राकेश धर द्विवेदी की कविताएँ
राकेश धर द्विवेदी |
जीवन के मूलभूत मूल्य आधुनिकता की दौड़ में अब लगातार पीछे छूटते जा रहे हैं. घर-परिवार-समाज को एक रखने वाली इकाईयों के आपसी सूत्र और उनके रेशे एक-एक कर लगातार टूटते-बिखरते जा रहे हैं. एक जिम्मेदार रचनाकार की नजर उन टूटते जा रहे बारीक रेशों पर जाती हैं और वह उन्हें अपनी रचना का हेतु बना कर उसे फिर से पुनर्स्थापित करने का प्रयास करता है. राकेश की कविताएँ पढ़ते हुए यह बात सहज ही दिखायी पड़ती है. राकेश ने अपनी कविताओं में छंद को साधने की सफल कोशिश की है. राकेश के यहाँ भावुक अनुभूतियाँ कुछ अधिक ही हैं. लेकिन केवल कोरी भावुकता से काम नहीं चलने वाला है. उन्हें इससे आगे बढ़ना होगा. समय की जटिलताओं पर पारखी निगाह डालनी होगी. उन जटिलताओं को काव्य में उकेरने की भाषा जाननी होगी. यह भी जानना होगा कि सघन वैचारिक चेतना की रश्मियों के भी अपने बिखराव में अलग तरह के छंद होते हैं. काव्य-यात्रा में आगे बढ़ने की प्रक्रिया में संभव है कि राकेश आगे चल कर इन बेतरतीब रश्मियों को भी एक कवि की नजर से देखें और उन्हें अपनी कविता में साधने की सफल कोशिश करें. 'पहली बार' पर इस युवा कवि का स्वागत करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं इनकी कुछ कविताएँ.
राकेश धर द्विवेदी की कविताएँ
वह नदी नहीं माँ है
मेरे बचपन में मेरी मां ने एक किस्सा
सुनाया
कि गंगा मां को आर-पार की पियरी चढ़ाई
और बदले में पुत्र-रत्न का उपहार पाया,
धीरे-धीरे मैं बड़ा हो कर अपने यौवन
अवस्था में
पुनः उसी नदी के तट पर नौका-विहार करने
आया
और नदी की चंचल लहरों ने अपने निर्मल
जल से दुलार कर
मेरे उज्जवल जीवन के शुभकामना संदेश को
सुनाया
आज जीवन के अंतिम समय में
मेरे तमाम नातेदार, रिश्तेदार
मेरे निर्जीव नश्वर शव को
रख आये नदी के तट पर
और तिरोहित कर दिया सारा प्यार दुलार
भाव अनुराग, यह समझ कर कि डुबो देगी नदी
इन्हें मेरे साथ अतल गहराई में
लेकिन नहीं, नदी की लहरों ने नहीं डुबोया मुझे
लगाकर अपने वक्षस्थल से घुमाती रही
पूरे नदी तट पर
कुछ इस तरह जैसे कोई मां अपने
नवजात शिशु को स्तनपान करा रही हो।
और दुनिया को यह बता रही है ये मेरा
अंश है
और उद्घाटित कर रही इस सत्य को वह नदी
नहीं मां है।
कागा तुम नहीं आते मेरे द्वार
कागा तुम नहीं आते मेरे द्वार
वर्षों पहले तुम आते थे
अपनी कांव-कांव से यह बताते थे
कि प्रिय घर आने वाले हैं।
और
मैं सज धज कर
तैयार हो जाती थी, तुम्हारे इंतजार में।
और प्रेम कबूतर तुम
तुम भी नहीं आते हो
न चिट्ठियां ले कर जाते हो
न साजन का कोई नया संदेश सुनाते हो
न निशि दिन छत की मुंडेर पर खडी
निर्मल आकाश को निहारती रहती हूँ
और तुम ‘निष्ठुर’ पक्षी नहीं आते हो
और
हीरामन तुम
तुमने तो न जाने कितनी बार पिया मिलन
की आश जगाई
बार-बार उनका नाम पुकार मेरी प्रीत खूब
बढ़ाई।
खैर
मैने भी तुम्हारी निष्ठुरता से तंग आ कर
एक
वैज्ञानिक यंत्र कम्यूटर से दोस्ती कर ली
और प्रतिदिन ई-मेल चैटिंग से
प्रेम पथ पर बढ़ रहे हैं
महीनों बाद आज फिर तुम तीनों की याद आई
है।
क्योंकि
आज मेल बाउंस हो गया है।
और
संदेशे का जवाब आया है कि
प्राप्तकर्ता अपने पते पर उपलब्ध नहीं
है।
इसलिए तुम तीनों से हाथ जोड कर है ये
गुहार
कि फिर से पधारो म्हारो द्वार!
कंक्रीट के जंगल
आइए मैं ले चलूं आपको
कंक्रीट के जंगल में
जहां आप महसूस करेंगे
भौतिकता के ताप को
मानवता नैतिकता दया-करूणा
यहां बैठे हो रहे मानवीय मूल्यों के
अवमूल्यन की कहानी कुछ कर रहे
मैक्डॉवेल की बोतल में
मनीप्लांट है मुस्करा रहा
पास में खड़ा हुआ
नीम का पेड़ काटा जा रहा
ताजी हवा का झोंका
यहां है सिमटा जा रहा
पास में खड़ा हुआ
एयर कंडीशनर गुर्रा रहा
है हवेली बड़ी-सी
पर मगर वीरान है
बूढ़े-बूढ़ियों को सासों से
यह केवल आबाद है
आगंतुक ने मालिक से पूछा
पड़ोसी का क्या नाम है
वह झल्लाया फिर बुदबुदाया
मेरा उनसे क्या काम है
इस अनोखे जंगल में
प्राणवायु है केवल मनी
यदि मनी है तो सब कुछ
है यहां फनी-फनी।
याद आती है
याद आती है
जब मैं मां के गर्भ में था
तुम्हारा मां के पेट से कान लगा कर
मेरी बातों को सुनना
याद आता है
ज्ब मैं छह माह का था
मध्य-रात्रि में मेरा नन्हे
हाथों से बाल खींच कर तुम्हें उठाना
घंटों तुम्हारे साथ खेलना
और थक कर सो जाना
याद आता है
नमी स्कूल की एडमीशन की पंक्ति
में तुम्हारा फॉर्म के लिए घंटों खड़ा
रहना
मेरा व्यक्तित्व परीक्षण होना और
तुम्हारी ढेरों मिन्नतों के बाद
स्कूल में मेरा एडमीशन होना
याद आता है
टनेक परीक्षाओं में मेरा
अनुत्तीर्ण होना
रोना और कमरा बंद कर
सो जाना
तुम्हारा धीरे से आना
उठाना खाना खिलाना
और पुनः धीरे से निकल जाना
याद आता है
बैंक से लोन ले कर
मुझे महंगे इंजीनियरिंग
कॉलेज में एडमीशन दिलाना
अपने पुराने स्कूटर पर
ढेरों किक मारना
लेकिन मुझे
नामी कंपनी का लैपटॉप दिलाना
याद आता है
मेरा स्वदेश में
नौकरी न पाना
विदेश जा कर नौकरी करना
मोबाइल पर घंटों तुम से बात करना
और तुम्हारी स्मृतियों में खो जाना
याद आता है
तुम्हारे स्मृति-शेष रहने की खबर सुनना
तुम्हारी अंतिम यात्रा में छुट्टी न
मिल पाने के कारण
शरीक न हो पाना
तुम्हें याद कर घंटों रोना
और सिरहाने रखी तकिया का भीग जाना
याद आता है
घर की एक दीवार पर
तस्वीर के रूप में तुम्हारा टिक जाना
मेरा लगातार तुम्हें देखना
आंसुओं को पोंछ देना
और ईश्वर से प्रार्थना करना
कि अगले जन्म में तुम्हें
पुनः मेरा पिता बनाना
सृष्टि का सुन्दरतम अध्याय हैं बेटियां
किसी कवि की सुन्दर रचनाएं हैं बेटियां
अभिव्यक्ति हैं, अनुभूति हैं
आशाएं हैं बेटियां
गीता का संदेश और
कुरान हदीस की आयतें है बेटियां
रामायण की चौपइयां और ईद की सेवइयां
हैं बेटियां
आंखों का नूर और
गजरे का फूल हैं बेटियां
बेला की सुगंध और
पीपल की छांव हैं बेटियां
आशा हैं विश्वास हैं
सृष्टि का सबसे सुन्दर
अध्याय हैं बेटियां
नव वंदना की राग हैं
नवचेतना की द्वार हैं बेटियां
अपने दुख सहकर
समाज को सुख देने का
पर्याय हैं बेटियां
सूरज की पहली किरण
और चांद का आफताब हैं बेटियां
शक्तिस्वरूपा जगत्जननी
मातरूपा बेमिसाल हैं बेटियां
तो बेटियों का तुम सम्मान करो
कभी न तुम इनका अपमान करो
उन्हें तुम इस धरा पर आने दो
सृष्टि को नई रोशनी दिखाने दो
वे वंदना की नई राग बन
तुम्हारी पीड़ा को हर लेंगी
वह चेतना की द्वार बन कर
नए अध्याय नव विकास
का सृजन करेंगी
बन जाएगी लोरी-गजल-गीत
तम्हारे जीवन का
तुम्हें भटके पथ से
सम्हाल कर तम्हारा पूर्ण
विकास करेगी
तो हे भटके मानव तुम
अब सम्हल जाओ
बेटियां बचाओ और
बेटियां पढ़ाओ
नवनिर्माण नवविकास की
प्रस्तावना बन जाओ।
कविता मेरे लिए
मेरे मृत्यु के पश्चात
मेरी कविताएं
तुम्हारे पास आएंगी।
तुम्हें रूलाएंगी
तुम्हें हंसाएंगी
कुछ गीत नया सुनाएंगी।
आज तक मैं जो तुमसे
न कह सका
वह तुमसे कह कर जाएंगी।
कैनवस पर लिखा एक-एक शब्द
स्वर बन कर बोलेगा
वेदना, दर्द और अपेक्षाओं
के अनेक पृष्ठों को खोलेगा।
उसे सहेज कर रखना
वह तुम्हारी स्मृतियों में
रच-बस जाएगा
मिलन और समर्पण के
नए द्वार खोलेगा।
देगी नए आयाम इस कहानी को
जिसकी प्रस्तावना हमने और तुमने शुरू
की थी
उसकी खूबसूरत उपसंहार बन जाएंगी।
करेंगी नया सृजन एक संबंधों का
भीगी मिट्टी की साँची खुशबू
की तरह प्रकृति में फैल जाएंगी
जीवन का एक सुंदर दर्शन बन जाएंगी।
शब्दों का एक-एक स्पर्श
तुम्हारे मन में रच-बस जाएगा
मधुर संगीत सुनाएगा।
ताकि नदी-पोखरे जिंदा रह सकें
अपने छुटपने में अपनी दादी के साथ
नदी के तट पर आया था
वहां दहाड़ खाती, कोलाहल करती नदी थी
निर्जन-सा घाट-तट था, कुछ नावें थीं।
कुछ अशिक्षित नाविक और मछुआरे थे
अपने यौवनकाल मे,
फिर उसी नदी के तट पर आया
अपनी जननी मां के साथ
घाट अब पक्का हो गया था
नदी अब पतली हो गई थी
लगा जैसे डाइटिंग कर रही हो।
गाड़ियों का धुआं बढ़ गया था
नदी का तट कुछ सहमा सा था
मौन हो अपनी पीड़ा को सह रहा था
कुछ कहने की चाह में मौन था।
आज तीस वर्षों बाद,
फिर उसी नदी के तट पर आया
अपनी पत्नी के साथ था
यहां पर लाल पत्थरों से
सजा हुआ घाट था
दूर-दूर तक सुंदर रोशनी के नजारे हैं
दूर तक फैले हुए बतियाते हुए
प्रेमी युगलों के समूह हैं
कुछ आइसक्रीम के डिब्बे हैं
कुछ कैडबरीज के रैपर हैं।
गाड़ियों की लंबी कतारें भी हैं
बहुत कोलाहल है, धुआं है
नदी अब सिमट कर, सहम कर
नाले में तब्दील हो गई है।
शायद वेंदीलेटर पर है,
अपनी अंतिम सांस को लेते हुए
जैसे कह रही है, तुम्हें यदि नदी, पोखरों को
बचाना है, तो उसके असली स्वरूप को लाना होगा
उसे फिर से यौवन का रूप वापस करना होगा
फिर से सुनो, सुनते जाओ नदी, पोखरों को बचाना होगा
ताकि नदी-पोखरे जिंदा रह सकें।
सम्पर्क-
राकेश धर द्विवेदी
5/58, विनीत खण्ड,
गोमतीनगर, लखनऊ (उ0प्र0)
मोबाईल - 07985573352
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
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