डी एम मिश्र की ग़ज़लें
किसान जमीन से जुड़ा वह व्यक्ति होता है जो महज अन्न का उत्पादन ही नहीं करता बल्कि समाज के सभी व्यक्तियों के जीवन के लिए जरूरी संसाधन उपलब्ध कराता है। उसके उत्पादित अन्न से बाकी लोग अपने कार्यों को सुचारू रूप से सम्पन्न कर पाते हैं। इस तरह किसान धरती पर प्रत्यक्ष देवता होता है। दुर्भाग्यवश उसी किसान को तमाम दिक्कतें और जलालतें झेलनी पड़ती हैं। उदारीकरण ने किसानों की दशा को और भी खराब कर दिया है। इससे किसानों के शोषण के और कई नए रास्ते खुले हैं। आज एक बार फिर किसान अपनी माँगों को लेकर आन्दोलनरत हैं। डी एम मिश्र ने इधर किसान आन्दोलन के साथ खड़ी कुछ उम्दा गज़लें लिखी हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है डी एम मिश्र की ग़ज़लें।
डी एम मिश्र की ग़ज़लें
1
सरकार चेत जाइये, डरिये किसान से
बिजली न कहीं फाट पड़े आसमान से।
चुपचाप है वो इसलिए गूंगा समझ लिया
वो ख़ूब सोच समझ के बोले ज़ुबान से।
मिट्टी का वो माधव नहीं जो सोच रहे हैं
फौलाद का बना है वो देखें तो ध्यान से।
हालात हैं ख़राब मगर हैसियत बड़ी
चिथड़ों में भी हुज़ूर वो रहता है शान से।
सब भेड़िए, सियार भगें दुम दबा के दूर
जब ढोल पीटता है वो ऊंचे मचान से।
गोदाम भरे जिसकी कमाई से आपके
झोला लिए खाली वही लौटा दुकान से।
तकलीफ़देह हों जो किसानों के वास्ते
ऐसे सभी क़ानून हटें संविधान से।
खुद रह के जो भूखा सभी के पेट पालता
आओ तुम्हें मिलायें आज उस महान से।
2
कृषकों का जो शोषण करती वह सरकार निकम्मी है
मज़लूमों का ख़ून चूसती वह सरकार निकम्मी है।
कैसा लोकतंत्र है जिसमें जनता भूखी सोती हो?
सत्ता के जो मद में रहती वह सरकार निकम्मी है।
मंगल, चन्द्र, बृहस्पति पर जाने की बातें बेमानी
झोपड़ियों तक पहुँच न सकती वह सरकार निकम्मी है।
टैक्स वसूले, भरे तिजोरी, भष्टाचार में लिप्त रहे
कमज़ोरों की मदद न करती वह सरकार निकम्मी है।
पिछले वादे हुए न पूरे होने लगे नये वादे
जनता से जो झूठ बोलती वह सरकार निकम्मी है।
तेरा पर्दाफ़ाश हो चुका बंद भी कर जुमलेबाजी
आँखों में जो धूल झोंकती वह सरकार निकम्मी है।
रोटी माँगो लाठी खाओ ऐसी तानाशाही हो
जिसके डर से काँपे धरती वह सरकार निकम्मी है।
ग्राम सभा से लोकसभा तक देखो खेल सियासत का
कानी कुतिया थू- थू करती वह सरकार निकम्मी है।
फिर ऐसी आँधी आती है सिंहासन हिल उठते हैं
जनता जब यह कहने लगती वह सरकार निकम्मी है।
3
कौन कहता है कि वो फंदा लगा करके मरा?
इस व्यवस्था को वो आईना दिखा करके मरा।
ज़ु़ल्म से लड़ने को उसके पास क्या हथियार था?
कम से कम गुस्सा तो वो अपना दिखा करके मरा।
ख़त्म उसकी खेतियाँ जब हो गयीं तो क्या करे
दूर तक भगवान की सत्ता हिला करके मरा ।
भूख से मरने से बेहतर था कि कुछ खा कर मरा
चार -छै गाली कमीनों को सुना करके मरा।
रोज़ ही वो मर रहा था, जान थी उसमें कहाँ
आज तो अपनी चिता वो बस जला करके मरा ।
मुफ़लिसों की आह से जो हैं तिजोरी भर रहे
उन लुटेरों को हक़ीक़त तो बता करके मरा।
सुन ऐ जालिम अब वो तेरे ही गले की फॉस है
वो सियासत में तेरी भूचाल ला करके मरा।
4
शहर के ऐशगाहों में टँगे दुख गाँव वालों के
ग़ज़ब हैं जो अँधेरे में रचें नक्शे उजालों के।
हमारे गाँव में खींची गयी रेखा ग़रीबी की
फिरे दिन इस बहाने हुक्मरानों के, दलालों के।
तुम्हारी फ़ाइलों मे दर्ज क्या है वो तुम्हीं जानो
लगे हैं ढेर मलवे के यहाँ टूटे सवालों के।
हुँआने का है क्या मतलब हमें मालूम है इतना
मरेंगे लोग तब ही दिन फिरेंगे गिद्ध-स्यालों के।
ग़रीबी की नुमाइश के लिए तम्बू विकासों के
हमारे बाग़ में गाड़े गये ऊँचे ख़यालों के।
5
फिर आ गयी है नयी योजना निमरा करे सवाल?
जुगनू की दुम में रह-रह कर कैसे जले मशाल।
कर्ज़े की अर्जी दे कर वो लाया फर्जी भैंस
ब्लाक, बैंक, पशु-अस्पताल वाले हैं मालामाल।
बहे दूध की नदी फ़ाइलों में बदला है मुल्क
गॉव-गाँव में सजें समूहों के विशाल पंडाल।
गरीब दास से हाथ मिलाया आज कलेक्टर ने
देखो-देखो टीवी, अख़बारों में नई मिसाल।
बड़ी-बड़ी स्कीमें आयीं, बड़े-बड़े अनुदान
सौ-सौ खाने वाले एक बेचारा बकरेलाल।
6
किससे बोलूं खेतों से हरियाली ग़ायब है?
मेरे बच्चों के आगे से थाली ग़ायब है।
निकली थी वो काम ढूँढने लौटी नहीं मगर
कब से खोज रहा हूँ मैं घरवाली ग़ायब है?
कैसे मानूँ राम अयोध्या आज ही लौटे थे?
चारों तरफ़ अँधेरा है दीवाली ग़ायब है।
हम तो भूख-प्यास पर ताले मार के बैठे हैं
सुबह हुई है मगर चाय की प्याली ग़ायब है।
उधर लुटेरे देश लूटकर देश से भाग रहे
चौकीदार सो रहा है रखवाली ग़ायब है।
वो इन्साफ़ माँगने वाला स्वर क्यों मौन हुआ?
क़त्ल हो गया होगा तभी सवाली ग़ायब है।
7
कब किसानों की बेहतरी की बात करियेगा?
उनकी ख़ुशहाल ज़िन्दगी की बात करियेगा?
आज भी कितने घरों में नहीं बिजली पहुँची
कब अँधेरे में रोशनी की बात करियेगा?
चार पैसे के लिए दर ब दर भटकता है
आप कब उसकी बेबसी की बात करियेगा?
इस क़दर क्यों दुखी किसान है सोचा है कभी?
ये ज़रूरी है तो इसी की बात करियेगा।
जब ये सरकार ही मुँह फेर लिए है अपना
ऐसे में कैसे तरक्की की बात करियेगा?
उसकी औक़ात नहीं है महल का ख़्वाब बुने
कम से कम उसकी झोपड़ी की बात करियेगा।
8
आपने सोचा कभी है क्यों मरे भूखा किसान?
क्यों ज़हर खाये बताओ कर्ज़ में डूबा किसान?
इससे बढ़कर त्रासदी दुनिया में कोई और है?
दाम भी अपनी फ़सल का तय न कर सकता किसान ।
उसके होंठों पर हमेशा एक ही रहता सवाल
अन्नदाता है वो या हालात का मारा किसान?
कर रहे हैं ऐश सारे मंत्रीगण आपके
खाद, बिजली और पानी भी नहीं पाता किसान।
संगठित हो जाय अपनी शक्ति को पहचान ले
तो किसी सरकार का तख़्ता पलट सकता किसान।
देखता सुनता है वह भी क्या सदन में हो रहा?
अब नहीं अनजान इतना गाँव में बैठा किसान।
9
वो तुझे रोटी है देता तू उसे भूखा सुलाता
अन्नदाता है तेरा वो तू उसे ही भूल जाता।
आसमाँ की किस बुलंदी की चला है बात करने?
काश तू धरती के इन पुत्रों की पीड़ा जान पाता?
तूने बस देखा पहाड़ों को वो कितने सख़्त होते?
दिल में जो बहता है दरिया, पर कहाँ वो देख पाता?
दिल में क्या अरमाँ हैं उसके आपको मालूम भी है?
जंगलों को काटकर वो रास्ता कैसे बनाता।
हल, कुदालें, फावड़े, खुरपे यही सहचर हैं उसके
वह इन्हीं के साथ रमता, वह इन्हीं के गीत गाता।
भूख से बेहाल बच्चे प्रश्न बनकर घेर लेते
चैन सारा छीन लेते खेत से जब घर वो आता।
आँसुओं की इस नदी में मोतियों का थाल लेकर
रोशनी की झालरों में कौन है जो टिमटिमाता?
10
यही जनक्रान्ति परिवर्तन नहीं लाये तो फिर कहना
ये गर सरकार घुटनों पे न आ जाये तो फिर कहना।
चढ़ा है इन्क़लाबी जोश बच्चों, औरतों पर भी
वेा ज़ालिम भूल से भी सामने आये तो फिर कहना।
हमें जुल्मो-सितम से इक मवाली क्या डरायेगा?
भरोसा है हमें मुंह की न वो खाये तो फिर कहना।
लतीफ़े और जुमले और कब तक वो सुनायेगा?
अगर कल तक मदारी वो न शरमाये तो फिर कहना।
ग़ज़ब है एक चिड़ियामार तीरंदाज बन बैठा
हमारे सामने दो पल ठहर पाये तो फिर कहना
हमें चींटी समझने की ग़लतफ़हमी वो पाले है
हमारे नाम से हाथी न घबराये तो फिर कहना।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क :
मोबाइल : 9415074318
पहली बार परिवार एवं संपादक डॉ संतोष चतुर्वेदी जी के प्रति बहुत-बहुत आभार
जवाब देंहटाएंपहली बार परिवार एवं संपादक डॉ संतोष चतुर्वेदी जी के प्रति बहुत-बहुत आभार
जवाब देंहटाएंकिसानों की सही नुमाइंदगी करती मिश्र जी की ग़ज़लों को पहली बार ब्लॉग पर पढ़ने का अवसर देने के लिए बहुत शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंसिंधु बार्डर पर जमें किसान आंदोलन को दो माह से ऊपर हो चुके हैं, सरकार तरह-तरह की तिकड़म और हथकंडे आजमा रही है पर किसानों की ताकत बढ़ती ही जा रही है, वे और अधिक मुखर और संकल्पवान दिखाई दे रहे हैं। इस आंदोलन की खासियत है कि वहाँ जनगीतों, कविताओं और ग़ज़लों को ख़ूब पढ़ा और गाया जाता है; यह समय मिश्र जी की तरह ईमानदार, मुखर और निडर रचनाकारों का है, उन्हें साधुवाद।
सरकार चेत जाइये, डरिये किसान से
बिजली न कहीं फाट पड़े आसमान से।
चुपचाप है वो इसलिए गूंगा समझ लिया
वो ख़ूब सोच समझ के बोले ज़ुबान से।
संतोष जी का कथन पूर्णतया सही व सामयिक है जिसे डॉ डी एम मिश्र जी ने बखूबी अपनी गजलों में प्रभावी रूप से बयान किया है। हार्दिक शुभकामनाएँ और किसानों के साथ संवेदनशील सहयोग सभी से अपेक्षित है।
जवाब देंहटाएंकिसान भारत की सबसे बड़ी जनशक्ति है।उसकी उसी शक्ति का प्रमाण यह किसान आंदोलन है।उसी शक्ति को मिश्र जी की ये ग़ज़लें वाणी दे रही हैं।जन काव्य परंपरा का समकालीन सबूत। चतुर्वेदी जी ने इनका प्रकाशन कर सराहनीय और जरूरी काम किया है। दोनों को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंडाॅ जीवन सिंह का कमेंट
किसान भारत की सबसे बड़ी जनशक्ति है।उसकी उसी शक्ति का प्रमाण यह किसान आंदोलन है।उसी शक्ति को मिश्र जी की ये ग़ज़लें वाणी दे रही हैं।जन काव्य परंपरा का समकालीन सबूत। चतुर्वेदी जी ने इनका प्रकाशन कर सराहनीय और जरूरी काम किया है। दोनों को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंडाॅ जीवन सिंह का कमेंट
बहुत बढ़िया सभी ग़ज़लें
जवाब देंहटाएंयह श्रीधर मिश्र की टिप्पणीकिसान की महत्ता को रेखांकित करती हुई ग़ज़ल, ।
जवाब देंहटाएंकिसी कवि के संदर्भ में यह महत्वपूर्ण होता है कि उसकी कविता किसके पक्ष में खड़ी है ,डीएम मिश्र की ग़ज़लों का पक्ष स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है कि उनकी ग़ज़लें सर्वहारा वर्ग, मज़दूर, किसान के पक्ष में खड़ी मिलती हैं, डीएम मिश्र अपनी ग़ज़लों से इनके पक्ष में युद्ध लड़ते हुए दिखते हैं
किसान आंदोलन को वे रच भी रहे, प्रेरित भी कर रहे व उसके पक्ष में वातावरण भी सृजित कर रहे, सन्तोष चतुर्वेदी ने बड़ी सार्थक टिप्पणी के साथ उनकी ग़ज़ल को प्रस्तुत किया है, संतोष चतुर्वेदी व डीएम मिश्र दोनों को बधाई है -
डाॅ राधेश्याम सिंह की टिप्पणी -
जवाब देंहटाएंडी.एम.मिश्र की गजलें किसान, मजदूर, शोषित, मजलूम के संघर्षों, दुश्वारियों और मशक्कतों से बाबस्ता हैं।वहीं से ए गजलें अपने प्राणों का सिंचन करती है।यही कारण है कि कलावाद उनकी गजलों से मुँह बिचकाए दूर खड़ा रहता है।ए गजले त्वरित परिवर्तन का माँग पत्र हैं।प्रतिरोध मे निकाले जुलूस की भाषा ही उसका अलंकार है,और अपनी बात को ठीक ठीक पहुंचा देना ही उसका रस है।उनकी गजलों मे सादगी की फनफनाहट है,जो अन्यत्र दुर्लभ है।बिना अतिरिक्त नाटकीयता के भी संवादधर्मी बना जा सकता है,डी.एम.मिश्र की गजलें उसका उदाहरण हैं।मैं तो इस समूची रचना प्रक्रिया का आई विटनेस रहा हूँ।बधाई और शुभकामनाएं तो देता रहता हूँ।अब अन्य लोग भी रेखांकित कर रहे हैं, तो अच्छा लगता है।
शंभू विश्वकर्मा की टिप्पणी -
जवाब देंहटाएंआदरणीय डी एम मिश्र की ये सारी गजलें पढ़ चुका हूँ लेकिन कहन में जो संघर्ष और संवेदना की ध्वनि है वह बार-बार पढ़ने के बाद भी लगता है पहली बार पढ़ रहा हूँ । बिलकुल नवीन एहसासों से भरी गजल को सलाम और आदरणीय डी एम मिश्र को प्रणाम !
डी एम मिश्र निरन्तर सक्रिय रहनेवाले ग़ज़लकार है । किसानों के जीवन और संघर्ष पर लिखी गयी ग़ज़लें हमें बताती है कि वे किसानों के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करनेवाले शायर है । अपनी बात को वे सहज और सरल भाषा में अभिव्यक्त करते है । उन्होंने ग़ज़लों को अपना जीवन अर्पित कर दिया है । उन्हें और पहलीबार को साधुवाद ।
जवाब देंहटाएंडी एम मिश्र निरन्तर सक्रिय रहनेवाले ग़ज़लकार है । किसानों के जीवन और संघर्ष पर लिखी गयी ग़ज़लें हमें बताती है कि वे किसानों के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करनेवाले शायर है । अपनी बात को वे सहज और सरल भाषा में अभिव्यक्त करते है । उन्होंने ग़ज़लों को अपना जीवन अर्पित कर दिया है । उन्हें और पहलीबार को साधुवाद ।
जवाब देंहटाएंडी एम मिश्र निरन्तर सक्रिय रहनेवाले ग़ज़लकार है । किसानों के जीवन और संघर्ष पर लिखी गयी ग़ज़लें हमें बताती है कि वे किसानों के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करनेवाले शायर है । अपनी बात को वे सहज और सरल भाषा में अभिव्यक्त करते है । उन्होंने ग़ज़लों को अपना जीवन अर्पित कर दिया है । उन्हें और पहलीबार को साधुवाद ।
जवाब देंहटाएंमुकेश शुक्ल की टिप्पणी -
जवाब देंहटाएंसदा की भाँति जनपक्षधरता को आत्मसात किए हुई ये रचनाएँ किसानो के साथ उनकी झंडाबरदारी कर रही हैं।
आज यदि किसानो का साथ देने का दिखावा तमाम वो पार्टियाँ कर रही हैं जो कभी भी किसानो को पनपने ही नही दिया या जो किसानो की हितैषी होने की वैश्विक स्तर पर कसमे खाकर बंगाल मे " सेज " के नाम पर सीमांत किसानो को उजाडने का काम किया तो ये सब अपने स्वार्थ मे कर रही है उनकी हितैषी बिलकुल नही हैं परंतु दादा डी एम मिश्र जी की रचनाएँ लट्ठ लेकर किसानो के साथ चलकर कठिन समय मे बिना किसी स्वार्थ के अपने दायित्व का निर्वहन करके साहित्य,की लाज बचा रही हैं।
लाजवाब सृजन।
जवाब देंहटाएंयह टिप्पणी प्रसिद्ध जनवादी कवि -आलोचक आदरणीय नचिकेता जी द्वारा इन ग़ज़लों पर की गई है --
जवाब देंहटाएंडी एम मिश्र जी,
किसान चेतना तो आपकी रगों में लहू बनकर दौड़ती है. इस मुकाम को हासिल करने के लिए आपने त्याग किया है. किसानों के संघर्ष को आप नहीं उजागर करेंगे तो क्या वे करेंगे जिनके नाम से युग जाना जा रहा है. नरेंद्र मोदी और इस नये युग पुरुष में क्या साम्य है. एक के पीछे विश्व चल रहा है और दूसरे के पीछे
उनका दौर. बेहयाई की हद है. खैर, आप अपना काम ईमानदारी से करते रहिए. इतिहास काम को याद करेगा, जुमले को नहीं.
आपको और संतोष चतुर्वेदी जी को बधाइयां।
अपने समय से मुठभेड़ करती डी एम मिश्र की ग़ज़लों की एक बड़ी खासियत उसका जनसंवाद और जनसम्प्रेषण का फ़न (कला) है।
जवाब देंहटाएंकिसान सर्वहारा वर्ग का आधारतल है। वहाँ उसकी मजबूत नीवें हैं। मिश्र अपनी ग़ज़लों की बतकही में इस बात को काफी मजबूती से रखते हैं और उतने ही सफल भी होते हैं। अपने भावों-अनुभावों को वे जिस सामाजिक संचेतना से संस्कारित और पल्लवित करते हैं, वह हिंदी गजलों के प्रयोगधर्मी सृजन में उनको अपने उन समकालीनों से अलगाता है व ग़ज़ल और उसकी कला के परिसीमन में उसकी हद को बिना अतिक्रमित किए एक ओर जहाँ उसके वजूद को कायम रखता है, वहीं दूसरी ओर जनधारणा और जनधर्मिता के दायित्वों में निर्वहन में पूरी तरह सफल भी होता है -
सरकार चेत जाइये, डरिये किसान से
बिजली न कहीं फाट पड़े आसमान से।
मिट्टी का वो माधव नहीं जो सोच रहे हैं
फौलाद का बना है वो देखें तो ध्यान से।
हालात हैं ख़राब मगर हैसियत बड़ी
चिथड़ों में भी हुज़ूर वो रहता है शान से।
किससे बोलूं खेतों से हरियाली ग़ायब है?
मेरे बच्चों के आगे से थाली ग़ायब है।
हम तो भूख-प्यास पर ताले मार के बैठे हैं
सुबह हुई है मगर चाय की प्याली ग़ायब है।
- बड़बोलेपन, नाटकीयता और कलावाद से दूर इन में मंचीय मुशायरों की रौशनी और लकदक नहीं है, अचम्भित करने वाले बुने हुए शब्दजाल नहीं हैं, बल्कि इनमें जनसंवेदना का एक स्वाभाविक संवेग है जो पाठकों के दिल तक उतरता है और उसे सोचने पर मजबूर करता है।
'पहलीबार' के संपादक और कवि -मित्र संतोष चतुर्वेदी जी को डी एम मिश्र की किसान जीवन को समादृत करने वाली इन बेहद खूबसूरत ग़ज़लों को पढ़वाने के लिए हार्दिक आभार व नववर्ष की शुभकामनाएं।
अपने समय से मुठभेड़ करती डी एम मिश्र की ग़ज़लों की एक बड़ी खासियत उसका जनसंवाद और जनसम्प्रेषण का फ़न (कला) है।
जवाब देंहटाएंकिसान सर्वहारा वर्ग का आधारतल है। वहाँ उसकी मजबूत नीवें हैं। मिश्र अपनी ग़ज़लों की बतकही में इस बात को काफी मजबूती से रखते हैं और उतने ही सफल भी होते हैं। अपने भावों-अनुभावों को वे जिस सामाजिक संचेतना से संस्कारित और पल्लवित करते हैं, वह हिंदी गजलों के प्रयोगधर्मी सृजन में उनको अपने उन समकालीनों से अलगाता है व ग़ज़ल और उसकी कला के परिसीमन में उसकी हद को बिना अतिक्रमित किए एक ओर जहाँ उसके वजूद को कायम रखता है, वहीं दूसरी ओर जनधारणा और जनधर्मिता के दायित्वों में निर्वहन में पूरी तरह सफल भी होता है -
सरकार चेत जाइये, डरिये किसान से
बिजली न कहीं फाट पड़े आसमान से।
मिट्टी का वो माधव नहीं जो सोच रहे हैं
फौलाद का बना है वो देखें तो ध्यान से।
हालात हैं ख़राब मगर हैसियत बड़ी
चिथड़ों में भी हुज़ूर वो रहता है शान से।
किससे बोलूं खेतों से हरियाली ग़ायब है?
मेरे बच्चों के आगे से थाली ग़ायब है।
हम तो भूख-प्यास पर ताले मार के बैठे हैं
सुबह हुई है मगर चाय की प्याली ग़ायब है।
- बड़बोलेपन, नाटकीयता और कलावाद से दूर इन में मंचीय मुशायरों की रौशनी और लकदक नहीं है, अचम्भित करने वाले बुने हुए शब्दजाल नहीं हैं, बल्कि इनमें जनसंवेदना का एक स्वाभाविक संवेग है जो पाठकों के दिल तक उतरता है और उसे सोचने पर मजबूर करता है।
'पहलीबार' के संपादक और कवि -मित्र संतोष चतुर्वेदी जी को डी एम मिश्र की किसान जीवन को समादृत करने वाली इन बेहद खूबसूरत ग़ज़लों को पढ़वाने के लिए हार्दिक आभार व नववर्ष की शुभकामनाएं।
बहुत-बहुत शुक्रिया। इतने सघन मूल्यांकन के लिए।
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंरामकुमार कृषक की टिप्पणी भी देखिए -
जवाब देंहटाएंकिसान जीवन और उसके वर्तमान संघर्ष को चित्रित करनेवाली आपकी दसों ग़ज़लें एक साथ पढ़कर अभिभूत हुआ हूं । इनमें आज का समय आंख ओझल नहीं है , बल्कि हमारी आंखों में आंखें डालकर संवाद कर रहा है । इसलिए सामयिक होकर भी ये ग़ज़लें सार्वकालिक हैं । साथ ही इनमें निहित यथार्थ एकायामी नहीं , बहुआयामी है । खेती - किसानी से जुड़े दुखों और उन्हें बढ़ाने वाली सामाजिक - राजनीतिक ताकतों से इनका रिश्ता समझौते का नहीं , प्रतिरोध का है । दिल्ली को आज जिन जुझारू भूमिपुत्रों ने घेरा हुआ है , मिश्र जी अपनी रचनात्मक सहजता और सलीके से उनके साथ हैं । ग़ज़ल में अपना कोई युग दर्ज करने में उनका कोई विश्वास नहींं है , बल्कि अपनी संघर्षशील जनता की धड़कनों को सुनने और रचने में है । इसके लिए उन्हें और संतोष जी , दोनों को हार्दिक बधाई !
डाॅ कृष्ण कुमार तिवारी नीरव की टिप्पणी -
जवाब देंहटाएंकिसान का पक्ष लेकर बड़ी ही निर्भीकता से सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद करती यह एक तगड़ी गज़ल है। गजलकार को नमन!
प्रसिद्ध आलोचक नचिकेता जी की टिप्पणी -
जवाब देंहटाएंकिसान चेतना तो आपकी रगों में लहू बनकर दौड़ती है. इस मुकाम को हासिल करने के लिए आपने त्याग किया है. किसानों के संघर्ष को आप नहीं उजागर करेंगे तो क्या वे करेंगे जिनके नाम से युग जाना जा रहा है. नरेंद्र मोदी और इस नये युग पुरुष में क्या साम्य है. एक के पीछे विश्व चल रहा है और दूसरे के पीछे
उनका दौर. बेहयाई की हद है. खैर, आप अपना काम ईमानदारी से करते रहिए. इतिहास काम को याद करेगा, जुमले को नहीं.