ज्योति रीता की कविताएँ

 

ज्योति रीता

 

 

सामान्यतया कुछ भी लिखना आसान नहीं होता। लिखना त्रासदी से मुक्त होना होता  है। वह त्रासदी जो हमारे आत्म ही नहीं बल्कि वाह्य में भी घटित होती रहती है। लिखना तमाम दिक्कतों को बुलावा देना होता है। इतिहास गवाह है कि लेखन की वजह से तमाम लोगों को तमाम तरह की प्रताड़नाएं झेलनी पड़ीं। देश निकाला को वरण करना पड़ा। लेकिन लेखन ऐसा रोग होता है जो एक बार लगने के बाद पीछा छोड़ने का नाम नहीं लेता। पाब्लो नेरुदा हों, या फिर नाज़िम हिकमत पीड़ा की एक अकथनीय परम्परा इनके यहाँ मौजूद है। आमतौर पर स्त्रियों की घरेलू व्यस्तताएँ इतनी होती हैं कि लेखन उनके लिए मुश्किल काम हो जाता है लेकिन महिलाओं ने इसे सम्भव कर दिखाया है। और बेहतर लेखन से अपने को साबित भी किया है। ज्योति रीता हमारे समय की महत्त्वपूर्ण कवयित्री हैं। हालांकि वे कम प्रकाशित हुई हैं। उनकी सशक्त कविताएँ इस बात की तस्दीक करती हैं कि उनकी रचनात्मकता किसी से कम नहीं है। ज्योति का यह पहली बार ब्लॉग पर आगाज़ है। हम आगे भी उनकी कविताएँ ब्लॉग पर प्रस्तुत करेंगे। आज पहली बार पर प्रस्तुत है ज्योति रीता की कविताएँ।

 

 

ज्योति रीता की कविताएँ

 

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

 

लोग भाग रहे थे

लगातार लोग भागे जा रहे थे

उन्हें हाँफने की भी फ़ुरसत नहीं थी

 

वे घर बाग-बगीचे को पीछे छोड़ आए थे

उनके पत्नी और बच्चे सब चीख रहे थे

वे मवेशियों की रस्सी खोलना भूल गए थे

न ही डाल पाए थे चारा

वे सब कुछ उसी तरह छोड़ आए थे

 

वे भाग जाना चाहते थे कहाँ

उन्हें कुछ पता नहीं था

उन्हें रास्तों का कोई ज्ञान नहीं था

वे कितना दूर भाग सकेंगे

वे नहीं जानते थे

वे बस किसी तरह खुद को बचा लेना चाहते थे  

 

 

कुछ लोग बंदूक ताने उनके पीछे दौड़ रहे थे लगातार

गोले बरसाये जा रहे थे

हवाओं में ज़हर फैल गया था

सांस ले पाना अब कठिन था

मृत्युकालीन स्मृति क्षण था

वह बस सुरक्षित स्थान तलाश रहा था

जहां हवा पानी हो

 

वह सर उठा नहीं सकता था

उन्हें बोलने की मनाही थी

वह अंदर ही अंदर चीख रहा था

उनके अंदर की घुटन

विद्रोह का संकेत दे रही थी

 

उनके पास मात्र आवाज़ की बंदूक थी

तक़रीर से वह ज़्यादा देर बच नहीं पाएगा

उन्हें कभी भी चौराहे पर

लटका कर मार दिया जाएगा

उनका खून अवाम को डराने के लिए होगा

 

पर तुम आवाज़ बुलंद करना

चीख-चीख कर सिंहासन की नींव हिला देना

 

सर झुका कर फ़ैज़ को याद करना

बंदूक की नाल सीने पर रख कर

एक स्वर में बग़ावत के गीत गाना

 

"हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे"

 

बाज मंसूबा धराशाई हो

हमें रुक कर बोरसी सुलगानी चाहिए

हमें अपना बोरिया बिस्तर समेटना नहीं

फिर से बिछा देना चाहिए

 

शरणार्थी होना आख़िरकार कौन चाहता है ?

 

 

लिखना पहला प्रेम साबित हुआ

 

लिखना सबसे बड़ा गुनाह था

हम गुनहगार हुए

 

जन्म के साथ ही झाड़ू कटका में हम निपुण हुए

सुबह की चाय पिता के बिस्तर छोड़ते ही

रात का दूध बिस्तर पर जाते ही पहुँचा दिए गए

पिता ने आशीर्वाद में अच्छा पति दिया

 

माँ ने पुश्तैनी गहने दिए

भाई ने घर के बाहर सुरक्षा दी

 

बोलने की सलाहियत हमसे छीन ली गई

हमारे कलम से स्याही सोख ली गई

 

हम घर की दीवार पर

टोटके की तरह लटका दिए गए

हमारी चुप्पी घर में दंभ का बचा होना था

 

हमें बस '' से कबूतर

'का' से काम रटाया गया

 

हम '' से कलम

'का' से कागज़ रट गए

 

हम बोले कम लिखे ज़्यादा

हम हँसे कम रोए ज़्यादा

इस तरह दरकने से खुद को बचाए रहे

 

हमने चौका-चूल्हा के बाद सोचने की जहमत उठा ली

गहरी रात में हम लिखते रहे

कागज़ पर खींच दी एक लकीर

हमने गुड़िया की चाबी तोड़ दी

 

हम तक़सीर हुए

मवाद भरा नासूर हुए

नापाक हमें मान लिया गया

लिखना पहला प्रेम साबित हुआ

बाक़ी सब बिवाई।।

 

·        तक़सीर अपराधी

 


 

 

हम कीचड़ के कवि थे

 

हम राजधानी में बैठ कर

लिखने वाले लोग नहीं थे

हम घुटनों तक कीचड़ में धँसे लोग थे

हम धनरोपनी करते हुए लिख रहे थे कविता

 

गेहूं की भूरी बालियों को देख सिहर उठते थे

उसी वक्त आँखों के कोर से ढुलक आती थी कविता

 

सरसों के पीले फूल देख कर

हमने पहले प्रेम कविता का स्वाद जाना

जंगली फूलों ने कविताओं को सुगंधित किया

कांटों में सावधानी से उन्हें स्थापित होना सिखाया

 

हम लकड़ी के चूल्हे पर पकने वाले भात थे

हम डेगची में सीझने वाले दाल थे

हम आग पर पकाए गए

आलू, मिर्च और एक चुटकी नमक थे

हम महाजन के दिए गाली थे

 

हमारे लिए कोई मंच नहीं था

मंच के नीचे हमारे लिए

कभी कोई कुर्सी नहीं लगाई गई थी

 

हम पंक्ति के आख़िर में खड़े हो कर

सभ्य, शालीन, सलीकेदार कवियों से

मजदूरों, दलितों, शोषितों पर कविता सुन रहे थे

 

हम जेठ की दुपहरी में तपने वाले लोग थे

हम आषाढ़ के बारिश में भींगने वाले लोग थे

हम दान-खैरात में आए लोग थे

हमारा हिस्से का सुख सोख लिया गया था

हम दुखों के पीछे भागते धावक थे

 

हमारे माथे पर पहली पंक्ति मयस्सर नहीं थी

हम पंक्तियों के आख़िर में खड़े होने वाले लोग थे

 

हम असभ्य और अशिष्ट लोग थे

हमें तन भर कपड़ा जी भर खाना कभी नहीं मिला

मिले चीथड़ों पर हम रोज़

कविताएँ लिख रहे थे

हम दो जून की रोटी मुहैया करते-करते कविता लिख रहे थे

एक बैल के मारे जाने पर

उनकी जगह खेत जोतने वाले लोग थे

हम लगातार खेतों में खड़े हो-हो कर कविताऍं लिख रहे थे

 

अब वह कविता

संसद पहुंचने के लिए तैयार हैं ।।

 

 

 

अंतिम थाली में हमने शून्यता परोस ली  

 

हमारे हिस्से की नदी को सूख जाना था

हमारे हिस्से के जंगल को खाक हो जाना था

 

हमारे हिस्से के फ़िक्र को धर्मशाला होना था

 

हमारे हिस्से का प्रेम बेवा है

 

हमारे हिस्से के घाव लाईलाज थे

हमारे चेहरे का धब्बा जन्मजात था

 

हम ढीढ हुए/अरसा पहले हुए

हमारे पंखों को सबके सामने नोचा गया

चील कौवे की तरह हमें तरेरा गया

 

खैराती पान सुपारी की तरह

हमें चबा-चबा कर थूका गया

हमारा स्वाभिमान मिट्टी का ढेला था

 

हम कोरस में गाए जाने वाले गीत थे

हम मकतब में दिये जाने वाले संस्कार थे

 

हमें मक़बूल करने से पहले

कई-कई चरणों में आज़माया गया

चिऊड़ा, चिक दे कर हमें विदा किया गया

हमारे हिस्से की सहेलियां को मूक-बधिर हो जाना था

विदाई करते हुए गाँव की तमाम औरतें

बिरहा गीत गा-गाकर रोती रहीं

 

रात-रात भर हम सोए नहीं

अपराधी की तरह कह दिया था घुटन अपनी

 

सरसरी निगाह से हमें देखा गया

रतजगे के बाद अल सुबह

हमें रसोई में हमारी नियति समझाई गई

 

तकियो के बीच हमारा अपना ठिकाना था

अंतिम थाली में हमने शून्यता परोस ली

 

हमारे हिस्से में लौटना शब्द उपयुक्त नहीं था।।

 


 

 

मैं थिगली में लिपटे थेर हूँ

 

तुम लौट आए थे

अनायास ही कई-कई मोगरे एक साथ खिल गये थे

मनी प्लांट के पत्ते हरे हो रहे थे

चाय पहले से ज़्यादा काली थी

घर पहले से ज़्यादा सुगंधित

 

कुछ दिन बैठ कर यादें गींजेंगे

तुम्हारे गिलाफ़ से बाहर आना कब मुमकिन था

कब मुमकिन था प्रेम कालिख से बच पाना

 

तुम्हारे गिर्दाब में फँसना

और-और फँसना था

तुम कोई गूढ़ रहस्य हो

या हो तरसौहाँ

 

तुम काबिस में लिपटा काम्य फल हो

या कायिकी में निपुण कोई देव

 

मैं थिगली में लिपटी थेर हूँ

तुम्हारे तलहटी में मेरी आत्मा धँसी है।।

 

 

तरसौहाँ - तरसाने वाला।

गिर्दाब - भंवर।

काबिस-लाल रंग की मिट्टी।

कायिकी- शरीर विद्या।

थेर - बौद्ध भिक्षु।

 

 

अरसा बाद ख़ारिज हुए हम

 

उस रात के बाद की सुबह कसैली हो गई थी

हर जगह छितराव

हर बात में ग़ैरत (चुग़ली)

हर चीज़ में सड़न

हर बयान बरख़ास्तगी थी

 

वक्त की तरलता में हम बह निकले थे

अनायास दूसरा पहर क़स्साबी हो गया था

तुम वक्त की कतरन से एक पक्षी चुरा लाए थे

तुम कापुरुष से पुरुष हुए थे

 

देह से कई-कई परतें उतर रही थी

सीली जगह पर एक पौधा उग आया था

समय बीता हो जैसे

तुम्हारा आना तय था

तुम्हारा जाना तय था

 

कोई खाली पात्र लबालब भर दिया गया था

पात्र स्पर्श से ही कुछ बूंदें छलक पड़ी थी

 

कुठला में रख छोड़ा था तुम्हारा दिया प्रेम

कौतुक तुम्हारा आना भी

कौतुक तुम्हारा जाना भी

 

अरसा बाद ख़ारिज हुए हम

प्रेम चौपड़ हुआ

ख़्वाबगाह गड़ापे गए

प्रेमी चिड़िहार हुआ

प्रेम गतायु हुआ

प्रेमी गतांक हुआ।।

 

·        ग़ैरत - चुग़ली

·        चिड़िहार - बहेलिया

गतायु- जिसकी आयु समाप्त हो चली हो।

गतांक- पिछला अंक।

 


 

 

यह काक चेष्टा समय है

 

मेरे पास एक पोटली है

जिसमें मैंने प्रेम के कुछ बीज छुपाए हैं

 एहतियात कि प्रेम समाप्त ना हो कभी

 

संकेत है

समाप्ति की ओर बढ़ रहे हैं हम

या इमारत की कुरसी हिली हुई है

अंत के पास का समय हास्य कविता लिख रहा है

कवि मैत्रीपूर्ण समझौते के लिए तैयार है

 

ऊंघते खरगोश के सर पर अखरोट गिरा है

बावला हुआ कहता है-

एक दिन चुन-चुन कर प्रेम को ख़त्म कर दिया जाएगा

 

यह काक चेष्टा समय है

ऊँट किस करवट बैठता है कोई नहीं जानता

 

ताश की तरह का यह खेल

जिसमें दांव प्रेम वेद मंत्र है

 

अंतिम पड़ाव में उसी दिन कब्रिस्तान की मिट्टी मैं

दबते हुए यह पोटली भी दबा जाऊंगी

 

बारिश की पहली और आख़िरी बूंद के साथ

ड्योढ़ी पर प्रेम फिर से उग आएगा

 

भूला हुआ प्रेमी लौट आएगा

फुरक़त के दिन लद जाएंगे

 

फूल फिर खिलेंगे

फूलों का खिलना प्रेम का प्रातःकाल है।

 

 

जाने से पहले अपने वक्ष पर स्थान दो देव!

 

प्रेम का ज्वार सूख रहा है

अंदर इस गोलार्ध पर प्रेम गोमेद रत्न है

 

या कि गोपनीय उल्लास का कोई द्वार

जिससे हो कर प्रेम गोशा फरमाता है

 

चित-पट जिस करवट भी बैठो

प्रेम लगता है पीठ से सट कर

वह सहलाता है पीठ

वह पीठ के भीत पर खेलता है चौसर

 

प्रेम चहबच्चा बना घूमता है हृदय कोन में

वह झांकता है खिड़की के अंतिम सिरे से

वह झपटना चाहता है

वह बेर जो निहायत ही ठट्ठा है

 

प्रेम छुटपन का वह झुनझुना है

जो एक बार खो कर दुबारा कभी नहीं मिला

पर उसे याद कर कुछ छीजता है अंदर

 

प्रेम तुम्हारे सख्त हथेली की वह लकीर है

जिस पर मेरा नाम कभी ठाँव नहीं पाया

 

अब

प्रेम से फिरता है मन

यह जटिल से जटिलतम है

या कि गले में बांधा कोई ताबीज़

जिसका धागा छोटा हो कर गले में फँसा है

 

अब जनपद से उठने का समय हो गया है

लोग जा चुके हैं

 अंतिम तैयारी मेरी है

जाने से पहले

अपने वक्ष पर स्थान दो देव!

 

 

सम्प्रति - हिन्दी प्राध्यापिका, बिहार। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग पर कविताएँ प्रकाशित लगातार प्रकाशित।

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेंद्र जी की हैं।) 

 

 

सम्पर्क - 

 

ई-मेल :  jyotimam2012@gmail.com

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