आदित्य विक्रम सिंह का स्मृति लेख “वह नाम जो रवि था”

 

रविशंकर उपाध्याय

वह एक धूमकेतु की तरह आया और कुछ पल की चमक बिखेर कर पता नहीं कहाँ ब्रह्माण्ड के विस्तार में अपना हिस्सा बँटाने चला गया। उससे जब भी मैं मिला वह हमेशा मुस्कुराते मिला। उसको देख कर या उससे बात कर एक पल के लिए भी ऐसा नहीं लगता था कि वह एक अत्यन्त सामान्य कृषक परिवार का है, जिसकी नियति आर्थिक अभाव की होती है। अभी उसकी उम्र ही क्या थी लेकिन निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि वह एक उम्दा संयोजनकर्ता था। अपने साथियों के लिए प्रेरणास्पद व्यक्तित्व था। आज भी उसके तमाम मित्र उसका नाम आते ही सम्मान से श्रद्धावनत हो जाते हैं और उनकी आंखें सहज ही नम हो आती हैं। उसके चुम्बकीय आकर्षण से बच पाना लगभग नामुमकिन होता था। वह छात्र था लेकिन गुरुजन आज भी उसे श्रद्धा से याद करते हैं। उसकी अभी उम्र ही क्या थी लेकिन झूठ को सच करते हुए एक परिन्दे की मानिन्द वह इस दुनिया से किसी दूसरी दुनिया में चला गया। ऐसे व्यक्तित्व का नाम था रविशंकर उपाध्याय। आज भी उसके लिए 'था' या 'स्वर्गीय' लिखने को जी नहीं करता। वाकई वह नाम के अनुरूप ही रवि था। आदित्य विक्रम सिंह ने अपने मित्र रविशंकर को शिद्दत से याद करते हुए एक स्मृति आलेख लिखा है। रविशंकर को स्मृति को नमन करते हुए आज पहली बार पर प्रस्तुत है आदित्य विक्रम सिंह का स्मृति लेख “वह नाम जो रवि था।”



“वह नाम जो रवि था”

                                            

आदित्य विक्रम सिंह

 

 

“पर कमाल है

ऐसी शोधक रुत में

उस आखिरी पत्ते का समर्पण

जिसने

खिजां के दौर में भी

जोड़े रखा वृक्ष के साथ रिश्ता

सिर्फ इसी उम्मीद के साथ

की नवांकुरों की रुत फिर लौट आयेगी...

 

“सरबजीत सोही”

   

                   

साल बीत जाता है, कैलेंडर बदल जाते हैं लेकिन स्मृतियां कहाँ बदलती हैं या यूँ कहें की कहाँ पीछे छूटती हैं। हमारे बीच से अचानक चले गए प्रिय कवि मरहूम मंगलेश डबराल की कविता की एक प्रसिद्ध पंक्ति है –“स्मृति एक दूसरा समय है” मुझे लगता है स्मृति के मामले में दूसरा समय हमेशा पहले समय से भी पहले आ जाता है। आज आचार्य की याद में बात करना इसलिए नहीं हैं कि आज 12 जनवरी है कि आज के दिन आपके नाम से कोई आयोजन होगा और किसी नवोदित कवि को पुरस्कार मिलेगा। कविताएं, कवि पुरस्कृत होते है स्मृतियां कभी पुरस्कृत नहीं हो पाती। उन्हे सहेजना होता है साथ रखना होता है और लिखना होता है और इसी अर्थों में आचार्य आपसे जुड़ी स्मृतियां पिछले सात सालों में एक हर्फ़ भी नहीं छूटी हमसे। आचार्य को याद करना अपने उस संबल को याद करना है जिसकी जरुरत गाहे बा गाहे न हो कर हमेशा महसूस हुई हैं। जीवन की आपाधापी में हमें हमेशा रश्क होता है उस शख्स से जो जीवन में व्यवस्थित होने का पैमाना निर्मित करता है। आचार्य के जाने से वो पैमाना ध्वस्त हो गया और हम बेतरतीबी के अथाह सागर में डूब गए।

                  

 

पिछले दिनों सारी दुनिया महामारी से संक्रमित हो चुकी थी जो जहां था सरकारी हद में कैद था। अजनबियत वैसे भी हमारे दौर का सबसे ज्यादा प्रयोग में आने वाला शब्द बन चुका है। उसी समय कोरोना ने क्वॉरेंटाइन शब्द से हमको परिचित करवाया। रजिन्दर सिंह बेदी की एक कहानी पिछले दिनों पढ़ी इसी शीर्षक से, पता नहीं जीवन को ना समझने वाला भाव और पुख्ता हो गया। शिलांग में रहने के दौरान अजनबीपन और अकेलापन सम्यक रूप से ज़ेहन पर तारी हुआ और यह वाक्य बार-बार दिमाग में अटकने लगा कि काश आचार्य साथ होते। और आज सात साल बाद आचार्य पर कुछ लिखना चाहा। आचार्य को हमसे बिछड़े एक अरसा हुआ पर बिछड़न शब्द उपयुक्त नहीं क्योंकि वो अब भी कहीं ना कहीं हममें शामिल हैं।

                     

 

पिछले दिनों हमारे समय में सबसे सरल तरीके से मानीखेज बात रखने वाले गुरु विश्वनाथ त्रिपाठी को पढ़ते हुए पता चला कि उन पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का स्नेह उनकी कमतरी के कारण था। रविशंकर जो कि हमारे आचार्य थे उनसे भी हमारा रिश्ता कुछ इसी मिजाज़ का था।      

               

 

मार्च में लॉकडाउन लगा और इतना अचानक लगा शायद नगर निगम भी इतनी अचानक से पानी न बंद करता होगा। पूरे भारत में जो जहां था वहीं फंस गया। जैसे तैसे समृद्धिशाली लोगों ने अपनी परिस्थितिजन्य सुविधा का निर्माण कर लिया पर बात तो वहीं अटकती है जो साधनविहीन थे। और छात्र अधिकतर इसी कैटेगरी में आते हैं। पूर्वोत्तर वैसे भी परिवहन के मामले में प्रकृतिजन्य दुश्वारिता का सामना करता रहा है और कुछ जीवन की परिस्थितियां भी अनुकूल नहीं होती की छात्र तुरत फुरत में कहीं आना-जाना मैनेज कर सके। अगर मैं पिछले दशक में लौटूं तो काशी हिंदू विश्वविद्यालय में वर्ष के समाप्त होने पर कुछ दिनों के लिए हमें छात्रावास से बेदखल होने वाला अवकाश मिलता था भी। उस दौर में भटकते हुए छात्रों के लिए आचार्य का जो व्यवहार होता था आज उसकी कमी बारहा महसूस हुई।

              

 

आधी मई, पूरा जून और तिहाई जुलाई आचार्य के साथ मैं विश्वविद्यालय परिसर के बाहर रहता था यह सिलसिला लगभग 2 साल (परास्नातक के दौरान) चला। आचार्य का सुबह शाम का रूटीन वर्क था उन सब की वो खोज खबर लेते थे जिनमें बहुतों की दिलचस्पी नहीं होती। अमूमन वो अखबार वाला जो दो महीने बेरोजगार रहता था। परिसर के अंदर उन तमाम छोटे छोटे दुकानदारों से उनका रोज का मिलना होता जिनकी दुकानदारी छात्रावास बंद होने के कारण ठप हो चुकी होती थी। उनके इस रूटीन कार्य से अगर कभी हमें झल्लाहट भी हो जाए तो वे तुरंत सुनाते कि कैसे आम जनों के बीच उठने बैठने से ही साहित्य को समझने की उनकी समझ विकसित होती है, लगे हाथ प्रेमचंद का वह किस्सा भी साझा करते की कैसे वो एक बार महादेवी जी के यहां गए थे और घंटों बाहर बैठ कर सेवकों से बात करते रह गए। लॉकडाउन के दौरान आचार्य अगर हमारे बीच होते तो शायद हम इस लॉकडाउन को और रचनात्मक तरीके से बिताते। कम से कम जब भी बीच में हम बिल्कुल अकेले महसूस करने लगते तब तक आचार्य का फोन आ जाता और कोई साहित्यिक कार्य सौंप कर हमें निराशा की गर्त में जाने से बचा लेते। इस एकांत वाले में रहने वालों को याद करते हुए एक घटना याद आती है। छात्रावास के दिनों में हमारे बीच एक साथी थे, जिनका अन्य छात्रों से बिल्कुल भी संबंध न था। वो रहते भी परिसर से बाहर थे। एक दिन अचानक छात्रावास में खबर आई कि कोई हिंदी का छात्र गंभीर बीमार हो कर मेडिकल में भर्ती है। पता चलने पर आचार्य तुरंत तैयार हो गए। हम लोगों ने मना किया कि हमारा उनसे कोई संबंध नहीं पर आचार्य हम लोगों को ले कर गए। उस समय की स्थिति बहुत भावपूर्ण हो गई। वह साथी अकेले थे। अमूमन कोई छात्र  बीमार पड़ता है तो सारे छात्र उसके पास मौजूद होते हैं। पर उस समय आचार्य के जाने से उस बुझी हुई आंखों में जो चमक आई वो आज तक हमारे स्मरण में है। तब से ले कर उनके ठीक होने तक आचार्य नियमित सुबह शाम उनका हाल लेते रहे।

               

 

अनुभव और आदर्श को एक साथ पिरो कर आचार्य काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की परिधि से निकल कर बनारस के बहसों, मुबाहिसों में भी उठने-बैठने लगे थे। बनारस के फक्कड़ मौसम में वहां की घाटों, सड़कों से  जो एक समझ बनती है उस समझ का विकसित रूप रविशंकर उपाध्याय के व्यक्तित्व में दिखलाई पड़ने लगा था। सब के हमदर्द बन सबकी बातों को सुनना, बनारस की अड़ियों से ले कर विश्वविद्यालय की कड़ियों तक उनका विस्तार होने लगा था और बनारस की विभिन्न चर्चाओं में अपनी उपस्थिति को वह दर्ज करते चले जा रहे थे। राजनीति हो या जीवन की नीति या फिर साहित्य के समझ की बात हो वह बीएचयू के अंदर सीमित दायरे को तोड साहित्य को दूसरे विभाग के द्वार तक ले गए जिसकी याद आज वहां मौजूद उनके समकालीन छात्र शिक्षक भी करते हैं।

 

                 

हम अगर फिर इस समय में लौटे तो पाते हैं कि लॉकडाउन के दौरान कविता कवि और कवि सम्मेलनों की अचानक बाढ़ सी आ गई। फेसबुक अगर लाइव आने का चार्ज करने लगता तो पक्का है सिर्फ हिंदी समाज के धन से ही ज़ुकेरबर्ग दूसरा व्यवसाय खड़ा कर दिए होते। फिलहाल इस दौरान अपनी पीढ़ी के बाद की पीढ़ी को अगर मैं देखूं तो छात्रों ने आचार्य के क्रियाकलापों का ठीक से अनुसरण किया है, एक साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन और दूसरा किताबों का संचयन। आचार्य की परंपरा को आगे बढ़ते देख कर बहुत सुकून मिलता है। वंशीधर उपाध्याय और उनके टीम के साथी और हमारे आदरणीय शिक्षक श्री श्रीप्रकाश शुक्ल ने पिछले सात सालों से हर साल तमाम कार्यक्रमों से आचार्य को जिस तरह से हमारे बीच मौजूद रखा है वो बेमिसाल है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग जो कि अपनी साहित्यिक परंपरा के लिए समूचे भारत में जाना जाता है। वहां पर छात्रों द्वारा साहित्यिक कार्यक्रमों के आयोजन और निर्माण में आचार्य की महती भूमिका रही है। मैं यह नहीं कहता कि इसका सूत्रपात आचार्य ने किया परंतु इस को पुनर्जीवन जरूर आचार्य ने दिया। 21वीं सदी के पहले दशक के तमाम युवा साहित्यकार इस बात के लिए ताउम्र आचार्य के शुक्रगुजार रहेंगे कि आचार्य ने ही उनको और उनके साहित्य को हिंदी विभाग के छात्रों से परिचित कराया। मुझे याद आता है 2011 का युवा कवि संगम जिसकी रूपरेखा आचार्य ने इतनी सर्जनात्मक तरीके से की थी कि हमारी सदी के सबसे बड़े कवि केदार नाथ सिंह ने उसकी तारीफ में कहा था कि ऐसा आयोजन साठ के दशक में तब हुआ था जब वे वहां थे, फिर उसके बाद आज हो रहा है। नेतृत्व की अद्भुत क्षमता आचार्य में थी उनके जाने के बाद तमाम कवि संगम हुए पर वह बात नहीं रही। फिलहाल उस पर फिर कभी बात। तो मैं जो कह रहा था उसमें दूसरी बात यह कि पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ किताबों के संग्रहण की जो उनकी रुचि थी वह तमाम छात्रों के लिए मानक सिद्ध हुई है। हालांकि एक बात जोड़ दूं आचार्य संग्रह के साथ-साथ उनका अध्ययन भी करते थे। जिसका अब की पीढ़ी में थोड़ा अभाव दिखता है ‌

            

 

जिस शिद्दत के साथ आचार्य समकालीन साहित्य से जुड़ते थे उनके जाने के बाद ‘डॉ रविशंकर उपाध्याय स्मृति संस्थान’ ने उस परंपरा को बदस्तूर जारी रखा है। पिछले छ: सालों में हर साल एक युवा कवि को चुन कर उसको पुरस्कृत करना आचार्य के उस सपने का फलीभूत होना है जिसमें उन्होंने समकालीन साहित्य के प्रसार का बीड़ा उठा रखा था। इस वर्ष उनके जन्मदिन पर होने वाले पुरस्कार समारोह को वैश्विक महामारी के प्रकोप के कारण आगे के दिनों में करने का निर्णय लिया गया है। इस वर्ष पुरस्कृत कवि गौरव भारती को ढेर सारी शुभकामनाएं इस उम्मीद के साथ कि वह आचार्य के सपने को अपनी कविताओं और साहित्य के माध्यम से जीवंत और स्पंदित रखेंगे।

 

(लेखक रविशंकर के मित्र हैं और उनसे may2fair@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

 

 

आदित्य विक्रम सिंह

 

 

 

 

सम्पर्क 

 

मो.- 9532008975

टिप्पणियाँ

  1. एक कवि हमेशा अपनी कविताओं में जिंदा रहता है, लेकिन रविशंकर उपाध्याय (यानी आचार्य) अपनी कविताओं के साथ–साथ हमरी स्मृति में कभी न बुझने वाले दीपक हैं। संपादक ने ठीक ही लिखा है कि उनके लिए 'था ' लगाने का मन नहीं करता। आदित्य भैया ने जिस संजीदगी से आचार्य को याद किया है वह उनके कवि व्यक्तित्व को जानने में बहुत सार्थक है।

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