कुँवर नारायण पर पंकज कुमार बोस का स्मृति लेख ‘एखनि अन्ध बन्ध करो ना पाखा’


कुँवर नारायण

बीते 15 नवम्बर 2016 को हिन्दी के शीर्षस्थ और ख्यातनाम कवि कुँवर नारायण नहीं रहे। कुँवर जी की अन्तिम, लेकिन महत्वपूर्ण काव्य-कृति ‘कुमारजीव’ को केन्द्र में रखते हुए उनके अनन्य सहयोगी पंकज कुमार बोस ने उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का एक निष्पक्ष मूल्यांकन किया है। 'कुमारजीव' न केवल कुँवर नारायण की काव्यकृति है बल्कि यह कुमारजीव के बहाने से उनके दर्शन, उनके विचार और दृष्टि को हमारे सामने रखने वाली अहम् कृति भी है जिससे हो कर ही इस कवि को गहराई से जाना जा सकता है। आज पहली पर कुँवर जी की स्मृति को नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं पंकज कुमार बोस का यह स्मृति-लेख ‘एखनि अन्ध बन्ध करो ना पाखा’। तो आइए आज पढ़ते हैं पंकज का यह स्मृति-लेख।           



एखनि अन्ध बन्ध करो ना पाखा


पंकज कुमार बोस




कुँवर नारायण ने अपने खण्डकाव्य ‘वाजश्रवा के बहाने’ में लिखा है :

“मृत्यु इस पृथ्वी पर
जीवन का अन्तिम वक्तव्य नही है।”

जिस शीर्षक के अन्तर्गत ये पंक्तियाँ हैं, उसका नाम है ‘उपरांत जीवन’। एक कवि के रूप में और एक विचारक के रूप में भी कुँवर नारायण हमेशा से यह मानते रहे हैं कि जीवन एक ऐसा चक्र है जिसकी गति में मृत्यु भी समाहित है, एक ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि के भीतर ही मृत्यु है। यह जीवन के बाहर की चीज नहीं है, उसमें अनुस्यूत एक अनुभव की तरह है। ‘उपरांत जीवन’ की बात करते हुए यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि एक कवि, रचनाकार या विचारक भौतिक रूप से नश्वर हो सकता है, लेकिन उसके द्वारा सृजित विचारों और मूल्यों का अस्तित्व उसके बाद भी रहता है। कुँवर नारायण का अन्तिम काव्य ‘कुमारजीव’(2015) इसी थीम पर आधारित है। इसके आरंभ में ही यह प्रस्तावित किया गया है कि


“कोई भी बुद्ध या कुमारजीव
कभी भी मरता नहीं”


क्योंकि


“वह एक विचार का जीवन है
उसे जिया जा सकता है कभी भी
उसके समय में जा कर
या उसे अपने समय में ला कर...”


कृति के अन्त में भी इस धारणा की आवृत्ति की गयी है कि एक व्यक्ति से अधिक उसके विचारों में जीवन होता है। जब कुमारजीव के भौतिक या नश्वर जीवन का अवसान हो जाता है तो एक शाश्वत जीवन में उसका कायांतरण हो जाता है। कुँवर नारायण ने इसे ‘समय’ और ‘प्रति-समय’ कहा है। पिछले कई वर्षों से वे इस पर चिंतन करते आ रहे थे। वे बार-बार कहते थे कि जब मैं चला जाऊँगा तो मेरे ‘प्रति-समय’ के बारे में बात होगी, मेरे ‘समय’ के बारे में बात नहीं होगी। कुमारजीव (4थी-5वीं सदी) जब अपने भौतिक समय में जीवित थे, तब बुद्ध जीवित नहीं थे। वे बुद्ध के ‘प्रति-समय’ में या उनके विचारों के समय में जीवित थे। उसी तरह जब कुमारजीव थे, तब कुँवर नारायण इस संसार में नहीं थे। वे कुमारजीव के ‘प्रति-समय’ में जीवित थे। अब कुँवर नारायण का समय नहीं है, लेकिन हमारे सामने वे अपना प्रति-समय रच कर गए हैं। यह उनके कृतित्व और विचारों का जीवन है और यही उनकी उपरांत उपस्थिति है। 15 नवम्बर 2017 उनके भौतिक अवसान की तिथि है जो अब इतिहास में अंकित हो चुकी है। आज जो लोग उन पर लिख-पढ़ रहे हैं, उनकी कविताएँ उद्धृत कर रहे हैं या उन्हें श्रद्धांजलियाँ दे रहे हैं, वे उनके प्रति-समय में उन्हें याद कर रहे हैं। इस अर्थ में 15 नवम्बर के बाद से उनका एक नया जीवन आरंभ होता है और हम सब उनके इसी पुनर्जीवन को सेलिब्रेट कर रहे हैं!



‘कुमारजीव’ के पहले ही खण्ड में किज़िल की गुफ़ाओं का एक प्रसंग है जहाँ मैत्रेय के पुनरागमन का उत्सव मनाया जा रहा है। वास्तव में कुमारजीव अपनी स्मृतियों में यहाँ लौटता है :


“सविनय लौट आता हूँ कूछा में
किज़िल की गुफ़ाओं में जहाँ
मैत्रेय के पुनरागमन का उत्सव है।”


कुँवर नारायण के समूचे साहित्य में यह लक्षित किया जा सकता है कि उनके द्वारा सर्वाधिक प्रयोग की जाने वाली क्रिया है ‘लौटना’। यह शब्द केवल क्रिया के रूप में ही नहीं, बल्कि संज्ञा के रूप में भी बार-बार आता है और अन्ततः एक जीवन-दर्शन के रूप में आता है। जैसे उन्हें किसी यात्रा या किसी खोज के बाद कुछ पा कर जीवन में पुनः लौटना हो। उनके लिए हर छोटा-बड़ा अनुभव किसी यात्रा की तरह है और उस यात्रा की उपलब्धि से जीवन को समृद्ध करते जाना है, इसलिए पुनः जीवन में ही लौट जाना है। कविता के बहाने वे अपने जीवन के ‘रन-वे’ से अनुभवों के अनन्त संसार में एक उड़ान भरते हैं और उड़ान पूरी कर लेने पर फिर वहीं ‘लैंडिंग’ करते हैं। इसलिए वे बहुत पहले ही कह चुके हैं कि ‘अब की अगर लौटा तो बृहत्तर लौटूँगा।’ कुँवर नारायण हमेशा अपने आप को ‘एनरिच’ करना चाहते हैं। परिष्कृत करते रहना चाहते हैं। बेहतर बनाना चाहते हैं। इसलिए लौटने का एक पूरा चक्र रचते हैं :


“वे मरेंगे नहीं
 नये-नये रूपों में लौटते रहेंगे हमारे बीच...”


आज कुँवर नारायण के बारे में सोचना या उन्हें याद करना कुछ असहज-सा लगता है। ऐसा लगता है कि वे आज भी हमारे साथ हैं। उन पर कोई फ़िल्म देखते हुए लगता है कि वे सच में हमारे सामने चल रहे हैं, उपस्थित हैं और अभी तुरंत कुछ बोल उठेंगे। उन से कई बार हम उनके यशःकाय समकालीन अग्रजों के बारे में पूछते। आचार्य नरेन्द्र देव, कृष्ण कृपलानी, सत्यजित राय, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, विजय देव नारायण साही या डॉ. देवराज के बारे में पूछते। उनके जीवन और उनकी मृत्यु की याद करते हुए वे कहीं खो-से जाते। कुछ देर बाद बोल उठते, ‘मेरे लिए तो ये सब मानो कल की ही बातें हैं।’ अपने समकालीनों की उपरांत उपस्थिति को बहुत गहराई से महसूस करते। जब भारतीय लेखकों-बुद्धिजीवियों की हत्या की ख़बरें आईं तो वे भीतर तक हिल गए थे। फिर जब कैलाश वाजपेयी, गुंटर ग्रास या उम्बर्तो इको का निधन हुआ तो भी वे काफी बेचैन हो गए। हमें बोल-बोल कर उन पर नोट लिखवाते। कहते कि ‘सब लोग जा रहे हैं, मैं ही बचा हुआ हूँ।’ बार-बार कहते कि ‘देखो मेरा तो कोई ठीक नहीं, जो भी कुछ काम बचा हुआ है वो तुम लोग जल्द से जल्द कर दो।’ अपने समकालीनों की मृत्यु का गहरा बोध तो उन्हें था ही, स्वयं अपनी मृत्यु की आहट भी भाँप रहे थे। निजी जीवन में उन्होंने कई आत्मीय जनों की मृत्यु को बहुत करीब से देखा था। सिलसिलेवार रूप से। अपनी कृतियों में भी वे मृत्यु से संवाद करते रहे, जीवन और मृत्यु के द्वन्द्व पर बहस करते रहे, उसकी सत्ता को मानते रहे और अन्ततः उसे जीवन के दायरे में ही स्वीकार कर लिया। इस दृष्टि से ‘आत्मजयी’ (1965) और ‘वाजश्रवा के बहाने’ (2008) जीवन और मृत्यु के अपने-अपने पाले से एक-दूसरे को देखने-समझने के दो पूरक सृजनात्मक उपक्रम हैं।



कुँवर जी से मेरी पहली भेंट लगभग दस साल पहले हुई थी, लेकिन पिछले चार सालों में उनके बहुत करीब जाने का, उनके सान्निध्य की छाँव में रहने का सौभाग्य मिला। पहली बार मिलने से लेकर अन्तिम भेंट के बीच का लगभग चार साल का समय मेरे लिए किसी अन्तराल की तरह न हो कर एक रोमांचक यात्रा की तरह रहा है। किसी ‘वॉयेज’ या ‘डिस्कवरी’ की तरह। उनसे मिलने का हर दिन मेरी महा-यात्रा का एक पड़ाव था जो मेरे जीवन में नए-नए अध्यायों को जोड़ता चला गया। उनके साथ के शुरुआती मुलाकातों और बातचीत की बहुत साफ़ गहरी छाप अभी भी मेरे दिमाग में है। जब मैं उनसे कुछ घुल-मिल गया और हमारे बीच लंबी बातचीत होने लगी तो उन्होंने किसी दिव्य और सिद्ध मन्त्र की तरहसंस्कृत का यह श्लोक कहा :


अमंत्रं अक्षरं नास्ति, नास्ति मूलं अनौषधं।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभः।।


(ऐसा कोई अक्षर नहीं है जिसमें मन्त्र की शक्ति न हो, ऐसा कोई मूल नहीं है जिसमें औषधि की शक्ति न हो और ऐसा कोई मनुष्य भी दुर्लभ नहीं जो कि योग्य न हो। दुर्लभ है ऐसी वस्तु और ऐसा मनुष्य जो इन सबको जोड़ता हो, जो योजक हो।)


वे बार-बार मुझे यह श्लोक दुहराते। ‘युज’ धातु से यह शब्द कैसे बना है, बताते। बार-बार पूछते कि समझ रहे हो या नहीं! कहते कि “तुम योजक बनो! योजक दुर्लभ होता है। तुम दुर्लभ बनो! मुझे विश्वास है कि तुम बन सकते हो।” कुँवर जी के इसी विश्वास और वात्सल्य की डोरी को पकड़ता हुआ मैं आगे बढ़ता गया - उनके जीवन में और अपने जीवन में भी। ‘योजक’ शब्द और ‘पश्य’ शब्द पर वे बहुत बल देते थे। मेरी समझ है कि वे स्वयं भी रचनाकार की ‘दृष्टि’ में ‘योजक’ धर्म को वरीयता देते थे। विचार और रचना के क्षेत्र में बार-बार वे इस योजक-तत्त्व की बात करते और आज की नई पीढी में इसकी कमी से चिंतित रहते। उन्होंने स्वयं अपने व्यक्तित्व और कृतित्व में योजक-धर्म का सम्यक निर्वाह किया। एक रचनाकार के रूप में उन्होंने समकाल और पुराकाल को, इतिहास और कल्पना को, निजता और सामाजिकता को, राजनीति और दर्शन को, मानवीयता और नैतिकता के मूल्यों को जोड़ते हुए उन्हें अपना काव्य-मूल्य बनाया। व्यक्तिगत जीवन में भी वे एक बहुपठित और सभ्य-सुसंस्कृत नागरिक थे। साहित्य और कविता के अलावा विभिन्न कलाओं के पारखी रसिक थे, शालीन और उदारमना सज्जन थे, बेहद संवेदनशील पारिवारिक और सामाजिक मनुष्य थे। यों उनका व्यक्ति और कवि-रूप जीवन की कई विधाओं का एक सतरंगी इन्द्रधनुष था।



कुँवर नारायण के जीवन और साहित्य में पारिवारिक मूल्य बहुत ही गहराई से रेखांकित हुआ है। अपने निकट जाने वाले नई पीढ़ी के युवाओं से वे पुत्रवत स्नेह करते। आपस में एक आत्मीय संवाद संभव करने के लिए उन्हें पूरी स्वतंत्रता देते। दो पीढ़ियों के इस रूरी रिश्ते को उन्होंने अपनी कृतियों में बखूबी उभारा है। ‘आत्मजयी’ में पिता और पुत्र का संवाद है, बल्कि बहस है। दो पीढ़ियों के बीच की यह बहस वास्तव में पारंपरिक और आधुनिक जीवन-मूल्यों के बीच की टकराहट है। इसमें नचिकेता की ओर से कहा गया है :


“नया जीवन बोध संतुष्ट नहीं होता
ऐसे सवालों से जिसका संबंध
आज से नहीं अतीत से है
तर्क से नहीं रीति से है।”


‘सन्धि’ कहानी में भी दो पीढ़ियों के बीच संवाद-विवाद है। ‘आत्मजयी’ में एक द्वंद्वात्मक संबंध है पिता और पुत्र के बीच। ‘वाजश्रवा के बहाने’ में वह कुछ ढीला होता है, पिता का एक स्वीकार्य दृष्टिकोण सामने आता है। एक अर्थ में ‘वाजश्रवा के बहाने’ पिता या वरिष्ठ पीढ़ी की ओर से जारी की गई एक काव्यात्मक स्वीकारोक्ति है। ‘कुमारजीव’ में यह द्वन्द्व पूरी तरह से समाप्त हो जाता है। सिंथेसिस हो जाता है। दूसरे खंड में जीवा और कुमारायण के बीच पुत्र को ले कर जो संवाद है वह इस प्रसंग में अलग से ध्यान खींचता है। दो पीढ़ियों के बीच पारिवारिक स्थिति पर ध्यान दें तो ‘आत्मजयी,’ ‘वाजश्रवा के बहाने’ और ‘कुमारजीव’ में क्रमशः द्वन्द्व से स्वीकार और स्वीकार से संतुलन की ओर एक उर्ध्वमुखी यात्रा मिलती है। मुक्तिबोध ने एक जगह चिन्ता प्रकट करते हुए लिखा है कि हमारे साहित्य में पारिवारिक मूल्य और आस्थाएँ कहीं नेपथ्य में चली गयी हैं। अनास्थाएँ ही सामने आ कर विकट नृत्य कर रही हैं। आज जो लोग मुक्तिबोध की विरासत का बखान करने में सबसे आगे हैं उन्होंने भी केवल प्रायोजित राजनीति के वशीभूत हो कर अपने चिंतन और रचना में इस मुद्दे को नेपथ्य में ही छोड़ रखा है। कुँवर नारायण ने मुक्तिबोध की इस चिन्ता को अपना कवि-धर्म मान कर ग्रहण करते हुए इसे रचनाकार के अनिवार्य सरोकार के रूप में प्रस्तावित किया है। इन तीन प्रमुख कृतियों के माध्यम से वे पारिवारिक मूल्यों में निरंतर प्रगाढ़ होती हुई अपनी आस्था को एक व्यापक आयाम देते हैं। उसे एक सार्वजनीन मूल्य के रूप में संप्रेषित करते हैं। एक कवि के रूप में कुँवर नारायण का यह बड़ा योगदान है जो उनकी आलोचना के प्रसंग में अब तक अलक्षित ही रहा है।




युवाओं से उनकी आत्मीयता के बारे में एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य ध्यान देने लायक है। ‘कुमारजीव’ के बाद उनकी अन्तिम दो पुस्तकें विश्व कविताओं के अनुवाद और सिनेमा पर प्रकाशित हुई हैं। ‘न सीमाएँ न दूरियाँ’ पुस्तक उन्होंने ‘हिन्दी कविता की नयी पीढी को समर्पित’ किया है। ‘लेखक का सिनेमा’ का समर्पण लिखा है, ‘बढ़ती हुई व्यावसायिकता और स्पर्धा से जो अभी भी बचे हुए हैं उनको समर्पित।’ कुँवर नारायण की कृतियों में, शुरू से ही देखें तो, आपको समर्पण नहीं मिलेगा। एक-दो अपवाद रूर हैं। ऐसे में यह सोचना लाजिमी है कि क्या कारण रहा कि अपनी अन्तिम पुस्तकें वे युवा पीढ़ी को समर्पित कर रहे हैं। जीवन के अन्तिम समय में वे सीधे-सीधे नई पीढी को संबोधित कर रहे हैं। जो उन्हें नजदीक से जानते हैं उन्हें मालूम है कि निजी जीवन में भी वे युवाओं को काफी तवज्जो देते रहे हैं, बराबरी के स्तर पर जा कर उनसे संवाद करते रहे हैं। इस रूप में वे उन विरल साहित्यकारों में हैं जिनकी कथनी और करनी में, सिद्धान्त और व्यवहार में कभी कोई फाँक नहीं दिखता। उनका आचरण-व्यवहार हमेशा उनके विचार और सिद्धान्त को प्रमाणित करता रहा है। नयी पीढी के लिए उनके यहाँ हमेशा एक खुलापन या स्वीकार का भाव है। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने जिसे ‘आकाशधर्मिता’ कहा है, वह है। यदि आप उनके सान्निध्य में हैं तो वे हमेशा आपको खिलने-खुलने के लिए पूरा अवसर देते। ‘आत्मजयी’ में उन्होंने युवा मानस के लिए इसे विशेष रूप से रेखांकित किया है :


“तुझमें स्रष्टा की आकुलता
उसको एक आकाश चाहिए
तुझमें अब कृतित्व का कारण
उसको नया विकास चाहिए।”


‘आत्मजयी’ के पचास साल बाद ‘कुमारजीव’ में भी लिखते हैं :


“मुझे दो वसन्त : फूलूँगा
मुझे दो वर्षा : भीगूँगा
मुझे दो शिशिर : काँपूँगा
मुझे दो ग्रीष्म : तापूँगा”


आरंभ से ले कर अन्त तक कुँवर नारायण में नयी पीढी में निहित आधुनिक भाव-बोध, तर्क-पद्धति और नयी जीवन-दृष्टि के स्वीकार के प्रति एक उत्सुक और उत्कट भाव रहा है।


इन्हीं कुछ दुर्लभ गुणों के कारण उनके निकट बैठने पर देवत्व की उपस्थिति का बोध होता। वहाँ जाने वाला कोई भी आदमी पहले से बड़ा हो कर ही लौटता। लघुता छीजती जाती, भीतर का निहित स्वार्थ गलता जाता। जड़ता थोड़ी-सी पिघल जाती, आत्मा कुछ और तृप्त हो जाती। वे कलकल बहती हुई एक नदी की तरह थे जहाँ हर अगली बार जाने पर एक नया पानी मिलता। नई जलधारा और नया प्राण! वह धीरे-धीरे हमारे भीतर संचारित होता। कुँवर जी से पहली बार मिलने पर संजीवनी मिली और प्रत्येक अगली बार मिलने पर पुनर्नवा। पहली बार तब मिला जब जीवन में असह्य निराशाओं का दौर था। अँधियारा बढ़ता जा रहा था। उनसे पहली बार मिलना सैकड़ों काली अँधेरी रातों के बाद सहसा एक सूर्य के आँगन में आने-सा था। आँगन खुला था और चारों ओर रौशनी के झरने ही झरने!



कुँवर नारायण के अन्तिम वर्षों में मैं और हमारे कुछ साथी उनके पास जाया करते। उनकी पुस्तकों और पांडुलिपियों पर काम करते। हम लोगों से केवल उनकी मैत्री ही नहीं थी, मित्रवत या पुत्रवत स्नेह ही नहीं था, बल्कि एक समानधर्मिता थी। आप कभी भी उनके पास जाते या कोई भी व्यक्ति पहली बार उनके पास जाता तो ऐसा महसूस नहीं होता कि वह पहली बार वहाँ आया है। ऐसा लगता कि वे बहुत समय से केवल आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं। अपने अन्तिम समय में वे बहुत प्रतीक्षा करते थे। मानो किसी ऐसे आदमी का इंतज़ार करते जो बराबरी के स्तर पर जा कर उनसे कुछ बातचीत करे, विचार-विमर्श करे।


इन वर्षों में दो रूपों में कुँवर जी के साहचर्य का लाभ मिलता रहा। एक तो देश-दुनिया की तमाम सूचनाएँ और उन पर लम्बी बातचीत, और दूसरे, उनके अन्तिम कविता संग्रह (शीघ्र प्रकाश्य) और अन्तिम काव्य ‘कुमारजीव’ की रचना-प्रक्रिया में बहुत निकट से सहभागी होने का सौभाग्य। यह एक अपूर्व अनुभव था, रोमांचित करने वाला। अक्सर देर शाम को उनके घर जाता तो बड़े प्यार से मुझसे पूछते, “आज कुरुक्षेत्र में क्या-क्या हुआ संजय? मुझे बताओ।” हमारे बीच अत्यंत निजी से लेकर साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय ख़बरों पर खूब बातचीत होती। मैं उन्हें दिल्ली की सांस्कृतिक गतिविधियों के बारे में बताता, दिल्ली ट्रैफिक के ऑड-इवन सिस्टम के बारे में बताता। राज्य या केंद्र सरकार की नई नीतियों के बारे में बात होती। लेखकों की नई गतिविधियों को जानने के लिए वे हमेशा उत्सुक रहते। हमलोग अंग्रेजी जा हिन्दी की महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं के नए अंकों पर बातचीत करते। कभी ‘द कैरेवन’ और ‘फ्रंटलाइन’ में प्रकाशित साहित्य, संस्कृति और कला से जुड़े लेखों पर संवाद करते तो कभी ‘तद्भव,’ ‘आलोचना,’ ‘पक्षधर’ और ‘जलसा’ जैसी पत्रिकाओं के कंटेंट के बारे में बातें करते।उन्हें मैं नई प्रकाशित पुस्तकों के बारे में बताता तो बहुत खुश होते। वे हमेशा कहते कि जो तुमने समझा है वह मुझे बताओ। वे एक गंभीर श्रोता भी थे। बड़े प्यार और उत्सुकता से, लेकिन अनन्त धैर्य के साथ आपको सुनते। किसी-किसी विषय पर कहते कि तुमने ठीक समझा है लेकिन इसे दूसरे तरीके से ज़रा यूँ भी समझने की कोशिश करना। कभी ‘टाइम्स लिटरेरी सप्लिमेंट’ में प्रकाशित किसी महत्त्वपूर्ण समीक्षा को सुनते और उसपर अपनी राय देते। कभी ‘पुस्तक वार्ता’ से कुछ सुनते। एक लगभग पूरी जी चुकी उम्र में भी समकालीन साहित्य के बारे में उनकी उत्कट जिज्ञासा हमें विस्मित करती थी। कभी किसी विषय पर या किसी समकालीन कवि के बारे में बात करते हुए कहते कि मैं ऐसा समझता हूँ। तुम क्या सोचते हो? क्या तुम सहमत हो? मैं तुम्हारी राय जानना चाहता हूँ। पिछले चार वर्षों में हमारे बीच इस तरह के बौद्धिक-सांस्कृतिक संवादों का एक लंबा सिलसिला चलता रहा। मेरे लिए यह संवाद किसी मुँहमाँगे वरदान की तरह था जिससे मेरा अन्तस भीगता जाता और मेरे ज्ञान की गगरी भरती जाती। मेरे लिए वे मानुषी-गंगा तो थे ही, ज्ञान-गंगा भी थे। उनके निकट रहना और उनमें गहरे उतर कर, डूब कर नहाने का अर्थ था अपने आप को लगातार धवल और निर्मल बनाना, पवित्र और उज्ज्वल करना।


उनकी पुस्तकों और पांडुलिपियों पर काम करने का अनुभव किसी बड़े विश्वविद्यालय में पढ़ने का अनुभव था जहाँ आपके पसंद की सारी चीजें हों। मैं ‘कुमारजीव’ से पहले उनके अन्तिम कविता-संग्रह पर काम कर रहा था। हमलोग एक-एक कविता पर प्रतिदिन बात करते। कविताओं पर काम करते हुए हम उनके मूल भाव या विचार की अपेक्षा चिह्न-विचार और छन्द-विचार पर विशेष ध्यान देते। मेरे सामने उनका पूरा साहित्य था और यह ध्यान में था कि शुरू से ले कर अब तक उन्होंने कैसी कविताएँ लिखी हैं, उनमें चिह्नों-छन्दों का प्रयोग कैसे किया है। ‘कुमारजीव’ कुछ समय के बाद मेरे पास आई। हमारे एक वरिष्ठ साथी ने उसकी पांडुलिपि तैयार की थी। जब कविता-संग्रह का काम हो गया तो उन्होंने कहा कि मैं तुम्हें कुछ दिखाना चाहता हूँ। वह ‘कुमारजीव’ की पांडुलिपि का पहला प्रारूप था। मैं प्रतिदिन उनके यहाँ जाता तो देखता कि कोई पांडुलिपि रखी हुई है और उसपर ‘कुमारजीव’ लिखा हुआ है। उसे देखने की बहुत उत्सुकता होती। बार-बार बेचैन होता कि ज़रा मैं इसे पढूँ। वे कहते कि अच्छा, ठीक है पहले एक चीज पूरी हो जाय तो फिर इसे देखना। फिर एक दिन उन्होंने बुला कर कहा कि अब तुम इसे देखो। उस दिन मैंने ‘कुमारजीव’ का पहला खण्ड पढ़ा। मैंने बताया कि निजी तौर पर यह मुझे बहुत अच्छा लगा। दूसरे दिन दूसरा और तीसरे दिन तीसरा खंड पढ़ा और उस पर हमने बात की। इसी तरह सभी छः खंड पढ़े गए।



‘कुमारजीव’ कुँवर नारायण के अन्तिम वर्षों की सर्वश्रेष्ठ कृति तो है ही, उनके पूरे साहित्य की भी महत्तम उपलब्धि है। जैसे प्रेमचंद का ‘गोदान’ और जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ उनकी मृत्यु के ठीक पहले लिखी गयी उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है, उसी तरह से ‘कुमारजीव’ भी है। वे चाहते थे कि उनके पास ऐसा कुछ न बचे जो ‘कुमारजीव’ में आने से रह जाय। अपनी कविता-यात्रा का सार-तत्त्व और अपने जीवन-दर्शन का निचोड़ वे उसमें उड़ेल देना चाहते थे। ‘कुमारजीव’ में उनकी कविता की सभी विशिष्टताएँ और उनका समग्र जीवन-दर्शन एकत्र है। यह काव्य ईसा की चौथी-पाँचवी सदी में भारत से चीन जाने वाले बौद्ध विचारक और अनुवादक के समय और जीवन के बारे में है। कुँवर नारायण की तरह कुमारजीव भी व्यक्ति से कहीं अधिक एक मनुष्य है जो लगातार एक पूर्णता पाने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसा मनुष्य जिसमें मानवीयता होती है और जो हमें अपनी ओर खींचता है। कुमारजीव का व्यक्तित्व ‘विद्या ददाति विनयम’ की एक जीती-जागती मिसाल है जो हमें भी विनम्रता की सीख देता है। पूरे काव्य की मूल प्रतिश्रुति इस बात में है कि किसी भी विचारक के दो समय होते हैं। एक उसका अपना समय जिसमें वह रहता है और एक उसके विचारों का समय जो उसके बाद भी रहता है। बुद्ध, नागार्जुन, कुमारजीव और ह्वेनसांग जैसे विद्वानों-विचारकों के ऐसे ही दो-दो समय हैं। पूरी कृति इन्हीं दो समयों को कविता के धागे में बुनती हुई चलती है।



‘कुमारजीव’ की रचना के दौरान उनकी दृष्टि पूरी तरह क्षीण होती जा रही थी। जब मैं उनके पास गया तो एक तरह से अँधेरे से उजाले की भरी-पूरी दुनिया की ओर गया था। लेकिन इस उजाले में मेरे आने तक वे एक गहरे अँधेरे में जा चुके थे। उन्होंने हमें बाह्य-दृष्टि से तो नहीं लेकिन अन्तर्दृष्टि के आलोक से हमेशा आलोकित किया। मैं और हमारे साथी उनकी आँखें थे। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में हम लोगों को न देख पाना उनके सबसे बड़े अफसोसों में एक था। इस बात को ले कर वे एक अजीब-सी कचोट महसूस करते। इन दिनों वे छू कर और टटोल कर हमें पहचानते। उनका मष्तिष्क अभी भी बहुत जागृत था, स्मृतियाँ बहुत सूक्ष्म थीं लेकिन उनकी बाहरी दुनिया स्पर्शों में सिमटती जा रही थी। उनके स्पर्श में हमें केवल एक महान कवि की दुर्लभ संवेदनशीलता ही नहीं बल्कि एक विराट मनुष्य की अयाचित कातर भाव की अनुभूति होती। वे बार-बार ग़ालिब का यह शे’र सुनाते :

“गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मिरे आगे”


इस शे’र को सुनाने के बाद वे कहते कि “तुम इसमें ‘हाथ’ और ‘आँखों’ को एक दूसरे से बदल दो। मेरे लिए तुम इन दो शब्दों को शिफ्ट कर दो, फिर यह मेरा ही चित्र हो जाएगा।” शेक्सपीयर और कबीर के साथ-साथ ग़ालिब उनके दिल के बहुत करीब थे। लगभग एक अधिकार और विश्वास के साथ वे कहते कि ग़ालिब से इतनी छेड़-छाड़ तो मैं कर ही सकता हूँ! हम उन्हें उनके प्रिय लैटिन अमेरिकी रचनाकार लुई बोर्खेस की याद दिलाते। कहते कि वे तो बहुत पहले ही दृष्टिहीन हो गए थे। उसके बाद भी बहुत सारी चीजें लिखीं। जॉन मिल्टन की याद दिलाते कि वे भी अन्धे हो गए थे। मिल्टन ने इस प्रसंग पर एक सोनेट भी लिखा है। उसने लिखा है कि


When I consider how my light is spent
Ere half my days in this dark world and wide...”


44 वर्ष की आयु में दृष्टिहीन हो जाने के बाद भी उसने अपनी अमर कृति ‘पैराडाइज लॉस्ट’ की रचना की। उसे बोल कर लिखवाया। कुँवर जी को जब हम कहते कि आप तो 80 और 90 की आयु में इस अवस्था में आये हैं तो उन्हें थोड़ी राहत मिलती। ‘कुमारजीव’ बिल्कुल उन्हीं परिस्थितियों में तैयार किया गया जिन परिस्थितियों में मिल्टन का ‘पैराडाइज लॉस्ट’। इसलिए मैं ‘कुमारजीव’ की रचना-प्रक्रिया को अनिवार्य रूप से ‘पैराडाइज लॉस्ट’ की रचना-प्रक्रिया से जोड़ कर देखता हूँ।




कुँवर जी के बिल्कुल आख़िरी दिनों में जब मैं उनके पास जा कर बातचीत कर रहा था तो अक्सर उन्हें रवीन्द्र नाथ टैगोर का एक गीत सुनाया करता। तब मैं हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक ‘मृत्युंजय रवीन्द्र’ पढ़ रहा था। एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा कि आजकल क्या पढ़ रहे हो? मैंने बताया और उसी पुस्तक से वह गीत और व्याख्या पढ़ कर सुनाई। सुन कर वे विह्वल हो गए। जैसे किसी शून्य में चले गए हों। भीतर तक बहुत भीग गए थे। इस गीत को उन्होंने कई बार सुना। बार-बार बोलते कि मुझे वो गीत दुबारा सुनना है। कुछ दिन मैं नहीं जा पाया या देरी हो जाती तो फ़ोन करवा कर बुलाते। कहते कि पंकज को बुलाओ, मुझे उससे वो गीत सुनना है। उनमें सहज-निश्छल बालकोचित जिज्ञासा और उत्सुकता तो पहले भी खूब थी लेकिन पहली बार इस एक गीत को सुनने के लिए मुझे उनमें एक अजीब-सी ललक दिखी। इसे सुनने के लिए वे बार-बार बेचैन हो जाते। ऐसा लगता कि इस में उनकी आत्मा का कोई रहस्य हो, लगता कि कहीं भीतर-भीतर वे तृप्त हो रहें हैं। मानो कहीं बहुत दूर से उन्हें कोई आवाज़ दे रहा है और वे बहुत ध्यान से उसे ठीक-ठीक पहचानने की कोशिश कर रहे हैं। हमारे समय के बहुत पार जाकर वे किसी निर्झर-से गिरते हुए शब्दों को महसूस कर रहे थे। सुन लेने के बाद वे एक अपूर्व शान्ति में चले जाते। बहुत देर तक कुछ नहीं बोलते। आज एक बार फिर उनकी उसी बाल सुलभ विह्वलता और करुणा से भीगी हुई आँखों को याद करते हुए रवीन्द्र नाथ का यह गीत उन्हें समर्पित करता हूँ : 


“यदि ओ संध्या आसिछे मन्द मन्थरे
सब संगीत गेछे इंगिते थामिया;
यदि ओ संगी नाहि अनन्त अम्बरे
यदि ओ क्लान्ति आसिछे अंगे नामिया;
महा आशंका जपिछे मौन अन्तरे
दिक् दिगन्त अवगुंठने ढाका;
तबू विहंग, ओरे विहंग मोर,
एखनि अन्ध बन्ध करो ना पाखा।”

(यद्यपि सन्ध्या मन्द-मन्थर गति से आ रही है,
सारा संगीत उसके इंगित पर रुक गया है;
यद्यपि अनन्त आकाश में कोई साथी नहीं है,
यद्यपि शरीर में क्लान्ति उतर आयी है;
अन्तर में महा आशंका मौन जप कर रही है,
दिग्दिगन्त अवगुण्ठन से ढका हुआ है;
तो भी ऐ विहंग, ओ मेरे विहंग,
अभी ही अन्ध होकर पंख बन्द न कर।)


पंकज कुमार बोस



सम्पर्क-

पंकज कुमार बोस
डी-1/24, जीवन पार्क
पंखा रोड, उत्तम नगर
नई दिल्ली-110059

मोबाईल - 9540879062
ई-मेल : parikshit.du@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त सभी चित्र गूगल के सौजन्य से लिए गए हैं.) 

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