कैलाश बनवासी की कहानी 'बड़ी ख़बर'


कैलाश बनवासी

हमारे देश में आज चारो तरफ एक अजीब सा मंजर है। मीडिया, कभी जिसकी जिम्मेदारी एक सजग-सतर्क प्रहरी की हुआ करती थी, वह अब पूरी तरह चापलूसी की भाषा में हमेशा नत दिखाई पड़ रहा है। टी. वी. चैनलों के एंकर सत्ता वर्ग की मंशा के अनुरूप ही बड़ी निर्लज्जता और समूची विद्रूपता के साथ अपनी एकतरफा खबरें, अपने अनर्गल राय के साथ परोसते हैं ऐसे में दो छोटे-छोटे बच्चों के खेल और उनके खिलंदडेपन की तरफ कथाकार का ध्यान अनायास ही जाता है जो अपने पिता के साथ घूमने के अंदाज में बैंक में आ गए हैं और खेलकूद में मशगूल हैं। इस समूची कहानी की पृष्ठभूमि में ये दोनों बच्चे ही हैं। उनका खेलना कहानीकार को सबसे बड़ी नेमत लगता है कैलाश बनवासी ने बड़ी साफगोई से अपनी बात कहानी में रख दी है। तथाकथित 'बड़ी खबरें' दिन-रात अपने समूचे बौनेपन के साथ चलती रहती हैं जबकि वास्तविक और जरुरी खबरें प्रायः ही अनदेखी और उपेक्षित रह जाती हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है कैलाश बनवासी की नयी कहानी - 'बड़ी खबर'  
       
बड़ी ख़बर


कैलाश बनवासी




मैं एक चेक भुनाने बैंक आया हूँ।


यह मेरे स्कूल-जहाँ मैं शिक्षक हूँ- का चेक है। स्कूल के विभिन्न फंडों के खाते यहीं खुले हुए हैं। यों स्कूल के बैंक संबंधी सारे काम जयराज ही करता है-हमारे स्कूल का चपरासी। लेकिन वह आज छुटटी पर है। और स्कूल के फंड से पैसा निकालना आज बेहद जरूरी है, क्योंकि कल ही स्कूल के दस बच्चों को जूनियर रेडक्रास के एक कैम्प अटेंड करने पचमढ़ी भेजना है। और स्कूल में रेडक्रास का चार्ज चूंकि मेरे ही पास है, इसलिए प्रिंसिपल ने मुझे ही चेक भुनाने के लिए भेज दिया...।


मैंने चेक जमा करके टोकन ले लिया है- टोकन नंबर 57.
वहाँ ग्राहकों के लिए लगी कर्सियों में बैठा हूँ।


जैसे रेलवे स्टेशनों में गाड़ी संख्या और प्लेटफार्म संख्या बताने के लिए सिस्टम होता है, वैसे ही यहाँ टोकन नंबर बताने वाला इलेक्ट्रानिक उपकरण एक कोने में लगा हुआ है। सुर्ख लाल नंबर इसमें उभरते हैं और इसमें फीड स्त्री-स्वर की एकरस पुकार -टोकन नंबर फोर्टी टू। काउंटर नंबर वन।


काउंटर से अपने टोकन नंबर के पुकारे जाने का इंतजार करता।
मैं बैठा-बैठा इधर बड़ी तेजी से बदलती बैंकिंग प्रणाली के बारे में सोच रहा हूँ। 


देखते-देखते बैंकों का हुलिया ही बदल गया है! सरकारी बैंकों का आज प्राइवेट बैंकों से कांपिटिशन है। इसीलिये आज ये इंटिरियरके काम के साथ वेल फर्निश्ड हैं, फुल ए. सी., कम्प्यूटराइज़्ड और ज़्यादा साफ और ज़्यादा चमकदार! इनमें ग्राहकों को अधिकाधिक सुविधा दे कर खींचने की होड़ है। ग्राहकों के लिए अब पहले जैसी लकड़ी की टेढ़ी हो कर चूं-चूं बोलने वाली बेंच-कुर्सिंयां कोई नहीं रखता। उसकी जगह फोम के गद्देदार सोफे या कुर्सिंयां आ गई हैं। यही नहीं, बैंक के कर्मचारी भी अब ज्यादा चुस्त और स्मार्ट हो गए हैं। कम्प्यूटर में दक्ष। सब कुछ डिज़िटलाइज़्ड। ए. टी. एम., क्रेडिट कार्ड, नेट बैंकिंग, स्वाइप मशीन... कुछ सालों में कितना कुछ बदल चुका है। हाँ, मेन-पावर कम होते जाने के कारण अलबत्ता इन पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है। बैंक में ग्राहक सामने खड़ा हो तो फिर आपको उन्हीं पर ही ध्यान देना है। बाकी फिर किसी चीज के लिए आपके पास समय नहीं होता।




..और बैंकों की तुलना में यह बैंक भी पीछे नहीं रहना चाहता। इसलिए काउंटर के दो मीटर पीछे कुर्सियां लगी हैं, चाँदी-सी चमकदार स्टील की नयी जालीदार आरामदेह कुर्सियां। ए. सी. है, मोटे पारदर्शी ग्लॉस के दरवाजे और दीवाल। टोकन नंबर एनाउंसमेंट के बावजूद कैश-काउंटर पर पांच-सात लोगों की भीड़ खड़ी ही रहती है, अपना काम जल्दी करवा लेने के जुगत में।


अपने टोकन नंबर के पुकाने जाने का इंतजार है मुझे।


बायीं ओर लगे एल. ई. डी. टीवी. पर एक न्यूज चैनल चल रहा है। वाल्यूम म्यूटहै। इसलिए दिखाये जा रहे दृश्यों-विज्ञापनों को हम बेआवाज देख रहे हैं। विज्ञापनों के बीच-बीच में जब एंकर बड़ी ख़बर के साथ हाजिर होता है, तब वह बताता है कि पूरे देश में पाकिस्तान के खिलाफ़ गुस्से और नफरत की आग फैली हुई है! हम उसकी आवाज नहीं सुन पा रहे हैं, इसके बावजूद, ऐसा लगता है कि वह अपनी क्रोधित भाव-भंगिमाओं में चीख-चीख कर मानो गुस्से, नफरत और हिंसा का यही स्तर हममें कूट-कूट के भर देना चाहता हो, और हमें उग्र हमलावर बना देना चाहता हो...।


बड़ी ख़बरकी सुर्खियाँ किसी मसाला-मूवी के टाइटल की तरह डिज़िटली एनिमेटेड आग की लपटों के बीच हाइलाइट हो रही हैं...


- सर्जिकल स्ट्राईक के बाद सकते में पाक!
-कब तक बचेगा पाक!
-पाक ने फिर तोड़ा यु़द्धविराम!
-सीमावर्ती गावों में पाक ने दागे मोर्टार!
-फाइरिंग में एक आतंकवादी ढेर!
-हमारी सेना हर हमले का मुँहतोड़ जवाब देने में सक्षम!


पिछले पंद्रह मिनट से स्क्रीन पर यही सुर्खिंयाँ हाईलाइट हो रही हैं। तमाम न्यूज चैनलों में पिछले बीस-पच्चीस दिनों से, रोज, और लगातार ऐसे ही ख़बरों की हम पर सोते-जागते हर पल बमबार्डिंग की जा रही है। कुछ ऐसे कि इसके अलावा हम कुछ सोच भी न सकें! यदि सोचते हो तो फिर देशद्रोही हो! लेकिन पा रहा हूँ कि यही सब देखते-देखते दर्शक भी मानो अब बिलकुल ऊब गए हैं। मैंने यहाँ भी देखा, आसपास बैठे कुछ बूढ़े या जवानों में इन्हें ले कर उत्तेजना तो छोड़ो, कोई उत्सुकता भी नहीं है। वे इन्हें एक नजर बहुत बुझे-बुझे, थके-थके-से उसी तरह देख लेते थे मानो ये दूर घटी कोई सड़क दुर्घटना की खबर हों, और इन सबके वे अब आदी हो गए हों...। अलबत्ता शहर में आज भी कहीं-कहीं पाकिस्तान और नवाज शरीफ और पाकिस्तानी फिल्मी कलाकारों के पुतले जलाए जा रहे हैं, जो कल के अखबार के लोकल पन्ने की सुर्खियां बनेंगी। उरी आतंकी हमले और खासकर सर्जिकल स्ट्राईक के बाद मीडिया में यही चल रहा है।


बैंक में इस समय भी वही बौद्विक बोझिलता और थकान हावी है जो हमें अक्सर यहाँ दिखाई देती है। यहाँ सबको अपना काम जल्दी निपटवाने की पड़ी रहती है। कैश काउंटर पर अपना नंबर जल्दी लगा लेने के फेर में चार-पाँच लोग वहाँ डटे हुए हैं। इस समय किसी को और कुछ नहीं सूझता। आज बैंक में ज्यादातर अधेड़ और उनमें भी अधिकांश रिटायर्ड व्यक्ति थे जिन्हें देखने से लगता था कि जैसे यहाँ आना तो उनके रोज का काम हो! कि वे इतने थके-थके और वीतरागी-से जान पड़ रहे थे जिनका किसी भी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। इसीलिए बैंक में आए उन दो छोटे बच्चों पर किसी का ध्यान नहीं गया जो अपने पिता-जो छब्बीस-सत्ताइस बरस का देहाती-सा युवक है- के साथ पहुँचे हैं। लग रहा था, जैसे दोनों बच्चे घर में खेल रहे होंगे और सहसा अपने पिता को मोटर-साइकिल से कहीं जाते देखे होंगे तो संग ले चलने की जिद किए होंगे, और पिता भी उन्हें इसी हाल में यहाँ ले आया होगा-चलो घूमा कर आते हैं कर के। उसने आते ही दोनों बच्चों को स्टील की चमकदार आराम कुर्सी- जिसके एक सिरे पर मैं बैठा हुआ था- बिठा कर वह पर्ची लिखने के लिए बैंक के उस डेस्क पर चला गया जिसमें तमाम पर्चियां रखी हुई थीं। और वह लिखने में व्यस्त हो गया...।


मैंने एक नजर बच्चों को देखा, उनके चेहरे अपने स्वस्थ खिलेपन के बावजूद उन बच्चों के चेहरे, पहनावे सब बहुत साधारण घर के होने की चुगली कर रहे थे। दोनों बच्चे नंगे पैर ही थे। सस्ते कपड़े पहने। वैसे आजकल पैरेंट्स अपने बच्चों के पहनावे पर बहुत ध्यान देने लगे हैं। खासकर जब वे उन्हें कहीं बाहर ले जा रहे हों। मगर इनके साथ ऐसी कोई बात नहीं थी। मैंने देखा, छोटा बच्चा, जो बमुश्किल डेढ़ साल का रहा होगा, सामान्य देह का, वह एक मटमैली पीली बेबी टी शर्ट पहने है और कमर में सफेद निक्कर। बच्चे के चेहरे पर दो जगह काजल के बड़े-बड़े गोल टीके लगे थे- एक दायीं गाल पर, दूसरा माथे पर, जैसा कि आमतौर पर गाँव की माताएं अपने बच्चों को बुरी नजर से बचाने लगा देती हैं। जिसके कारण वह और गंवइहा लग रहा था। यही नहीं उसकी दोनों कलाइयों पर काली चूड़ियाँ थीं, प्लास्टिक की। एक हाथ में प्लास्टिक की सफेद चूड़ी भी थी। बच्चा निहायत चंचल था। और यही हाल उसके भाई का था, जो साढ़े तीन-चार साल का रहा होगा। हल्का गुलाबी टी-शर्ट और काली चड्डी पहने। वह भी चंचल। इस समय उन दोनों के चेहरे पर अचानक किसी नयी जगह आ जा जाने का भरपूर बाल्य-उत्साह है! और वे यहाँ तुरंत खेलने लग गए। कुर्सी पर खड़े होने पर बड़े बच्चे ने काँच की मोटी दीवार के पार बाहर रखी कुछ गाड़ियों के बीच अपने पापा की गाड़ी पहचान ली, तो वह खूब उत्साह में चिल्ला कर छोटे को बताने लगा- वो देख...पापा की गाड़ी!... पापा की गाड़ी!! और छोटा तुरंत ललक कर किसी तरह उठ कर खड़ा हो गया और काँच के पार देखने लगा। अपने पापा की बाइक देख कर अपने बड़े भाई की खुशी में शामिल हो गया। बल्कि, वह बड़े से भी ज्यादा खुश हो कर मारे खुशी के किलकारी मारने लगा - पापा! पापा! वह इससे अधिक अभी शायद बोल भी नहीं पाता है। उनके चेहरे पर ही नहीं, उनके नन्हें पैरों पर उनकी खुशी डगमग-डगमग थिरक रही थी, एकदम। दोनों ही एकदम खुश और बेपरवाह! और अपने में मगन! रह-रह कर छोटे बच्चे के मुँह से लार बह जाती थी, जो उसके गले के पास कपड़े को गीला कर रही थी। लेकिन वे सबसे बेपरवाह। उन बच्चों को जैसे यहाँ खेलने में खूब मजा आ रहा था। कभी कुर्सी से नीचे फिसलपट्टी की तरह फिसल जाते और दौड कर पर्ची भरते अपने पापा के पैरों से लिपट-झूल जाते, तो कभी चिकने टाइल्स वाली फर्श पर यहाँ से वहाँ दौड़ लगा जाते। या कभी बैंक के मोटे ग्लास वाले दरवाजे को ठेल कर बाहर जाने की कोशिश करते। यह दरवाजा खुलने के बाद खुद-ब-खुद बंद हो जाता। मैंने बड़े बच्चे को उधर जाने से एक बार मना किया, कि कहीं खेल-खेल में बंद होते दरवाजे से उसे चोट न लग जाए। पर वे कहाँ मानने वाले। खेल में विधुन। एक बार जब छोटा वाला दरवाजे के पास चला गया था, उसके पापा ने देखा तो उठा कर फिर मेरी बाजू की खाली सीट पर ला कर बिठा दिया, और फिर अपनी पर्ची भरने चल दिया।


...टोकन नम्बर फिफ्टी टू! काउंटर नम्बर वन!


 ...मुझे अपने टोकन नंबर 57 के पुकारे जाने का इंतजार था। मैं इन बच्चों के खेल में ही मन लगाने लगा। मुझे अच्छी बात ये लगी कि बैंक का मुच्छड़ गार्ड इस समय यहाँ नहीं था, वरना वह और नहीं तो अपनी मूँछों, रौबदार चेहरे या अपने राइफल के बल पर इनमें भय जगा सकता था और इनकी स्वाभाविकता छीन सकता था। या हो सकता है, वही ऊँची आवाज में पूछ बैठता कि ये किसके बच्चे हैं? और फिर बच्चे के बाप को धमकी के अंदाज में पूछ सकता था कि यहाँ बच्चों को लाने का क्या काम? ये कोई बच्चों को लाने की जगह है? और क्या तुम जानते नहीं, इस से यहाँ का काम डिस्टर्ब होता है? और बाप बेचारा झेंप कर उन्हें संभालते ही रह जाता। तब ये बच्चे जो इतने आनंद से यहाँ ऐसे खेल रहे हैं जैसे उनका घर हो, कि यह बैंक मानो उनके खेलने के लिए ही बना हो, कतई-कतई नहीं खेल पाते...।



मैंने ध्यान दिया, वहाँ, उन बच्चों के खेलने से आनंद लेने वालों में मेरे अलावा एक अधेड़ साँवली देहातिन थी, मुझसे दो कुर्सी आगे बैठी।


 -‘‘अरे ऐसे कूदो नहीं!’’ उसने भी बैंक के माहौल को समझते हुए थोड़े दबे स्वर में बच्चों को चिकनी कुर्सी से यों सांय से फिसलपटटी बना कर उतरने से मना किया। एकाध बार। लेकिन उसके चेहरे पर बच्चों के लिए स्वाभाविक रूप से उपजा वात्सल्य था जो उसकी सयानी आँखों से अनायास झाँक रहा था। वह इन्हें देख कर मन ही मन खुश थी। शायद अपने घर के बच्चे याद आ गये हों...।




मैं और लोगों की तरफ इस भाव से देखने लगा कि इन बच्चों पर और किनका-किनका ध्यान है। जैसे अधेड़ औरत की ही बगल में एक भरे देह की गोरी महिला थी- चमकदार गुलाबी साड़ी पहने। वह अपने बैंक पास-बुक में ही खोयी थी, और रह-रह कर कैश काउंटर के सामने जमा भीड़ को देख लेती थी कि कुछ कम हो तो वहाँ जाऊँ। उसकी बगल में एक बाइस-तेइस साल का घने घुंघराले बालों वाला लड़का था, जो अपने मोबाइल में व्यस्त था। मेरे दाहिने तरफ, कैश काउंटर के ठीक बगल में एक अधेड़ पैर लम्बा किये बैठा था। फुल शर्ट और ढीली पैंट पहने, जिस पर चमड़े की काली बेल्ट पड़ी थी। वह काफी शिक्षित और अपने सेवा काल में किसी अच्छे सरकारी पद से रिटायर हुआ जान पड़ता था, क्योंकि उसके किसी गुठली की तरह सूखे लम्बूतरे चेहरे पर एक रौब की छाया थी, अपने पुराने दिनों की। और उसके ऐन सामने खेलते इन बच्चों को ले कर उसके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। उसके लिए जैसे ये बच्चे यहाँ थे ही नहीं! उसके चेहरा बिलकुल सपाट था जिस पर एक पथरीली कठोरता थी। उसकी बगल में एक अधेड़ था, ढीले-ढाले कपड़े पहने, सिर पर गिनती के बचे हुए बाल, सो भी बिखरे-बिखरे। वह जाने क्यों बहुत हताश-सा दिख पड़ा था मुझे। विरक्त। अपने आप में ही खोया। यहाँ हो कर भी मानो यहाँ नहीं था वह। उसके चेहरे पर भी मुझे राई-रत्ती का फर्क नहीं दिखा। मुझसे नजर मिलने पर उसकी आँखें मुझे किसी सूखे कुएं की तरह लगी थीं, बरसों से ऐसे ही सूखे...और  उजाड...।


इधर बच्चे खेल रहे थे और मेरे सामने, काउंटर के पार, बैंक के कर्मचारियों को इतनी फुर्सत नहीं थी कि वे यहाँ खेल रहे बच्चों को एक नजर देख सकें। वे सभी बहुत व्यस्त थे। कोई कम्प्यूटर में इंट्री करने में तो कोई लिखने में। और कैश-काउंटर की महिला को तो जैसे सर उठाने की भी फुर्सत नहीं थी। वह सफेद वर्दीधारी चपरासी, जो काउंटरों के बाँये साइड में सामने ही बैठता है, जो पर्ची ले कर टोकन बांटता है, फाइलों को यहाँ से वहाँ लाने-ले जाने में ही इस कदर उलझा था कि वह भला क्या देखता! उसके लिए कभी पीछे मैनेजर की केबिन से आवाज आती- मोहन’! तो कभी पीछ बैठे मियादी जमा वाले टेबिल पर बैठी महिला आवाज लगाती, तो कभी क्लर्क...।


बच्चों के पिता को शायद रूपये जमा करने थे, इसीलिए वह कैश-काउंटर के सामने अपना पासबुक ले कर खड़ा हो गया था, कि जैसे ही मैडम फ्री हों, वह रूपये दे कर इंट्री करवाये...।


तो वहाँ और किसी को ऐसी फुर्सत नहीं थी कि बच्चों को खेलते देख आनंद ले सके। सब को अपना काम निपटाने की जल्दी थी।


कुछ ही देर में मेरे नंबर की पुकार हुई। काउंटर से मैंने अपने रूपये लिये। गिन कर पर्स में ठूंसते हुए मुड़ा, तो देखता हूँ, ये बच्चे अभी भी खेल रहे हैं... फर्श पर एक कोने से दूसरे कोने तक वे मेंढक की तरह उछल रहे हैं, फिर वेसे ही उछलते मुड़ रहे हैं...। उनमें बचपन का वही सहज उत्साह चमक रहा है... बाहर खिली धूप की तरह...।


मैं बरबस मुस्कुरा उठता हूँ।


सहसा, जाने क्यों, मुझे यह बात कोई बहुत बड़ी नेमत-सी लगी थी- कि बच्चे खेल रहे हैं...। वहीं टेलिविज़न पर बड़ी ख़बरों का सिलसिला बदस्तूर जारी था...।



सम्पर्क-

कैलाश बनवासी,
41, मुखर्जी नगर, सिकोला भाठा,
दुर्ग (छ.ग) पिन- 491001

मोबाईल -  9827003920


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-02-2017) को "सुबह का अखबार" (चर्चा अंक-2891) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. वे इन्हें एक नजर बहुत बुझे-बुझे , थके-थके-से उसी तरह देख लेते थे मानो ये दूर घटी कोई सड़क दुर्घटना की खबर हों , और इन सबके वे अब आदी हो गए हों...।.........और बच्चे खेल रहे हैं। ये नेमत नहीं तो और क्या है ? ? जहाँ एक तरफ समाज में मौलिक चेतना मरती जा रही है वहाँ बच्चों की सहजता उम्मीद जगाती है। .......फिर भी पता नहीं क्यों राजेश जोशी जी की कविता बच्चे काम पर जा रहे हैं, इस टिप्पड़ी को लिखते हुए बार-बार याद आती रही। हमारे समय का एक सच ये भी है।

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