल सकती हूं, आपने मेरी बहुत मदद की है, ऐसा कोई नहीं कर सकता। आपके महकमे के लोग किसी तरह का सहयोग नहीं करते, बस पैसा मांगते रहते हैं।
... सर अब आप मेरी बात सुनें। कल आपके साथ एक लड़की नेपाल घूमने जायेगी , आप तैयार रहिएगा। किसी को पता नहीं चलेगा, बस स्टेशन पर वह लड़की और गाड़ी आपका इंतजार करेगी।
कौन कम्बख्त ऐसे प्रस्ताव से इनकार करता।
मैंने एक दोस्त की तरह उसके साथ बुटवल में अपना दिन बिताया। मेरे व्यवहार को देखकर वह विस्मित थी – एक चोर के सामने घर खुला था लेकिन वह चोरी नहीं कर रहा था। जब मैं उससे अलग होने लगा तो उसने जरूर कहा - सर मैं आपकी शराफत (?) को जीवन भर याद रखूंगी। लुच्चों और लफंगों के समाज में आप जैसे लोग कहां मिलते हैं। यह टिप्पणी मेरे पक्ष में थी या मेरे खिलाफ, यह मैं नहीं समझ पाया था।
सीता देवी जनपद के कई जगहों पर नौटंकी का प्रदर्शन करती रहीं, उन्हें मेरे दफ्तर से अनुमति मिलती रही। नौटंकी के आशिक उन जगहों पर उनका शो देखने के लिये जाते रहते थे। वे नौटंकी की किसी लड़की को अपनी ओर से दिल दे बैठते थे – जब वह स्टेज पर आती, उसके रोल पर ईनाम न्योछावर करते रहते थे। पिंजरा और तीसरी कसम दो ऐसी फिल्में थे जिसमें नौटंकी के जीवन की वास्तविकताएं दिखाई गयी हैं। चाहे वह ‘तीसरी कसम’ का गाड़ीवान हिरामन हो या ‘पिंजरा’ का आदर्शवादी मास्टर – वे नौटंकी के बाई के आकर्षण में फंस जाते हैं।
एक समय में नौटंकी पर मनोरंजन कर लगता था। मेलों में नौटंकियों की धूम मची रहती थी – विभाग के लोग अक्सर नौटंकियों में पाये जाते थे। मेलों के अतिरिक्त छोटे शहरों और कस्बों में नौटंकी के प्रदर्शन होते थे लेकिन जैसे–जैसे इस कला पर संकट आया, इसे कर मुक्त कर दिया गया था। जो लोग इस धंधे में थे, उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं था – मुश्किल से लोगों का जीवन यापन चलता था।
इसी प्रकार सर्कस कर के दायरे में आते थे। जैसे–जैसे आमोद के साधनों का विकास हुआ, सर्कसों को नये संकट का सामना करना पड़ा। किसी शहर में सर्कस का आना एक घटना की तरह होता था। पूरा शहर शेरों और हाथियों के चिघ्घाड से भर जाता था। सर्कस का संचालन मामूली काम नहीं था। सर्कस को बाद में टैक्स–फ्री कर दिया गया लेकिन वे बहुत दिन तक चल नहीं सके। वे छोटे–छोटे ग्रूप में बट गये। सरकार ने अधिनियम बना कर जंगल के जानवरों को संरक्षित कर दिया। सर्कस के मालिकों के लिये इन जानवरों का पालना कठिन हो गया था – वे उन्हें जंगल में छोड़ दिया था। इस तरह नौटंकी के बाद सर्कस की कथा खत्म होती गयी।
सर्कस के जीवन और उसकी बिडम्बनाओं पर –‘मेरा नाम जोकर’ एक अदभुत फिल्म थी, वह जीवन के दार्शनिक पक्ष को सामने लाती है। उसका गीत – ‘ए भाई जरा देख कर चलो की याद की जा सकती हैं। इस फिल्म के बहाने राज कपूर ने अपने जीवन का फ्लेस-बैक प्रस्तुत किया था। दूसरा गीत – जाने कहां गये वे दिन कहते थे तेरी याद में पलकों को हम बिछायेगे.. बेहद मार्मिक गीत है। इस फिल्म को देख कर लगा था कि हम सब जिंदगी में एक जोकर की भूमिका में होते हैं – जो नहीं होते, हालात उन्हें जोकर बना देते हैं। इस फिल्म को देख कर मैं बहुत भावुक हो गया था और बहुत रोया था।
॥पचीस॥
महराजगंज मेरे कार्यकाल की सबसे अच्छी जगह थी। मेरा गांव यहां सौ किमी. दूर था, मैं स्कूटर से आसानी से गांव जा सकता था। गोरखपुर आसानी से आया–जाया जा सकता था, मेरे अधिकांश मित्र और सम्बंधी यही रहते थे। बोरडम से बचने के लिये नेपाल की छोटी–छोटी जगहों की यात्रा करने का सुख था। जब कभी नौतनवा या ठूठीबारी के दौरे का कार्यक्रम बनता था तो हम क्रमश: भैरहवा या महेशपुर में अपना ईधन (?) भरते थे। ये जगहें छोटी जरूर थीं लेकिन उतनी ही जीवंत थी। मेरे पास दो सेनानायक थे – एक मेरे दफ्तर के सहयोगी सुधीर सिंह दूसरे सिनेमा के मैंनेजर ईश्वर। सुधीर अच्छे खानदान से ताल्लुक रखते थे, मेरी यात्रा में नियमित साथ रहते थे – उनका उत्साह देखते बनता था। वे यात्रा के लिये नयी जगहें खोजते रहते थे, बाकी स्टाफ घोड़मुहां था। वे सब मुद्रा प्रेमी लोग थे, किसी न किसी जुगत में लगे रहते थे।
शहर में ईश्वर नाम के सिनेमा मैंनेजर थे। वे हर असम्भव काम को सम्भव बना देते थे, शाम होने के बाद वे तरंगित हो जाते थे। वे कई तालाबों के मालिक थे और हमें वहां सैर के लिये ले जाते थे। – वे हमारी प्यास बुझाते थे और मछलियां हमारी भूख मिटाती थीं। जिनके पास मछलियों के कई तालाब थे, हम वहां चले जाते थे। वहां की मछलियां हमारी भूख मिटाती थीं। इस यात्रा में मेरे कालेज के दिनों के सखा जगदीश थे जो महराजगंज कचहरी में वकालत करते थे। उनकी पत्नी को हमारी सोहबत पसंद नहीं थी, जब वे हमारी महफिल से उठ कर घर पहुंचते थे तो उनकी पत्नी उनका मुंह सूघती थी कि कही एक–दो पैग चढ़ा तो नहीं लिया है?
हमारे मकान मालिक पुराने जमाने के सांमत थे, सब कुछ लुट जाने के बाद भी उनका बांकपन बना हुआ था। कुछ जमीन–जायदाद बची हुई थी – पेशे से वे वकील थे। वे अकेले नहीं समूह के साथ पीते थे और पीने के बाद शैतान बन जाते थे। घर से सड़क तक हंगामा खड़ा कर देते थे। एक दिन जब वे मूड में थे तो मैंने कहा – भाई साहब पीना हो तो अकेले पीजिए और सो जाइए, यह रोज–रोज का हंगामा अच्छा नहीं लगता, आप इस शहर सम्मानीय नागरिक हैं..। मेरी बात सुन कर वे मुस्कराये और कहा – भयवा ऐसे मजा नहीं आता, जब तक दो पियक्कड़ो को आपस में लड़वाऊ नहीं, उस सालों को गाली–गुप्ता न दूं तो लगता है कि पीने से क्या फायदा। मुझे फिल्मी गीतकार साहिर का एक वाकया याद आया – साहिर पीने के बाद बेअंदाज हो जाते थे, उनकी भाषा असंसदीय हो जाती थी। इस बात पर उनके एक दोस्त ने एतराज किया – साहिर ने जबाब दिया कि शराब के साथ तो चटपटा तो होना ही चाहिए। यही तर्क मेरे मकानमालिक का भी था, बस भाषा का ही फर्क था।
महराजगंज प्रवास दो घटनाओं के लिये याद आता रहा है। 1992 में बाबरी मस्जिद का ढ़ांचा टूटा था। जगह–जगह कारसेवकों को अस्थायी जेल में बंद किया जा रहा था। गोरखपुर में रोडवेज के वर्कशाप को अस्थायी जेल का रूप दिया गया था। मुझे उस अस्थायी जेल का जेलर बनाया गया था, उसके लिये मुझे बाजाफ्ता ट्रेनिंग दी गयी थी। कारसेवक सैकड़ों की संख्या में थे। वे जयश्रीराम का नारा लगाते थे और अयोध्या जाने के लिए व्यग्र थे। उनके स्वर बेहद आक्रामक थे। यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि बहुत से अधिकारी कारसेवकों का समर्थन कर रहे थे, वे नहीं जानते थे कि यह धर्म और राजनीति का एक खेल है। राम ने अपने जीवन में आदर्श की जो स्थापना की थी, कारसेवकों का आचरण उसके विरूद्ध था लेकिन धार्मिक उन्माद सारी नैतिकताओं को ध्वस्त कर देता था। जिस अधिकारी से मैं अपनी बात कहता था, वह मुझे हिंदुत्व का दुश्मन समझने लगता था। पढ़े–लिखे लोग अपनी सोच में इतने जाहिल होंगे तो इस समाज का अल्ला ही मालिक है।
मैंने अपने अनुभव के लिये कारसेवकों से दोस्ती कर ली थी। शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था, मेरे पास कर्फ्यू-पास था, मैं उनके लिये जरूरत की चीजें मुहय्या कराता रहता था। शहर के लोग उनके लिये फल-फूल लाते रहते थे, जिसके पास साबुत दांत नहीं था, उन्हें चाकू की जरूरत थी। कुछ खैनी और गुटका के शौकीन थे। ये सब चीजें उन्हें मुहय्या कराता रहता था – ये सब जरूरत की वस्तुएं शहर के कोने-अतरे की दुकानों में मिल जाती थीं।
###
एक दिन रात में बहुत हंगामा हुआ, कुछ लोग पी कर बवाल मचा रहे थे, इल्जाम यह भी था कि कुछ लोगों ने रात के अंधेरे में एक किशोर लड़के के साथ अनाचार किया है। फिर मेरी पेशी हुई कि कैसे मेरे रहते शराब का पाउच कारसेवकों के पास पंहुचा , तफ्शीस में यह पता चला कि पूडी और तरकारी के बीच में पाउच को छिपा कर भेजा जाता था। राम नाम का नारा लगाने वालों का यह चरित्र था – वे हमारे सामने नंगे हो चुके थे। इस खबर को अखबारों से छिपाया गया। जब मैंने हिंदुत्त्व की वकालत करने वाले अधिकारियों से इस घटना के बारे में बताया तो वे बगलें झांकने लगे। हिंदुत्त्व से मेरी कोई शिकायत नहीं थी लेकिन उसकी जिस तरह से संकीर्ण व्याख्या की जा रही थी – मैं उसके खिलाफ था।
जब आगे चल कर जब चुनाव हुआ तो कई कार सेवक सांसद और विधायक हो चुके थे, कुछ ने तो मंत्री का पद सुशोभित किया था। जनता की इस आंदोलन के प्रति स्वीकृति थी। राजनैतिक परिदृश्य बदल चुका था, यह सब ध्रुवीकरण के कारण सम्भव हुआ था। आगे चल कर राजनीति में कई नये प्रयोग हुए । धर्म और जाति को लेकर कई तरह के विभाजन हुए। हर एक पार्टी अपना–अपना वोट बैंक बना रही थी, समाज में समरसता और भाईचारा गायब हो रहा था। राजनीतिक पार्टियों का मूलचरित्र एक जैसा था, सबका लक्ष्य एक ही था – वह था सत्ता पर येन-केन-प्रकारेण काबिज होना। जिस तरह के लोग राजनीति में आये थे, उनका जनता से कोई भी मतलब नहीं थी – बस उन्हें सिर्फ चिड़ियां की आंख दिखाई देती थी। अर्जुन के हाथ में तो तीर–धनुष थे लेकिन इनके हाथ में बंदूकें आ चुकी थीं। भारतीय राजनीति में धृतराष्ट्रों की कमी नहीं थी – किसी के पास पुत्र–मोह तो किसी के पास सत्ता लोलुपता थी।
इन सब स्थितियों और विभागीय यंत्राणओं के कारण मैं मानसिक रूप से थक चुका था। मैंने अपने प्रभारी से एक सप्ताह की छुट्टी के लिये अर्जी डाली तो उन्होंने कहा कि तीन दिन की छुट्टी मेरी ओर से ले लो और ठीक से घूम आओ। उनकी यह उदारता मेरे समझ में नहीं आयी। उन्होंने कहा कि तुम मेरे लिये मुम्बई से तीन सी.डी शर्ट ले आना। मैं सी. डी. शर्ट से परिचित नहीं था, उन्होंने मुझे बताया कि यह रेडीमेड शर्ट की मशहूर दुकान है। मुझे लगा यह सौदा मंहगा नहीं है, छुट्टी देने के मामले में अधिकारी लोग बड़े कमजर्फ होते है जैसे अपने जेब से वे छुट्टियां दे रहे हों।
मुम्बई में मैंने दादर के एक होटल में कमरा लिया। मेरे होटल के सामने एक पुल था, मुझे याद आया कि उर्दू के मशहूर अफसानानिगार कृश्नचन्दर ने एक अदभुत उपन्यास – दादर पुल के बच्चे-लिखा था। मैंने देखा कि मुम्बई में दो तरह की दुनिया है, एक अमीरों की है और दूसरी गरीबों की। ये मजलूम लोग अमीरों के कोठियों की साज-सज्जा करते हैं, उनके फैक्टरियों में अपना हाड़–मांस गलाते है और दो जून की रोटी के लिये मुंहताज रहते हैं। मैंने उन्हें रात में फुटपाथों पर सोते हुए और पुलिस को पैसा वसूलते हुए देखा है। उनकी झुग्गी–झोपडियों के बीच में शानदार इमारतों को इठलाते हुए देखा है। इन कम्बख्तों को चैन की नींद कैसे आती होगी। यह मुम्बई का बदरंग चेहरा था जिसनें मेरी आत्मा को झकझोर कर रख दिया था। गगनचुम्बी इमारते और भागती हुई लम्बी–लम्बी मंहगी गाड़ियां और मुम्बई की लोकल ट्रेनें इस शहर के दृश्य थे।
बहुत सारे लोगों को शहर की तड़क–भड़क बहुत पसंद आती है। गगनचुम्बी इमारतें, सर्पिल सड़कें, आधुनिक पोशाकों में लहराती हुई लड़कियां और टूटी–फूटी अंग्रेजी भाषा में अपना अधकचरा ज्ञान बघारते लोग। यह कुछ भी मुझे असली नहीं लगता- सब कृत्रिम और मायावी लगता है। जैसे हम शहर में पहुंचते हैं, तो शहर हमें लूटने के लिये तैयार रहते है। यहां ठगहारों की एक दुनिया बसती है। सरकारी दफ्तरों के तिलिस्म का क्या कहना – वे तो बधस्थल की तरह होते है – हमें हलाल करने की जुगत में लगे रहते हैं। मुम्बई कमोवेश मुझे ऐसा ही शहर लगा लेकिन इन्ही शहरों के बीच कुछ लोग अपनी लौ जलाये रहते हैं। ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम होती है लेकिन शहर ऐसे लोगों से जाना जाता हैं।
यह वृतांत लिखते समय मुझे रसूल हमजातोव की किताब –‘मेरा दागिस्तान’ की याद आ रही है। इस किताब में रसूल ने अपने कवि पिता हमजात के हवाले से मास्को के बारे में लिखा है ...ऐसा लगता है कि मास्को में आग नहीं जलायी जाती क्योंकि यहां के घरों की दीवारों पर उपले पाथने वाली औरतें नहीं दिखाई देती। मास्कोवासी अपने छतों पर घास नहीं सुखाते तो अपनी गायों को क्या खिलाते होंगे।
मुम्बई को देख कर मुझे ऐसी ही अनुभूति हुई। जब मेरे मुखिया दादा जब शहर में पहली बार बरदही बाजार में बैल खरीदने गये तो उन्होंने शहर के बारे में ऐसे ही विचार प्रकट किये थे – जो हमजात से रसूल से अभिव्यक्त किये थे।
यह जून का महीना था, बारिश हो रही थी लोग छातें के पीछे छिपे हुए थे। लड़के और लड़कियों के चेहरे नहीं उनके हिलते हुए नितम्ब दिखाई दे रहे थे, वे आकृष्ट भी करते थे। कभी-कभी वे छातों के बाहर निकल कर बारिश का मजा लेते थे। मैंने भी सुमन सुकुमारी के साथ उस बिम्ब को दोहराने की कोशिश की। यह दृश्य देख कर मुझे राजकपूर की फिल्म ‘बरसात’ का चिरपरिचित का मंजर याद आया। शहर में हर दिशा की ओर भागते हुए लोग थे और लोगों का सैलाब था, कहीं कोई सम्वाद नहीं था, बस चारों तरफ शोर ही शोर था, इस शोर की कोई आवाज नहीं थी। सबसे अच्छी जगह था, वहां का समुद्र–तट लेकिन पर्यटकों ने उन्हें भरपूर गंदा कर दिया था। हम नदियों और समुंदरों की पूजा तो करते है लेकिन उन्हें स्वाभाविक नहीं रहने देते। मैंने सुमन सुकुमारी के साथ समुद्र तट के कुछ फोटोग्राफ लिये ताकि अपनी यात्रा की याद बची रहे।
फिल्मी स्टूडियो और सितारों से मिलने की कत्तई इच्छा नहीं थी, वे मेरे काम और आकर्षण की वस्तु नहीं थे लेकिन एक ऐसा वर्ग था जो सबसे पहले स्टूडियो जा कर अभिनेताओ/अभिनेत्रियों के साथ अपना फोटो जरूर खिचवाता था और उसे किसी देवी–देवता के चित्र की तरह अपने बैठकों में सजाता था। मैं मनोरंजन के महकमें का मुलाजिम था लेकिन मेरी जरा सी दिलचस्पी नहीं थी।
मेरा दूसरा काम था अपने बास के लिये सी. डी. शर्ट खरीदना। जब मैंने होटल में सी. डी. शर्ट के बारे में पूछा तो पता लगा कि इसका शोरूम कोलाबा में है। कोलाबा पहुंचने के बाद उस शोरूम को देख कर दंग रह गया, वह विशाल शोरूम था जो कई एकड़ में फैला हुआ था। हर काउंटर पर खूबसूरत लडकियां और काऊब्याय की तरह सजे–धजे लड़के थे। शर्ट की शुरूआत साढ़े तीन सौ रूपये से शुरू होती थी, इतने में तो एक शर्ट–पैंट बन सकती थी। मैंने दो शर्ट अपने लिये और दो बास के लिये खरीदी। अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिये मैंने सी.डी, शर्ट के बारे में पूछा तो पता चला कि सी. डी. शर्ट का फुलफार्म चिराग दीन शर्ट है, इसकी देश में कोई शाखा नहीं है। एक सीमा से ज्यादा शर्ट नहीं खरीदी जा सकती है।
सम्पर्क
स्वप्निल श्रीवास्तव
510- अवधपुरी कालोनी – अमानीगंज
फैज़ाबाद – 224001
मोबाइल -09415332326
बेहतरीन संस्मरण।
जवाब देंहटाएं