विजय प्रताप सिंह की ग़ज़लें।

 


 

सत्ता की एक महत्त्वपूर्ण खासियत यह होती है कि वह एक अजीब सा सन्नाटा रचना चाहता है। वह प्रायः अपने इस उद्देश्य में सफल भी रहता है। पूँजीवाद भी यही चाहता है। आभिजात्य वर्ग कुछ भी बोलने से बचता है। आज हालात इतने खराब हैं कि कोई व्यक्ति अगर किसी सड़क पर घायल पड़ा कराह रहा हो तो लोगबाग उसके पास फटकने तक से बचते हैं। जैसे अब यही हमारा सामाजिक सरोकार होता जा रहा हो। साहित्य आमतौर पर इस सन्नाटे, चुप्पी और उदासीनता का अपनी तरह से प्रतिकार करता है। विजय प्रताप एक बेहतरीन कवि और ग़ज़लकार हैं। उनके यहाँ कबीर की प्रतिध्वनि भी देखी महसूसी जा सकती है। कबीर कहते हैं : 'कबीरा आप ठगाइए, और ठगिए कोय।' विजय लिखते हैं 'आदमी वो है बुरा और दिल में उसके है फ़रेब। पर जुबां पर सादगी सी है बताओ क्या करें।।' आज पहली बार पर प्रस्तुत है विजय प्रताप सिंह की ग़ज़लें।

 

 

विजय प्रताप सिंह की गज़लें             

 

  

1.

      

 उम्रे  गुज़ार  कर भी  बचा हुआ  हूं  मैं

अपने ही पास कब से रखा हुआ हूं मैं

 

फलक से कोई  टूटा हुआ सा तारा हूं

आसमां से जमीं पर  अता हुआ हूं मैं

 

कौन पढ़ता है आते  जाते हुए मुझको

उन्हीं रास्तों में अब भी लिखा हुआ हूं मैं

 

कितने ही सर उठे हैं यूं ही मेरी जानिब

इक शज़र हूं ऐसा की झुका हुआ हूं मैं 

 

रहगुज़र  कोई है ना कोई हमसफ़र  है

मंजिल  के सामने ही  रुका हुआ  हूं मैं 

 

मुत्मइन  हूं मैं की  तय है शिकस्त तेरी

खेमे में  दुश्मनों  के मिला  हुआ  हूं  मैं

 

                       

                 

2

 

एक  गम हो तो  तुमसे कहूं

आंख नम हो तो तुमसे कहूं

 

ग़म की लौ तेज़तर है अभी

आज कम हो तो तुमसे कहूं

 

शादमानी  में  डूबा  है  दिल

दुख फहम हो तो तुमसे कहूं

 

हिम्मत नहीं  है गुफ्तार की

इस जनम हो तो तुमसे कहूं

 

रोज़  यूं  ही  गुज़र  जाते  हो

कुछ करम हो तो तुमसे कहूं

 

क्या कहूं कुछ किसी से यहां

तू  सनम हो  तो  तुमसे  कहूं

 

या  गुमां  हो  तिरे  इश्क  का

या  वहम हो  तो  तुमसे  कहूं

 

आबला  है   मिरे   हाथों    में

इक कलम हो  तो तुमसे कहूं

 

 
               


 

3

 

बन के लौ जगमगाती रही रात भर

मैं  सुना  तुम सुनाती  रही रात भर

 

रात  भर मैं  रहा इक दिए की तरह

और तुम उसकी बाती रही रात भर 

 

सांस  आती  रही  सांस  जाती रही

ज़िन्दगी  फिर बुलाती रही रात भर 

 

आग बन बन के मैं भी सुलगता रहा

तुम धुआं बन के छाती रही रात भर

 

आज की रात भी रात भर जागकर

कोई  दुल्हन  सजाती  रही रात भर

 

कुछ  परेशान  सा मैं  भटकता रहा

कुछ  हवा भी लुभाती रही रात भर 

 

एक  साया  मेरे  साथ  चलता  रहा 

बस यही  एक थाती  रही  रात भर

 

 

             

4

 

कारवां जो निकल रहा है

अब लहू भी उबल रहा है

 

आज फ़स्ले  बहार है यां

कल यहीं मक़्तल रहा है

 

जाग जाएंगे वो भी जिनका

आज कोई  कल  रहा है

 

गेंद फिर उछाला किसी ने 

कोई  बच्चा  बहल  रहा है

 

बारहां  टूटकर भी  ये  दिल

जाने क्यों फिर मचल रहा है

 

आज फिर कुछ हाथ आया

आज फिर  हाथ मल  रहा  है

 

ख़्वाहिशें  रौशनी  की लेकर

कोई  सूरज  निकल  रहा  है

 



            

                 

5

 

हाथ क्योंकर  मिला नहीं पाया

जबकि सोचा था जा नहीं पाया

 

देर तक  मैं खड़ा  रहा दर पर

तुमने सोचा कि नहीं पाया

 

रहगुजर  में  तू  साथ  है  जैसे

तुझको आख़िर कहां नहीं पाया

 

मैंने तुमको तो पा लिया लेकिन

मैंने अब तक  ख़ुदा नहीं  पाया

 

बहुत पाया भी  तो जमाने में

कुछ भी तेरे सिवा नहीं पाया

 

मैंने सोचा  था सब  बताऊंगा

पर मिला तो  बता नहीं पाया

 

बहुत चाहा कि आजमाऊं भी

पर कभी  आजमा नहीं पाया

 

तीरगी साथ ही  रही हर दम

कोई दीया  जला नहीं पाया

 

एक ही भूल थी मगर अब तक

किसने किसने सज़ा नहीं पाया

 

हो  गया हूं  जुदा  भले  तुमसे

तुमको ख़ुद से जुदा नहीं पाया

 

               

                         

6

 

हम रहें या ना रहें पर कुछ गिला रह जाएगा

एक आशिक देखता सा मुब्तिला रह जाएगा

 

मैं खड़ा रह जाऊंगा बस आस्तां पर सोचता

फूल भी गुलदान में ही बस खिला रह जाएगा

 

दर बदर होकर यहां से जब चला जाऊंगा मैं

तब मुझे फिर खोजता सा ये जहां रह जाएगा

 

बस नदी के पास तक ही लोग लेकर आएंगे

उस नदी के घाट पर ही काफ़िला रह जाएगा

 

ज़िक्र  भी  होगा  नहीं  तेरे   फ़साने  में  तेरा

उस फ़साने से निकलकर तू निहां रह जाएगा

 

तारीख़ ना कर पाएगी एहतराम जिनका कभी 

नाम उनका पत्थरों पर  ही लिखा  रह जाएगा

 

 
              


                   

 7

 

मिले तुम कहां की जुदा कर चले

कहानी वही फिर सुना कर चले

 

बड़ी  देर से  राह   तकता  रहा 

अभी रहे हो कि आकर चले

 

दिखाया वही जो देखा कभी

सुनाया वही जो सुना कर चले

 

वफ़ा का अदा हक किया इस तरह

ज़फा पर ज़फा पर ज़फा कर चले

 

ख़ता की तुमसे तो उम्मीद थी

ख़ता क्या हुई की ख़ता कर चले

 

दुखों का अपने   तमाशा बने

सभी ज़ख़्म उनसे छुपा कर चले

 

चला साथ  तेरे   तो सोचा नहीं 

मुझे तुम कहां ले उड़ा कर चले 

 

      

                           

8

 

हर तरफ़ इक तीरगी सी है बताओ क्या करें

शक्ल भी कुछ आदमी सी  है बताओ क्या करें 

 

वो गया है तो कफ़न के साथ ही फिर आएगा 

मौत भी अब ज़िन्दगी सी है बताओ क्या करें

 

जानते हैं सब मगर क्यों बोलता कोई नहीं

हर तरफ़ तो बेख़ुदी सी है बताओ क्या करें

 

आदमी वो है बुरा और दिल में उसके है फ़रेब

पर जुबां पर सादगी सी  है बताओ क्या करें

 

राह कू यार में    भी सामना उनसे हो

इक तम्मन्ना आख़िरी सी है बताओ क्या करें

 

 

 

 
 
 
पत्राचार का पता-



विजय प्रताप सिंह द्वारा श्री रितुरन्जय सिंह,

निवासी- ई- 503, कलपतरू अपार्टमेंट,

वरदान खण्ड, गोमतीनगर, लखनऊ (उ0प्र0)

पिन कोड- 226010



मोबाइल नम्बर- 7398025280, 808169949
 
 

 

टिप्पणियाँ

  1. समाज की वर्तमान स्थिति को इतने सहजता से कहने की कला है विजय भाई में। वास्तव में आज के कबीर है आप

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  2. सूर-सूर,तुलसी शासी को जगह विजय कहना समीचीन प्रतीत होता है।।

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  3. 8नं की गजल...।लाजवाब...।सर को प्रणाम।

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