मार्कण्डेय जी का आलेख 'नई कहानी की उपलब्धियाँ'
मार्कण्डेय जी अगर आज हम सबके बीच होते तो उम्र का 85 वां वर्ष पूरे कर रहे होते। बहुत कम लोग इस बात से परिचित हैं कि वे एक सशक्त कहानीकार के साथ-साथ एक
बेहतर आलोचक भी थे। नयी कहानी की उपलब्धियों के बहाने उन्होंने कहानी और उसकी
आलोचना पर अनेक महत्वपूर्ण बातें की हैं। ‘कहानी की बात’ नामक उनकी महत्वपूर्ण किताब से एक
आलेख आप सबके लिए प्रस्तुत है।
नई कहानी की
उपलब्धियाँ
मार्कण्डेय
नयी कहानी से
स्पष्टत: दो ही अर्थ लगाये जा सकते हैं। एक तो यह कि जो भी कहानियाँ वर्तमान समय
में लिखी जा रही हैं सबकी सब नयी हैं क्योंकि वे समसामयिक लेखकों द्वारा वर्तमान
समय में लिखी जा रही हैं। इस तरह नयी पीढ़ी के लेखकों के साथ वे सभी कहानीकार भी
नयी कहानी लिख रहे हैं जो पिछले दशक से कहानीकार के रूप में स्वीकृति पा चुके हैं
तथा वे भी, जो एकदम नए हैं बाल सुलभ जिज्ञासा के कारण कल्पना के सहारे
कुछ एक कथानकों की एक सृष्टि कर लेते हैं और वे भी जो कथा साहित्य की विकसित
परम्परा एवं नए युग की सामान्य विकसित वास्तविकताओं तथा युग सत्यों से अपरिचित
होने के कारण पुरानी, बार-बार की दोहाई भावभूतियों में कुछ एक नए चटक रंग भर कर, कहानीकारों की पाँत में नाम लिखाए, अपनी रचनाओं में नए मूल्यान्वेषण की बात का नारा बुलन्द
किया करते हैं। कुल मिला कर सारा का सारा नया लिखित कथा साहित्य इस ‘नए’ के अर्थ बोध का अधिकारी हो सकता है।
लेकिन वास्तविकता
यह है कि साहित्य में नया विशेषण नए भाव बोध नयी जीवन शक्ति, नए शिल्प, नवीन सामाजिक
दृष्टि आदि का बोधक है इसलिए नई कहानी का यह अर्थ वैशिष्ट्य कहानी की संख्यागत
परिसीमा को बहुत लघु बना देता है। कृतिकार की नवीनता की अपेक्षा कृति की नवीनता को
महत्व देता है। जैसा कि मैंने अन्यत्र कहा है नयी कहानी से हमारा मतलब है उन
कहानियों से जो सच्चे अर्थों में कलात्मक निर्माण है, जो जीवन के उपयोगी अथवा महत्वपूर्ण होने के साथ ही, उसे किसी न किसी नए पहलू पर आधारित हैं या जीवन के नए
सत्यों को एकदम नई दृष्टि से दिलाने में समर्थ हैं। इसलिए आसानी से यह कहा जा सकता
है कि हर समसामयिक कहानी नयी नहीं है, चाहे लेखक नया ही
क्यों न हो, अथवा एक नए लेखक की ही एक कहानी नयी हो सकती हे, दूसरी पुरानी।
यहीं टाल्सटॉय की
एक बात याद आती है। ऐमिनोव्य की ‘किसानों की
कहानियाँ’ नामक पुस्तक की भूमिका में वह बड़ी सादगी से कहते हैं, ‘मैं किसी कलाकृति में बड़े ध्यानपूर्वक
देखता हूँ कि कलाकार जीवन के किस नए पक्ष का उद्घाटन अपनी कृति में करता है वह
मनुष्य के लिए कितना उपयोगी और महत्वपूर्ण है लेकिन कलाकृति वही हो सकती है जो
जीवन के किसी नए अंग को हमारे सामने खोले और यह नया अंग फिर आने वाले किसी भी युग
में पुराना नहीं होता, क्योंकि वह अपने तरह का अकेला ही पैदा होता है और चिर नवीन
बना रहता है।
रचना की नवीनता की
यहीं शालीन अर्थवत्ता है और प्राप्त होनी चाहिए। अगर इस दृष्टि से विचार किया जाए
तो दिवंगत प्रेमचन्द तथा पिछले दशक से मान्यता प्राप्त कहानीकार यशपाल की कहानियाँ
भी नयी कहानी की सीमा में आती हैं और अगर हम कथा को एक सामाजिक शक्ति एवं विकासमान
वास्तविकता का मुख्य द्योतक मानते हैं तो शायद नये कहानीकारों की कोई विरली कहानी
ही उपरोक्त लेखकों की अनेक कहानियों से नयी ठहरेगी ऐसा कहते समय मेरी निगाह में
हमारे वर्तमान समाज को बदलती हुई परिस्थितियाँ, नए जीवन सत्य एवं
कथानक के नए-नए क्षेत्र, सभी समान रूप से उपस्थित हैं।
आज का नया कहानी
लेखक समाज की नयी वास्तविकताओं की उपज है, लेकिन वैचारिक
सम्पन्नता में वह किसी कदर अपनी पिछली पीढ़ी के लेखकों से आगे नहीं जाता। समाज की
कुरूपताओं के वस्तु तथ्य चित्रण की कला को कभी-कभी वह यथार्थ और बोल्ड की संज्ञा
देता है। इसमें संदेह नही कि नए कहानीकारों में वस्तु तथ्य चित्रण का प्रभावोत्पादक
रूप देखने को मिलता है शायद इसी कारण नई कहानी ने अपने पाठक भी पैदा कर लिए हैं
लेकिन इन पाठकों के लिए मध्यमवर्गीय जीवन की सड़ांध और घुटन का वस्तु-स्थिति-चित्रण
एक मृगमरीचि की भांति होगा।
अन्तत: इन
कहानियों का प्रतिफलन मनोविश्लेषणवादियों की तरह एक काल्पनिक मायालोक के रूप में
हो जाएगा शायद गोर्की ने इस स्थिति को और भी अच्छी तरह देखा है जब वह कहता है ‘इन आर्डर टू डेस्क्राईव वेल ए राइटर मस्ट
नाट वन्ली सी वेल, ही मस्ट आल्सो फोर सी वेल’ नए कहानीकार देखते तो अच्छी तरह
हैं पर उनमें ‘फोर सी’ करने की
शक्ति पैदा नहीं हो पाई है। प्रेमचन्द के बाद हमारी कितनी ही प्रतिभाएँ सामाजिक
परिस्थितियों की प्रगति को न देख पाने के कारण पथभ्रष्ट हो गयीं और उनका साहित्य
समाज के विकास के साथ-साथ इतिहास की वस्तु बनता जा रहा है। हमारी सम्पूर्ण
ऐतिहासिक प्रगति में प्रेमचन्द के बाद यशपाल ने सामाजिक प्रगति को अच्छी तरह
पहचाना है और सामाजिक यथार्थ को उन्होंने अपनी रचनाओं में कृत्रिम ढंग से व्यक्त
किया है। लेकिन नई कहानियों की वैचारिक उपलब्धियों का विवेचन करते समय उनके शिल्प
सम्बन्धी तत्वों को नकार जाना हमें किसी भी प्रकार अभीप्सित नहीं है और इसमें
संदेह भी नहीं कि नए कहानी लेखकों ने कथा शिल्प के नए-नए प्रयोग किए हैं और कई
मित्र प्रतीक शैली की सफलता की बात काफी प्रमुदित होकर करते हैं। जीवन के विम्ब
प्रतिविम्ब की छवि भी कहानी में देखते हैं लेकिन कहानी की शिल्प व्यवस्था में इस
विशेष सौन्दर्य की उपयोगिता तभी तक है जब तक वह कथानक को अधिक सहज, बोधगम्य और शक्तिदायक बनाये अन्यथा फ्रांस के सिम्बोलिस्ट
आंदोलन के इतिहास से हम सभी का परिचय है। कहानी को प्रतीकों के माध्यम से कह कर
रहस्य की सीमा तक पहुँचा देने का समर्थन नहीं किया जा सकता क्योंकि यह प्रवृत्ति
कला के लिए मूलत: हानिकारक सिद्ध हो चुकी है। वास्तविकता यह है कि आज के कई
मध्यवर्गीय जीवन पर लिखने वाले कथाकार प्रेमचन्दोत्तरकाल की प्रवृत्ति मूलक
अव्यवस्थाओं की उपज हैं जिनकी रचनाओं पर मनोविश्लेषण वादियों की मध्यमवर्गीय घुटन
और कुण्ठाओं तथा प्रगतिवादी आंदोलन के स्थूल यथार्थ की वैचारिक संक्रान्ति का
अव्यक्त भाव रहा है। इन नए लेखकों की चेतना इसी विशिष्ट काल की उपज है स्पष्टत: यह
समय सन् ५० के पहले का है जिसमें एक ओर अत्यन्त अन्तर्मुखी भावधारा कार्यरत थी
वहीं दूसरी ओर घोर स्थूल की स्थापना में साहित्य प्रचार सामग्री का पर्याय बनता जा
रहा था। मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव इस संक्रान्ति काल के लेखक हैं, जिनके कहानी संग्रह भी उसी समय प्रकाशित हुए थे और दुविधा
की इन्हीं स्थितियों के प्रभाव के कारण इनकी रचनाएँ तत्कालीन पाठक एवं आलोचक समाज
का ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकते थे जिस प्रकार मनोविश्लेषण वादियों ने उस
समय मध्यम वर्ग की बदली हुई वास्तविकताओं को समझने में भूल की थी और वैचारिक कुण्ठाओं
के प्रक्षेप में उस जीवन को देखा था- करीब-करीब वही स्थिति आज भी इस वर्ग के
लेखकों में वर्तमान है। मूल रूप से इनकी चेतना का संगठन उन्हीं परिस्थितियों का
प्रतिफल है।
इसलिए वैचारिक
विशेषता का वर्तमान अभाव हमारी नयी कहानी में आकस्मिक नहीं है। वस्तुस्थिति की
वर्णन कुशलता का पैâन्टेस्टिक रूप विधान भी इन्होंने मनोविश्लेषणवादियों से ही
ग्रहण किया है जिसे आज शिल्प सौन्दर्य तथा प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति आदि का नाम देकर
कई लोग वास्तविक नयी कहानी के परिप्रेक्ष्य को धुंधला बनाने की कोशिश करते हैं।
वैचारिक
प्रतिक्रिया में यह लेखक उस समय एकदम उघड़ जाते हैं जब ये ग्राम कथाओं के
अत्याधुनिक सम्भावनाओं पर उस जीवन की सच्चाइयों को जाने बगैर विचार करते हैं। ‘नये बादल’ और जहाँ लक्ष्मी कैद है’ की भूमिकाओं में इस प्रक्रिया के
संकेत स्पष्ट हो उठे हैं। राकेश तो ग्राम कथा पर इस नाम के साथ विचार करने का ही
विरोध करते हैं और राजेन्द्र यादव गाँव पर कहानी लिखने वाले को खेत में काम करते
देख कर ही संतुष्ट होना चाहते हैं।
वस्तुत: कथा में
बार-बार का प्रयुक्त मध्यम वर्ग नयी सामाजिक दृष्टि के अभाव में इतना मोनोटोनस हो
उठा है कि इन लेखकों को सेक्स और विट का सहारा ले कर प्रभाव उत्पन्न करना पड़ा है।
इस उत्पीड़ित मानसिक आवेग का प्रभाव आज की अधिकांश मध्यवर्गीय नयी कहानियों में से
ढूँढ निकालना मुश्किल नहीं होगा।इसलिए वर्तमान समय में मध्यमवर्गीय वस्तु तत्व पर
लिखी जाने वाली अधिकांश कहानियों में नयेपन का सर्वथा अभाव है और वे कहानी के नये
अभिदान में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं करतीं।
समग्र रूप से
देखने पर ग्राम कथा का नया पुनरूत्थान ही इस उत्तर शती के कथा साहित्य की सबसे बड़ी
उपलब्धि है। हो सकता है, हमारे कुछ मित्रों की हमारे कथन से सहमति न हो और वे
किन्हीं और कारणों से इस वास्तविकता को झुठलाना चाहें पर वास्तविकता यही है जो
किसान और शहरी व्यक्ति अथवा गाँव और शहर की न हो कर नयी वास्तविकता के विकास की है
जो उलझे हुए नितान्त विभ्रम मध्य वर्ग में उतनी ताजगी के साथ नहीं दिखाई पड़ती
जितनी स्पष्टता से किसान के जीवन में परिलक्षित हो सकती है।
इसी कारण ग्राम कथा
के प्रथम अभियान ने ही पाठकों-आलोचकों को अपनी ओर आकर्षित किया और वर्षों का
उपेक्षित कहानी साहित्य विचार विमर्श का केन्द्र बन गया। ध्यान पूर्वक देखने पर
नयी कहानी संग्रहों का प्रकाशन, जो बहुत ही विरल
हो गया था इसी समय शुरू हुआ और पाठकों में नई कहानी के प्रति रुचि जागृत हुई।
ग्राम कथा के
सम्बन्ध में अनेक रूढ़ मान्यताएँ कहानी के इस नये अभियान में टूटी हैं और प्रेमचन्द
का गाँव अधिक टिपिकल एवं गहन मानवीय आत्मीयता के साथ नयी कहानियों में चित्रित हुआ
है। इन कहानियों में चित्रण बहुलता एवं आग्रहपूर्ण स्थानीय रंगत के भी दोष सामने
आये हैं। लेकिन इस नवीन प्रवृत्ति के विकास की यह प्रथम सीढ़ी है और इन दोषों की ओर
लेखकों का ध्यान भी जा रहा है।
स्थानीय वैशिष्ट्य
के इन कथानकों के बाद कथा के शिल्प तत्व में जो नवीनताएं और विचारों के संघर्ष आएं
हैं उनकी चेतना इन कहानियों के पीछे विद्यमान है। मनोवैज्ञानिक गुत्थियों की
अत्यन्त अंतर्मुखी प्रवृत्ति अथवा पिछले दौर की स्थूल यथार्थवादी विचारधारा की ऊब
से निकलकर नए कहानीकार ने बुद्धि एवं हृदय के सांमजस्य का मध्यम मार्ग अपना लिया
है जो मेरी समझ में, जीवन की विकसित वास्तविकता का अधिक स्वस्थ रूप है और नए
मानव के परिवर्तित मानसिक स्तर के अधिक अनुकूâल है।
कुल मिलाकर नई
कहानी सहजतर मानवीय संवेगों एवं सरल अभिव्यक्तियों की ओर उन्मुख है और वही उसकी
वास्तविक परम्परागत धारा है। शिल्प विन्यास का उलझाव एवं चमत्कारपूर्ण उक्तियों
एवं कथानकों की असफलता से हर सजग, नया कहानीकार
परिचित है। इसलिए नये कहानी लेखक की समस्या मूलत: वैचारिक है।
स्वतंत्र भारत की
विकसित वास्तविकताओं एवं बदले हुए मूल्यों के प्रति कहानीकार का सजग होना उसकी
कृति को अधिक पैना और जीवन्त बना सकता है लेकिन कलात्मक परिवेश में इस नवीनता के
लिए लेखकों का वैयक्तिक जीवन परिचय एवं अनुभव संगठन बाधक सिद्ध हो रहा है। फलत:
जहाँ एक ओर नयी कहानी नये जीवन के खण्ड चित्र उपस्थित करने की कोशिश कर रही है
वहीं उनके यथार्थपरक सामाजिक परिवेश से तादात्म्य स्थापित करने में कथाकार
व्यक्तित्व वाचक दिखाई पड़ता है। यह बात उन तमाम कहानियों पर एक ही तरह लागू होती
है चाहे वे ग्राम के सम्बन्ध में चाहे कस्बे या शहर के सम्बन्ध में। वस्तुस्थिति
के चित्रण के लिए मोह का आधिक्य इसी की उपज है जिसे हम शिल्प की खूबियाँ अथवा शैली
विशेषता कह कर निगलने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इस वस्तुतथ्य चित्रण
में नवीन यथार्थ के गुण नहीं उभरे हैं, और उन्हें यत्र-तत्र
बहुलता से देखा जा सकता है। श्रीलाल शुक्ल की ‘शहीद’, कलमेश्वर की ‘गर्मियों के दिन’ तथा अमरकान्त की ‘दोपहर का भोजन’ आदि कितनी ही अन्य
कहानियाँ इस नवीन परिवेश को व्यक्त करती हैं पर कहानी को आत्मिक प्रत्यक्ष अनुभव
की सीमाओं तक ही सीमित रखना कहाँ तक उपयोगी है!
नयी ग्रहणशीलता :
बोध और दुर्बोध
प्रसन्नता की बात
है कि इधर कहानियों पर विचार-विमर्श करते हुए भी वे सारी अन्तर्भूत, कुण्ठित मनोवृत्तियाँ उभरकर सामने आ रही हैं, जो पिछले दशक में आलोचना को बौद्धिक ईमानदारी से परे
साहित्य का एक राजनैतिक माध्यम घोषित करने में सहायक सिद्ध होती रही हैं। स्वयं
कहानीकार, पुराने खेमे के कुछ यश-अभिलाषी, निर्जीव कथाकारों की तरह, विदेशी कथाकारों
के दाँव-पेंच सीख कर, उनकी-सी गठन उनका-सा व्यंय, उनकी-सी ता़जगी और
प्रतीक-भंगी आदि का गुरु-मंत्र पा लेने या देख लेने की घोषणा करते हैं तथा
कहानियों को खानों में बाँट कर सुनियोजित ढंग से गाँव की कहानियों को एक-रस और
फीकी बताते हैं। उनकी इस सम्मति में दृष्टि न भी हो, तो कोण की कमी
नहीं।
सबसे पहले तो यही
कि अगर मैं मोपासाँ, ओ हेनरी, सार्त्र, हेमिंग्वे आदि के
अलग-अलग विशिष्ट सृजनात्मक गुणों को समग्र रूप से अकेली तुम्हारी कला में खोज
निकालने में समर्थ हो पाया हूँ, तो क्या तुम इतना
भी नहीं कर सकते कि सिर्फ चे़खव की व्यथा वाला गुण, जो असावधानी के
कारण तुम्हारी कहानियों में नहीं आ पाया है, वह अब मेरी
कहानियों में खोज निकालो। साथ ही दस-बीस नौसिखुओं के नाम साथ में जोड़ कर ऐसे लोग
आसानी से सचाइयों को ढँकने के लिए एक छोटा-मोटा कुनबा जोड़ लेते हैं। लेकिन शायद
उन्हें यह मालूम नहीं कि हिन्दी का पाठक धीरे-धीरे इन ट्रिकों से परिचित हो चला है, क्योंकि इसके बेमिसाल नमूने प्रयाग के एक गुट्ट के नवयुवक
साहित्यिकों की एक टोली ने पहले ही लोगों के सामने रख दिये हैं और अब वे पत्रिकाओं, पुस्तकों से ऊपर उठकर ‘साहित्य-कोषों’ में भी इस प्रकार की
आरोपित बुद्धि नीति को सचाइयों का चेहरा पहना कर प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न कर
रहे हैं। कहना न होगा कि परस्पर-प्रशंसा के इस नामावली तथा गुणा-वलीवाले नुस्खे को
उन लोगों ने आचार्यत्व के साथ उपस्थित किया है। यहाँ तक कि उनके कई ऩकली सिपाही
महान योद्धा के रूप में प्रतिष्ठित कर दिये गये हैं, जो अब भी अपनी काठ
की बाँहें सफलतापूर्वक भाँजते जा रहे हैं।
दूसरा कोण अधिक तर्कâ-संगत है। गाँव के कथानकों के साथ एक नयी ता़जगी, सामाजिक विकास की नयी सचाई तथा उसी के अनुरूप भाषा तथा
शिल्प की ऐसी प्रबल शक्तियाँ आयीं, जिन्होंने कथा की
सारी पुरानी, बसियायी, किताबी, अर्जित भाव-सम्पदा को आच्छादित कर लिया। जिस अंतर्ग्रथित प्रतीक-योजना
और भाषा की सांकेतिकता की बात अब उठायी गयी है, वह अधिक मांसलता
एवं स्वाभाविकता के साथ किसी पहाड़ी झरने की तरह इन्हीं कथानकों के साथ सबसे पहले
आयी। आलोचकों और पाठकों ने अभिभूत हो कर इनकी जो प्रशंसा की, वह भी इन कोणों को इस तरह उभारने में सहायक हुई।
वस्तु-तथ्यों, सजीव ग्राम-चित्रों की तह में से आने वाले पात्रों, परिस्थितियों तथा घटनाओं से उत्पन्न नयी वास्तविकता तथा उसे
ग्रहण करनेवाली चेतना के संवेगात्मक स्तर पर अतीत-उत्साह के कारण सजगता की सहज कमी
की ओर कथाकारों का ध्यान कम ही गया। दुर्भाग्य यह रहा कि इन कथाओं पर फैसला देने
का काम उन्हीं को करना था,
जो कुल मिला कर इन कथाओं के नये वातावरण से ही गाँव को
पहचान सके थे। उनके चरित्रों, परिस्थितियों, घटनाओं से उन्हें अब भी झटका लगता है। अपरिचित, असभ्य, अर्धनग्न, अशिक्षित के प्रति
यह उनका आत्मभाव है, बच्चों की तरह का और इस तरह के कथाकार आलोचकों की
ग्रहणशीलता के सामने एक प्रश्न-चिह्न अपने समाज के विकास को तथा अर्थिक एवं
राजनैतिक परिस्थितियों को भुला कर कथा पर विचार करना उन लोगों के लिए काफी सरल है, जो एक गाँठ की पूँजी ले कर किताबों के साथ कमरे में बन्द हो
जाते हैं।
कला और शिल्प की
बारीकियों में डूबे रहना कलाकार के शैशव का सबसे बड़ा मोह होता है। हम सभी इस लोभ
के बीच से गु़जरते हैं। कुछ लोग जीवन-भर इसी लोभ में तड़पते रह जाते हैं और कुछ आगे
बढ़ जाते हैं। एक प्रौढ़ कलाकार के लिए सौन्दर्य-बोध उसकी रचना-प्रक्रिया का
अंतर्निहित तत्व बन जाता है। प्रतीकात्मक व्यक्तीकरण कोई अर्जित वस्तुबोध नहीं, समाज और परिस्थितियों से लेखक के वैयक्तिक भाव-बोध और उसकी
अभिव्यक्ति का एक माध्यम-मात्र है। जहाँ सहज अभिव्यक्ति के लिए गुञ्जाइश नहीं है, वहीं बिम्ब उभरते हैं और धीरे-धीरे रहस्य की सीमा छूने लगते
हैं। वस्तुत: वास्तविकताओं की गहराइयों में न उतर पाने के कारण, जीवन की सतह पर उठनेवाले बुलबुलों को चित्रित करके संतोष कर
लेने वाले लेखक कथा को प्रतीकों का जामा
पहना कर पाठक को एक अस्पष्ट-से वस्तु-सत्य का थरथराता हुआ आभास मात्र दे कर, अपनी वैचारिक संक्रान्ति को ढँकने की चेष्टा करते हैं।
कहना न होगा कि
प्रेमचन्द के बाद कल्पनाजीवी लेखकों द्वारा, कथानकों के नाम पर
इसी तरह वैयक्तिक शिल्प-चक्र रचे गये थे, जो निस्सन्देह
लेखकों की कलात्मक रुचियों के साथ ही उनके व्यक्तित्वों की चिन्तन-प्रणाली के
समर्थ प्रतिरूप थे, और हैं। पर जीवन-संस्पर्श की व्यापक कमी और सामाजिक परिस्थितियों
के विकास और वास्तविकता की ग्रहणशीलता का अभाव ही इन कहानियों की सबसे बड़ी
दुर्बलता थी, जिसने समूचे कहानी-साहित्य को नकली जामों से भर दिया था।
निस्संदेह यह-सब थोड़े दिनों में ही ऊब और एकरसता का कारण बन गया और कहानी एक
निर्जीव साहित्य-विधा रह गयी।
छायावादी
अभिव्यक्ति के साथ ही जैनेन्द्र तथा अज्ञेय की कितनी ही कहानियों के वस्तु-संचयन
तथा प्रतीकात्मक अन्तर्गठन में वे सभी गुण वर्तमान हैं जिन्हें कई आलोचक आज नये
कहानीकारों की विशेष उपलब्धि बता कर बिम्बों की परख का ताज पहन रहे हैं। नामवर सिंह
जी यदि ध्यान से ‘रोज’ का पाठ करें
तो उन्हें निस्सन्देह इस कथन की सचाई का ज्ञान हो जायगा। नामवर सिंह का यह आग्रह
मौलिक नहीं है। इसके प्रमाण उनके कहानी-सम्बन्धी अन्तर्विरोधी विचारों के तीन
लेखों ही में नहीं, कहानी पर नवीन विचारों के नाम से थमाये कुछ लेखकों के लटकों
में भी ढूढे जा सकते हैं,
जिन्होंने कथा-वस्तु से हट कर शिल्प की ओर से उलझे हुए
विचारों का आडम्बर खड़ा किया है। नये ग्राम-कथानकों में आये गहरे जीवन-संस्पर्श से
मद्धिम और बासी हो उठने वाले शिल्पवादी कथाकारों ने कथा-वस्तु की ओर से रुख मोड़ने
का जो ‘जटिल’ प्रयास किया
है, उसी की प्रतिच्छाया में नामवर ने ‘नयी कहानी’ में ‘नये प्रश्न’ खोजे हैं।
वास्तव में कहानी
के सामने अभिव्यक्ति अथवा शिल्प की बारीक पैठ के साथ ही मुख्य बात है, जीवन की नयी उभरती हुई वास्तविकताओं को उसके पूरे परिवेश के
साथ ग्रहण करने की। प्रेमचन्द और यशपाल के बाद फीकी, उदास और मरणोन्मुख
कहानी को इसी नवीन ग्रहणशीलता ने बचाया है और कहना नहीं होगा कि कहानी को सशक्त
साहित्य-विधा के रूप में एक बार फिर विचार-विमर्श का केन्द्र बना देने का श्रेय
इसी नवीन ग्रहणशीलता के साथ आये ग्राम-कथानकों को है। नये वस्तु-संचयन, रूपगत गठन, प्रतीक-योजना, शब्द-संस्कार, नयी उभरती हुई
सचाइयों के साथ जीवन के पूरे परिवेश के साथ कहानी में उतार ले आने का जो काम
ग्राम-कथानकों ने किया, उसे पूर्वग्रह-विहीन होने की दशा में, काल्पनिक मसाले पर कहानियाँ रचने वाले पिछलग्गू कथाकारों ने
भी मुक्त होकर सराहा था। साथ ही उनके लेखन के वस्तुगत न भी सही, तो शिल्पगत विशेषताओं पर वास्तविकता के अंकन की विधि ही
नहीं, कथानकों के ग्रहण करने तथा उसे व्यक्त करने की समूची
प्रक्रिया पर भी ग्राम-कथानकों का गहरा प्रभाव पड़ा है। ठहरे और बसियाये यथार्थ में
ये लेखक दिग्भ्रम होकर अपना मार्ग खोजने के लिए चेखव की व्यथा और ओ’ हेनरी की गठन
आदि की जड़ी-बूटी लेकर परेशान थे। इन्हें अपने ही पास से उठने वाले ग्राम-कथाओं के
आलोक ने उजाले में लाने का बहुत बड़ा काम किया है। खोखले बुद्धिवादियों से आक्रांत, सेकन्ड हैन्ड सम्मति रखने वाले आलोचक यह बात तब तक नहीं
समझेंगे, जब तक इसके लिए उन्हें बुद्धिवादियों की सहमति न दिखे, ठीक उसी तरह, जैसे बहुत समय तक
प्रेमचन्द जैसे महान् कथाकार को इन स्नाब, खोखले, कथित बुद्धिवादियों-द्वारा ‘सतही’ तथा ‘साधारण लेखक’ घोषित
किया गया। लेकिन जनमत और पाठकों के बढ़ते हुए दबाव के साथ ही प्रेमचन्द की सामाजिक
अन्तर्दृष्टि ने उन्हें प्रतिष्ठित किया और आज वे ही कहते हैं कि सिर्फ वही एक
कथा-लेखक हैं, जो संसार के प्रथम श्रेणी के कथाकारों को छूते हैं। लोगों
को मालूम ही है कि उस समय भी चेखवों, तुर्ग-नीवों और
मोपासाँओं की कमी नहीं थी!
सन् ५१, ५२ के आस-पास की साहित्यिक गतिविधि से परिचित लोगों के आगे
यह स्पष्ट है कि तत्कालीन मरियल कहानी के सामने एक ओर जैनेन्द्र, अज्ञेय प्रश्नचिह्न की तरह खड़े थे, तो दूसरी ओर यशपाल के ता़जे, वैचारिक यथार्थ का
रेडीमेड मसाला धूम से बा़जार में चल रहा था और युद्धोत्तर भाव-जगत का प्रभाव लिए
बेचारे नये कहानी-लेखक भकुओं की तरह कभी इधर, कभी उधर भटक रहे
थे और अपने बुजुर्गों के नाम खुली चिट्ठियाँ छपवा कर उनका ध्यान अपनी ओर खींचने का
प्रयत्न कर रहे थे। इस स्थिति में ग्राम-कथानकों का आगमन कहानी के नये उत्कर्ष का
सूचक सिद्ध हुआ। नयी कहानी के प्रादुर्भाव में यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। गाँवों से
आनेवाले खेतिहर किसानों के बौद्धिक तथा कलात्मक उन्मेष ने उद्धोत्तर काल के
संकुचित एवं घुटनशील वातावरण को ता़जगी और विस्तार ही नहीं दिया, वरन् नयी सामाजिक एवं राजनैतिक अवस्थाओं, के कारण स्वत: महत्वपूर्ण हो उठा, इतना महत्वपूर्ण कि प्रेमचन्द-जैसे लेखक के ग्राम-कथानकों
की महान् प्रसिद्धि, प्रचार और प्रसार के होते हुए भी नयी ग्राम-कथा ने अपनी जगह
बना ली, अपनी गहनतर ग्रहणशीलता और ग्राम बोध के कारण ग्राम-कथानकों
के पूरे परिवेश को नयी प्रतीक-योजना, नये भाव-बोध, नये बिम्ब-संगठन नवीन सांकेतिकता और शब्द-योजना से जीवन्त
बना दिया।
नये शिल्प-संयोजन
में जिस जीवनखण्ड को ये लेखक सामने ला रहे थे, उसके आभास का सतही
परिचय लोगों को था और ‘अहा ग्राम जीवन भी
क्या है’ वाली कृपामयी बौद्धिक सहानुभूति भी उसे नागर जीवन से प्राप्त थी, पर उसके डीटेल में न तो लोगों की पैठ थी, न जानकारी, क्योंकि स्पष्टत:
इस-सबसे उनका कोई सम्बन्ध न था। मसलन हल का नाम तो इन्होंने सुना था, पर हल के अन्य हिस्सों, जैसे, परियत, फार, हरिस, गुल्ली, नाधा इत्यादि शब्द इनके लिए दुरूह और कष्टकर प्रतीत होने
लगे और लोगों को चौंकने का मसाला मिलने लगा। लेकिन नये-कथाकारों को अपनी
अभिव्यक्ति के लिए जो शाब्दिक उपक्रम जुटाने थे, उसकी हिन्दी में
कमी थी। अंग्रेजी शब्दों और नामों का उपयोग साहित्यकार के पढ़े-लिखे होने का सबूत
बना हुआ था, पर इन लोक भाषा के आवश्यक शब्दों को स्वीकार करने में लोगों
को कष्ट होने लगा। निस्सन्देह प्रेमचन्द की तरह वास्तविकताओं के अंकन के चित्रण के
तरी़के से यह तरी़का भिन्न था। इस भाषा और शिल्प-संयोजन, दोनों में अधिक गहराई थी, अधिक समीपवर्ती
दृष्टि थी। यहाँ तक की कहीं-कहीं यह सबजेक्टिव भी हो उठी है। यद्यपि यह-सब उनकी
भाव-संपदा तथा जीवन-संस्र्पा की उफनती हुई शक्ति का परिचय देती है, पर यहीं यह कहे बगैर भी नहीं रहा जा सकता कि वाह्य रूप, गठन और शिल्प के अत्यधिक मोह ने नये ग्राम-कथाकारों को
प्रेमचन्द के पात्रों के समान महत्तर मानव को उसकी वास्तविकताओं में चित्रित नहीं
होने दिया।
नवीन जीवन
सन्दर्भों को कथा से अलग करके देखना एक भूल है। एक तो इसलिए कि जीवन-संदर्भ कथा की
आधार-भूमि हैं, वैसे ही, जैसे किसी चित्र
के लिए तूलिका, रंग और कनवैस। उनके अभाव में कहीं ‘कथानक में ह्रास’ होने लगता है, तो कहीं ‘रूपायियत’ बढ़ने
लगती है। दूसरे यह कि जीवन-संदर्भों के साथ सामाजिक परिस्थितियाँ, सृजनशीलता की अनेक वैचारिक उपलब्धियाँ और वास्तविकताएँ उभर कर
सामने आती हैं। ....चेतना के जिस नवीन स्तर पर नये लेखकों ने वास्तविकता को ग्रहण
किया है, उसी स्तर के अनुरूप शिल्प...स्ट्रक्चर की बुनावट उन्होंने
स्वीकार की है, सिर्फ â....वस्तु ही नहीं, वातावरण, शब्द और संकेत सभी से उसने उस नयी वास्तविकता का अलंकृत
किया है। कथा का यह सहज मानवीय रूपान्तर उसे दिनों-दिन जीवन के सहज खंड बना देने
की ओर है।
शिल्पगत संस्कारों
के अभाव में कई लोग इसे ‘फ्लैट’ समझते हैं
और अस्वाभाविक परिश्रम-साध्य बुनावट में गहराई देखते हैं।
निस्सन्देह हिन्दी
कहानी में यह नया मोड़ है और जिस लेखक ने जितनी ही सजगता से इसे पकड़ा है, वह उतना ही सफल है।
आर्थिक बोझ से दबे, थके,
हारे, शहरी मध्यवर्ग की
नयी समस्याओं तथा वास्तविकताओं को समझने में असफल स्वत: नियोजित, नकली चरित्रों, ट्रिकों अथवा
संयोगात्मक अन्तों-द्वारा एक ठहरे और मिटे हुए यथार्थ की किस्सागोई के साथ कुछ
कथाकार ‘सेक्स’ और फ्रâस्ट्रेशन’ की ओर झुक रहे हैं, जो कि इन
परिस्थितियों का स्वाभाविक और अन्तिम सुरक्षित स्थल है। शहरी मध्यमवर्ग के
शिल्पवादी बहुसंख्यक लेखक अपने वर्ग-चरित्र और उसकी आर्थिक परिस्थितियों के कारण कुण्ठित
होकर इसी आत्महंता वृत्त में निमग्न होते हैं।
इसलिए अधिक ‘कुलबुलाते हुए यथार्थ’ और चरित्रों के
राउन्डनेस के लिए ‘कुलटाओं’, ‘नपुंसकों’, ‘द़फ्तर में काम
करने वाली मोटी, भद्दी सेक्स-फ्रस्टेटेड लड़कियों’ की
कहानियों के लिए अधिक सतर्वâता और
परिश्रमपूर्वक अन्तर्निबद्ध प्रतीकों एवं विषयों के संयोजन की आवश्यकता पड़ेगी ओर
सम्भव है, ये लेखक ‘सेक्स’ की
गहराइयों में उतर कर कुछ अच्छी रचनाएँ प्रस्तुत कर सकें।
कथा-भूमि जो हो, नयी ग्रहणशीलता का प्रश्न प्रत्येक स्थिति में मुख्य होगा।
मध्यवर्गीय जीवन का पक्ष इतने विभिन्न कोणों से, इतनी गहराई तक
देखा-परखा जा चुका है कि नवीनता की संभावनाएँ बहुत बिरल हो गयी हैं। लेकिन ऐसा भी
नहीं कि वहाँ कुछ नया है ही नहीं अथवा लेखक का वैयक्तिक अनुभव तथा राग-बोध नये
कथा-सूत्रों का चयन नहीं कर सकता।
कुल मिला कर आज
नये कथा-साहित्य के सामने मुख्य प्रश्न किसी विशिष्ट क्षेत्र की सीमाओं से परे, नयी-ग्रहणशीलता का है, जिसके लिए जीवन का
कोई भी पक्ष और वास्तविकताओं की कोई भी सतह, समान रूप से
स्वीकार्य और महत्वपूर्ण है।
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