रमा प्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी पर लिखी शमशेर बहादुर सिंह की कविता 'दोस्त पहाड़ी'।

 

रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी'


मान्यता है कि इलाहाबाद में त्रिवेणी संगम अवस्थित है। गंगा यमुना के संगम में तीसरी धारा सरस्वती की बहती है। सरस्वती यानी विद्वता की परम्परा। यह धारा पुरातन काल से ही प्रवाहित होती रही है और यह आज तक लगातार प्रवाहित हो रही है। रमा प्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी इसी विद्वता की परंपरा के एक रत्न थे। वह एक बेहतरीन कहानीकार थे। पहाड़ी का जन्म पौड़ी गढ़वाल के बड़ेथी गांव में 1 अगस्त 1911 को हुआ था। 'सरोज' नामक कहानी से वक कहानीकार के रूप में उनकी पहचान बनी। वह कहानी विधा में लगातार काम करते रहे और उनके कुल 19 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। उन्होंने तीन उपन्यास भी लिखे। उनका लघु उपन्यास 'पतझड़' सर्वाधिक चर्चित रहा है। 'पतझड़' की चर्चा हिंदी साहित्य में कम हुई है। बहरहाल यह उपन्यास इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसमें कांग्रेस के स्वतंत्रता आंदोलन से प्रगतिशील युवाओं के मोहभंग होने का परिचय मिलता है। पहाड़ी एक बेजोड़ कहानीकार थे। और उनकी कहानियों में समकालीन समाज का सच प्रतिबिंबित होता है। अलग बात है कि पहाड़ी की चर्चा बहुत कम हुई और वह सशक्त कहानियां लिखने के बावजूद वे उपेक्षित रह गए। पहाड़ी जी की स्मृति में हम शमशेर बहादुर सिंह की उनके नाम लिखी गई 1939 की यह कविता प्रस्तुत कर रहे हैं। शमशेर बहादुर सिंह हिंदी के एक जरूरी कवि रहे हैं और हिंदी कविता का जो वितान बनता है उसमें शमशेर बहादुर सिंह की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। तो आइए पढ़ते हैं रमा प्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी पर लिखी शमशेर बहादुर सिंह की कविता 'दोस्त पहाड़ी'

 

 

दोस्त पहाड़ी

 

 

शमशेर बहादुर सिंह

 

 

 

दोस्त पहाड़ी मैं तो हूँ अनाड़ी

जानते हो तुम मुझे 

क्रीसेंट लाज से- कैसा कबाड़ी हूँ।

और

अब तो बंगलिया वह छोड़ दी,

गया चीक में

बीच बजार में

(सस्ते साहित्य के मोल-भाव शायद!)

पता है: 'अन्नकूट' 9 नम्बर कमरा

एकदम-ऊपर।

यार लोग कहते हैं.... तुम भी तो कहोगे...

"कहाँ की हवा खाने 

पहुँचा शमशेर!"

 

यारों का तजरबा बड़ा है, गहरा है।

अपन की जेब तो बहुत ही छोटी है

 

-छोटी समझ का फेर।

अपन तो देख कर

(आज के रेट्स से)

सस्ता एकांत बना-बनाया खाना

ऊपर की खुली हुई हवा

और नीचे

दूर तक फैला हुआ

पूरा इलाहाबाद

पूरे जोर शोर से

गूँजता हुआ - या फिर

घड़ी भर रात को, थके हुए सपनों में

ऊँघता हुआ।

गए यहाँ-कामकाजियों के बीच में

दफ्तर के पास -

 

देखो, अगर काम चल निकले कुछ।

है तो उम्मीद नयी

और उत्साह भी नयी नयी जगह में.

डट कर कुछ करने का

लिखने का, पढ़ने का

 

आओ तुम यहाँ कभी

(मैं भी उधर आऊँगा

इसी सप्ताह कभी, निश्चय ही)

अंडा तो होगा नहीं

(होटल मारवाड़ी है 'शुद्ध' 'ब्राह्मणों के लिए)

चाय-नमकीन और टोस्ट-टास्ट

जो कुछ भी होगा

देखा जायगा

आओ अगर !

 


 

 

मैंने तो समझा था, सचमुच नाराज हो। 

जानता था-कब तक रहोगे नाराज तुम!

और भाई, आज के समाज में - यह भी मैं जानता हूँ -

छोटे-मोटे लोगों से

बड़े-बड़े लोगों की

खुशी-नाराजी क्या !

मेरे लिए तो बड़े लोगों की खुशी भी, और नाराजी भी 

हाई-क्लास चीज है।

 

यह तो खैर तुमको बता रहा हूँ-मगर बात....

 

सच्ची यह है कि मैं अन्दर से

बहुत ही थका हुआ 

बहुत ही परेशान रहा हूँ।

किसी तरह ज़िन्दा।

अब तो खैर अच्छे आसार नजर आते हैं 

और फिर जीवन में कभी मैं

निराश नहीं हुआ हूँ।

इसलिए और कुछ नहीं कहूँगा। बहरहाल जिन्दा हूँ,

और खूब जिन्दा हूँ

तुम्हारी दुआ से मैं

अभी तो -

बहुत कुछ करके ही जाऊँगा

अभी तो -

सच पूछो - जिन्दगी

शुरू ही हुई है

 

सामने जो कुछ है,

 

वैसा सन् 30 से आज तक 

कहाँ हमें मिला! 

अब जो कुछ आयेगा

वही हम होंगे। 

खैर, ये बातें तो तुम्हारे भी दिल में है। 

सबों के दिल में है।

 

और यह शायद दूसरी कविता तुम्हारी है .

(पहली 'सरस्वती' वाली थी!)

कवि तुम बुरे नहीं।

आखिर तो दिल रखते हो, !

मगर यह अच्छा है

डाला नहीं जो इन कूचों में उसको। 

वर्ना, इन गलियों से भी तुम हमको 

(मुक्त छन्दवादी प्रयोगवादी कवियों) 

दूर खदेड़ देते; गो कि, दोस्त 

अन्त में

तुम्हारी भी वही गत होती 

जो कि हमारी कुछ हुई।

 

-एक गलती हम भी कर रहे हैं: 

छोड़ कर छन्दों की 'गलियों' को 

नाविल की सड़कों पर निकले हैं 

मगर हम तुम्हें विश्वास दिलाते हैं- एक बार घूम-घूम कर, बस 

फिर वापिस जाएंगे! 

और कहाँ जायेंगे। 

अपने तो बस, वहीं कूचे हैं

वहीं आशियाने हैं

अच्छे कि बुरे हैं-नीचे की ऊँचे हैं 

जैसे भी है हम,

दोस्त हमें जाने हैं

 

शमशेर बहादुर सिंह
 


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