अमीर चन्द वैश्य का आलेख 'शमशेर का ललित गद्य'
हिन्दी कविता के अनूठे कवि शमशेर बहादुर सिंह ने गद्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण काम किया है। दुर्भाग्यवश शमशेर जी का यह काम प्रायः अलक्षित सा ही रहा है।आलोचक अमीर चन्द वैश्य ने इधर शमशेर के ललित गद्य पर कुछ उल्लेखनीय काम किये हैं। अमीर चन्द वैश्य के ही शब्दों में कहें तो 'शमशेर की गद्य रचनाएं दो संकलनों में उपलब्ध हैं। मलयज द्वारा संपादित पहले संकलन ‘शमशेर बहादुर सिंह की गद्य रचनाएं’। इसमें दोआब के सत्रह आलोचनात्मक निबन्ध हैं। 'प्लाट का मोर्चा' की चौदह कहानियां हैं। नौ स्केच तथा डायरियां संकलित हैं। डॉ. रंजना अरगड़े द्वारा संपादित दूसरे संकलन ‘कुछ और गद्य रचनाएँ’ में 26 निबन्ध हैं, जो विषय की दृष्टि से वैविध्यपूर्ण हैं।' इसके अतिरिक्त शमशेर जी का गद्य पर कुछ महत्वपूर्ण काम है जो दुर्भाग्यवश अभी तक असंकलित हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है अमीर चन्द वैश्य का आलेख 'शमशेर का ललित गद्य'।
शमशेर का ललित गद्य
शमशेर का ललित गद्य
अमीर चन्द वैश्य
‘कवियों के कवि’ समझे जाने वाले शमशेर के
गद्यकार रूप की चर्चा उतनी नहीं हुई है, जितनी उनके कवि रूप की। अपने समकालीन
कवियों अज्ञेय और मुक्तिबोध के गद्य-लेखन के समान उनका गद्य लेखन प्रचुर नहीं हैं।
वह इतना महत्वपूर्ण है कि शमशेर के कवि-व्यतित्व का वैशिष्ट्य समझने के लिए उनके
गद्य का अध्ययन अनिवार्य है। इसके अलावा हिन्दी-उर्दूं के विशिष्ट कवियों और
शायरों का महत्व जानने के लिए भी उनका गद्य पठनीय और विचारणीय है और साथ ही साथ वह
कलात्मक भी है।
डा0 राम विलास शर्मा ने शमशेर के गद्य को ‘अच्छे गद्य की पहचान‘ बताते हुए लिखा है- “शमशेर हिन्दी के
उन थोड़े से कवियों में हैं, जो बहुत अच्छा गद्य लिखते हैं। उनकी पीढ़ी के कवियों ने बीस साल पहले
जैसा गद्य लिखा था, उसे देखते हुए शमशेर के निबन्धों का गद्य बहुत ही पुष्ट, सुथरा और कलात्मक है। और शमशेर के लेखन में जो पद्य नहीं है, वह सबसे महत्वपूर्ण है, चाहे वह गद्य उनके निबन्धों में हो, चाहे उनकी कविताओं में।”
लेकिन ऐसे समर्थ गद्यकार की रचनाओं की चर्चा
बहुत कम हुई है। इसका प्रमाण यह है कि 1948 में प्रकाशित ‘दोआब’ निबन्ध संग्रह का दूसरा संस्करण बीस साल बाद भी प्रकाशित नहीं हो
सका। उनके दूसरे संग्रह ‘प्लाट का मोर्चा’ की भी उपेक्षा की गई। विजेन्द्र ने अपने आलोचनात्मक आलेख ‘प्लाट का मोर्चा’ : शमशेर
की एक उपेक्षित कृति का मूल्यांकन’ में इस बात का उल्लेख किया है।
सम्प्रति शमशेर की गद्य रचनाएं दो संकलनों में
उपलब्ध हैं। मलयज द्वारा संपादित पहले संकलन ‘शमशेर
बहादुर सिंह की गद्य रचनाएं’। इसमें दोआब के सत्रह आलोचनात्मक निबन्ध हैं। प्लाट
का मोर्चा की चौदह कहानियां हैं। नौ स्केच तथा डायरियां संकलित हैं। डॉ. रंजना
अरगड़े द्वारा संपादित दूसरे संकलन ‘कुछ और गद्य रचनाएँ’ में 26 निबन्ध हैं, जो विषय की दृष्टि से वैविध्यपूर्ण हैं। इनके अलावा कुछ रचनाएं अभी
असंकलित हैं। उम्मीद है कि भविष्य में ऐसी रचनाओं का संकलन शीघ्र प्रकाशित होगा।
शमशेर की गद्य रचनाएं उनके कवि और उनके
चित्रकार व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति हैं। अपने एक साक्षात्कार में वे कहते हैं- “मैं
बेसिकली (मूलतः) कवि ही अधिक हूं और ‘कविता की दुनिया’ मुझे लगातार घेरे रही है। ...पर
कभी-कभी जब मन कुछ कहने को बहुत बेताब हो जाता है और उसे कविता में अभिव्यक्त करना
सम्भव नहीं लगता तो स्केच या डायरी लिख देता हूं।” कविता के प्रति अतिशय लगाव होने
के कारण शमशेर की गद्य रचनाएं काव्यात्मक वैशिष्ट्य से युक्त हैं।
‘प्लाट
का मोर्चा’ में संकलित चौदह कहानियां कहानी के प्रचलित रूप से नितान्त भिन्न हैं।
इन कहानियों में कहानीपन अथवा कथा-रस का अभाव है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि
ये कहानियां महत्वहीन हैं। वस्तुतः शमशेर के कवि-व्यक्तित्व का सम्यक् अध्ययन करने
के लिए ये रचनाएं पठनीय और विचारणीय हैं। शमशेर ने अपनी विषादग्रस्त मनोदशा से उन्मुक्त
होने के लिए ये कहानियां लिखीं हैं। इनमें उनके निजी जीवन के प्रसंग अथवा घटनाएं
उल्लिखित हैं। मसलन, उन्होंने अपनी दिवंगता पत्नी का जिक्र, जो क्षय रोग से ग्रस्त हो गईं थीं, अनेक बार किया है। पत्नी के देहावसान से जिस विषाद और अकेलेपन ने
उन्हें बार-बार बेचैन किया, उसी की अभिव्यक्ति इन कहानियों का प्रमुख कथ्य है। शायद यही कारण है
कि इनमें बाहरी यथार्थ कम और भीतरी हलचल अधिक व्यक्त हुई है। यदि कोई गम्भीर
अध्येता ये कहानियां ‘नई कहानी’ के आन्दोलन से जोड़ना चाहे तो आसानी से जोड़ सकता
है। ये कहानियां कई बार पढ़ने अर्थात् धीरे-धीरे पढ़ने पर ही अपना मर्म उजागर करती
हैं। इनका ललित गद्य अनेक विशेषताओं से संवलित है। वह कहीं चित्रात्मक है। कहीं
अलंकृत, कहीं विचारपूर्ण, कहीं व्यंग्यपूर्ण, कहीं नाटकीय,
कहीं प्रश्नांकित, कहीं स्पष्ट या पारदर्शी, कहीं दुरूह और अस्पष्ट है। वाक्य-रचना
कहीं सरल है तो कहीं जटिल। ऐसी जटिल कि यदि अंश ध्यानपूर्वक न पढ़ा जाए, तो अर्थ समझ में ही न आए।
गम्भीर विचारों सें युक्त एक अंश उल्लेखनीय है-
“एक क्षण में मनुष्य अपरिचित हो जाता है, और एक क्षण में परिचित। इस
परिचय-अपरिचय का कुछ मूल्य है? हम
अपने खाली कोषों को भरते हैं एक-दूसरे के भरे कोषों से। यही आदान-प्रदान हमारा
जीवन है। स्वार्थमय, व्यंग्य भरा, सुन्दर। यह बदल जाएगा कभी क्या?”
“एक
दिन की सुव्यवस्था जीवन-भर का संघर्ष है। एक शताब्दी भर का संघर्ष है एक वर्ष की
सुन्दर शान्ति।” (स्वागत भाषण, पृष्ठ-233)
इस संग्रह की कुछ कहानियों – ‘तिराहा’, ‘द क्रीसेन्ट लाज’, ‘होटल की खिड़की से’, ‘यात्रा’, ‘रास्ता चल रहा है’ में अपने बाहरी परिवेश का अर्थात् शहराती और
देहाती दोनों का अंकन उसी सजगता से किया है, जो
शमशेर के रेखाचित्रों में लक्षित होता है। उल्लेखनीय बात यह है कि लेखक की आंखें
और कान बहुत जागरूक हैं। वे अपने परिवेश की छोटी से छोटी बात देखते-सुनते हैं। और
लेखक की कलाकार कलम उन्हें कुशलता से रूपायित करती है। अधोलिखित अंश इन विशेषताओं
की पुष्टि कर रहा है-
“रास्ता चल रहा है। बूढ़े, बुढ़ियां, लड़के, अधेड़, जवान... पैदल, साइकिल पर, रिक्शा पर... खाली हाथ, सिर पर कुछ लिए, कंधे पर कुछ रखे, या
हाथ में कुछ उठाए, ...चुपचाप बातचीत करते, संकेत करते, या बुलाते-पुकारते, एक-दूसरे को नजदीक या दूर से, ....शोर
करते। रिक्शे की घंटियां, तेज रिक्शे, लोग एक तरफ को बचते, फिर अपेक्षित नीरवता।”
“धीरे-धीरे एक इक्का एक दिशा में जा कर फिर
धीरे-धीरे लौटा। इक्के वाला ढीली रास, झुके हुए थामे।”
“राम
! ........कच्चैरी! .....राम!........राम! कच्चैरी! फेरी वाला। धर्म के सहारे कैसा
व्योपार।” (रास्ता चल रहा है, पृष्ठ-216)
संग्रह की अन्य कहानियों – ‘स्मृति के अंक’, ‘ट्रेन में’, ‘पथ और दिशा’, ‘स्वागत भाषण’, ‘मैं एक कहानी लेखक हूं’ में व्यक्ति के निजी मनोभावों, विशेषकर प्रेम विषयक भावनाओं का रूपायन किया गया है। इन रचनाओं में
विषादग्रस्त मनोदशा की अभिव्यक्ति हुई है। प्रेम के अभाव से उत्पन्न विषाद और
अकेलेपन को लेखक ने आत्मालाप की शैली में इस प्रकार व्यक्त किया है- “वह लड़की
...उसकी पीली छाया ऊपर उड़ती जा रही है। फिर भी मेरी दृष्टि पथ में है। रम्भा वह
सलोनी मधुर-वदनी। मेरी प्रेयसी थी वह। और उसको नहीं पता था। वह मेरी थी, प्रथम बार मेरी अपनी, और
अन्त तक। उसको फिर भी नहीं पता था। छाया में एक सजीव स्वर्ण-मूर्ति, पर हवा से हल्की। मेरी कुल कान्ति। मुझे कभी मिलेगी वह? आह जीवन! जैसे उसके साथ होते हुए भी
मैं तब अकेला था, आज उसके बिना अकेला हूं। आह मां।” (स्वागत भाषण, पृष्ठ-225)
‘मैं
एक कहानी लेखक हूं’ में लेखक ने लेखकीय जीवन की समस्याओं, विशेषतः प्रेम की समस्या का रूपायन किया है। साहित्यकार को अपनी
सर्जना के लिए शादी अनिवार्य है या प्रेयसी-प्रसंग? इस प्रश्न का उत्तर व्यंग्य और परिहास
के लहजे में इस प्रकार दिया गया है- “सुना होगा आपने- फलाँ कवि महोदय अपनी कविता
में खाली-खाली और सूना-सूना-सा अनुभव करते हैं। कभी आपने इंक्वारी, जांच पड़ताल की है? वह
क्वाँरे या बाल-विधुर हैं। और सुना होगा आपने - कि अमुक नए साहित्यकार की भाषा बड़ी
भड़कती हुई आग है, बड़ी जलन और पीड़ा है- बस आह, आह, आह! आपने किसी से पूछा नहीं? आपको
कदाचित पता चल जाएगा कि पांच साल पूर्व मिस अप्सरा वाला से ठुकराए-जा चुके हैं।” (पृष्ठ-230)
लेखक को संकीर्ण अनुभव संसार से बाहर निकालने
के लिए कहानीकार इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि- “उसमें जितनी वस्तुएं, उतनी ही नई-नई खोज, नया-नया ज्ञान, नया-नया अनुभव शामिल होता है, उतनी ही एक दुनिया- कवि और लेखक की
दुनिया ‘सुन्दर’ और ‘महान’ और ‘विश्व ग्रस्त होती जाती है। उस विश्व
में द्रष्टा कहाँ है? वह ‘विश्व’ उसके जीवन में कहां है?” (पृष्ठ-231, 232)
कहने की आवश्यकता नहीं है कि शमशेर के कवि
व्यक्तित्व का यह अंतर्द्वन्द उन्हें अनुभवों के व्यपक संसार की ओर प्रेरित करता
है।
इस कहानी में (मैं एक लेखक हूँ) शमशेर के
काव्यात्मक गद्य के अनेक अंश लक्षित होते हैं। लेखकों के धनाभाव की समस्या से
सम्बन्धित यह व्यंजनापूर्ण अंश पठनीय है- “दो महीने से मकान वाला बिचारा चुप रहा
है। शराफ़त का लिहाज कर के- कि मुंशी जी अखबार में लिखते हैं, वह जब मिला है मुस्करा ही दिया है- हम दोनों समझ गए हैं कि मतलब क्या
है। फिर मानो कुछ नहीं, कुछ नहीं।” (पृष्ठ-227)
संग्रह की शीर्षक कहानी ‘प्लाट का मोर्चा’ अन्य
रचनाओं से अलग है। इसकी अन्तर्वस्तु विदेशी है। दूसरे विश्व युद्ध की भीषणता से
सम्बद्ध। यह एक ऐसे कहानी लेखक की कहानी है, जो युद्ध के मोर्चो से लौट कर कहानी के
प्लाट की खोज में निकलता है- “कहानी की खोज में निकला था वह। हां, कोलम्बस ही था वह अपने क्षेत्र में। लेकिन वह अकेला था। वह अकेला ही
एक ‘महान’ कहानी ढूंढ़ने निकला।” उसकी भेंट मिस लुइसा नामक एक ऐसी
स्त्री से होती है, जो शत्रु के गुप्त विभाग में कार्य करती है। अपने महत्त्वपूर्ण
दायित्व की पूर्ति करने के लिए उससे अनुरोध करती है- “महाशय, आपने यहाँ ट्यूशन किया था, दस साल हुए। मैं मिस लुइसा हूं। आप
मुझे भूल गए? ........ “आप तो अकेले हैं, महाशय मैं जानती हूं। आप यह बच्चा
पालेंगे?”
पहले तो वह कहानी लेखक उस पर क्रोध करता है।
लेकिन बाद में उसके कर्तव्य का महत्व समझ कर उसे आलिंगन-पाश में कस कर चूमता है और
कहता है- “लुइसा तुम इतनी सुन्दर हो, मैं नहीं जानता था।” लेकिन उसके मन में
विरोधी भावों का आवेग कसकने लगता है। युद्ध की भीषणता के कारण उसे बच्चे की, जिसका नाम रोलाँ है, रक्षा नहीं हो पाती है। कहानी का अन्त विषादपूर्ण है। उसकी मां लुइसा
तो यह समझती है कि उसका पुत्र रोलां सुरक्षित और स्वस्थ है, लेकिन अस्पताल से पत्र-सूचना आती है कि
उसके जीवन की रक्षा नहीं की जा सकी।
इस प्रकार यह रचना युद्ध का विरोध और शान्ति का
समर्थन करती है। यह विचार शमशेर ने अपनी
कविता की भाषा द्वारा व्यक्त किया है। कहानी की संरचना में समाविष्ट यह रचना शमशेर
के कवि रूप का उत्तम निदर्शन है- “जहां बच्चों के पांव डेजी फूलों को रौंद गए हैं, जहां अब भी मधुमक्खियों का गुंजार हैः कम से कम वहां बम न गिराना।
लड़ाई की समाप्ति पर, मैं उस सुरक्षित स्थान के फूलों की एक माला उस टैंक पर चढ़ाऊंगा जो
वहीं तक आ कर रूक जाएगा।” (पृष्ठ-169)
इस कहानी का महत्त्व बताते हुए विजेन्द्र ने
लिखा है- “शिल्प-संगठन और विचार की दृष्टि से यह संग्रह की सर्वाधिक संतुष्ट कहानी
लगी। ओ. हेनरी के शिल्प की नाटकीयता इसकी सम्पूर्ण बुनावट में है।” (आलोचना, पूर्णांक-54, पृष्ठ-21)
यह कहानी इस यथार्थ को भी रेखांकित करती है कि
युद्ध की भीषणता कलाकार की मानवीय संवेदना के स्रोत को सुखा देती है। लुइसा का यह
कथन विचारणीय है- “लोग कहते हैं कि तुम हमारे नये कलाकार हो। केवल एक मनुष्य को जो
कुछ करना चाहिए वह तुम करो- और मैं तुमसे कुछ नहीं चाहती।” (पृष्ठ-167)
‘नन्ही
बाई’ शीर्षक कहानी में नारी की व्यथा-कथा का निरूपण किया गया गया है। कहानी की
वाचिका नन्ही बाई है, जिसे स्थाई प्रेमी की तलाश है। लेकिन
उसकी उसकी यह तलाश अपूर्ण ही रहती है। वह सोचती है- “और वह मेरा वाद-ए-वफा मेरी आँखों
से छिन चुका था और वह बार-बार मुझसे मिलेगा, यह भी मैं निश्चित जानती हूं, मगर ख्वाब में। फिर जिन्दगी कब उस ख्वाब को सच करेगी?” (पृष्ठ-215)
शेष दो कहानियां ‘फरार’ और ‘आग’ कुछ जटिलता के
कारण प्रभाव-शून्य हैं। पहली रूपक कहानी है और दूसरी विक्षिप्त व्यक्ति की
फैन्टेसी। शमशेर ने ‘प्लाट का मोर्चा’ के प्रारम्भ में अपने पाठकों से कहा है कि
यह संग्रह कुल मिला कर प्रगतिशील नहीं है। लेकिन इस बात से संग्रह का मूल्य कम
नहीं हुआ है, क्योंकि इसकी कहानियों में कथ्य और कथन का जो नयापन है, उसने शमशेर काव्य के अध्येयताओं को प्रभावित अवश्य किया है। और
भविष्य में भी यह प्रभावित करता रहेगा। अतः यह संकलन महत्वपूर्ण है। अनुपेक्षणीय
भी।
‘प्लाट का मोर्चा’ में संकलित स्केच नौ हैं ‘मालिश
: जाड़ों की एक सुबह’, ‘स्वर’, ‘एक सुबह’, ‘कुल्हाड़ियां’, ‘रंग और वक्त’, ‘पेड़’, ‘कठौती’, ‘रात पानी कड़ा बरसा’, ‘लहर का शांत मौन’।
महादेवी के रेखाचित्रों में व्यक्ति की
प्रधानता है, तो शमशेर की इन स्केच रचनाओं में परिवेश मुखरित हुआ है। कवि समीक्षक
विजेन्द्र के शब्दों में – “सभी में हैं आर्टिस्ट शमशेर के रचना प्रसंग। सजग
इन्द्रियां। परिवेशगत परिप्रशन। राग। आत्मा। रंग और लय। खुरदरे समय को जैसे संगीत
में ढाला जा रहा है।‘‘ (आलोचना, पूर्णांक, 54, पृष्ठ-22)
शमशेर अपने स्केचों में अपने परिवेश का रूपायन
करने के लिए सूक्ष्म पर्यवेक्षण के आधार पर संश्लिष्ट चित्रों की रचना करते हैं, जिसमें ध्वनियों और रंगों के अनेक चित्रों का समावेश होता है। ऐसे
चित्रण के लिए जिस भाषा का कलात्मक प्रयोग किया गया है, उसमें बोलचाल की तद्भवता और उर्दू
शव्दावली का सुन्दर समन्वय है। यह शमशेर की भाषा शैली की प्रमुख विशेषता है। उनकी
वाक्य-रचना प्रायः लम्बी होती है। बात को रूक-रूक कर कहने का अन्दाज उनका अपना है।
लेकिन कहीं-कहीं छोटे-छोटे वाक्यों के संयोजन से चित्रों की सृष्टि की गई है। ऐसी
वाक्य-रचनाओं में क्रिया पदों का लोप रहता है। कहीं-कहीं शब्द-चयन की शैली में
संस्कृत की तत्सम शब्दावली का प्रचुर प्रयोग लक्षित होता है। कवि स्वभाव की
प्रधानता के कारण परिवेश के चित्रण में
साम्यमूलक अलंकारों का प्रयोग शमशेर की गद्य शैली का प्रमुख वैशिष्ट्य है।
उपर्युक्त विशेषताओं के निदर्शन के लिए कुछ उद्धरण यहाँ उल्लेखनीय हैं-
“हवा
तेज हो उठी है। लहरें अब नन्ही लहरियां नहीं, लहरें हैं। सरोवर की मटैली नीलाहट अब
मटैली नहीं, अधिक शुद्ध अथवा किंचित बैंगनी भी हो उठी है। समस्त सरोवर जाग उठा है।”
(एक सुबह, पृष्ठ-249)
“सावन
के दिन हैं। अभी तो गंगा जी की लहरें जवान रहती हैं’, चढ़ी रहती हैं,’ सावन में झूमती हैं- नीम और कदम्ब और
अंबिया की डारों की तरह हौले-हौले मिल-जुल कर, एक झूले पर और कभी बीच धारा में तो
बड़ी-बड़ी पेंगें उठती हैं। स्निग्ध देवी की धारा उज्ज्वल-कैसी एकदम मानवी।” (कठौती, पृष्ठ-260)
“सावन में गंगा की कछार की शोभा क्या सम्भव है? एक हरे रंग की अनगिनी लहरें हैं। खेतों के चौकोर, तिकोर और लम्बे-लम्बे पाट हैं, स्याही मायल, कोई गेरूआहट में मिला हुआ, कोई धुंआरा नीला पुट लिए हुए। और चमक
कहीं तेज, कहीं कम, कहीं मद्धिम। ... ...खेतों की हरियाई मौजों में नये जीवन की लहर
काँपती हुई पुलक उठी।” (रात पानी कड़ा बरसा, पृष्ठ-265)
“देहात
में स्वास्थ्य का सोना होता है, सौन्दर्य का रंग भी उसमें कहीं-कहीं
झलकता है।” (वही पृष्ठ-264)
अपने स्केचों शमशेर ने कहीं-कहीं सूक्तियों और
व्यंग्यों का भी समावेश किया है। उनके व्यंग्य का एक उदाहरण उल्लेखनीय है- “और
आजकल तो सावन है। मैल फिर भी हिन्दुस्तान के बदन से नहीं जाती। आखिर देवताओं की
नदी हमें सौंप कर भगवान इससे अधिक और क्या करते। शम्भु! शम्भु! जय सीता राम! हरी
ओम! कठौती तक में तो उन्होंने गंगा दे दी- यहाँ मन हीं चंगा नहीं होता। भगवान का
कोई दोष नहीं, भगवान भी क्या करे।” (कठौती, पृष्ठ-262)
ऐसी पंक्तियां वही लेखक लिख सकता है , जो अपने वर्तमान विषम समाज को बदलना
चाहता है। शमशेर ऐसे ही लेखक हैं, जो जानते हैं कि विषमता से भरे समूाज
में मन का चंगा होना बहुत मुश्किल है। शमशेर के स्कैच उनका विचारशील व्यक्तित्व उजागर
करते हैं।
डायरी में दैनिक जीवन की घटनाओं का उल्लेख किया
जाता है। त्रिलोचन की डायरी के विवरण इस बात के प्रमाण हैं। लेकिन शमशेर ने अपनी
डायरियों में अपने दैनिक जीवन की बातें कम लिखी हैं। उनकी डायरियों में प्राकृतिक
परिवेश के उल्लेख प्रमुख हैं। इसके अलावा साहित्य से सम्बन्धित अनेक प्रश्नों और
समस्याओं पर विचार किया गया है। कवि मित्रों के बारे में महत्वपूर्ण टिप्पणियां
हैं। एक-दो पत्र भी मित्रों को संबोधित हैं। विश्व साहित्य के अध्ययन के प्रभाव का
वर्णन है। अपने कवि स्वभाव के बारे में महत्वपूर्ण संकेत हैं। सामाजिक विषमता से
क्षुब्ध लेखक के महत्वपूर्ण विचार हैं। कहीं-कहीं वार्तालाप की धीमी लय में रचे
काव्यात्मक अंश हैं। सारांश यह कि शमशेर का डायरी लेखन उनके कवि व्यक्तित्व का
कलात्मक निदर्शन है।
हिन्दी-उर्दू के समन्वित साहित्य के समर्थक
शमशेर एक दिन डायरी में लिखते हैं- “मैं एक हिन्दी नाबिल का इतिहास लिखूँगा, जिसमें
उर्दू का भेद कतई न, कतई न होगा। उपन्यास की दुनिया का एक धारा ...शरशार वगैरह से
शुरू होता हुआ। ...जनाब, इसी किस्म की किताब दोनो के मिले-जुले इतिहास की भी होनी चाहिए, दरअसल। औवल तो, खालिस हिन्दुस्तानी खड़ी बोली की। दूसरी, दोनों के महान का मिला-जुला इतिहास। अन्दाज बेहद दिलचस्प होना लाज़मी
है।” (डायरियां, पृष्ठ-25)
प्राकृतिक परिवेश के रूपायन में शमशेर की डायरी
का गद्य उनकी गद्यात्मक कविता के समान ललित और प्रभावपूर्ण है। डायरी के ऐसे अंश
उनकी पर्यवेक्षण शक्ति के प्रमाण हैं। बात की पुष्टि के लिए एक-दो अंश उल्लेखनीय
हैं-
-“बिम्बहीन दर्पण सा कुछ मैला-नीला आकाश।” इस एक वाक्य में 6 मई 1940 की सुबह 10
बजे के आकाश का निरूपण किया गया है।
-28 मई, 1940 के प्रातः कालीन आकाश का उल्लेख
भी एक वाक्य में किया गया है- “नभ की सीपी जो रात्रि की कालिमा में पढ़ी थी, धीरे-धीरे उषा की कोमल लहरों में घुलती और निखरती जा रही हैं।”
ये दोनों वाक्य शमशेर के कलात्मक गद्य का
प्रमाण है। यदि यह जानना है कि शमशेर की अभिरूचि किन-किन विषयों और पुस्तकों के
प्रति है, तो उनकी डायरी का यह अंश पढ़िए- “सही है
पेन्टिंग, ड्राइंग, स्केचिंग और पद्य, तर्जुमे, नोट्स, काव्य पर कवियों पर आलोचना- इसी में मेरी जिन्दगी का राज़ है। इनके
विषय ही मेरा जीवन: जैसे गंगा, लहरें, आसमान, पेड़, मकानात, कमरा, लोग-बाग। नकल फोटुओं की शक्लों की, रचनात्मक नवीनता के साथ। जी हां। और भाषाएं, ’यानि
भाषाओं के नये-नये चटखारे, मुहाविरे, छन्द, गीत, लय। और क्या, क्या। बाकी सब कुफ्र है। क्या कहती है गीता, कम्युनिस्ट मैनीफैस्टो, माओ, मार्क्स वगैरह? क्या कहते हैं क्लासिक्स? (डायरियाँ, पृष्ठ-321)
यह अंश कवि की जिन्दगी का राज़ समझने के कारण
महत्त्वपूर्ण हैं। शमशेर की डायरियों में उन अनिवार्य बातों का भी उल्लेख है, जो सच्चे कवि के लिए जरूरी हैं। मसलन, एक अंश में वे लिखते हैं- “जिस जबान को सीखा जा रहा है, उसकी रूढ़ियां, छन्द और गति की विशेषताओं, उसकी ध्वनि के नियमों को हृदयंगम करना
लाजमी होगा, शुरू से जहां तक भी मुमकिन है। उसके छन्दों के नमूनों पर मूल भाषा
में और अनुवाद में अभ्यास निरंतर करना जरूरी होगा। निरंतर अभ्यास।” (डायरियां, पृष्ठ-303, 304)
कहने की आवश्यक्ता नहीं है कि ऐसे अभ्यास की
निरन्तरता शमशेर के जीवन में थी। उसे उनकी एकान्त साधना कहा जा सकता है। निरन्तर
प्रयोगशील रहने वाले शमशेर ने उस प्रयोगवाद की तीखी आलोचना की है, जो सामाजिक चेतना से विमुख है और जो
काव्य के शिल्प पर ही विशेष ध्यान देता है। फरवरी, 54 की डायरी में वे लिखते हैं- “प्रयोगवाद नर्वस ब्रेकडाउन का आर्ट
है। या तो उससे पैदा होता है या उस तरफ ले जाता है।” (डायरियां, पृष्ठ-274)
शमशेर के डायरी लेखन में ऐसे वाक्य लक्षित होते
हैं, जो सहज सुन्दर वाक्य-रचना का आदर्श है।
जैसे यह वाक्य- “जैसे बारिश ने अच्छी सी चाय पी ली हो, और अब देर तक जागने के लिए तैयार हो।” (वही पृष्ठ-279)
शमशेर जीवन-पर्यन्त सच्चे कवि और काव्य के
गम्भीर अध्येता और आलोचक रहे। उन्होंने निबन्धों में सहृदय आलोचक रूप का परिचय
दिया है। लेकिन अपने डायरी लेखन में एक स्थल पर हिन्दी आलोचना की गुटबन्दी पर
क्षोभ भी व्यक्त किया है- “रस्मी, तारीफी, मजलिसी, इंसंदबमक आलोचना दरअसल एक तरह से उनके
जीनियस की, और जो कुछ कोशिश अपने शिल्प की
उन्होंने की है, एक अन्दरूनी तरह से तौहीन ही होगी।
तारीफ करना, गुन बखानना, तो बेहद आसान है, मगर दोष गिनाना और समझाना मुश्किल और
खासा महँगा है। शुक्र यही है कि इसकी न संपादकों को जरूरत है, न लेखकों को, आमतौर से। सब के गिरोह और गुट हैं। उनके मद्देनजर रख कर आप बात कहें, तो आपको आजादी है कि जैसे चाहें और जो चाहें, कहें। मगर बस, ज़रा ख्याल रहे, हां।” (डायरियां, पृष्ठ-311)
प्रस्तुत अंश का वाक्य-विन्यास शमशेर की
विशिष्टता का परिचायक है। उद्धरण का अन्तिम वाक्य इतना धारदार है कि आलोचना जगत्
की गुटबन्दी पर प्रबल प्रहार कर रहा है। लेकिन अपनेपन के भाव से। सारांश यह है कि
डायरी लेखन में शमशेर के सत्य प्रिय कवि व्यक्तित्व की निजी प्रतिक्रयाएं हैं, जो कलात्मक हैं,
उनकी
गद्यात्मक कविताओं के समान।
शमशेर के गद्य लेखन में सर्वाधिक महत्व
आलोचनात्मक निबन्धों का है,
जिनकी संख्या सबसे अधिक है। और जो
साहित्यिक निष्ठा और भाषिक लालित्य के प्रमाण हैं। डॉ. राम विलास शर्मा ने अपने
लेख अच्छे गद्य की पहचान में शमशेर के इसी गद्य लेखन की प्रशंसा की है। शमशेर के
इन निबन्धों में उनके प्रगतिशील कवि व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति सर्वत्र हुई है।
उनके इन लेखों की प्रमुख विशेषताएं हैं- मार्क्सवादी दृष्टिकोण से काव्य रचना की
परिस्थतियों का विश्लेषण। रचना के गुण-दोषों की परख और पहचान। तथा उनका सप्रमाण
सटीक विवेचन। अपने वरिष्ठ कवियों-शायरों के प्रति श्रद्धा-संवलित विवेक। अपने
समकालीन कवियों के व्यक्तित्व और कृतित्व का निर्मम विवेचन। विरोधी खेमे के रचनाकारों
के कृतित्व का पूरा सम्मान। नई पीढ़ी के कवियों की मुक्त कंठ से सराहना। हिन्दी
कवियों के साथ-साथ उर्दू शायरों और शायरी की विशेषताओं का सम्यक् विवेचन। कविता की
अन्तर्वस्तु के साथ-साथ उसके रूप पक्ष का सम्यक विवेचन।
‘दोआब तथा कुछ और गद्य रचनाएं’ में संकलित
निबन्ध वैविध्यपूर्ण हैं। अधिकतर निबन्ध कवियों, काव्य-पुस्तकों, शायरों, काव्य और कला सम्बन्धी प्रमुख प्रश्नों पर केन्द्रित हैं। यदि एक ओर
मुसद्दस और भारत-भारती की सांस्कृतिक भूमिका पर तुलनात्मक निबन्ध है, तो दूसरी दूसरी ओर उर्दू शायरी से सम्बद्ध कई महत्वपूर्ण लेख हैं।
यथा-उर्दू कविता, एक फुट नोट: उर्दू शायरी का आधुनिक रंग, इकबाल की कविता, उर्दू
कवयित्रियाँ, आधुनिक युग, गालिब -मेरी दृष्टि में, कैफी आजमी का व्यक्तित्व। ये सभी आलेख
हिन्दी पाठकों के लिए लिखे गए हैं। अतः इनकी भाषा और विवेचना शैली बोधगम्य और सरल
है। विवेचन पुष्ट करने के लिए सटीक उद्धरणों के साथ तार्किक विचार प्रस्तुत किए गए
हैं। उर्दू के मुश्किल शब्दों के अर्थ भी लिखे गए हैं। शमशेर के विचारपूर्ण विवेचन
का यह अंश पठनीय है- “आज यदि कवि कार्य दुष्कर हो गया है, तो महिलाओं के लिए वह अब और भी कम
साध्य है, जब तक कि उसमें क्रान्ति, और अधिक क्रान्ति पैदा न हो। भावनाओं
की उर्वर भूमि आज राजनीति और समाज और शासन की विभिनन आधार-प्रणालियों के व्यापक
संघर्ष सें कंटकाकीर्ण हो गई हैं ऐसे वातावरण में देश और समाज के सांस्कृतिक मूल
आधारों का नवीन और अन्तरराष्ट्रीय दृष्टि से अध्ययन किए बिना, कला सृष्टि के लिए सार्थक अनुभतियों की गहनता नहीं प्राप्त हो सकती।
महिलाओं में सामाजिक उत्थान के साथ जब तक सांस्कृतिक जागृति, यथार्थ और व्यापक रूप में नहीं होगी, कला अथवा साहित्य, विज्ञान अथवा दर्शन, किसी भी क्षेत्र में उनकी सफलता का तल
साधारणतया पुरूषों से बहुत नीचा होगा।” (पहला
संकलन, पृष्ठ-161) इस अंश से, जो उर्दू की आधुनिक कवयत्रियों के
सन्दर्भ में है शमशेर के प्रगतिशील दृष्टिकोण को समझा जा सकता है। राष्ट्रभाषा
हिन्दी और उर्दू का आधार खड़ी बोली है। अतः दोनों भाषाएं मूलतः एक हैं। लेकिन
शब्द-चयन में अन्तर है। हिन्दी का स्वाभाविक सम्बन्ध संस्कृत से है। किन्तु उर्दू
अरबी-फारसी की शब्द सम्पदा अपनाती रही है। ये अन्तर दोनों की आपसी दूरी का प्रमुख
कारण है। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि सन् अठारह सौ से पहले उर्दू शायर हिन्दी शब्दों
का प्रयोग बेहिचक किया करते थे। लेकिन इसके बाद हिन्दी शब्दों का प्रयोग कम होने
लगा। आंख के लिए चश्म शब्द बेहतर समझा गया। और आंसू के लिए अश्क। ये अन्तर दूर हो
जाए, तो दोनों भाषाओं का आपसी अलगाव समाप्त हो जाएगा। यह बात इसलिए
अनिवार्य है कि दोनों का साहित्य हिन्दी जाति का साहित्य है। डॉ. राम विलास शर्मा
इस स्थापना पर विशेष बल देते रहे। इसलिए उन्होंने शमशेर के गद्य लेखन के सम्बन्ध
में लिखा है- “हिन्दी-उर्दू साहित्य एक ही जाति का साहित्य है इसीलिए जातीय
साहित्य के दोनों रूपों पर एक साथ लिखना बहुत सही तरीका है। लेकिन शमशेर का
रागात्मक सम्बन्ध उर्दू काव्य से अधिक है, हिन्दी काव्य से कम। कई जगह उनकी काव्य
रूचि फिराक की याद दिलाती है।” (पृष्ठ-17)
शमशेर ने हिन्दी-उर्दू काव्य की समीक्षा करते
हुए लिखा है- “हमारी आधुनिक सभ्यता का वास्तविक नग्न निदर्शन हमें अपने किन हिन्दी
छन्दों में मिलता है? वह भीषण राग, जिस को सुन कर हमारे कान बधिर हो जाएं, वहां हमारी चेतना शक्ति को जागृति से
तेजपूर्ण करता है?” बस निराशा ही निराशा है, हृदय के मूक गान, सुख दुख के बुदबुद। हमारी उर्दू में भी
...लेकिन यहाँ कम से कम इकबाल का गम्भीर आधुनिक स्वर है, जो आधुनिक सभ्यता के स्तर-स्तर को भेद जाता है।”
डॉ. शर्मा ने शमशेर के इस कथन पर आपत्ति की है।
लेकिन शमशेर के विचार सर्वत्र असंगत नहीं हैं। मसलन, अपने एक निबन्ध में दोनों भाषाओं के
काव्य पर तुलनात्मक विचार करते हुए लिखते हैं- “इस प्रकार मानव सभ्यता और जीवन के
सैकड़ों अंग तथा प्रकृति संसार में अनगिनती ऐसे दृश्य हैं, जिनका चित्रण अभी न हिन्दी में है न उर्दू में। उर्दू कविता में बहुत
सी चीजें नहीं हैं। वहां सूरदास और मीरा की पागल प्रेम की विह्वलता नहीं, और न यहाँ कबीर का अनहद-नाद है। संसार
के कितने ही उत्कृष्ट कवियों का सादृश्य यहाँ नहीं मिलेगा। लेकिन क्यों मिले? अपनी संस्कृतिजन्य इसकी अपनी प्रेरणाएं, सौन्दर्य की अपनी साधनाएं और अभिव्यक्ति के अपने योग हैं।
सत्य-सौन्दर्य-आनन्द की प्राप्ति इसकी अपनी सफलताएं हैं और वे अद्वितीय हैं।” (पृष्ठ
- 118) इकबाल की कविता निबन्ध शमशेर के कवि व्यक्तित्व की उदारता और उनके
काव्य-बोध का सुन्दर निदर्शन है। इसमें इकबाल के महान कवि रूप का उद्घाटन किया गया
है। यद्यपि इकबाल ने धर्म के आधार पर देश के विभाजन की मांग की। हाली मुसलमानों की
उन्नति चाहते थे। लेकिन मुसलमानों का अलग राज्य बनाने का प्रचार उन्होंने न किया
था। इकबाल ने राष्ट्रीय एकता की जमीन छोड़कर सांप्रदायिक संकीर्णता का रास्ता
अपनाया था। इस परिवर्तन के बारे में शमशेर ने क्या मत प्रकट किया था? ‘(पृष्ठ-18,19)
डॉ. राम विलास शर्मा की यह आपत्ति अनुचित नहीं
है। शमशेर के शेष निबन्धों में हिन्दी काव्य और कवियों का समीक्षण प्रमुख है।
पुराने कवियों में रहीम पर एक लेख है- “हमारे सांस्कृतिक समन्वय का एक प्रतीक -
रहीम, जो हिन्दी काव्य परम्परा से शमशेर के
सम्बन्ध का प्रमाण है। हाली के मुसद्दस के साथ गुप्त जी की भारत-भारती पर जो
संतुलित विचार प्रकट किए गए हैं, वे शमशेर की राष्ट्रीय चेतना और उनका
प्रगतिशील दृष्टिकोण उजागर करते हैं। इसी प्रकार का वैशिष्ट्य उजागर करने वाला अन्य निबन्ध है राष्ट्रीय
वसन्त की प्रथम कोकिला, जो कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान पर
है। इस निबन्ध में शमशेर ने देश के राजनैतिक परिदृश्य का विश्लेषण करते हुए लिखा
है- “उस खिलाफत वाले पहले सत्याग्रह आंदोलन में हमारे इतिहास और संस्कृति की सभी
धाराएँ मिलकर एक प्रचण्ड शक्ति का वेग बन गई थीं। मगर वाह, उस अपराजेयता की बंध हुई मुट्ठी को
साम्राज्यवाद की बेमिसाल कूटनीति ने किस तरह मसल-मसल कर धीरे-धीरे ढीला किया है-
तब से आज तक का इतिहास यही है- उसको आज नेताओं की जख्मी उंगलियां की दुखती नसें और
जोड़ बन्द ही जानते हैं- कलाई से पंजा जैसे अलग हो गया है। और उंगलियां आपस में
नहीं मिलतीं। सब शक्तियां अलग-अलग और कैसी अलग-अलग!” (पृष्ठ-43)
यह है शमशेर की विचारपूर्ण भावात्मक गद्य का
अलंकृत रूप, जो उनके प्रगतिशील कवि रूप का परिचायक है। श्रीमती चौहान पर एक अन्य
निबन्ध शमशेर के दूसरे संकलन में हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान : एक अध्ययन जो इस बात
का सबूत है कि शमशेर अच्छी कविता के लिए युग-बोध, लोक जीवन की भावनाओं, खड़ी बोली के अनुरूप छन्दों, भाषा की अकृत्रिमता को अनिवार्य मानते हैं। ‘कविता की बातें : निराला की कविताएं’, निबन्ध निराला के, पल्लविनी, एवं
‘ग्राम्या : एक परिचय’ निबन्ध पन्त जी काव्य वैशिष्ट्य का उद्घाटन करते हैं।
अपने समकालीन कवि मित्रों के काव्य
पर भी शमशेर ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। नरेन्द्र शर्मा बच्चन, केदार नाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध
की कृतियों पर लिखित निबन्धों – ‘पलाश वन’, ‘सतरंगिनी’, ‘अपनी रोटी’, ‘अपना राज’, ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’, ‘एक विलक्षण प्रतिभा’ में शमशेर के नये
काव्य की विशिष्टता का उद्घाटन किया है। मुक्तिबोध के संकलन ‘चांद का मुंह टेड़ा है’
की भूमिका रूप में लिखित एक विलक्षण प्रतिभा में मुक्तिबोध के जीवन संघर्ष और
काव्य वैशिष्ट्य का विवेचन है। मुक्तिबोध की प्रसिद्ध लम्बी कविता ‘अंधेरे में’ का
विशेषता बताते हुए शमशेर ने ठीक लिखा है- “उसमें मुक्तिबोध का कवि व्यक्तित्व
वाल्ट व्हिटमैन और मायकोवस्की के शिल्प और शक्ति से टक्कर लेता है। और अपनी जमीन
पर अप्रितहत और अद्वितीय रहता है। इस कविता का हमारी राष्ट्रीय कविताओं में शुमार
होगा। हिन्दी के स्वस्थतम आधुनिक काव्य सृष्टि का यह सर्वोपरि विजय चिन्ह है।” (दूसरा संकलन, पृष्ठ-192) शमशेर का यह कथन अब सत्य सिद्ध
हो चुका है। सन् 1946 में प्रकाशित लेख सात आधुनिक हिन्दी कवि तारसप्तक पर है, जिसमें तार सप्तक के कवियों का वैशिष्ट्य सर्वप्रथम उद्घाटित किया
गया है। इस लेख का महत्व ऐतिहासिक है। शमशेर ने यह रेखांकित किया है कि तार सप्तक
के कवि प्रयोगों में बहुत कम सफल हुए हैं। सिवाय अज्ञेय और राम विलास के।
आश्चर्यजनक बात यह है कि सबसे अधिक पंक्तियां राम विलास शर्मा की कविताओं पर लिखी
गई हैं। एक बिल्कुल पर्सनल ऐसे बहुचर्चित लम्बा निबन्ध है। यह बताता है कि शमशेर
के प्रिय कवियों में पहला स्थान प्रगतिशील कवियों - नागार्जुन, केदार नाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, शील, मुक्तिबोध का है। लेकिन वे अज्ञेय और नरेश मेहता जैसे प्रगति विरोधी
कवियों के भी काव्य की विशेषताएँ समझ सकते थे। यह लेख शमशेर के उदार कवि समीक्षक
रूप उजागर करता है। इस में उल्लिखित अन्य प्रिय कवि है- राम विलास शर्मा, गिरिधर कविराय, प्रभाकर माचवे, बाल कृष्ण राव, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, नेमिचन्द्र जैन, इन्दु जैन, राजेन्द्र किशोर, मदन
वात्स्यायन, कीर्ति चौधरी, श्रीकान्त वर्मा, रमा सिंह, कोकिल जी, वीरेन्द्र मिश्र, प्रेम लता वर्मा, प्रभात रंजन, देव कुमार। अपने प्रिय कवियों में वे प्रगतिशील कवि नागार्जुन और
त्रिलोचन का महत्व बताते हुए लिखते हैं- “असल मे नागार्जुन और त्रिलोचन से मुझे
दृष्टि मिलती है। यानि उनमें मैं किसी व्यापक सामूहिक सत्य का दर्शन करता हूं। मैं
उस धारा में मज्जन करता हूं, जिसको साहस और क्षमता से पार करना ये
दोनों आन्तरिक रूप से कवि के अन्तर में जानते हैं। और यह धारा हमारे देश के (उत्तर
भारत के) सांस्कृतिक इतिहास की है। (दूसरा संस्करण, पृष्ठ-32)
इस प्रकार शमशेर हिन्दी कविता की जातीय परम्परा
से स्वयं को सम्बद्ध करते हैं। अन्य निबन्धों ‘नरेन्द्र : सादगी व पुरकारी’, ‘एक सच्चा लिरिक कवि’, ‘नामवर’, में क्रमशः कवि मित्र नरेन्द्र शर्मा
के व्यक्तित्व, बालकृष्ण राव के काव्य, और
आलोचक नामवर सिंह के व्यक्तित्व गुणों की सराहना निर्द्वंद भाव से की गई है। नामवर
सिंह की समीक्षात्मक सूझ-बूझ और नरेन्द्र शर्मा के कवि-कर्म की प्रशंसा की है।
शमशेर की निरभिमानिता का प्रमाण है।
मुक्त छन्द, सामाजिक सत्य और रचना का माध्यम भाषा
और साहित्य पर एक नये दृष्टिकोण की मांग, अमूर्त
कला, कला और सर्जन, कवि कर्म, प्रतिभा और अभिव्यक्ति, -1, 2 शीर्षक निबन्ध कवि शमशेर के
गम्भीर विचारक रूप से साक्षात्कार कराते हैं। मौलिक ढंग से गम्भीर प्रश्नों पर
विचार किया गया है। कला और साहित्य में प्रयोगवाद निबन्ध में आधुनिक हिन्दी कविता
से सम्बद्ध अनेक जटिल प्रश्नों के उत्तर हैं। प्रयोगवाद के सन्दर्भ में एक अति
महत्वपूर्ण कथन पठनीय और स्मरणीय है- “केदार नाथ अग्रवाल, नागार्जुन, शंकर शैलेन्द्र की प्रतिभाएं विषय
वस्तु के अलावा टैक्नीक की दृष्टि से भी कम महत्व की नहीं हैं। एक और बहुत
महत्वपूर्ण कवि त्रिलोचन शास्त्री हैं। ...जिसे प्रयोगवादी कविता कहा जाता है, उसका बहुत बड़ा हिस्सा प्रगतिशील कवियों
की देन है। दोयम यह कि प्रतीक या उपरोक्त कविता संग्रहों के बाहर जो नये काव्य
शिल्पी हैं, उनको लिए बिना प्रयोगशील साहित्य की बहस अधूरी रहेगी। “...कलाकार का धन्धा ही वस्तु और शिल्प के प्रयोग से कलात्मक सत्य के
यथार्थ को पाना है।” (दूसरा संस्करण, पृष्ठ-174)
मुक्त छन्द के प्रयोक्ता शमशेर ने इसकी सफलता
और उपयोगिता पर गम्भीर विचार किया है। उनका अभिमत है- “युग के उपयुक्त यह चीज थी।
लोकप्रिय हुई। प्राण युक्त हुई। विदेशों में। राष्ट्रीय आन्दोलनों में इसने भाग
लिया। इसने नये सपनों की रूह-काव्य और कथा- (विशेषकर नाटक) साहित्य में फूंकी।
साधारण पाठकों को कविता की ओर आकृष्ट किया। ...वियों और गद्य लेखकों का सामान्य अन्तर इसने मिटा दिया है। जन साम्य
की सी भावना इसने साहित्य में फैला दी है।” (पृष्ठ-70)
किस तरह आखिरकार मैं हिन्दी में आया और ‘मैं, मेरा समय और रचना प्रक्रिया’ (अभी असंकलित) निबन्ध आत्मकथात्मक हैं।
जो शमशेर के कवि जीवन के संघर्ष तथा व्यक्तित्व निर्माण और रचना प्रक्रिया को
समझने के लिए अनिवार्य हैं। इन निबन्धों में शमशेर ने इलाहबादी हिन्दी माहौल, पन्त जी, बच्चन और सरस्वती के संपादक देवीदत्त
शुक्ल के प्रति मुक्त भाव से कृतज्ञता व्यक्त की है। इनके सान्निध्य और प्रोत्साहन
से शमशेर उर्दू से हिन्दी संसार में आए।
‘लुई अरागां : नये योरोपियन साहित्य का एक नया व्यक्तित्व’
शमशेर के विश्व साहित्य के प्रति अनुराग का द्योतक है। इसमें फ्रांस के कवि लुई
अरागां के जीवन-संघर्ष तथा साहित्य की प्रमुख विशेषताओं का उद्घाटन किया गया है।
साथ ही साथ उसकी कुछ कविताओं का अनुवाद भी। इस निबन्ध के कुछ अंश काव्यात्मक गद्य
प्रतीत हाते हैं। इसका नमूना पढ़िए- “फ्रांस के जर्रे-जर्रे से उसे इश्क है। उसकी
घाटियां, मैदानों, पठारों और उसके पहाड़ों और नदियों और शहरों और खेतों और बाजारों से, उसकी पेरिस से, परिस की रातों से, पेरिस के नाच-घरों, उसकी मुंह अंधेरी सुबहों, और उसके फूलों, और उसकी इमारतों, और उसकी कला,
और उसके काव्य से उसकी आत्मा को प्यार
है।” (द0 सं0, पृष्ठ-47)
भावावेश से पूर्ण यह अंश अरागां के देश प्रेम
के साथ-साथ मानो शमशेर के देश-प्रेम को भी व्यक्त कर रहा है। भारत में कवियों को
उच्च से उच्च गौरव प्रदान किया गया है। लेकिन दरवारी कवियों ने कविता की गरिमा कम
की है। आशु कविता लेख में शमशेर ने दरबारी कविता की इस प्रवृत्ति को हानिकारक
बताते हुए लिखा है- “सच्चे कवि के लिए ये करतब दिखाना जरूरी नहीं। न ही उसके लिए
उसकी कोई अनिवार्यता है। वो किसी सामन्त या संरक्षक या अभिभावक के अधीन नहीं है।
वो स्थितियों को अपनी आंखों देखता, अपनी
अनुभूति की रोशनी में उन्हें समझता, अपने निजी तर्क से उन्हें अपनी निजी
शैली में प्रस्तुत करता है। दूसरों की मुंह देखी बात कहना उसकी शान के खिलाफ है।” (दू0 सं0 पृष्ठ-238)
यह अंश कवि शमशेर के निष्ठावान् वयक्तित्व का
निदर्शन है। वास्तविकता तो यह है कि आजकल अनेक कवि ऐसे हैं, जो मंच पर उपस्थित नेता के समान जनता
के समक्ष आशु कविता के करतब दिखा कर स्वयं को महाकवि समझते हैं।
सत्य की अभिव्यक्ति के प्रति निष्ठावान शमशेर
अपनी समीक्षाओं में हिन्दी का सहज काव्यात्मक रूप प्रस्तुत करते हैं। जिस कवि की
काव्य-भाषा में यह गुण लक्षित होता है, वे उसकी प्रशंसा मुक्त कंठ से करते हैं।
इस दृष्टि से वे बच्चन को श्रेष्ठ कवि मानते हैं। जिस कवि की भाषा में इस गुण का
अभाव देखते हैं, उसकी स्पष्ट आलोचना भी करते हैं। मसलन, चेक भाषा के हिन्दी मनीषी विद्वान डॉ.
ओडोनेल स्मेकल के हिन्दी काव्य संग्रह मेरी प्रीत तेरे गीत की समीक्षा करते हुए वे
लिखते हैं- “आश्चर्य की बात यह है कि केदार या नागार्जुन या भवानी प्रसाद मिश्र या
रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के यहाँ हमारी व्यवहारिक हिन्दी को जो
पुष्ट आधुनिक आधार मिलता है, उससे ‘मेरी प्रीत तेरे गीत’ कोसों दूर
है... हिन्दी बोलने वाले उस ढंग से बात कभी नहीं रखेंगे, जिस ढंग से अनेक स्थलों पर स्मेकल महोदय ने रखा है।” (दू0 सं0, पृष्ठ-18)
भाषा की दृष्टि से द्विवेदी युगीन और छायावादी
युगीन काव्य भाषा की आलोचना करते हुए शमशेर ने लिखा है कि कवियों ने भाषा के
स्वाभाविक तेवर और लहजे को भुला देने की फाफी सफल कोंशिश की है। ... तमाम
छन्द खड़ी बोली के स्वाभाविक स्वराघात से रहित छन्द हैं। (दू. सं., पृष्ठ-154)
इस कथन में सत्यांश है। जब हम प्रसाद-निराला-पन्त
के काव्य की अन्तर्वस्तु को स्वीकारते हैं, तब
उसके भाषिक रूप को एकदम खारिज कैसे कर सकते है। हां, इतना अवश्य है, जैसा कि त्रिलोचन कहा करते थे, छायावादी कवियों ने वाक्य पूरे नहीं लिखे हैं। पन्त जी ने तो अपने
वाक्यों सहायक क्रिया ‘है’ का प्रयोग लगभग नहीं किया है। कामायनी में भी यह दोष
लक्षित होता है।
शमशेर के आलोचनात्मक निबन्धों की भाषा उनकी
कहानियों, स्केचों और डायरियों की भाषा से भिन्न है। इन तीनों विधाओं की भाषिक
संरचना में बोलचाल की तद्भव पदावली, उर्दू पदावली, स्वल्प तत्सम पदावली का अलंकृत संयोजन है। लेकिन इन निबन्धों की भाषा
विषय के अनुरूप गम्भीर है। तत्सम पदावली से युक्त है। उसमें बोलचाल की भाषा का भी
प्रयोग हुआ है। इसलिए तद्भव पदावली के साथ उर्दू-अंग्रेजी शब्दों का विरल समावेश
भी है।
कथ्य के अनुरूप वह अलंकृत है। चित्रात्मक है।
व्यंग्य युक्त भी। वाक्य-रचना प्राय: लम्बी है। उस पर अँग्रेजी वाक्य-रचना का
प्रभाव लक्षित होता है। मसलन, हिन्दी
में नया वाक्य ‘क्योंकि’ अथवा ‘और’ से शुरू नहीं होता है। लेकिन शमशेर की यह
विशेषता है कि वे वाक्य का प्रारम्भ ‘क्योंकि’ एवं ‘और’ से करते हैं। वाक्य-रचना
में किसी विशेष पद पर बल देने की दृष्टि से उसे आगे या पीछे बिठा देते हैं। बात की
पुष्टि के लिए कुछ उद्धरण पठनीय हैं। चित्रात्मक वाक्य रचना अधोलिखित वाक्य में
देखिए-
“हर
तरफ ऊपरी तबका नीचे वालों की गर्दन पर सवार हैं, और अपने पूंजी के हित उस पर धो कर, उसे पसलियों के बल चलाना चाहता है।” (प. सं., पृष्ठ-43)
अलंकृत वाक्य रचना का नमूना देखिए- “ऐसी भाषा
के छन्द निश्चिय ही प्रचलित रूचि के होंगे, जो लोक-भावना के गुणों से पुष्ट होंगे-
गम्भीर तो जैसे शपथ ले रहा है, उद्दाम और मस्त, तो जैसे झमाझम बारिश हो रही है, सरल और सरस, तो जैसे हवाएं मल्हार गा रही हैं” (वही, पृष्ठ-45) और से प्रारम्भ होने वाली
वाक्य-रचना का नमूना देखिए- “और धीरे-धीरे मैंने यह भी डिसकव्हर किया कि नरेन्द्र
के प्रारम्भिक जीवन में एक सखी का आगमन हो चुका था, एक सखी भी कोई काल्पनिक सखी नहीं थी।” (दू. सं. पृष्ठ-104)
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि शमशेर अनूठे
गद्यकार हैं। उनके समान गद्य लिखना हर एक लेखक के बस की बात नहीं है। वे अपने गद्य
पर बहुत ध्यान केन्द्रित किया करते थे। बहुत मेहनत करते थे। गद्य को सँवारने में।
आजकल के लेखक ऐसा नहीं कर सकते। इसका कारण है। आज का लेखक माँग और पूर्ति के नियम
के अनुसार कहानियां लिखता है। कभी कविताएं लिखता है। कभी समीक्षाएं। कभी संस्मरण।
सरांश यह है कि उसके गद्य में वह रचाव नहीं आ पाता है जो शमशेर की विशेषता है।
अच्छा गद्य लिखने के लिए बड़े धीरज और चिन्तन की जरूरत होती है।
सम्पर्क
मोबाईल - 09897254897
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
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