रूसी कवि अनतोली परपरा की कविताएँ, अनुवाद अनिल जनविजय
अनतोली परपरा |
1982 में रूस पहुँचने के बाद जिस बड़े रूसी कवि से मेरा सबसे पहले परिचय हुआ, वे थे अनतोली परपरा। परपरा तब ’मसक्चा’ यानी ’मास्को’ नामक एक बड़ी साहित्यिक पत्रिका में कविता का विभाग देखा करते थे। अनतोली परपरा ने ही तब मेरा परिचय रूस के अनेक बड़े-बड़े कवियों से कराया था, जिनमें से कई कवियों के साथ मेरी गहरी दोस्ती हो गई थी। परपरा ने मेरी कविताओं का और भारत के उस समय के युवा कवियों मंगलेश डबराल, विनोद भारद्वाज, उदय प्रकाश, नरेन्द्र जैन, विष्णु नागर, राजा खुगशाल, स्वप्निल श्रीवास्तव और गगन गिल की कविताओं के अनुवाद रूसी भाषा में अपनी पत्रिका में प्रकाशित किए थे। इसके बाद परपरा ने मेरे सहयोग से समकालीन भारतीय कविता के कई संग्रह तत्कालीन सोवियत संघ में प्रकाशित कराए।
अनतोली परपरा का जन्म 15 जुलाई 1940 को मास्को में हुआ था। 1941 में जब हिटलर ने सोवियत संघ पर हमला किया तो एक वर्षीय परपरा अपनी माँ के साथ अपनी ननिहाल में गाँव में थे। कुछ ही दिनों बाद जर्मन सेना ने उस गाँव पर धावा बोल दिया और पूरे गाँव को उसके निवासियों के साथ जला कर ख़ाक कर दिया। उस बड़े से गाँव के सिर्फ़ आठ व्यक्ति ही ज़िन्दा बच पाए थे। अनतोली की माँ गाँव से उन्हें ले कर भाग कर पास के ही एक जंगल में जा छुपी और संयोग से दोनों ज़िन्दा बच गए। दर-दर की ठोकरें खाने के बाद द्वितीय विश्व-युद्ध ख़त्म होने के बाद ही माँ नन्हें अनतोली के साथ वापिस मसक्वा लौट पाईं। उधर अनतोली के पिता जर्मन सेना से लड़ने के लिए मोरचे पर चले गए, जहाँ जर्मन सेना ने उन्हें बन्दी बना लिया और एक युद्धबन्दी के रूप में मज़दूरी कराने के लिए उन्हें जर्मनी भेज दिया था। संयोगवश उनके पिता भी जीवित बच गए और 1946 में वापिस लौट आए।
स्कूल की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद अनतोली परपरा ने नौसैनिक स्कूल में दाख़िला ले लिया और उसकी पढ़ाई म करके वे नौसैनिक बन गए। पाँच साल नौसेना में रहने के बाद उन्होंने नौसेना छोड़कर पत्रकारिता में एम.ए. किया और पत्रकार बन गए। कविताएँ तो उन्होंने तभी लिखना शुरू कर दिया था, जब वे स्कूल में पढ़ते थे। अब तक उनके बीस से ज़्यादा कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और उनका नाम रूस के प्रमुख कवियों में लिया जाता है।
अनिल जनविजय
अनतोली परपरा आज |
अनतोली परपरा की कविताएँ
1. जलयान पर
रात
है
दूर
कहीं पर झलक रही है रोशनी
हवा
की थरथराती हँसी मेरे साथ है
दाएँ-बाएँ-ऊपर-नीचे
चारों ओर अँधेरा है
हाथ
को सूझता न हाथ है
कितनी
हसीन रात है
रात
है
चाँद-तारों
विहीन आकाश है ऊपर
अदीप्त-आभाहीन
गगन का माथ है
और
मैं अकेला खड़ा हूँ डेक पर
नीचे
भयानक लहरों का प्रबल आघात है
कितनी
मायावी रात है
रात
है
गहन
इस निविड़ में मुझे कर रही विभासित
वल्लभा
कांत-कामिनी स्मार्त है
माँ-पिता, मित्र-बन्धु मन में बसे
कुहिमा
का झर रहा प्रपात है
यह
अमावस्या की रात है
2. तेरा चेहरा
शरदकाल
का दिन था पहला, पहला
था हिमपात
धवल
स्तूप से घर खड़े थे, चमक रही थी रात
पिरिदेलकिना
स्टेशन पे था मुझे गाड़ी का इन्तज़ार
श्वेत
पंखों-सा हिम झरे था, कोहरा था अपार
कोहरे
में भी मुझे दीख पड़ा, तेरा चारु-लोचन भाल
तन्वंगी
काया झलके थी, पीन-पयोधर
थे उत्ताल
खिला
हुआ था तेरा चेहरा जैसे चन्द्र अकास
याद
मुझे है, प्रिया, तेरे मुखड़े का वह उजास
अनतोली परपरा (पुत्र के साथ) |
3. जाता हुआ साल
इस जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है
देश
पर चला दी आरी
लूट-खसोट
मचा दी भारी
अराजकता
फैली चहुँ ओर
महाप्रलय
का आया दौर
इस
गड़बड़ और तबाही ने जन को बहुत सताया है
इस
जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है
अपने
पास जो कुछ थोड़ा था
पुरखों
ने भी जो जोड़ा था
लूट
लिया सब इस साल ने
देश
में फैले अकाल ने
ठंड, भूख और महाकाल की पड़ी देश पर छाया है
इस
जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है
भंग
हो गई अमन-शान्ति
टूटी
सुखी-जीवन की भ्रान्ति
अफ़रा-तफ़री-सी
मची हुई है
क्या
राह कहीं कोई बची हुई है
बस, जन का अब यही एक सवाल है
क्यों
लाल झण्डे का हुआ बुरा हाल है
हँसिया
और हथौड़े को भी, देखो, मार भगाया है
इस
जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है
(रचनाकाल : 1992)
अनतोली परपरा |
4. कैसे आए वर्ष
आज मन
हुआ मेरा फिर से कुछ गाने का
फिर
से मुस्कराने का
सिर
पर मंडराती मौत को डरा कर भगाने का
फिर
से हँसने औ' हँसाने
का
चिन्ता
नहीं की कुछ मैंने अपनी तब
जब
सेवा की इस देश की
मैं
झेल गया सब तकलीफ़ें, पीड़ा
इस
जीवन की, परिवेश
की
पर अब
समय यह कैसा आया
कैसे
आए वर्ष
छीन
ले गए जीवन का सुख सब
छीन
ले गए हर्ष
श्रम
करता मैं अब भी बेहद
अब भी
तोड़ूँ हाड़
देश
बँट गया अब कई हिस्सों में
हो
गया पन्द्रह फाड़
भूख, तबाही और कष्ट ही अब
जन की
हैं पहचान
औ' सुख-विलास में मस्त दिखें सब
क्रेमलिन
के शैतान
दिन
वासन्ती फिर से आया है
कई
वर्षों के बाद
जाग
उठा है देश यह मेरा फिर
बीत
रही है रात
मेहनत
गुलाम-सी करता हूँ मैं
पर
दास नहीं हूँ मैं
महाशक्ति
बनेगा रूस यह फिर से
हताश
नहीं हूँ मैं
(रचनाकाल : 1996)
5. सौत-सम्वाद
(एक लोकगीत को सुनकर)
ओ
झड़बेरी, ओ झड़बेरी
मैं
तुझे कहूँ व्यथा मेरी
सुन
मेरी बात, री झड़बेरी
आता
जो तेरे पास अहेरी
वह
मेरा बालम सांवरिया
न कर
उससे, यारी गहरी
वह
छलिया, ठग है जादूगर
करता
फुसला कर रति-लहरी
न
कुपित हो तू, बहना, मुझ पे
बहुत
आकुल हूँ, कातर गहरी
अनतोली परपरा किताब |
6. मौत के बारे में सोच
मौत
के बारे में सोच
और
उलीच मत सब-कुछ
अपने
दोनों हाथों से अपनी ही ओर
हो
नहीं लालच की तुझ में ज़रा भी लोच
मौत
के बारे में सोच
भूल
जा अभिमान, क्रोध, अहम
ख़ुद
को विनम्र बना इतना
किसी
को लगे नहीं तुझ से कोई खरोंच
मौत
के बारे में सोच
दे
सबको नेह अपना
दूसरों
के लिए उँड़ेल सदा हास-विहास
फिर न
तुझ को लगेगा जीवन यह अरोच
देख, देख, देख बन्धु !
रीता
नहीं रहेगा फिर कभी तेरा मन
प्रसन्न
रहेगा तू हमेशा, हर
क्षण
7. माया
नींद
में मुझे लगा कि ज्यूँ आवाज़ दी किसी ने
मैं
चौंक कर उठ बैठा और आँख खोल दी मैंने
चकाचौंध
रोशनी फैली थी औ' कमरा
था गतिमान
मैं
उड़ रहा था महाशून्य में जैसे कोई नभयान
मैं
तैर रहा था वायुसागर में अदृश्य औ' अविराम
आसपास
नहीं था मेरे तब एक भी इन्सान
किसकी
यह आवाज़ थी, किसने मुझे बुलाया
इतनी
गहरी नींद से, भला, किसने मुझे जगाया
क्या
सचमुच में घटा था कुछ या सपना कोई आया
कैसी
अनुभूति थी यह, कवि, कैसी थी यह माया ?
अनतोली परपरा किताब |
8. तेरा वह अनुरोध
"मर
रहे हैं हम सब" -
यह
कहा तूने कुछ ऐसे
कर
रही हो मुझ से तू यह अनुरोध जैसे
स्वर्ग
तुझे जाने दूँ
मैं
अपने से पहले
और कह
रही हो मुझ से
तू इस
नरक में ही रह ले
9. बीच सागर में
इस
तन्हाई में फकीरे
दिन
बीते धीरे-धीरे
यहाँ
सागर की राहों में
कभी
नभ में छाते बादल
बजते
ज्यूँ बजता मादल
मन
हर्षित होते घटाओं के
सागर
का खारा पानी
धूप
से हो जाता धानी
रंग
लहके पीत छटाओं के
जब
याद घर की आती
मन को
बेहद भरमाती
स्वर
आकुल होते चाहों के
बस
श्वेत-सलेटी पाखी
जब
उड़ दे जाते झाँकी
मलहम
लगती कुछ आहों पे
10. नववर्ष की पूर्वसंध्या पर
मार-काट
मची हुई देश में, तबाही का है हाल
हिमपात
हो रहा है भयंकर, आ रहा नया साल
यहाँ
जारी इस बदलाव से, लोग
बहुत परेशान
पर हर
पल हो रहा हमें, बढ़ते प्रकाश का भान
गरम
हवा जब से चली, पिघले
जीवन की बर्फ़
चेहरों
पर झलके हँसी, ख़त्म हो रहा नर्क
देश
में फिर शुरू हुआ है, नई करवट का दौर
छोड़
दी हमने भूल-भुलैया, अब खोजें नया ठौर
याद
हमें दिला रही है, रूसी माँ धरती यह बात
नहीं, डरने की नहीं ज़रूरत, होगा शुभ-प्रभात
(रचनाकाल
: 31.12.1992)
अनतोली परपरा |
11. बरखा का एक दिन
हवा
बही जब बड़े ज़ोर से
बरसी
वर्षा झम-झमा-झम
मन
में उठी कुछ ऐसी झंझा
दिल
थाम कर रह गए हम
गरजे
मेघा झूम-झूम कर
जैसे
बजा रहे हों साज
ता-ता
थैया नाचे धरती
ख़ुशियाँ
मना रही वह आज
भीग
रही बरखा के जल में
तेरी
कोमल चंदन-काया
मन
मेरा हुलस रहा, सजनी
घेरे
है रति की माया
12. देस मेरा
(कवि
व्लादीमिर सकालोफ़ के लिए)
छोटी-सी
वह नदिया और नन्ही-सी पहाड़ी
वनाच्छादित
भूमि वह कुछ तिरछी-सी, कुछ आड़ी
बसी
है मेरे मन में यों, छिपा मैं माँ के तन में ज्यों
नज़र
जहाँ तक जाती, बस अपनापन ही पाती
ऊदे
रंग की यह धरती मन को है भरमाती
चाहे
मौसम पतझड़ का हो या जाड़ों के पहने कपड़े
मुझे
लगे वह परियों जैसी, मन को मेरे जकड़े
कभी
लगे कविता जैसी तो कभी लगे कहानी
बस, लाड़ करे धरती माँ मुझ से, भूल मेरी शैतानी
अब
मेरे बच्चे भी ये जाने हैं, उनका उदगम कहाँ
जहाँ
बहे छोटी-सी नदिया, है नन्ही
पहाड़ी जहाँ
अनतोली परपरा |
13. दोस्ती
दोस्त
ने धोखा दिया
मन
में तकलीफ़ है
कष्ट
है, दुख
है बहुत
लेकिन
इसमें ग़लती नहीं कोई
दोस्ती
की
उसे
मत कोस तू
सूर्योदय
के पहले जब मन शान्त हो
पक्षियों
का आनन्दमय कलरव सुन
और
ग़लती तूने कहाँ की, यह
गुन
14. सूर्यपाखी का नृत्य
सूर्यपाखी
ने खोले हैं जब से, अपने
पंख सुनहरे
धरती
पर फैले रंग हज़ारों, कुछ हल्के, कुछ
गहरे
दिन
बीत गए जाड़ों के निष्प्रभ, फैली है लालिमा
प्रसवा
कृष्णबेरी लगी फूलने, कुसुमों पर छाई कालिमा
वहाँ
बाड़ के पीछे से झाँकें, जगमग फूलों के झुमके
सेब
की डालें नृत्य कर रहीं, लगा रही हैं वे ठुमके
जाड़ों
में धूसर लगे गगन जो, हो गया एकदम नीला
रवि
रूप झलकाए झिलमिल, स्वर्ण
फेंक रहा पीला
मन
मेरा लहक रहा, याराँ, देख-देख यह झलकी
मौसम
बुआई का आया है, कौन
याद करे अब कल की
गुज़र
गया महीना अप्रैल का, गुज़र रहा अब मई
मथे
ज़ोर से युवा हृदयों को, चटख प्रेम की रई
विदा-विदा
तुझे, ओ
उदासी, अब
समय दूसरा आया
जाड़ा
हिमश्वेत बीत गया अब, फैली रंगों की छाया
15. माँ की मीठी आवाज़
घर
लौट रहा था दफ़्तर से मैं बेहद थका हुआ
मन
भरा हुआ था मेरा कुछ, ज्यों फल पका हुआ
देख
रहा था शाम की दुनिया, ख़ूबसूरत हरी-भरी
लोगों
के चेहरों पर भी सुन्दर संध्या थी उतरी
तभी
लगा यह जैसे कहीं कोई बजा हो सुन्दर साज
याद आ
गई मुझे अपनी माँ की मीठी आवाज़
घूम
रहा था मैं अपनी नन्ही बिटिया के साथ
थामे
हुए हाथ में अपने उसका छोटा-सा हाथ
तभी
अचानक वह हँसी ज़ोर से, ज्यों गूँजा संगीत
लगे
स्मृति से मेरी भी झरे है कोई जलगीत
वही
धुन थी, वही
स्वर था उसका, वही
था अन्दाज़
कानों
में बज रही थी मेरे माँ की मीठी आवाज़
कितने
वर्षों से साथ लिए हूँ मन के भीतर अपने
दिन
गुज़रे माँ के संग जो थोड़े, वे अब लगते सपने
थका
हुआ माँ का चेहरा है, जारी है दूसरी लड़ाई
चिन्ता
करती माँ कभी मेरी, कभी
पिता, कभी
भाई
तब
जर्मन हमले की गिरी थी, हम पर भारी गाज
याद
मुझे है आज भी, यारों, माँ की मीठी आवाज़
आज
सुबह-सवेरे बैठा था मैं अपने घर के छज्जे
जोड़
रहा था धीरे-धीरे कविता के कुछ हिज्जे
चहक
रही थीं चिड़िया चीं-चीं, मचा रही थीं शोर
उसी
समय गिरजे के घंटों ने ली मद्धिम हिलोर
लगी
तैरने मन के भीतर, भैया, फिर से आज
वही
सुधीरा और सुरीली माँ की मीठी आवाज़
(मूल रूसी से
अनुवाद : अनिल जनविजय)
बेहतरीन कविताये। सुंदर अनुवाद।
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