वाचस्पति का संस्मरण : कविश्री त्रिलोचन : चन्द स्मृतियाँ
त्रिलोचन : पुस्तक पर आशीर्वाद - 30-6-2004 ई० |
त्रिलोचन हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा के प्रमुख हस्ताक्षर माने जाते हैं। वे आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के तीन स्तंभों में से एक थे। इस त्रयी के अन्य दो स्तम्भ नागार्जुन व शमशेर बहादुर सिंह थे।
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के कटघरा चिरानी पट्टी में जगरदेव सिंह के घर 20 अगस्त 1917 को जन्मे त्रिलोचन शास्त्री का मूल नाम वासुदेव सिंह था। उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. किया और लाहौर से संस्कृत में शास्त्री की उपाधि प्राप्त की थी। त्रिलोचन आखिरी समय तक रचनात्मक रहे और विपुल साहित्य का सृजन किया। 9 दिसम्बर 2007 को ग़ाजियाबाद में उनका निधन हो गया।
प्रगतिशील धारा के कवि होने के कारण त्रिलोचन मार्क्सवादी चेतना से संपन्न कवि थे, लेकिन इस चेतना का उपयोग उन्होंने अपने ढंग से किया। त्रिलोचन के भीतर विचारों को लेकर कोई बड़बोलापन भी नहीं था। उनके लेखन में एक विश्वास हर जगह तैरता था कि परिवर्तन की क्रांतिकारी भूमिका जनता ही निभाएगी।
वैसे तो उन्होंने गीत, गजल, सॉनेट, कुंडलियां, बरवै, मुक्त छंद जैसे कविता के तमाम माध्यमों में लिखा, लेकिन सॉनेट (चतुष्पदी) के कारण वह ज्यादा जाने गए। वह आधुनिक हिंदी कविता में सॉनेट के जन्मदाता थे। हिंदी में सॉनेट को विजातीय माना जाता था। लेकिन त्रिलोचन ने इसका भारतीयकरण किया। इसके लिए उन्होंने रोला छंद को आधार बनाया तथा बोलचाल की भाषा और लय का प्रयोग करते हुए चतुष्पदी को लोकरंग में रंगने का काम किया। इस छंद में उन्होंने जितनी रचनाएं कीं, संभवत: स्पेंसर, मिल्टन और शेक्सपीयर जैसे कवियों ने भी नहीं कीं। सॉनेट के जितने भी रूप-भेद साहित्य में किए गए हैं, उन सभी को त्रिलोचन ने आजमाया।
त्रिलोचन के प्रमुख कविता संग्रह इस प्रकार हैं : धरती(1945), गुलाब और बुलबुल(1956), दिगंत(1957),.ताप के ताए हुए दिन(1980), शब्द(1980), उस जनपद का कवि हूँ (1981) अरधान (1984), तुम्हें सौंपता हूँ (1985), मेरा घर, चैती, अनकहनी भी कुछ कहनी है, जीने की कला(2004)
आज 20 अगस्त को कवि त्रिलोचन के जन्मदिन पर उन्हें नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं वाचस्पति का संस्मरण : कविश्री त्रिलोचन : चन्द स्मृतियाँ। इस आलेख में प्रयुक्त सभी चित्र वाचस्पति जी के सौजन्य से लिए गए हैं। इसके लिए हम वाचस्पति जी के आभारी हैं।
लेखनरत-त्रिलोचन (30/6/2004 ई.) |
कविश्री त्रिलोचन:चन्द स्मृतियाँ
वाचस्पति
20 अगस्त 1917 ई.; आज त्रिलोचन भगवन का जन्मदिन है। 90 वर्ष की दीर्घायु के बाद वे संसार से विदा हुए। मुझे 1966 से ही उनका आत्मीय साहचर्य मिला। संघर्ष-अपमान-अभाव-उपेक्षा-तिरस्कार भरे जीवन को भरपूर जीने की जिजीविषा मैंने उनमें हमेशा पाई। हिमालय से भी बड़ा उनका धैर्यशील व्यक्तित्व जानकारों के लिए प्रेरक है। उनकी कविता भी यही सीख देती है।
बनारस में त्रिलोचन करीब आधी शताब्दी रहे। आजीविका के लिए उन्हें भोपाल-सागर-अलीगढ़-दिल्ली भी जाना पड़ा। मगर जीवनपर्यन्त बनारस में उनका मन अटका रहा। एक ऐसा "सहृदय" नगर जो केवल अपनी मस्ती में ही मगन रहता है!
वाचस्पति, त्रिलोचन, इन्द्रजीत सिंह प्राचार्य लेखक रुड़की |
2001 में त्रिलोचन के सागर विश्वविद्यालय के मुक्तिबोध सृजन पीठ के दूसरे कार्यकाल में अल्सर से पीड़ित होने की ख़बर मिली। शासकीय चिकित्सा-सुविधा से ठीक हो कर वे हरिद्वार के उपनगर ज्वालापुर में अपनी छोटी पुत्रवधू एडवोकेट उषा सिंह के पास आ गये। उषा जी के भाई के परिवार में उस समय त्रिलोचन रहे। मैं गया। संयत स्वर में त्रिलोचन जी ने कहा, लगता है जानकी वल्लभ जी से मिले बिना मैं दुनिया से चला जाऊँगा। मैंने कहा, जाड़ा बीतने पर आप मेरे साथ मुज़फ़्फ़रपुर उनके घर चलें। यह यात्रा फरवरी 2002 में संपन्न हुई। "सद्भावना एक्सप्रेस" मुरादाबाद से मिली। बनारस से बलिया तक दीनबन्धु तिवारी और गन्तव्य तक कवि ब्रह्मा शंकर पाण्डेय सहयात्री रहे।
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री, सुकान्त नागार्जुन, त्रिलोचन, वाचस्पति (बैठे)। मध्य में अशोक गुप्त, अभिधा प्रकाशन, ब्रह्मा शंकर पाण्डेय (बनारस से) (फरवरी 2002 ई. आचार्य जानकी वल्लभ- आवास) |
मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन पर रेवती रमण, अशोक गुप्त ने अगवानी की। आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री और त्रिलोचन शास्त्री राम-भरत की तरह मिले। आचार्य जी के आवास निराला निकेतन पर मेले जैसा वातावरण रहा! त्रिलोचन के बीए के सहपाठी आनंद भैरव शाही, नागार्जुन के कनिष्ठ पुत्र सुकान्त, राजेन्द्र प्रसाद सिंह, नंद किशोर नंदन, पूनम सिंह, रश्मि रेखा, विजयकांत, वीरेन नन्दा और अनेक स्थानीय साहित्यिक जनों की आवाजाही बनी रही। त्रिलोचन को जानकी वल्लभ जी, उनकी पत्नी छाया जी अधिक समय तक रोकने के इच्छुक रहे। पर वापसी के नियत दिन अपनी बैठक से आचार्य जी ने मुझे बाहर जाने का इशारा किया। मैं खिड़की की ओट में खड़ा हुआ।आचार्य जी त्रिलोचन से मुख़ातिब हुये-कहा, उम्र में साल भर मैं बड़ा हूँ पर ज्ञान में आप हैं। जो कहूँ उसे मानें। यह कह कर आवाज़ दी,बड़े!! पत्नी संबोधन सुन कर एक लिफ़ाफ़ा ले कर द्वार के निकट आईं। लिफ़ाफ़ा त्रिलोचन को सौंप कर उनका हाथ थामे आचार्य जी देर तक खड़े रहे! बाहर वह लिफ़ाफ़ा मैंने बिना खोले अपनी बटनदार जेब के हवाले किया।
डायरी में हस्ताक्षर देते- त्रिलोचन/वाचस्पति - 24 मार्च 2005 ई० ज्वालापुर |
इस यात्रा से वापसी में त्रिलोचन अपने अति प्रिय बनारस में शकुंतला जी के सामने घाट आवास पर रुके। उनसे भेंट करने डा. हरिओम-आई. ए. एस., रमेश पाण्डेय-आई. एफ. एस., ओम धीरज-पी. सी. एस. साहित्यिक जिज्ञासाओं के साथ आये। सपरिवार अवधेश प्रधान, बलराज पाण्डेय, काशी नाथ सिंह, गया सिंह, दीनबन्धु, राजेन्द्र आहुति आ कर मिले। आलोचक चन्द्रबली सिंह और नागरी प्रचारिणी सभा के सहकर्मी शिव शंकर मिश्र के आवास पर जा कर त्रिलोचन स्वयं मिले। साइटिका की पीड़ा भी उन्हें रोक नहीं पाई!
काव्यपाठ - मुद्रा में त्रिलोचन, उनके बी० ए० के सहपाठी आनन्द भैरव शाही। (फरवरी 2002 ई. आचार्य जानकी वल्लभ- आवास) |
त्रिलोचन की एक और, संभवतः अंतिम काशी-यात्रा जोकहरा-आज़मगढ़ के रामानंद सरस्वती पुस्तकालय के कार्यक्रम-प्रसंग में हुई। 14-15-16 अक्टूबर 2004 में काशी प्रवास में त्रिलोचन से अजय तिवारी, केदार नाथ सिंह, रामजी राय, व्योमेश शुक्ल, अरविन्द चतुर्वेद मिलने आये। पराड़कर भवन में 14 अक्टूबर 2004 व्योमेश के कार्यक्रम में उन्होंने काव्य पाठ किया। मेरे शासकीय महिला महाविद्यालय, आकाशवाणी-वाराणसी गये। उनकी उपस्थिति से सब कृतार्थ हुए।
पहली बार की बनारस-यात्रा से मैं उन्हें काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस से वापस ले गया। रायबरेली के कवि-लेखक आनंद स्वरूप श्रीवास्तव स्टेशन पर ट्रेन में मिले। त्रिलोचन जी के लखनऊ में अध्ययनरत पौत्र अद्रीश सिंह रेलवे स्टेशन पर आ कर मिले।
वाचस्पति,त्रिलोचन, डॉ० सुरेन्द्र कुमार शर्मा- भगवानपुर-रुड़की निवासी (अब स्मृति शेष) 30-6-2004 |
मुरादाबाद में हरिद्वार के लिए गाड़ी बदलनी थी। कोई गंगा स्नान का पर्व रहा। साधुओं की भीषण भीड़! महाकवि और मैं ट्रेन के फ़र्श पर अख़बार बिछा कर बैठे! हवाई जहाज और ए सी 1-2 के आदी इसे नोट करें। सबेरा हुआ। ट्रेन से उतर कर 372/328 लोधा मण्डी-ज्वालापुर में त्रिलोचन की पुत्रवधू एडवोकेट उषा सिंह के मकान पर पहुँचे। तंग बन्द गली का आख़िरी मकान, जहाँ छोटे-से अंतिम कमरे में जीवन-संध्या त्रिलोचन ने व्यतीत की! दिल्ली के पास वैशाली में पुत्र अमित प्रकाश सिंह के पास जाने के पूर्व वे ज्वालापुर की कोठरी में रहे।
फलाहारी त्रिलोचन / वाचस्पति- 30-6-2004 ई० |
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री प्रदत्त लिफ़ाफ़े को खोलने पर ₹5000/-निकले। त्रिलोचन जी को सौंप कर मैं वापस हुआ। उनके बड़े बेटे जय प्रकाश सिंह की पुस्तक "मेरे पिता त्रिलोचन : एक स्मृति लेख" में पृष्ठ 284 पर है, "मुझे बाद में किसी ने बताया वे पटना में बीमार पड़े जानकी वल्लभ शास्त्री को देखने गये थे। उनके इलाज के लिए 5000 रुपये भी दे आये थे।" यह सम्मान राशि आचार्य जी ने त्रिलोचन जी को विदाई के समय सम्मान स्वरूप भेंट की थी!
- प्रसन्नवदन त्रिलोचन ज्वालापुर, हरिद्वार- 24 मार्च 2005 ई० |
मैं नौकरी से छुट्टी लेकर या अवकाश होने पर ज्वालापुर जा कर मिलता और अपनी एक फटीचर डायरी पर उनसे कुछ-न-कुछ लिखवा लेता रहा। संध्या बेला की उस लिखावट से कहीं न कहीं त्रिलोचन के जीवन मर्म को महसूस किया जा सकता है। मुझे इस बात की आन्तरिक प्रसन्नता है कि जिन महाकवियों नागार्जुन-त्रिलोचन-धूमिल के सघन सुदीर्घ सान्निध्य में मैं रहा उनकी दूसरी-तीसरी पीढ़ी में कोई शौकिया भी कविता की तरफ नहीं गया। वैसे भी टाइम टेबुल बना कर कविता भला कहीं लिखी जा सकती है! निवेदन है कि अपने कवियों को किंवदंती पुरुष हरगिज न बनायें!!
वाचस्पति, 20अगस्त- त्रिलोचन-जयन्ती 2021 ई.
सम्पर्क
मो : 09450162925
बहुत ही सुन्दर लिखा है। संस्मरण की एक किताब लिख डालिए तो अतिउत्तम।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंअति सुंदर और पठनीय
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर संस्मरण
जवाब देंहटाएंआपके पास तो थाती है।त्रिलोचन जी जीवंत हो उठे।मैं तो कहता हूँ आचार्य नामवर जी अपनी वाचिक परम्परा से हिन्दी को थामे रहे तो वाचस्पति जी उसकी भौतिक परम्परा से, पत्रिकाओं के प्रसार, साहित्य के अनन्य प्रेम और साहित्यकारों के गहन प्रेमिल सम्पर्क से।यह अद्वितीय है।बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्यारा संस्मरण, हृदय स्नेह से भर गया।
जवाब देंहटाएंसचमुच आप नागार्जुन और त्रिलोचन जी की संतान हैं ,जयप्रकाश जी और अमितप्रकाश जी तो जन्मना हैं ।विजय बहादुर सिंह भी इसी अर्थ में नागर्जुन के बेटे हैं ।प्रणाम भाई ।
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