क्षितिज जैन 'अनघ' की कविताएँ

क्षितिज जैन 'अनघ'



परिचय-


नाम- क्षितिज जैन "अनघ"

वय- 17 वर्ष

शिक्षा- सेंट स्टीफन कॉलेज,दिल्ली विश्वविद्यालय में बीए ऑनर्स प्रथम वर्ष में अध्ययन

साहित्यिक उपलब्धि- देश-विदेश के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

दो पुस्तको- क्षितिजारुण एवं जीवन पथ का प्रकाशन

विशेष उपलब्धि- आकाशवाणी माउंट आबू से भेंट वार्ता प्रसारित

राजस्थान पत्रिका के उपक्रम वैशाली पत्रिका में इंटरव्यू प्रकाशित

सम्पादन- साहित्य हंट मासिक ई पत्रिका में सह संपादक ।

सम्प्रति- जयपुर में वास


किसी भी रचनाकार की रचनाएँ उसके समय की प्रतिनिधि आवाज हुआ करती हैं। कवि का कर्म उतना आसान नहीं होता जितना कि आमतौर पर उसे समझा या माना जाता है। कभी कभी कवि को अपने समाज और शासन सत्ता के उस स्वर के खिलाफ भी जाना पड़ता है, जो मनुष्यता विरोधी होती है। ऐसा स्वर उठाना हमेशा खतरनाक होता है। लेकिन कवि तो वही होता है जो खतरे उठा कर भी मनुष्यता के पक्ष में खड़ा रहे। 

ग्रेजिया डेलेडा की एक कविता की पंक्तियां इस प्रकार हैं : 'अगर आपका बच्चा कविता लिखता है/ तो उसे पहाड़ों पर घूमने के लिए भेज दें।/ अगर वह फिर भी लिखता है/ तो उसे सजा दें/ अगर वह तब भी नही रुकता/ तो उसे लिखने दें/ वह वास्तव में कवि है।' 

क्षितिज जैन अनघ ने कविता की दुनिया में अभी प्रवेश ही किया है। हर नए कवि की तरह क्षितिज ने भी छन्द और तुक का प्रयोग किया है। लेकिन उनकी कविताएं पढ़ कर सहज ही यह कहा जा सकता है कि इस किशोर कवि में कविता की उबड़ खाबड़ जमीन पर चलने का जज्बा है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है क्षितिज जैन अनघ की कविताएँ।



क्षितिज जैन 'अनघ' की कविताएँ



किधर जा रहे हैं?


भी सिर उठा कर सोचना 

हम किधर जा रहे हैं?


कर्म अशुद्ध, अशुद्ध वृत्ति

अशुद्ध हो चुका है  मन

चारों ओर बस दिख रहा

आज पतन  ही  पतन।

समझ नहीं आता स्वयं को 

हम क्या बना रहे हैं ?


सिर पर चढ़ रहा है नशा 

और आंखों में दिखे मस्ती 

मानव मात्र की अस्मिता

हो गयी है कितनी सस्ती!

कालासुर से भी भयंकर विचार

मस्तिष्क पर छा रहे हैं।

 

सत्य का कोई बोध नहीं 

न परिवेश का ही ध्यान 

सहर्ष हम सब किए जाते 

अधरों से अपने विषपान।

कालकूट धर कर मानवता को 

हलाहल यह पिला रहे हैं।


दानव कहाँ तक ढूँढेंगे 

यहाँ हरेक में छिपा अंश 

लिपट देह से बन भुजंग 

मारता है विषैला  दंश।

देवत्व को खोजो पुन: आज 

दानव सिर उठा रहे हैं।


अर्थ नहीं 


निज मूल्य विहीन मनीषा का

सच पूछो कोई अर्थ नहीं।


बीत गए युग-मन्वंतर 

कल्प भी जाने कितने बीते

इस देश के सुत सभी 

अपने आदर्श रहे हैं जीते

सदियों की संचित अनुभूति 

हो सकती व्यर्थ नहीं।


अभिहित शिल्प छोड़ जो  

पाना चाहते हैं नया आकार 

विकृति से विघटन होगा 

असंभव सौन्दर्य परिष्कार 

जीवन के महत उत्थान में 

पराई पहचान समर्थ नहीं।


चमक-दमक से भ्रमित हो 

करना बस अंधानुकरण 

करते जा रहे अपने उदर का

उच्छिष्ट से ही भरण 

मन के दास हो जाने से 

बड़ा कोई अनर्थ नहीं।





नई हवा 


समझदार हो तो इशारा समझो 

यह हवा किधर को बह रही है।


रुख बदला व्यवहार साथ में 

हर ओर दिख रहा  बदलाव

कोई भी इस से  सहज नहीं

सबके माथे पर खिंचा तनाव।

छिपे छिपे संकेतों में भी ऐसे 

बहुत कुछ हमसे कह रही है।


इन छिपे संकेतों में दिखती 

समय की बहुत बड़ी सच्चाई 

अदृश्य कहीं झांक रही होती 

तथ्यों की झीनी सी परछाई।

यह हवा कर रही कहाँ इंगित 

किन सत्यों को गह रही  है।


साँय साँय का स्वर मत खोजो 

परिवर्तन के इन रूखे गानों में 

समझा पाती है बस कभी कभार

नई हवा पड़ कर हमारे कानों में।

न समझे जाने की दुखद पीड़ा 

शायद हरेक युग में सह रही है।


नारा शरणं गच्छामि


समीकरणों के विशाल हाट में 

सजे हुए अलग अलग नारे हैं। 


किसी को कह युगपुरुष नायक 

एक नारा कर रहा उसकी पूजा 

और उसी को बता कर कुत्सित 

खूब भर्त्सना कर रहा है दूजा।

किसी नायक या खलनायक के 

ये सभी बने प्रखर जयकारे हैं।


नारा शरणं गच्छामि कहते हैं 

बाज़ार के ये नारे लगाने वाले

छोर नहीं इस बड़ी भीड़  का 

तो कम नहीं शरण जाने वाले।

नारे आज खूब फल फूल रहें

शरण में आए रहते बेचारे हैं।


एक नारा कहता है कुचलो सिर 

कुचले बिना काम नहीं  चलेगा 

औ दूसरा कहता पहले वालों का 

निर्ममता से स्वयं सिर कुचलेगा।

निर्माण के नाम पर हिंसक हो

घृणित चिर शत्रु बन बैठे सारे हैं।    



नवाचार अपनाना होगा 


दृग मींचे कल्पना बहुत की

अब कुछ पौरुष दिखाना होगा

जिसे कहा गया रेत का महल 

उसे आज सत्य बनाना होगा।


जिधर भी बढ़ाओगे पग अपना

वहीं दिखने लगेंगी नई दिशाएँ

आँखों के समक्ष उभर आएंगी 

वे अकल्पित अनंत संभावनाएं।

स्वयं में भी परिवर्तन कर कुछ 

अनुकूल नवाचार अपनाना होगा।


अपनी प्रेरणा खुद ही बन कर

स्थापित करना है नव संवाद

निमिष को भी भटका न सकें 

भय, संशय आलस्य या प्रमाद।

हाथ में आए किसी अवसर को 

जलकण सम नहीं लुटाना होगा।  


कितने ही चलते गंतव्य की ओर 

पर बीच पथ में ही थक जाते हैं

और देख चुनौतियों को कितने ही  

अपना गर्वीला मस्तक झुकाते हैं।

पर तुम्हें बन अडिग हे अन्वेषी! 

अपना गंतव्य अवश्य पाना होगा।

    

जो खुद कभी पग न उठा सके 

वे कापुरूष करेंगे तुम्हारा उपहास 

बस झांक लेना उनकी आँखों में

जो चाहेंगे देना तुम्हें कोई त्रास।

लोकभय की इन खिंची लकीरों को 

अपने पदचिह्नों से मिटाना होगा।





प्रश्न करना सीखिए 


मौन मनोवृत्ति त्याग कर 

कुछ प्रश्न करना सीखिए।


चारों और बिछे हैं अनगिन

आवरण और झूठे आडंबर 

अवसरवाद की पोथी बाँचते

सभी शास्त्रज्ञ मनीषी प्रवर।

जिन सिद्धांतों पर हो श्रद्धा  

उन पर सदा मरना सीखिए।


अपने लोक में विचरण करें 

किस काम की वह प्रतिभा?

सार्थकता उसमे संभव तभी

यदि लाए अधरों पर ललिमा।

जो क्षमताएँ पाईं हैं उनसे

औरों की पीड़ा हरना सीखिए।

 

हमारा जीवन और क्या है?

भावनाओं का एक शिलालेख 

फैले हुए हैं इसपर जालों में 

विभिन्न कर्मों से बने रेख।

जीवन की इन रेखाओं में 

उल्लास के रंग भरना सीखिए।


परिवर्तन की कथा 


अंतर्द्वंद्वों से ग्रसित इतिहास जब 

परिवर्तन की कथा कहता है।


आदर्शों के प्रतिमान अनेक 

मूर्त शिल्प में गढ़ता है 

मंथर गति या त्वरित वेग से 

कालचक्र आगे बढ़ता है।


उन विफल हो गए स्वप्नों की 

वह भीषण व्यथा कहता है।


जब भी सभ्यता के श्रवणों में 

कोई स्वप्न सुनाया जाता है 

स्वयं समय करता निश्चय नया 

और परिवर्तन लाया जाता है।

   

आदर्शों से उत्पन्न आचारों की 

यह इतिहास प्रथा कहता है।



जितना बन कर दीपक तू 


जितना बन कर दीपक तू 

निरंतर एकाकी जलता जाएगा

काई सा अटा यह अंधेरा 

मोम जैसा पिघलता जाएगा।


साध होगी मन में उजाले की 

पर किसी दूसरे की बाट जोहेगा 

छीजती ज्योति के नेपथ्य में 

अपना निज संबल तू खोएगा।


जब पड़ गए पग निर्भीक हो 

उसी क्षण से तू सम्हलता जाएगा।


तन मन हो जाए छलनी

टीसते रहे पीड़ा देते घाव 

पर लिए उजाला हृदय में

रोकेगा नहीं तू अपने पाँव।


अंधेरे से प्रकाश के पथ पर 

सदा आशा लिए चलता जाएगा।


एक दिन में कहानी विजय की 

कोई मानव लिखता नहीं है 

किसी सपने का सच्चाई होना 

निमिष भर में दिखता नहीं है।


तू आश्वस्त भाव से चलता रह

तेरा परिवेश खुद बदलता जाएगा।


कुंभकार का घट मनोहर 

पहले तीखी धूप चूमता है

जब आ जाती दृढ़ता उसमे 

तब कहीं चाक पर घूमता है।


दृढ़ बनते बनते तेरा सपना 

कर्म के सांचे में ढलता जाएगा।





कवि की चेतना 


जहाँ सत्ता मृत्यु सी मूर्च्छा की 

चेतना की जाग्रति प्रतिषिद्ध है।


उन्हीं काली दीवारों के तल में 

नन्हा दीपक टिमटिमाया है 

नए प्राण भरने सोये विश्व में 

विद्रोही कहलाता कवि आया है।


सृजन की जय को किया पुन:

निज रचना से सत्य सिद्ध है।


उसके स्वर को कुचलने का

हर संभव था प्रयास हुआ 

जैसे जैसे उसे दबाया गया 

कविता का विकास हुआ।


भूगर्भ का लावा बन कर  

वह कविता हुई प्रसिद्ध है ।


जब भी कोई चेतन मानव 

सृजन के वे गीत गाता है

जीवन का वह अमर कवि 

जय का उत्सव मनाता है।


चेतना में खुद विलीन हो कर 

कवि ने जीवन किया समृद्ध है।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)





टिप्पणियाँ

  1. पहली बार जैसे प्रतिष्ठित साहित्यिक मंच पर क्षितिज भ‌इया की कविताएँ/ गीत देखकर प्रसन्नता हुई।आपको हृदय तल से बधाई!! - अनुज पाण्डेय

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    उत्तर
    1. आपका बहुत बहुत आभार अनुज!! आपको भी इसका श्रेय जाता है क्योंकि पहली बार से मुझे आपने ही परिचित कराया था!!!

      हटाएं
  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14.01.2021 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर सृजन , बहुत बहुत बधाई लिखते रहिए साहित्य आसमान पर चमकते रहिये।
    यथार्थ वाली लेखन।
    मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय/ आदरणीया!! मकर संक्रांति की आपको भी सादर शुभकामनाएं।

      हटाएं

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