कैलाश बनवासी का उपन्यास अंश 'सुख का अथाह नीला समुद्र…'
कैलाश बनवासी |
प्यार शब्द हो कर भी एकमात्र शब्द नहीं। बल्कि यह एक सार्वभौमिक अनुभूति है। सार्वभौमिक होते हुए भी इसकी निजता अदभुत है। प्यार में डूबा इंसान इसे अपनी तरह से ही महसूस करता है। प्यार में होना ज़िन्दगी के उन खूबसूरत पलों में होता है जो सचमुच सुखद, सुन्दर, सुकूनदेह, पीड़ा से भरा हुआ, अव्याख्येय और अनिर्वचनीय होता है। इसमें डूबा हुआ इंसान और... और... और डूब जाना चाहता है। यह कहीं भी, किसी भी वक्त, किसी के भी बीच हो सकता है। इसे पढ़ने और इसका अहसास करने के लिए आपको कैलाश बनवासी के नए उपन्यास से होकर गुजरना पड़ेगा। कैलाश बनवासी ऐसे रचनाकार हैं जिनकी रचनाओं को पढ़ते हुए जीवन से हो कर गुजरने का, कह लीजिए जीवन में डूबने का सुखद अहसास होता है। वह जीवन जिसमें प्यार जैसे सुरमई रंग और अंदाज़ भी होते हैं। और यहीन रंग और अंदाज़ तो जीवन को विशिष्ट बनाते हैं। कैलाश बनवासी का दूसरा उपन्यास 'रंग तेरा मेरे आगे' सेतु प्रकाशन से प्रकाशित होने वाला है। उपन्यास की अग्रिम बधाई देते हुए आज हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं कैलाश बनवासी का उपन्यास अंश 'सुख का अथाह नीला समुद्र'।
सुख का अथाह नीला समुद्र…
कैलाश बनवासी
शाम के चार बज रहे हैं। फ़ंक्शन ख़त्म हो चुका है, कोई एक घंटे पहले। कार्यक्रम वैसे ही बढ़िया ढंग से निपट गया जैसे अमूमन इस तरह के कार्यक्रम निपटते हैं—अतिथियों द्वारा दीप-प्रज्वलन, माल्यार्पण, अतिथियों का स्वागत, उनके प्रेरक उद्बोधन, विद्यार्थियों के सांस्कृतिक कार्यक्रम, समापन।
लेकिन कार्यक्रम में जो हुआ वह नितांत अप्रत्याशित था। सुनील को अभी भी इस पर जैसे विश्वास नहीं हो रहा। इससे अलग,वह एक उद्विग्नता में घिर गया, बहुत ज़्यादा। और उसे समझ नहीं आ रहा था अब क्या करे।
कार्यक्रम के आरम्भ में पूजा-अर्चना के बाद, पूरा मास्टर-ट्रेनर्स स्टाफ़ मंच पर था, हर बार की तरह। ट्रेनी टीचर्स सभी का पहले हार या गुलदस्ते से स्वागत करते हैं, फिर कुछ और औपचारिकताओं के बाद उनकी तरफ़ से कुछ स्मृति चिन्ह भेंट किए जाते हैं। संचालन लोकेश्वर वर्मा नाम का शिक्षक कर रहा था। हुआ ये कि मास्टर-ट्रेनर्स के व्यक्तिगत स्वगत के लिए वह किसी न किसी प्रशिक्षार्थी का नाम ले कर बुला रहा था। वह बुरी तरह चौंक गया, बल्कि एक अजीब-सी झुरझुरी से भर गया, जब उसके स्वागत के लिए लोकेश्वर ने उसका नाम पुकारा —नसीम खान...।
सामने बैठे सारे स्टूडेंट्स में हलचल मच गयी। एक रोमांच फ़ैल गया। वे दबे-दबे से हंसने- मुस्कुराने लगे, और जब वह गुलदस्ता ले कर आगे बढ़ी, उत्साही लड़के अपने मोबाइल से फोटो खींचने लग गए। नसीम ने बिना किसी संकोच के बहुत सहज भाव से उसका स्वागत किया। वह कुछ शर्मिंदा हुआ। लगा यह जान-बूझकर किया जा रहा है, शरारतन...। यह - उनके बीच के सम्बन्ध - इतना सार्वजनिक हो जाए, उसने कभी भीं नहीं चाहा। एक तरह से यह उससे अधिक नसीम की बदनामी थी, जो वह किसी सूरत में नहीं चाहता था।
इस मानसिक झटके से वह अभी उबरा भी नहीं था, कि पांच मिनट के बाद जब उसे स्मृति-चिन्ह भेंट करने का समय आया, संचालक ने फिर उसी का नाम लिया।।।
पहले जो एक रोमांच था, अब थोड़ी फजीहत-सी लगने थी...। ‘उसे बिलकुल बुरा लगा होगा...।’
उसने देखा था,स्टाफ़ सहित सभी एक विशेष मुस्कान मुस्का रहे थे।
जैसे ही कार्यक्रम ख़त्म हुआ, उसने लोकेश्वर को भीड़ से अलग से एक कोने में बुलवाया। यों वह बहुत सिंसियर लड़का है। किसी लंद-फंद में नहीं, पढ़ाई में हमेशा गंभीर ही देखा है उसे।
“ये तुमने क्या किया?” उसने पूछा।
वह समझा ही नहीं। उसने कहा, “हाँ सर, भास्कर सर की मिमिक्री कुछ फूहड़ हो गयी थी , स्तरहीन....।”
“अरे, मैं उसकी बात नहीं कर रहा हूँ !” उसने नाराज़गी से कहा, “तुमने आज मेरा स्वागत दो बार उसी लड़की से करा दिया?”
वह अभी भी इन सबसे एकदम अनजान था। समझ नही पा रहा था, इसमें दिक्कत क्या है? “वेरी सॉरी सर, मुझे तो कुछ भी नहीं मालूम। सांस्कृतिक प्रोग्राम वालों ने मुझे जो लिस्ट दी थी, सर, मैंने वही पढ़ा है। अपनी तरफ़ से मैंने कुछ भी नहीं किया है।”
सांस्कृतिक प्रोग्राम वाले? इसके कर्ता-धर्ता आठ-दस लड़कों का ग्रुप है। वह किससे कहे?
सुनील ने कहा, देखो, मेरा इससे कुछ नहीं बिगड़ेगा। पर वह लड़की है। इससे उसके बारे में लोग कुछ भी उल्टा-सीधा सोच लेंगे,जो मैं बिलकुल नहीं चाहता।”
“पर सर,आप मेरा यकीन कीजिए, मैंने जानबूझकर कुछ नहीं किया है।”
“पर बात तो यही आ रही है। जाओ, तुम उसके पास जा कर पर्सनली मिलो। और यही बात बताओ, कि यह संयोगवश ऐसा हो गया।
“यस सर, मैं जाता हूँ। सॉरी सर, हम लोगों का ऐसा कोई इरादा नही था। सर, मैं, लड़कियों के मामले में एकदम दूर रहता हूँ।”
“जा कर मिलो, और मिल के मुझे रिपोर्ट करो।”
“यस सर।” वह घबराया-सा तुरंत चला गया।
आज दिन भर की इस गहमा-गहमी और व्यस्तता के बाद थोड़ी मानसिक थकान सब पर हावी हो चली थी। सो सभी स्टाफ़ रूम में बैठे चार बजे की चाय का इंतजार करते रिलैक्स मूड में थे। पुन्नी बाईस्कूल के किचन में सबके लिए चाय बना रही थी। हम बारह मास्टर ट्रेनर्स और डायरेक्टर अग्रवाल सर के बीच आज के कार्यक्रम की चर्चा चल रही है, हलके मूड में। अग्रवाल बहुत खुश है। सांसद और जिला शिक्षा अधिकारी दोनों ने ही उसके सेंटर नियंत्रण और संचालन की बहुत तारीफ़ की थी। इस समय वही सबसे ज़्यादा बोल रहा है।
“यार, ये जोशी सर को नहीं भी बुलाओ तो भी साला साहब के साथ लटक कर पहुँच जाता है। और ढीठ इतना कि साहब के बगल वाली कुर्सी पर ही बैठेगा। साहब उसको सौजन्यता में कुछ बोल नहीं पाते। मुझको बुला कर कान में कहा, इसको हटाओ, और बगल में तुम बैठो!
बघेल बोला, “अरे,वो तो स्टेडियम में होने वाले 15 अगस्त और 26 जनवरी वाले कार्यक्रमों में भी स्टेज में बैठा नज़र आता है।”
“वो साला अपने आपको हर जगह प्रिंसिपल ही समझता है।”
“भले उसके स्कूल वाले ही उसको प्रिंसिपल ना माने!” शुक्ला ने कहा।
“ये उसकी जन्मजात बीमारी है।” विक्रम नाथ सर ने कहा।
“बीमारी नहीं, चमचागिरी है, और क्या? अपने को समझ नहीं आता क्या? वह साला मंत्री का साढू भाई है, इसलिए कुछ बोलते भी नहीं बनता साहब को।’’ अग्रवाल बता रहा है, “किसी तरह मैंने उनसे निवेदन किया, --‘सर, आप थोड़ा इधर आ जायेंगे...। कुछ बात करनी है।’ तब कहीं जा के हटा साला!”
“अपने यहाँ भी नमूनों की कमी नहीं है!” प्रसाद सर ने व्यंग्य किया।
सब हंसने लगे।
लेकिन वह इस हँसी-मजाक में शामिल होते हुए भी शामिल नही था। मन से अनुपस्थित। नौकरी करते हुए ऐसी कितनी ही चीज़ो का दिखावा करना पड़ता है। खासकर ऐसे विभागीय टाइम-पास के समय। उसे एक बात तो इस उम्र के आते-आते साफ़ हो गई है, कि इनके जीने का ढंग और है, उसका कुछ और। इसलिए इनके पद, पैसा, प्रभाव, पहुँच, सुविधा वगैरह के रास्तों में उसे नहीं आना है...। साथ उतना ही निभाना है जितना ज़रूरी है। इनके ऊपर उसे टीका-टिप्पणी भी नही करनी है, क्योंकि उसके यहाँ होने के पीछे अग्रवाल या बघेल की सहमति और भरोसा है। उसके स्वभाव को भी ये थोड़ा-बहुत समझते हैं।
वह किसी और सोच में खोया था, अपनी ही दुविधा और बेचैनियों में।
वह दरअसल इस समय यहाँ से निकलने की फ़िराक में था, और बहुत ज्यादा बेचैन। एक काम करना था, जो उसकी समझ से आज हो जाए तो बहुत बेहतर। प्रभाकर ही है जो ग्रुप में कंप्यूटर का काम जानता है। कंप्यूटर में काम करते हुए वह अक्सर संगीत सुना करता है। इस ग्रुप में एक वही है, जिसकी सोच और दृष्टि उतनी पॉलिटिकल और सुविधावादी नहीं है, फिर थोड़ी साहित्यिक समझ भी रखता है। उसके कंप्यूटर में कुछ फ़िल्मी गानों के और कुछ जगजीत सिंह की गज़लों के बेहतरीन इंस्ट्रुमेंटल डले थे। ये सॉफ्ट संगीत इतने कर्णप्रिय, मोहक और अच्छे थे उसने प्रभाकर से कह कर इसकी दो सी. डी. तैयार करवा ली-- एक अपने लिए, दूसरी नसीम के लिए। इधर उसकी मनोदशा कुछ ऐसी हो गयी है कि बगैर उसके वह किसी भी चीज़ बारे कुछ भी सोच नहीं पाता। लगता है, कि उसके सारे निर्णय भीतर से उसकी सहमति से हो रहे हैं। इन्हें सुनते ही लगा था, इसकी एक कापी उसको देनी है। ...और वही सी डी उसके बैग में थी। और कुछ किताबें, जिन्हें ले कर वह सोचता है कि उसे पढ़नी ही चाहिए। जैसे चेखव की कहानियाँ, तुर्गनेव के उपन्यास...। जो उसे बेहद प्रिय हैं, और वह इस ख़याल से ही एकदम रोमांचित होता है कि नसीम इन्हें पढ़ रही है। खासतौर पर चेख़व की उसकी कुछ बहुत पसंदीदा कहानियाँ--’एक कलाकार की कहानी’ या ‘दुल्हन’, या ‘ए लेडी विद अ डॉग’, और तुर्गनेव के ‘आस्या’ या ‘प्रथम प्रेम’...। वह सोचता है, इन्हें पढ़ने से मनुष्य के भीतर ताज़ा फूलों के सुगंध की तरह जैसी कोमल प्रेमिल भावनात्मक तरंगे सृजित होती हैं; उन्हें सिर्फ़ ऐसी किताबें ही सर्जित कर सकती हैं। किताबें उन अहसासों को देर तक न सिर्फ़ आपके भीतर बनाये रखती हैं, बल्कि सार्थक सोच भी देती हैं, और हमें गढ़ती हैं—सर्वथा एक नए मनुष्य के रूप में!
सुनील नसीम को मानो नए सिरे से गढ़ना चाहता है।
किसी बहाने से जब वह वहाँ से उठा, तो स्टाफ़ के कुछ सदस्यों की नज़रें उस पर ठहरीं- एक चिर-परिचित संदेह--जिसका वह इधर आदी हो रहा है। संभव है इस सम्बन्ध में कुछ ख़बरें इन्हें अपने स्रोतों से मिल गई हों। यों जब से लोगों को उनकी निकटता की जानकारी हुई है, उसे लगता है, उसके हर क़दम पर ख़ुफ़िया नज़र रखी जा रही है, प्रकट भले ही कुछ और करें...। इसका भी लोगों का अपना एक मज़ा है जिसे लेने से तुम उन्हें रोक नहीं सकते। और ख़ुद के लिए भी यह बड़ा रोमांच है, थ्रिल है! इनके बीच आजकल सुनील सबसे ज़्यादा संदिग्ध है। लेकिन लगा, उसके लिए आज इनके ‘सी सी कैमरों’ के जोखिम उठा कर भी मिलना ज़रूरी है। आज वह हर हाल में उसे वे किताबें और सी. डी. दे देना चाहता था। उसके भीतर वही बेचैनी और धड़धड़ाहट... कि कोई ट्रेन फुल स्पीड से गुज़र रही हो... ।
आख़िरकार वह उनकी परवाह किए बिना अपना बैग लटका कर एक झपाटे से स्टाफ रूम से बाहर निकल आया।
स्टाफ़ रूम के सामने एक लम्बी संकरी गैलरी है। इस गैलरी में सामने-स्कूल प्रांगण की ओर- दीवार है, जिसमें बीच-बीच में एक-एक ईंट की छोटी-छोटी जगह छोड़ कर हवा आने-जाने का रास्ता रखा गया है, वहीं, इस पर खड़े हो कर इन नन्हें झरोखों से प्रांगण को देखा जा सकता है। इन्हीं झरोखों से वह अभी देख रहा था : सबका खाना लगभग हो चुका है, कैटरिंग वाले टेबल से बर्तन आदि समेटने में लगे हैं, लड़के-लड़कियां कार्यक्रम के तनाव से मुक्त होकर रिलैक्स-भाव से अपने झुंडों में बैठे हैं, गपियाते, हँसी-मजाक करते। ऐसे समय, लड़के-लड़कियों के आपस में इतने सहज हो कर घुल-मिल कर बातें करने या हँसने से, जाने कहाँ से, न चाहते हुए भी उसके भीतर कहीं सोयी हुई इर्ष्या जाग जाती है कि यार, देखो, इनके ही बड़े मज़े हैं! हमारे समय में - 20-22 साल पहले - तो शहर में लड़कियों को सीधी नज़र से देख लेना ही बहुत बड़ा पाप हो जाता था! लड़के-लड़कियों को आपस में घुलने-मिलने तो छोड़ो, बात करने का ही कोई अवसर ही नहीं होता था। सब कुछ मन के भीतर दफ़न हो के रह जाते थे! एक-दूसरे से दूर रहने से कितनी ही इच्छाएँ धीरे-धीरे मर्दवादी कुंठाओं में बदल जाती थीं। और लड़कियों को भी आज की तुलना में कितना ज़्यादा समझौता करना पड़ता था! बदली हुई स्थितियों ने नयी पीढ़ी को आपसी मेलजोल का जो मौका दिया है, यह उसी का परिणाम है कि इनके सम्बन्ध ज़्यादा स्वस्थ, जीवंत और कुंठारहित हैं। उस संग-साथ के अभाव से जन्मी कुंठायें संस्कार बन कर आज भी उसके या उसकी पीढ़ी के लोगों के दिल-दिमागों पर काबिज़ हैं। अभी स्टाफ़ रूम में उसके जो कलीग बैठे हैं, उनकी घटिया सोच इन्हीं कुंठाओं से उपजी हैं। और उसे यह बात अपने भीतर बहुत कचोटती रहती है, कि अपनी आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक स्थितियों, और इनसे उपजी तमाम ऊट-पटांग, ऊल-जलूल स्त्रीविरोधी धारणाओं के कारण लड़कियों से बात करने के मामले में वह कभी सहज नहीं रह पाया...। ये कमी आज तक चली आती है। ’जेंडर गैप’ कम ही नहीं हो पाया! और इन्हें देखो। ये उस कॉम्लेक्स से काफी हद तक मुक्त हैं। सहज भाव से आपसी हँसी-मज़ाक में मस्त।
कहीं तुम अपनी इन्हीं अधूरी इच्छाओं की पूर्ति के लिए नसीम से तो नहीं जुड़ रहे हो? तत्क्षण एक ख़याल कौंधा..। ’शायद हाँ’...। ’शायद ना’...। वह अभी कुछ तय नहीं कर पाया।
कहाँ है ? वह नहीं दिखी तो सुनील बाहर चला आया।
लड़के-लड़कियां फाइबर की लाल कुर्सियों पर अपने ग्रुप में बैठे बातचीत में लगे थे। नसीम की तलाश में उनके बीच से गुज़रता हुआ उनसे औपचारिकतावश पूछ रहा है -- हो गया आप लोगों का खाना...?
--यस सर।
--खाना ठीक था...?
--बढ़िया था, सर! ...आपका हो गया?
उसे लग रहा था,जितना दिखावा वह कर रहा है, कमोबेश उतना ही वे भी। यह नयी पीढ़ी है। उसकी पीढ़ी की तुलना में सब कुछ ज़्यादा तेज़ी से जान लेने वाली। ज़्यादा स्मार्ट। सुनील ने जान लिया, इन्हें आभास हो गया है, सर बाहर निकले हैं तो संभवतः अपने ‘उसी’ को ढूँढने। इसे छुपाया नही जा सकता। ‘इश्क़ और मुश्क़ कदे ना छिपदे जे चाहे लक्ख छिपाइए!’ वह उसी को ढूँढ रहा है--यह सच अब इनके बीच मानो एक खुली किताब हो चुकी है। इसलिए उसने भी अब इसे और छिपाने की ज़रुरत नहीं समझी। वह उसी को ढूँढ रहा था।
वह दिख गयी...। बायीं तरफ के कोने में अपने ग्रुप के साथ बैठी थी।
सुनील उधर ही बढ़ गया। एक ढिठाई... एक बेशर्मी... या दुस्साहस...? मन में उठते इन सब बातों को पीछे छोड़। फिर लगा, उससे कहूँगा क्या? और उसके ग्रुप को यों अपनी आकस्मिक आमद से बेमतलब डिस्टर्ब करना...? क्या यह ठीक होगा? और क्या जिस शिद्दत से मैं उससे अभी मिलना चाह रहा हूँ, क्या इतनी शिद्दत से वह भी...? फिर उसे बात करने बुलाया कहाँ जाये...?
स्टाफ़ रूम वाली लम्बी गैलरी का एक दूसरा दरवाज़ा इस तरफ़ है,जहां ये बैठे हैं। वहाँ कुछ पुराने बेंच-डेस्क जाने कब से धूल खाते कबाड़ सरीखे पड़े हुए हैं। इधर से कोई आता-जाता भी नहीं है। उसने तय कर लिया। उसे यहीं बुला कर बात करेगा।
नसीम ने उसे देखा तो एक मुस्कराहट उसके चेहरे पर उभरी। इस बात ने मानो सुनील की इच्छाओं और संभावनाओं को और हवा दी। मिला जा सकता है। वैसे भी उसने आज सुबह की बातचीत में सबसे छुपा कर उससे धीरे से कहा था, ’तुम्हें बाद में मिलता हूँ...। आज तुम्हें कुछ देना है...।’
वह उसके आने का सबब जान गयी है।
उसने कहा, ‘नसीम, तुम ज़रा आओ।’
उसे नहीं पता था कि यह उसका साहस था कि दुस्साहस। पर यह सुनील से ज़्यादा उसका था। कि वह तुरंत उठी और उसके पीछे हो ली।
उस कम ही खुलने वाले लकड़ी के पुराने, धूप-बारिश से सड़ते किवाड़ के दोनों पल्लों को खोल वे इस पार आ गए। पल्लों को उसने पूरा बंद नहीं किया, ज़रा सा खुला रखा। गैलरी में इस तरफ़ अपेक्षाकृत कम प्रकाश था। जालीदार झरोखे दीवाल के इस भाग में नहीं हैं। अँधेरा नहीं है, लेकिन बाहर जैसी चमकदार, चुभने वाली रोशनी यहाँ अप्रवेशित है। एक बेंच-डेस्क की धूल रूमाल से झाड़ कर उसने उससे बैठने को कहा। इसी के साथ उसने महसूस किया, गर्द के साथ-साथ यह कोना अपने उपेक्षित होने के चलते पुरानेपन की सीलन की अजीब गंध से भरा है...। एक पल को ख़ुद पर गुस्सा आया—क्या जगह छाँटी है! लड़की की तो तबीयत खुश हो गयी होगी...?
आज वह पहली बार उसके साथ यों अकेले मिल रहा था। ऐसे कठिन, नाज़ुक वक़्त में उसे क्या कहना चाहिए, जब कुछ पल सोचने के बाद समझ नहीं आया तो वह सीधे मुद्दे पर आ गया, और बैग से सी डी और वे दो किताबें निकाल लीं, “...दरअसल, ये तुम्हें देना था...।”
वह घबराया हुआ था, न जाने इस भेंट पर उसकी क्या प्रतिक्रिया हो...।
पर उसने मुस्कुरा कर कर उन्हें अपने भूरे रंग के बैग में रख लिया, “थैंक्यू सर...।”
“इन्हें पढ़ना... और इस सी. डी. को सुनना... अच्छा लगेगा तुम्हें... मुझे तो बहुत पसंद है...” वास्तव में उससे कुछ कहते नहीं बन रहा था। किसी तरह से कहा।
“बिलकुल सर। आप देंगे वह अच्छा कैसे नहीं होगा...?” वह बिलकुल सहज अपनापे से मुस्कुराई। उसने नोटिस किया, उसकी आँखों में इस समय जो चमक है, वह उससे कुछ अधिक ही है जो वह कक्षा में उसमें देखता आया है...। मुस्कान ज़्यादा अर्थपूर्ण और गहरी है...। एक भरोसे से भरी हुई...। हालांकि उसके चेहरे पर दिन भर की थकान का बोझिल पीलापन उतर आया था, इसके बावजूद इस मुस्कान का बचा रहना उसे चकित कर रहा था...।
हल्के–से सिर झुकाए वह कह रही है, “... सर, आप से मिल कर बहुत अच्छा लगा है...। रियली !... सर। समझ नहीं आ रहा कैसे कहूँ!! ...उस दिन आप क्लास में कह रहे थे न, कि सबसे अच्छा सम्बन्ध दोस्ती का होता है... वो चाहे उम्र में छोटा हो या बड़ा... इसलिए...।” वह कह नहीं पा रही है...। भावों की उजली छायाएँ उसके चेहरे पर आ-जा रही है...।
शायद ऐसी ही कुछ हालत उसकी थी। ...शायद उससे भी ज्यादा...।
“नसीम, तुम्हें बुरा तो नहीं लगा। मेरे स्वागत के लिए उन लोगों ने दो बार तुम्हें बुलाया। मुझे पता होता तो मैं ऐसा नहीं होने देता...। इन लोगों का क्या है, बेमतलब किसी बात को एक इशू बना देते हैं...। इसी में इनको मज़ा आता है...।”
“नहीं,सर। उन लोगों ने तो मुझे पहले ही बता दिया था। यह तो मेरे लिए बहुत ख़ुशी की बात है कि मुझे दो-दो बार आपका स्वागत करने मिल रहा है...।
वह चकित हुआ, “लेकिन नसीम, ये इसका दूसरा मतलब निकालेंगे! तुम लड़की हो...। तुम्हारे ऊपर कोई बात आए...। यह ठीक नहीं। मैंने इसीलिए लोकेश्वर को तुम्हारे पास भेजा था...।”
वह बताने लगी, “लोकेश्वर सर आये थे, मुझसे ‘सॉरी मैडम सॉरी मैडम’ बोल रहे थे। मुझे उसी ने बताया, सर नाराज़ हो रहे हैं, आपसे सॉरी बोलने को कहा है...। सर, आप इसे माइण्ड मत कीजिए। कुछ-न-कुछ तो लोग कहते ही हैं।” फिर इस मुद्दे को जैसे परे हटाते हुए वह बोली, “छोड़िए सर, इन बातों को। सर, मुझे आपका आटोग्राफ चाहिए। अपना आटोग्राफ दे दीजिए, प्लीज़...।” नसीम सीधे अब उसकी आँखों में देख रही है, मुस्कानी आग्रह के साथ।
सहसा उसे लगा, देह में सैकड़ों मीठी सुइयां चुभने लगी हैं, ...हवाई झूले में ऊपर से नीचे आते हुए जो ख़ुशी और भय महसूस होता है, जिससे तुम्हारे भीतर से चीख-सी निकल जाती है। ...उसे कुछ-कुछ वैसा ही महसूस हुआ, ...अद्भुत... अनिर्वचनीय ख़ुशी! ...शब्दों से परे जीवन में पहली बार !
“अरे, ये कौन सी बड़ी बात है!” वह किसी तरह ख़ुद को संभाले है। उसने कहा, “अरे, मैं बहुत साधारण-सा आदमी हूँ... । ये सब तो सेलिब्रेटी लोगों से लेते हैं...।”
पर उसने बैग से अपनी आटोग्राफ डायरी निकाली, जिसमें संभवतः वह अपनी पसंद के लोगों से आटोग्राफ लेती रही है।
एक ख़ाली पृष्ठ उसने उसके आगे कर दिया, “सर, इसमें कुछ लिख दीजिये...।”
वह एक अजीब संकोच से घिर गया। ऐसे अवसर का सामना किस तरह किया जाता है, उसे नहीं मालूम। अपने अटपटेपन में फंसा वह मुस्कुराया, उसी से पूछा, “...क्या लिखूं?”
वह हँसी धीमे से, “सर, ...जो आपको अच्छा लगे... कुछ भी...।”
इस ‘कुछ भी’ ने उसे बल दिया। उसकी डायरी सुनील ने अपने हाथ में ले ली। एक पल उसे कुछ समझ नहीं आया, लेकिन कुछ ही पल में बरबस याद आये पंकज उदास...। उनकी गाई एक बड़ी मशहूर ग़ज़ल का मुखड़ा।
और अपने रोमांच से जैसे सिहरते हुए उसने लिखा, ‘आप जिनके क़रीब होते हैं... वो बड़े ख़ुशनसीब होते हैं’ ...और नीचे अपने हस्ताक्षर।
नसीम ने इसे पढ़ा। सुनील ने देखा, उस चेहरे का उजाला बढ़ गया है।
उसने माहौल को ज़रा हल्का बनाने की गरज से कहा, “देखो, मेरी हैण्डराइटिंग तुम्हारे हैण्डराइटिंग की तरह सुन्दर नहीं हैं...।”
वह हँसी, “अरे, सर आपकी हैण्डराइटिंग भी अच्छी है।” जैसे सांत्वना दी।
“हाँ, बस अच्छी ही तो। पर तुम्हारी राइटिंग तो बहुत अच्छी है!”
“थैंक यू... सर...”
“नहीं, सचमुच बहुत अच्छी है...। मैं तो मानो फ़िदा हूँ तुम्हारी हैण्डराइटिंग पर!” अपने कहे पर वह हँसा। और लगा, कि अभी सहज हो पा रहा है।
वह हंसने लगी।
एक झिझक के साथ उसने आख़िरकार वह पूछ ही लिया जो वह आज चाहता था, “नसीम, मुझे तुम्हारा मोबाइल नम्बर मिल सकेगा...?”
“जी सर,अभी देती हूँ,” उसने पॉकेट डायरी के एक पन्ने पर अपना नाम और दो नम्बर उसे लिख कर दिया, “सर, मेरे पास अपना मोबाइल नहीं है। एक घर के लैंडलाइन का नम्बर है और ये भाई का। इन पर मुझसे बात हो जाएगी...।”
उसने आगे पूछा, ‘तुम्हारा स्कूल कहाँ हैं? ...अगर मैं मिलने आना चाहूँ...?” यह पूछना भी उसके आज के एजेंडे में था।
“सर,आप कभी भी आ जाइए!” उसने अपने प्राथमिक शाला का लोकेशन बताया। “अर्जुन्दा से डौंडीलोहरा रोड पर सुरेगाँव को जानते हैं...?”
उसने सहमति में सिर हिलाया। सुरेगाँव एक बड़ा गाँव है।
“बस उसके दक्षिण की तरफ तीन किलोमीटर पर गाँव है--मानिकपुर। छोटा-सा गाँव है सर...। छोटा-सा प्राइमरी स्कूल है। कुल सौ-सवा सौ ही बच्चे होंगे।” वह हँसी।
लेकिन उसके स्कूल का नाम भी जैसे उसके भीतर किसी धुन की तरह बजने लगा। एक अजीब ख़ुशगवार रोमान में डूब गया वह ,अपनी कल्पना में देखने लगा, कि यह उस छोटे से गाँव के छोटे से स्कूल में प्रायमरी कक्षा के बच्चों को पढ़ाती होगी...। कैसा समाँ और दृश्य रहता होगा, जब यह अपनी ऐसी मीठी, नाज़ुक सी आवाज़ में बच्चों को पढ़ाती होगी! डांटती-डपटती होगी...। नहीं, शायद डांट नहीं पाती होगी। डांटना-फटकारना इस लड़की के फितरत में नहीं है।
उसने आगे पूछा, “कितने का स्टाफ़ है?”
“सर, हम तीन लोग हैं। हेडमास्टर नेताम सर हैं। बहुत अच्छे नेचर के हैं। एक मैडम और हैं।”
“तुमको कौनसी क्लास दिए हैं…?
“चौथी और पांचवी।”
उसे यह सोच कर मज़ा आने लगा, कि पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी की सुबह इन बच्चों को कतारबद्ध करके यह भी उनके साथ प्रभात फेरी में निकलती होगी। उन्हें संभालते या नारे बुलवाते। और गाँव के लोग इस सुन्दर मैडम को बहुत उत्सुकता से देखते होंगे। अपने-अपने काम में लगे हुए कि गली के छोटे-बड़े बच्चे बड़े उत्साह से इन्हें देख रहे हैं...।
उसने पूछा, “यहाँ काम करना अच्छा लग रहा है?”
“हाँ सर।”
“मैं आऊँगा तुम्हारे गाँव।”
वह बहुत खुश हो गई। ”सर, बिलकुल आइए। मैं रास्ता देखूँगी। मुझे बहुत अच्छा लगेगा।”
“तब तो ज़रूर आऊँगा।” वह कुछ चहका।
नसीम ने कुछ उत्सुकता से पूछा, “सर, मेरा आज का प्रतिवेदन ठीक से प्रेजेंट हुआ?”
“अरे, वो! वो तो बहुत अच्छा हुआ।”
“सही में?” एक मीठा-सा अविश्वास है उसे।
“हाँ भई,सही में ! ...बहुत ही अच्छा हुआ।”
“थैंक यू सर।”
आगे उसने उसे छेड़ा, “पर तुम क्या-क्या बोल रही हो इसे भला सुन कौन रहा था? सब तो केवल एकटक तुम्हें देख रहे थे... मोहतरमा नसीम खान को। वाऊ! कितनी ग्रेसफुल लग रही थी तुम इस ड्रेस में!”
“सर, आप भी न!” सुन कर बहुत उजाले से भर गई वह। ख़ुशी से दमकने लगा उसका चेहरा।
तभी अचानक दोनों ने पीछे से आवाज़ सुनी-- “सर चाय।”
वह एकदम हड़बड़ा गया। ये पुन्नी बाई थी,यहाँ की पिअन। शाम की चाय ले कर आई थी। ट्रे में दो कप थे। उसने देखा, अधेड़ पुन्नी बाई के चेहरे पर कोई ‘ऐसा-वैसा’ भाव नहीं है। गोया सब जानने–समझने की एक हल्की मुस्कान थी।
उसने अपना कप लेते हुए कहा, “लो चाय लो।”
“सर, मैं चाय नहीं पीती।”
पुन्नी बाई के जाते ही अपना बैग उठा कर वह खड़ी हो गयी,“ठीक है सर, कल मिलती हूँ।”
सुनील ने उसे याद दिलाया, “कल क्यों, हम तो अभी फिर मिल रहे हैं। ग्रुप फ़ोटो सेशन में... 5 बजे।”
“ओह, मैं तो भूल ही गयी थी। ठीक है,सर।”
जाते हुए वह किवाड़ थोड़ा उढ़का गई, सहसा शाम का पीला उजाला उस हलके अँधेरे कोने में भर गया। जाने क्यों,वह कुछ देर वहाँ बैठा रहा। जैसे अभी-अभी जो लम्हा बीत गया है उसे मन के सबसे गहरे तल में कहीं सुरक्षित रख ले, जज़्ब कर ले... हमेशा-हमेशा के लिए! ...गो ये उसके जीवन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षण हों! ...भीतर कुछ था। बिलकुल नया। कुछ भय कुछ रोमांच, कुछ सिहरन। यह ख़ुशी थी। सुख था। सुख का अथाह नीला समुद्र... जिसमें वह डूब रहा था। ख़ुद को डूबने दे रहा था। बिना कुछ भी सोचे और डूबते हुए कितना हल्का हो गया था। किसी कागज़ की तरह। कपास की तरह कि वह उड़ रहा था कहीं आसमान में। किसी पंछी के मानिंद... निर्द्वंद्व... कि सब कुछ कितना अद्भुत है! कितना सुन्दर! ...कितना सुकूनदेह! ...और कितनी पीड़ा। सब अव्याख्येय...।
वह अपने होश गँवा चुका था। होश तब आया जब कुछ देर बाद वह धीरे-धीरे स्टाफ़ रूम पहुंचा, और उसे देख कर एक पल के लिए उनकी बातचीत रुक गई थी सब उसे किसी और नज़र से ताक रहे थे।
उसके बगल में प्रभाकर बैठा था। कुछ देर बाद सहसा उसने कहा,दबी-दबी-सी धीमी आवाज़ में, “सुनील सर, एक बात पूंछू, अन्यथा तो नहीं लेंगे...?”
उसके कान खड़े हो गए,अवश्य उसके मामले को ले कर कोई हमारे पेशे से जुड़ी कोई नैतिकता-पवित्रता की बात होगी। फिर भी उसने हामी भर दी।
“इस प्रशिक्षण में आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है?” प्रभाकर की आँखें चश्में के भीतर मुस्कुरा रही थीं।
उसे बिलकुल उम्मीद नहीं थी प्रभाकर का प्रश्न अपने ‘टार्गेट’ में इतना सधा हुआ होगा—तीर के समान धँस जाने वाला।
दिल-दिमाग़ खट्ट से वहीं अटक गया। भला ‘उसके’ अलावा और क्या...? पर सुनील यह सब ज़ाहिर नहीं करना चाहता था, अभी, इसलिए ख़ुद को बचाते, छुपाते कहा, “यार, ये तो बड़ा टेढ़ा प्रश्न है। मैंने इस पर सोचा नहीं... सोचना पड़ेगा।”
उसका टालना वह समझ गया। भला आदमी मुस्कुरा कर बस रह गया।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेंद्र जी की हैं।)
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फिर से पढ़ते हुए पूरा पढ़ गया।आपकी टिप्पणी ने इस अंश को और सार्थक और प्रभावशाली बना दिया है। मेरा आपको बहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद भाई संतोष चतुर्वेदी ।
जवाब देंहटाएंSir ब्लाग सरसरा के पढ़ गया, रूमानी हैं, अच्छी लगी। लेकिन मैं बाजार में रामधन गहरे रूप से महसूस करता हूं।
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