मदन कश्यप की कविताएँ
मदन कश्यप |
'हत्यारा' यह शब्द सुनते ही जेहन में तत्काल एक खौफ उभर आता है। हत्यारे चाहें जिस तरह के हों, वे इंसान होते हुए भी इंसानियत के दुश्मन होते हैं। हत्यारों की मानसिकता अपनी श्रेष्ठता जमाने की होती है, हालांकि इतिहास गवाह है कि वे आज तक कामयाब नहीं हो पाए। हिटलर जैसा व्यक्ति जो जर्मनी का एक समय में शासक बन गया था, वस्तुतः एक हत्यारा ही था। राष्ट्रवाद की बात कर वह सत्तारूढ़ हुआ था लेकिन यह तो महज छलावा था। लगभग साठ लाख यहूदियों को यातना दे कर मारने वाला हिटलर अन्त में खुदकुशी करने के लिए बाध्य हुआ। मदन कश्यप हमारे समय के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उनकी सूक्ष्म दृष्टि के हम कायल हैं। उन्होंने समय समय पर 'हत्यारे' शीर्षक से कविताएँ लिखी हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है मदन कश्यप की कविताएँ।
मदन कश्यप की सात कविताएँ
हत्यारों का दोस्त
हत्यारों के दोस्त बनोगे
वे तुम्हें रक्तपिपासु बनाएँगे
अभियान में ले जाएँगे
मारना सिखाएँगे
लेकिन यह भी कि
अगर कहीं
हताहत हो रहे लोगों ने दबोच लिया तुम्हें
तो वे साथ छोड़कर भाग जाएँगे
क्योंकि
हत्यारे सिर्फ मारना जानते हैं!
1987
हत्यारे का पोर्ट्रेट
लोकतन्त्र के सबसे पवित्र मन्दिर में
हत्यारे का पोर्ट्रेट लगाया गया
कुछ लोग विरोध में चीखे
मगर उनकी आवाज़
तस्वीर लगाने के लिए सीढ़ी पर चढ़े
चहेतों के घुटनों तक भी नहीं पहुँच पायी
हत्यारा कोई मामूली हत्यारा नहीं था
हालाँकि मामूली समझ कर ही
लोगों ने उसे इतिहास के कूड़ेदान में डाल रखा था
मगर उसके वंशज उसके अनुयायी
उसे भूले नहीं थे
वे हत्यारे की स्मृति को बचाये रखते हुए
धीरे-धीरे कर रहे थे अपना काम
इसका कोई मतलब नहीं
कि उसने कब कितनी हत्याएँ की थीं
वह आदमी से ज़्यादा
आदमीयत का हत्यारा था
सो जब-जब आदमी के साथ
आदमीयत मारी गयी
उसको याद किया गया
उसे महिमामण्डित किया गया
मामला चाहे अकेले गांधी का हो
या पूरे गुजरात का
इस बार जब मारी गयी मुकम्मिल आदमीयता
जरुरी हो गया पोट्र्रेट लगाना
ताकि हत्या पर सवाल उठाने की
बुरी आदतवालों से बचा जा सके।
(2003)
विजेता हत्यारा
जब पहली बार उसने हमारे एक पड़ोसी को मारा था
तब बेहद गुस्सा आया था।
हमने हत्यारे के खिलाफ आवाज़ें बुलंद की थीं
और जुलूस भी निकाले थे।
दूसरी बार जब एक और पड़ोसी मारा गया
तब मैं गुमसुम-सा हो गया था
घर दफ्तर सडक़ हर जगह असहाय और अकेला
फिर जब हमारे तीन-चार पड़ोसी एक साथ मारे गये
तब हम हत्यारे की जयकार करते हुए सडक़ों पर उतर आए।
अब मैं अकेला नहीं था। असहाय भी नहीं। पूरी भीड़ थी साथ।
हत्यारा अब विजेता बन चुका था। हमारा नायक।
2009
हत्यारा
वह तलाशता है अपने लिए सबसे सुरक्षित जगह
और गोलियाँ दागने से पहले पीछे मुड़ कर देखता है
बिना किसी डर और दर्द के अँधाधुँध हत्याएँ करने वाला
अपनी मौत से कितना डरता है
हत्यारा जब भी मारा जाता है गोली पीठ में ही लगती है
जिससे डर कर तुम भाग रहे होते हो वह खुद ही डरा हुआ होता है
साहसी लोग हत्याएँ नहीं करते
कभी-कभी अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए धमाके करते हैं
और हँसते-हँसते फाँसी पर चढ़ जाते हैं!
2010
धर्मनिरपेक्ष हत्यारा
हत्यारा धर्मनिरपेक्ष है
यह बहुत लोगों के लिए सुकून की बात है
भले ही वह हत्यारा है
सांप्रदायिक नहीं है
वह सभी धर्मों के अनुयायियों को
एक जैसी क्रूरता से मारता है
उसके पिंजरे का शेर
हिंदू-मुसलमान में फर्क नहीं करता
बस उसे ताज़ा रक्त और गर्म गोश्त चाहिए
उसके गुफाघर के विषधर
अगड़े-पिछड़े का भेद नहीं करते
समान भाव से फण मारते हैं
उसकी वहशी बंदूकें
अपने शिकारों के रंगरूप नहीं देखतीं
सबने अपनी-अपनी खुशी के
कारण तलाश लिये हैं
अगड़े खुश हैं
कि उनके सबसे तेज़ शूटर
हत्यारे के दायें-बायें रहते हैं
पिछड़े खुश हैं
कि हत्यारे के डर से
पुराने सामंत बिलों में घुस गये हैं
फिरकापरस्त खुश हैं
वे दुनिया को दिखा सकते हैं
कि सेकुलर कैसा हत्यारा होता है
‘कामरेड’ खुश हैं
इस संकट की घड़ी में सबसे ज़रूरी है
धर्मनिरपेक्ष होना जो वह है
दुखी है केवल कवि
क्योंकि हत्यारा हत्यारा है!
2007
हत्यारा रो रहा था
भरे सदन में हत्यारा रो रहा था
सकते में थे सभासद
वे भी जो उसी की तरह हत्यारे थे और
जनबल पर भारी पड़ता था जिनका बाहुबल
जिनके पति और बेटों को
चाकुओं से गोद-गोद कर
त्रिशूलों से छेद-छेद कर
भालों पर उछाल-उछाल कर
मारा था उसके कारिंदों ने
उन स्त्रियों के पवित्र आँसुओं को
बेजार करने की यह कैसी कुत्सित कोशिश थी
कि हत्यारा रो रहा था
अचानक यह क्या हुआ
कहाँ चली गयी वह दहाड़
जिससे काँप उठता था पूरा अंचल
यह भला कैसे हुआ कि
ठंडी पड़ गयीं बंदूकों की गोलियाँ
भोथरे हो गये चाकू
और त्रिशूल मानो गत्ते के बने हों
हत्यारा फूट-फूट कर रो रहा था
वह बताये जा रहा था
कि पुलिस उसके पीछे लगी थी
उसके लोगों को विधर्मियों को मारने का
पर्याप्त अवसर नहीं दे रही थी
वैसे तो उसने दंगे को अपने पूरे अंचल में फैला दिया था
गाँव-गाँव में उसकी धर्मसेना सक्रिय थी
फिर भी उतने लोग नहीं मारे गये थे
कि जिससे धर्म-ध्वजा का लहराना संभव हो सकता था
‘सूबे की सरकार पक्षपाती है
मुझ जैसे धर्मात्मा पर हत्या का आरोप लगाती है
मैंने तो कभी एक चींटी तक को नहीं मारा
किसी चिडिय़ा के पंख तक नहीं नोचे
ये हाथ केवल इबादत में उठते हैं
विधर्मियों का सफाया तो पूजा का ही हिस्सा है’
हत्यारा फफक-फफक कर रो रहा था
लोकतंत्र सांसत में था
संभाश्रेष्ठ गंभीरता से सब कुछ सुन रहे थे
सदन के सदस्यों की गरिमा की रक्षा
करना उनका कर्तव्य था
भले वह हत्यारा ही क्यों न हो
चाहे लोगों को डराकर संभव हो
अथवा उन्माद फैला कर
बस एक बार उस सदन के लिए
चुने जाने की जरूरत होती थी
फिर किसी भी हत्यारे को
विशेषणों के साथ महिमामंडित किया जा सकता था
धर्मनिरपेक्ष हत्यारा
धार्मिक हत्यारा
जुझारू हत्यारा
जनपक्षधर हत्यारा
विनम्र हत्यारा
अक्खर हत्यारा
निष्पक्ष हत्यारा
गैरतमंद हत्यारा
जरूरतमंद हत्यारा
हत्यारों की जाने कितनी किस्में थीं सदन में
यहाँ किसी भी हत्यारे को
केवल हत्यारा नहीं माना जाता था
लेकिन सदन के बाहर सडक़ पर जो जनता रहती थी
वह हत्यारे को हत्यारा ही मानती थी
हत्यारा इसलिए भी रो रहा था
कि अब भी लोगबाग उसे हत्यारा समझते थे
कैसे घडिय़ाली आँसू बहा रहा था वह वहशी
खून उसकी आँखों से भले ही टपकता रहा हो
रगों में तो दूषित खारा पानी ही बहा करता था
जो उस दिन आँसू बन कर निकल रहा था
हत्यारा बिलख-बिलख कर रो रहा था!
2006
पिता का हत्यारा
उसके हाथ में एक फूल होता है
जो मुझे चाकू की तरह दिखता है
सच तो यह है कि वह चाकू ही होता है
जो कैमरों में फूल जैसा दिखता है
और उन तमाम लोगों को भी फूल ही दिखता है
जो अपनी आँखों से नहीं देखते
वह मेरे पिता का हत्यारा है
रोज ही मिलता है
टेलीविजन चैनलों और अखबारों में ही नहीं
कभी-कभार
सडक़ों पर
आमने-सामने भी
मैं इतना डर जाता हूँ
कि डरा हुआ नहीं होने का नाटक भी नहीं कर पाता
चौदह वर्ष का था जब पिता की हत्या हुई थी
पिछले तीन वर्षों से बस यही सीख रहा हूँ
कि जीने केलिए कितना ज़रूरी है मरना
पिता का शव अस्पताल से घर आया था
तब मुझे ठीक से पता भी नहीं था कि उनकी हत्या हुई है
हमें बताया गया था वे एक पार्टी में गये थे
और अचानक उनके हृदय की गति रुक गयी
तीसरे दिन हत्यारे के आ धमकने के बाद ही पता चला
उनकी हत्या हुई थी
उसके आने से पहले चेतावनियाँ आने लगी थीं
धमकियाँ पहुँचने लगी थीं
यह प्रलोभन भी कि मैं जी सकता हूँ
जैसे पिता भी चाहते तो जी सकते थे
बिल्कुल मेरे घर वह अकेले ही आया
सफेद कपड़ों में निहत्था एक तन्दुरुस्त आदमी
उसने अंगरक्षकों को कुछ पीछे और
अपने समर्थकों को कुछ और अधिक पीछे रोक दिया था
मेरे माथे पर हाथ फेरा
लगा जैसे चमड़े सहित मेरे बाल नुच जाएँगे
सिसकते हुए मैं अपने गालों पर लुढक़ रहे
आँसुओं को छू कर आश्वस्त हुआ
वह खून की धार नहीं थी
वह बिना किसी आग्रह के बैठ गया
और हमारे ही घर में हमें बैठने का इशारा किया
फिर धीरे-धीरे बोलने लगा—
मानो मुझसे या मेरी माँ से नहीं
किसी अदृश्य से बातें कर रहा हो
करनी पड़ती है
हत्या भी करनी पड़ती है
तुम बच्चे हो और तुम्हारी माँ एक विधवा
धीरे-धीरे सब समझ जाओगे
मैं समझता हूँ तुम अभी जीना चाहते हो
और मैं भी इस मामले को यहीं खत्म कर देना चाहता हूँ
यह इकलौती नहीं है
और भी हत्याएँ हैं और भी हत्याएँ होनी हैं
तुम्हें साफ-साफ बता दूँ
कि हत्या मेरी मज़बूरी या ज़रूरत भर नहीं है
वे और हैं जो राजनीति के लिए हत्याएँ करते हैं
मैं हत्या के लिए राजनीति करता हूँ
हत्या को संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा बना कर
तमाम विवादों-बहसों को खत्म कर दूँगा एक साथ
और जाते-जाते तुम्हें साफ-साफ बता दूँ
तुम्हारे पिता की हत्या ही हुई थी
क्योंकि वह मुझे हत्यारा सिद्ध करने की जि़द नहीं छोड़ रहे थे
अब तुम ऐसी कोई जि़द मत पालना
वह चला गया तब कैमरे वाले आये
मैंने साफ-साफ कहा मेरे पिता की हत्या नहीं हुई थी
वह स्वाभाविक मौत थी ज़्यादा से ज़्यादा दुर्घटना कह सकते हैं
फिर मैंने स्कूल में अपने साथियों को ही नहीं
सडक़ के राहगीरों और पड़ोसियों को ही नहीं
घर में अपने दादा जी को भी बताया
मेरे पिता की हत्या नहीं हुई थी
बस एक वही थे जो मान नहीं रहे थे
और एक दिन तो सपने में चिल्ला उठा
नहीं-नहीं मेरे पिता की हत्या नहीं हुई थी!
2018
(इस पोस्ट
में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेंद्र जी की हैं।)
सम्पर्क
ई- मेल : madankashyap0@gmail.com
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