एस आर हरनोट की कहानी 'बिल्लियां बतियाती हैं'
‘बिल्लियां बतियाती है' हरनोट की एक बहु-चर्चित कहानी है जो वर्ष 1995 में 'पहल' में छपी थी और आज तक
चर्चा में बनी हुई है। यह कहानी वर्ष 2001 में छपे उनके बहुचर्चित कहानी संग्रह ‘दारोश तथा अन्य कहानियां‘ में संकलित है। यह संकलन
आधार प्रकाशन प्रा0 लि0 से छपा है। इस संग्रह को पहले ‘अन्तर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा
कथा सम्मान' और बाद में हिमाचल साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। संग्रह का
आधार से ही दूसरा संस्करण प्रकाशित हो गया है। इस कहानी के अंग्रेजी सहित गुजराती, मराठी, मलयालम सहित कई भाषाओं
में अनुवाद हो चुके हैं। शिमला की एक नाट्य संस्था ने इस कहानी का नाट्य-अनुवाद कर
इसके प्रदेश और प्रदेश से बाहर कई मंचन भी किए हैं। तो आइए पढ़ते हैं हरनोट की यह चर्चित
कहानी ‘बिल्लियाँ बतियाती हैं।’
बिल्लियां बतियाती हैं
एस आर हरनोट
अम्मा
का झगड़ा शुरू हो गया है। अपने आप से। दियासलाई की डिब्बिया से। ढिबरी से। चूल्हे
में उपलों के बीच ठूंसी आग से और बाहर-भीतर दौड़ती बिल्लियों से। यही सब होता है जब
अम्मा उठती है। वह चार बजे के आसपास जागती है। ओबरे में पशु भी अम्मा के साथ ही उठ
जाते हैं। आंगन में चिड़िया को भी इसी समय चहकते सुना जा सकता है और बिल्लियों की
भगदड़ भी अम्मा के साथ शुरू हो जाती है। यह नहीं मालूम कि अम्मा पहले जागती है या कि
अम्मा की गायें या कि चिड़िया या फिर बिल्लियां।
कई
बार अम्मा उठते ही अंधेरे से लड़ पड़ती है। हाथ अंधेरे की परतों पर तैरते रहते हैं।
हाथ सिरहाने के नीचे जाता है पर दियासलाई नहीं मिलती। कई बार रात को जब अम्मा बीड़ी
सुलगाती है तो दियासलाई नीचे गिर जाती है। ऊंघ में वह बीड़ी तो पी जाती है पर
दियासलाई को ऊपर उठाने की हिम्मत नहीं होती और आंख लग जाती है। जब उठती है तो
अंधेरा फिर टकराता है। याद नहीं आती कि दियासलाई कहां है। अम्मा खूब गालियां बकती
है। ढिबरी उसी से जलनी है। काफी देर बाद याद आता है। बिस्तर से आधी चारपाई के नीचे
झुक कर उंगलियों से फर्श सहलाती अम्मा के हाथ देर बाद लगती है दियासलाई। अपने को
सहेजती है। एक तिल्ली निकाल डब्बी पर लगे मसाले पर रगड़ती है पर वह नहीं जलती। चिढ़
जाती है अम्मा।
अंधेरे
में धोखा खा जाती है। तिल्ली उल्टी रगड़ती है। वह टूट जाती है तो दूसरी निकाल कर
जलाने लगती है। फिर वैसा ही होता है। तीसरी बार अम्मा गलती नहीं करती। उंगलियों से
मसाले वाले सिरे को छू लेती है। जलती है तो कमरा जगमगा जाता है। एक तिल्ली से दो
काम होते हैं। रात को पीये बीड़ी के बचे टुकड़ों में से एक को जलाने के बाद उसी से
ढिबरी भी जलाती है।
उठने
लगती है तो कई बार बिस्तर में पसरी बिल्लियां कुरते और सलवारों के पंजों में नाखून
गड़ाए रखती हैं। गुस्से से छुड़ाती है और झटके से उन्हें नीचे फेंक देती है। अम्मा
कितने ही जोर से क्यों न फेंके वह सीधी गिरती हैं। अम्मा जानती है बिल्लियों को यह
वरदान भगवान ने दिया है। उनकी पीठ नहीं लगती।... फिर दो-चार गालियां...
“सालियों, तुम दूसरी बार आणा बिस्तर में। जान न
निकाल दी तो बोलणा। सारी-सारी रात चूहे सिर पर दौड़े रहते हैं और तुम चुपचाप बिस्तर
के ताप में खर्राटे मारती रहती हो। छि...छि...ठहरो तुम...।”
-और
बिल्लियां वहीं कहीं अंधेरे की ओट में छिप जाती हैं।
मां
बेटी हैं बिल्लियां। सफेद और काले रंग की। कई बार धोखा लग जाता है कि छोटी कौन-सी
है। एक का नाम काली और दूसरी का नाम निक्की। पुकारो तो नाम सुनती हैं।
कई
बार अम्मा उन दोनों को पौड़े की छत पर ओड़ू से ऊपर धकेल देती है और नीचे से ढक्कन
बंद। बहुत देर तक उसमें बैठी म्याऊं-म्याऊं करती है। पर मजाल कि अम्मा ढक्कन खोले।
छत पर अम्मा ने मक्कियां छोल कर रखी हैं। इसके अम्मा को दो फायदे हैं। एक तो वह
सूख जाती हैं और दूसरा सड़ने से बची रहती हैं। अम्मा के लिए आंगन में उन्हें सुखाना
वारा नहीं खाता। भगवान का क्या पता कब बरस जाए। कब आंधी-तूफान आ जाए। अकेले
बाहर-भीतर लाना-छोड़ना अम्मा के बस के बाहर है। जब अम्मा को पिसाने के लिए दाने
चाहिए हों तो दस-बीस मक्कियां निकाल कर बोरी में भर देती है। बोरी के मुंह में रसी
बांधे उन्हें एक मोटे डंडे से तब तक पीटती रहेगी जब तक दाने और गुल्ले अलग-अलग न
हो जाएं। छत पर काफी आगे अम्मा बीज के लिए भी मोटी और दानेदार मक्कियों का ढेर
लगाए रहती हैं।
छत
पर अम्मा रात को नहीं जाती। डरती है। वैसे बिल्लियों की छेड़ और उनकी बास से सांप
या दूसरे किसी काटने वाले कीड़े का भय नहीं रहता, पर अम्मा का बहम कौन टाले। दूध का जला
छांछ को फूंक-फूंक कर पीता है। आज भी अम्मा सुनाती है कि एक बार खपरैल की छान से
भीतर काला सांप कैसे घुस आया था। जैसे ही अम्मा छत पर चढ़ी कि उसने फुंकार भर दी और
अम्मा उल्टे पांव पौड़े पर। कई पल सांस ही नहीं निकली। बड़ी मुश्किल से सांप को
भगाया था।
मक्कियों
के अलावा अम्मा कई-कुछ छत पर रखे रहती है। पीछे की तरफ पुरानी ऊन, गांठे, दो-तीन टूटी हुई लालटेनें, एक-दो टूटे छाते, खाली बोतलें, प्लास्टिक और रबड़ के पुराने जूते तथा
दूसरी तरफ आठ-दस पुल्लियां शेल, उसे
बाटने का कुटुआ,
पशुओं के गलांवे और रस्सियां, जोच और छिकड़ियां। बीऊल के छट्टों के
बंडल भी अम्मा छत पर ही रखती है। अम्मा बरसात और सर्दियों में इनके बिना आग नहीं
जलाती। इसलिए गर्मियों में ही हरे छट्टों को बांध कर सूखने के बाद उन्हें दूर खड्ड
में दबा देती है तथा गांव की एक-दो औरतों की ब्वारी से उन्हें तैयार होने पर
फान-झाड़ लेती है। अम्मा के दो काम निपट जाते हैं। पहला छट्टे जलाने के लिए तैयार
हो जाते हैं और दूसरा काफी पुल्लियां शेल निकल जाता है।
अम्मा
के बिस्तर पर बड़बड़ाते ही ओबरे में गाय बोल पड़ती है। हालांकि गोशाला काफी दूर है
लेकिन इन दोनों के बीच की करीबियां कितनी हैं यह उनकी बातों से पता चलता है। गाय
क्या कह रही है,
क्या चाहती है, यह अम्मा बखूबी समझती है। बिस्तर से ही
उसे समझाती रहती है। कई बार डांट भी देती है,
“हल्ला मत मचा न चाम्बी। उठने तो दे। पहले तेरा ही सोचूंगी।”
दुधारू
गाय है। जानती है अम्मा तड़के उसी को दुहेगी। रसोई में जाते ही अम्मा उसके लिए
चारा-चोकर तैयार करती है। कई बार दुकान से चोकर न मिले तो आटे के खोरड़ से ही काम
चलता है। कुछ छलीरा लेकर उसमें बासी रोटियां डालकर लस्सी छिड़क देती है। फिर एक मुट्ठी
नमक और हाथ से उसे खूब घोल देती है। रात की बची एक-आधी रोटी भी साथ ले जाती है
ताकि दूसरे पशुओं को भी टुकड़ा दे दे। गाय को चोकर या खोरड़ खाते देख भला दूसरे कहां
मानेंगे।
अम्मा
के ओबरे में एक जोड़ी बैल, एक
बच्छिया और दो भेड़ें हैं। गाय का खूंटा दरवाजे से भीतर जाते दांई ओर है। उसके साथ
ऊपर बच्छिया बंधी रहती है। थोड़ा इधर भेड़ें और दरवाजे के बाईं ओर दोनों बैल। दीवार
के साथ पीछे बांस की सीढ़ियां रखी हैं जिससे अम्मा चांगड़ में जाती है। अम्मा ओबरे
के चांगड़ को हमेशा घास से भरा रखती है ताकि हारी-बीमारी या मौसम खराब होने पर पशु
भूखे न रहें। घास के साथ एक ओर दो-चार किल्टे और एक-दो डालें भी रखी रहती है।
दूध
दुहने के बाद अम्मा सीधी रसोई में आ जाती है। अब बिल्लियों और अम्मा का झगड़ा जम कर
होता है। दोनों बिल्लियां घर की स्पील पर बैठी अम्मा की बाट निहारती रहती हैं।
जैसे ही आंगन में अम्मा उतरेगी, वे
दोनों आगे-पीछे,
टांगों के बीच से भागती रहेगीं। अम्मा
खूब चिढ़ती है। गालियां देती है। पर वे कहां मानने वाली। जानती हैं पहले दूध उन्हें
ही मिलेगा। म्याऊं-म्याऊं से सारा घर ही जगा देती हैं। अम्मा रसोई में जाते ही
पहले उन्हीं के बर्तन में बाल्टी से दूध उड़ेल देती है।
अब
अम्मा को आग जलानी है। मौसम अच्छा हो या गर्मियों के दिन, तो अम्मा ओबरे के पास से ही हाथ में
सूखी घास ले आती है। और सर्दी या बरसात में बीऊल की लकड़ी की एक-दो पांखें चूल्हे
में पिछली रात दबाई आग के बीच ठूंस देती है। अम्मा सोने से पहले चूल्हे की आग को
चाव से दबा देती है ताकि बुझ न जाए। अंगारे कम हों या फिर बुझने का अंदेसा हो तो
अम्मा सूखे उपले को उनमें ठूंस देती है ताकि आग न बुझे। शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा
कि अम्मा के चूल्हे में आग बुझ गई हो। अम्मा कहती है घर में आग बुझना बुरा होता
है।
अम्मा
चिमटे से आग के अंगारों को खरोड़ती है। फिर उस पर घास या लकड़ी डाल कर उनके जलने का
इंतज़ार करती है। अम्मा को फूंक मार कर आग जलाना नहीं सुहाता। खांसी लगती है। भीतर
इस तरह कई-कई मिनटों तक धुएं का साम्राज्य छा जाता है। धुएं ने दीवारें खूब काली
कर दी हैं। बरसों से ऊपर और आर-पार जाले पड़े हैं। इनमें और अम्मा में कोई अंतर
नहीं दिखता। अम्मा भी धुएं-जैसी हो गई है। कोई देखे-सुने तो कई भ्रम होने लगते हैं, जैसे यह धुआं लकड़ियों का न हो कर अम्मा
के भीतर जल रही किसी चीज से उठ रहा हो।
बिना
घड़ी समय आंकना अम्मा को बखूबी आता है। घर में न घड़ी है और न मुर्गा, जैसे अम्मा को अंधेरे की आहटों का पूरा
ज्ञान हो। चांद और तारों की छांव से समय की परख कोई अम्मा से सीखे। सूरज की चाल पर
समय बताना अम्मा के दाएं हाथ का खेल है। सुबह एक ही समय उठना अम्मा की आदत है।
इसलिए चिड़िया भी धोखा खा जाती हैं कि पहले वे उठती हैं कि अम्मा। चिड़ियों से अम्मा
की खूब पटती है। जैसे उनकी भोर अम्मा के ही आंगन में होती हो। ओबरे और रसोई का काम
निपटाने के बाद अम्मा उन्हें दाना डालना नहीं भूलती। अम्मा ने चावल का चूरा, बथ्थू, कोदा इत्यादि अलग से ही रखा होता है।
घर के दोनों तरफ पेड़ की टहनियों में बहुत नीचे चिड़ियों को पौ लगाती है अम्मा।
विशेषकर गर्मियों में, ताकि
चिड़ियों को पानी मिलता रहे। इसके लिए कुम्हार से हर वर्ष मिट्टी की डिबड़ियां अम्मा
मंगवा रखती है।
चिड़ियों
को बुलाने की आवाजें गांव तक सुनाई देती है। भले ही वे आसपास चहक रही हों, अम्मा दाना फेंकते उन्हें जोर-जोर से
बुलाया करती है,
“चिड़ू आओ, चिड़िया आऽऽओ।”
दाना
खाती चिड़ियों को बिल्लियां न झपटें, सका अम्मा खास ध्यान रखती है। जब तक
उनका दाना खत्म न हो जाए, वह
दरवाजे की दहलीज पर बैठी बीड़ी पिया करती है या फिर रसोई में उन्हें दूध दे देती है
ताकि बाहर न आएं।
*** *** *** ***
अम्मा
के अकेलेपन का विचित्र संसार है। सुबह से शाम तक अम्मा कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी के साथ व्यस्त रहती है।
अकेलेपन के अनेक सहारे पाल लिए हैं अम्मा ने। ऐसा कोई बच्चा गांव का न होगा जो अम्मा
के यहां गुड़ की डली या मक्खन-रोटी न खा जाता हो, ऐसी औरत न होगी जो पानी-पनिहार, घास-लकड़ी को आते-जाते अम्मा के आंगन
बैठ बीड़ी का कश न मार जाती होगी, ऐसा
कुत्ता न होगा जो अम्मा के दरवाजे टुकड़ा न खा जाए और ऐसी चिड़िया न बची होगी जो
अम्मा का दाना न चुग जाती होगी। पशु भी आते-जाते अम्मा का आंगन झांक ही लेते हैं।
अम्मा
कभी बीमार होती है तो गांव की लड़कियां या औरतें अम्मा का काम निपटा जाती हैं।
पानी-पनिहार से लेकर घास-पत्ती तक। बीमारी में अम्मा को न गाय तंग करती है, न बिल्लियां और न ही चिड़ियां। न अम्मा
किसी से झगड़ती है। और न कोई अम्मा को परेशान करता है। अम्मा को जुकाम अक्सर होता
है। ऊपर से सिर-दर्द। ऐसे में अम्मा गोशाला के आंगन में गाय के खूंटे के साथ सो
जाया करती है। गाय अब अम्मा के बालों और माथे को चाट कर सहलाती है। बिल्लियां
चुपचाप आस-पास या बैठ जाती हैं या फिर अम्मा के पांव या हाथ चाटती रहती हैं।
चिड़ियों का दल पौ लगे पेड़ों पर चहचाहाते हुए फुदकता रहता है, जैसे वह भी बेबस अम्मा के आसपास आकर रहें, पर बिल्लियों के डर से वह नहीं आतीं।
...इन सभी की दुआओं से ठीक होती होगी अम्मा........?
*** *** *** ***
पिता
को गुजरे चार बरस हो गए हैं। उन दोनों के एक बेटा और एक बेटी थीं। बेटी का छोटी
उम्र में ब्याह कर दिया। अम्मा बताती है कि उन दिनों बहुत छोटी उम्र में ही रिश्ते
तय हो जाते थे। शादियां भी छोटी-छोटी उम्र है हो जाती थी। पिता की जिद्द थी कि एक
ही बेटा है, इसे अफसर नहीं बनाया तो हमारा कमाना व्यर्थ है। उसे खूब
पढ़ाया-लिखाया। हजारों कर्जा सर पर ले लिया। एक-दो खेत रेहन रख लिए। कालेज पूरा हुआ
तो नौकरी भी लग गई। लेकिन उन बूढ़ों को भनक तक न लगी कि शहर के तौर-तरीकों और
चटक-मटक ने उसे दोनों से बहुत दूर कर दिया और वह अपनी माटी से कटता गया। फासले
बढ़ते चले गए और एक दिन जब उन दोनों को यह खबर मिली कि उसने शहर की किसी लड़की से
ब्याह कर लिया तो बेचारे गांव में किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे। दिल घायल
हुए सो अलग।
कई
दिनों बाद बेटा बहू को ले कर गांव आया भीपर दो-चार दिनों बाद वापिस शहर लौट गया।
बहू क्या जाने गांव का रहना। उसे तो यहां कैदखाना हो गया। मिट्टी-गोबर की बास और
बूढ़ों का रहन-सहन उसे नहीं भाया। अम्मा-पिता के अरमान थे, बहू आएगी तो उनकी टहल-फाजत करेगी।
अम्मा के खोये दिन लौटेंगे। खूब खेती-बाड़ी होगी। पशुओं से फिर ओबरा भर जाएगा। गांव
के सरीकों के बीच इज्जत-परतीत बढ़ेगी। उनका दुख-दर्द भी देखेगी। पोतू-पोतियों को
अम्मा दिन भर खिलाती रहेगी। घर-आंगन में खुशियां-ही-खुशियां। पिता ने तो बेटे की
शादी के लिए कई जगह रिश्तों की बात भी चला दी थी। सोचा करते कि एक ही एक बेटा है।
ऐसी शादी रचाऊंगा कि सरीक देखते रह जाएंगे। ...और वे देखते ही रहे..........?
*** *** *** ***
अम्मा
बीमारी से ठीक भी जल्दी हो जाती है। फिर वही दिनचर्या। वही काम-काज। सुबह से शाम
तक कहीं-न-कहीं व्यस्त होती है अम्मा। कई बार गांव की कोई औरत या मर्द टोक दिया
करता है-
“देवरु काकी, क्यों अपने अंग-प्राण तुड़वा रही हो।
बेटा हर महीने पांच सौ भेजता है। आराम कर।”
और
अम्मा तड़ाक से जवाब दे देती है,
“काम से कोई नहीं मरता रे। जब तक शरीर
में प्राण है चलणा तो है ही। फिर इतणी जगह-ज़मीन, गाय-बैल बरबाद तो नहीं किए जाते न।”
कभी
परधान या गांव का ठाकुर ताना कस देता,
“देवरु! बेच दे जगह-ज़मीन। दे दे इन
गाय-बैलों को। बहू-बेटा तो गांव आएंगे नहीं। इन्हें रखकर क्या करेगी। तेरे चला तो
नहीं जाता अब।”
अम्मा
इनकी चाल समझती है। जगह-ज़मीन पर इनकी नज़रें हमेशा से लगी रही हैं। पर अम्मा के आगे
टिकना मुश्किल है। कह देती है,
“परधान जी, इतने तो अभी और पाल सकती हूं।
नौकरी-चाकरी तो चार दिनों की है। बेटे ने कमा के घर ही आना है। इसकी चिंता मैं
करूंगी तुम अपना काम निभाओ।”
अम्मा
समझती है, मरने के बाद इन्हीं गिद्धों के काम
आएगी यह खेती। नोच लेंगे टुकड़ा-टुकड़ा। बेटे को तो कोई परवाह है नहीं। गांव, गांव ही होता है। अपना, अपना ही। नौकरी चार दिनों की है। आदमी
की इज्ज़त-परतीत तो घर से होती है।
डाकिया
कई बार अम्मा को बेटे का मनीऑर्डर थमाते शहर के किस्से सुना जाता है। पिता के मरने
के बाद हर माह बेटा अम्मा को पांच सौ भेजता है। पर अम्मा के अकेलेपन को वह रुपए
कितना बांट पाए हैं, यह
कोई अम्मा से पूछे। अम्मा का मन नहीं करता किसी से कुछ लेने का, पर गांव-बेड़ में इज्जत रहे, इसलिए ही पकड़ लेती है पैसे। अम्मा का खर्चा तो उसकी खेती और गाय ही
दे देती है।
अम्मा
को डाकिये की बातें कई बार अकेले में याद आ जाया करती हैं। वह डर जाती है। शहर में
कितनी बेचैनी बढ़ गई हैं रोज कुछ-न-कुछ घटता ही है। दंगे-फसाद होते हैं, लाठियां-गोलियां चलती हैं। इन सभी के
बीच उसके बेटे-बहू कैसे रहते होंगे। पोतू स्कूल कैसे जाता होगा। इसलिए अम्मा को
अपना गांव बहुत भला लगता है। कहीं कुछ नहीं घटता। शांति है। चैन है। न
दंगे-न-फसाद। न लाठियां न गोलियां...पर कोई क्या समझे कि अपने आपमें अम्मा कितनी
आतंकित रहती है। मां का दिल है न...बेटा दूर ही क्यों न हो, बहू नफरत ही क्यों न करे, अम्मा अक्सर उन्हें याद किया करती है।
*** *** *** ***
अम्मा
साठ के करीब हो गई है। अपने शरीर की कभी परवाह नहीं की। फटे-पुराने कपड़े जब तक
चिथड़े-चिथड़े न हो जाएं, उतरेंगे नहीं। बाल अनधोये बिखरे रहते
हैं जिन्हें अम्मा एक फटे हुए दुपट्टे से पीछे की तरफ बांधे रखती है। कई बार सोचती
भी है कि सिर नहा ले, पर
समय ही कहां मिलता है। कभी-कभार गांव की कोई औरत या ससुराल से बेटी आ कर धुला जाती
है तो अम्मा को कई दिनों चैन रहता है।
साल-फसल
के दिन तो अम्मा के लिए खूब व्यस्तता के होते हैं। अम्मा की बुवाई-गुड़ाई ब्वारी से
ही चलती है। अम्मा की मदद के लिए पूरा गांव उमड़ पड़ता है। सभी जानते हैं कि अम्मा
आदर-खातिर में कसर नहीं छोड़ती। कई बार छोकरे-छल्ले अम्मा से मजाक कर लेते हैं,
“देख काकी। हम तो तेरी गुड़ाई या गोबराई
में तभी आएंगे जब तू पौवा-शौवा पीने को देगी।”
अम्मा
झट से झाड़ देती है,
“मुए शर्म करो। मुंह से तो दूध की बास
नहीं गई, बोतल पूरी चाहिए। पौवा-शौवा कुछ नहीं
मिलेगा।”
सभी
जानते हैं आज के जमाने घी कहां मिलता है। पर अम्मा की गुड़ाई-गोबराई में यह परंपरा
टूटी नहीं। खूब घी-शक्कर मिलता है ब्वारों को।
*** *** *** ***
अम्मा
को याद है जब मक्की की फसल बड़ी होती तो बड़ी गुड़ाई लगती। घर में पिता होते। बेटा और
बेटी होते। ऐसी गुड़ाई कभी न लगी हो जब तीस-चालीस ब्वारे न आए हों। अम्मा की गुड़ाई
बिना ढोल-शहनाई के कभी नहीं हुई। पिता शहनाई के माहिर थे। गांव-परगने के तकरीबन
सभी ब्याह शादियां, जातरें
और गुड़ाईयां उन्हीं की शहनाई से निपटती थीं। गुड़ाई में तो अम्मा भी साथ रहतीं।
उन्हें पिता के साथ विशेष तौर से गुड़ाई में बुलाया जाता। झूरी गाने में मजाल कि
उनका मुकाबला कोई कर सके।
अपनी
फसल की गुड़ाई का तो आनंद ही कुछ और रहता। पिता शहनाई बजाते। उनका जोड़ीदार ढोल और
अम्मा कभी ‘झूरी’ तो कभी ‘जुल्फिया’ गाती।
अम्मा
की आवाज़ मक्कियों के खेतों को चीरकर दूर घाटियों में टकरा जाती। घाटियां गूंजने
लगतीं। खेत जवान हो जाते। हरी मक्कियों की डालियां जैसे मस्ती में लहलहाने लगतीं।
बरसात के बादल उमड़ते-घुमड़ते हरे खेतों और घासणियों पर छाने लगते। अचानक
रिमझिम-रिमझिम बारीक बरखा लग जाती और लोगों का अनूठा जोश, वातावरण को नया रंग देने लगता। ढोल और
शहनाई के संगीत के साथ हाथ में खिलणिया लिए मक्की के खेतों में कहीं गुम हो जाते
और उनका तभी पता लगता जब पूरा खेत खत्म करके किनारे पहुंचते।
मां
की झूरी के बोल खत्म होते ही पिता की दूर से आवाज आती,
“शाबाशे ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ हो।”
आज
भी अम्मा को गांव की औरतें अपनी गुड़ाई में मजबूर कर देती हैं कि वह एक-आध बोल झूरी
के गा दे, पर अब पहले जैसा जोश कहां। हिम्मत
कहां। वह मना कर देती है। कहती,
“अरे
पापणियो! अब तो सांस तक नी ली जाती, गाणा तो दूर।”
सांस
अम्मा ले भी कैसे..........? दूसरा भला जाने भी कैसे कि अम्मा भीतर
ही भीतर कितनी जल रही है। पर औरतें मानेगी कहां। अम्मा मान भी जाती है, पर गाया नहीं जाता। दबी हुई आवाज में
बोल ऐसे निकलते है जैसे किसी अनजान आदमी ने कोई राग गुनगुनाना शुरू कर दिया हो।
गाते-गाते खांसी के आठ-दस चक्कर, आंखें
लाल जैसे अम्मा के प्राण ही निकलने लगे हों।... पर अम्मा के जख्म तो हरे हो गए
हैं। खांसते-खांसते उनकी आंखें पूर्व स्मृतियों से भर आती हैं। वह मुड़ कर देखती है, जैसे पिता हाथ में शहनाई लिए दूर से
कहने लगे हों,
“लाड़ी हो जाए एकझूरी।”
पर
पिता है कहां...? चार
बरसों का अंतराल, जैसे
कल ही की बात हो। विश्वास ही नहीं होता पिता नहीं रहे हैं। अम्मा को उनकी यादें
अक्सर सताती हैं। रुलाती हैं। ...वही तो एक आसरा थे अम्मा के लिए।
रात
को कई बार अम्मा को लगता है, पिता
दूसरी चारपाई पर हैं। जिस कमरे में अम्मा सोया करती है, पिता की चारपाई उसी में थी। अब भी
चारपाई वहीं है। अम्मा ने बदली नहीं। जैसे वह चारपाई भी उनके अकेलेपन को बांटती
है। अम्मा कई बार रात को पिता के लिए तंबाकू भर कर लाया करती। पिता का हुक्का आज
तक चारपाई के सिरहाने वैसा ही पड़ा है। दूसरे-तीसरे दिन अम्मा राख से उसे अवश्य
मांज लेती है। उसका पानी बदल देती है। कोई गांव का बुजुर्ग आ जाए तो उसी में
तंबाकू पिलाती है। कांसा इतना नया जैसे रेत पर चांदनी खनक रही हो।
कभी
रात को अम्मा आधी नींद में उठ कर धोखा खा जाती है। पिता सोये हुए अक्सर ऊपर ओढ़ी
रजाई नीचे फेंक दिया करते थे। अंधेरे में अम्मा को पिता की सांसें सुन पड़ती हैं।
चारपाई पर कुछ हरकतें महसूस होती हैं। वह उठ कर अंधेरे में हाथ से छूती है तो वहां
बिल्लियां सोई हैं। बिल्लियां कई बार ऐसा करती हैं। वे जब अम्मा के बिस्तर में
नहीं जातीं तो पिता की चारपाई पर घुस जाती है। अम्मा उन्हें नहीं छेड़ती। चुपचाप
लौट कर अपने बिस्तर में दब्ब पड़ जाती है।
अम्मा
का विश्वास है पिता की अल्प-मृत्यु हुई है। उन्होंने अचानक प्राण छोड़ दिए थे। कई
बार सपने में आते हैं। कहते हैं,
“लाड़ी! मैं अपनी मौत नहीं मरा। दुश्मन
ने मूठ चलाई है। हरिद्वार-पोहा करवा ले। मेरे प्राण बीच में अटके हैं।”
अम्मा
क्या करें क्या न करें। घर से बाहर परदेस है। सोचती है, पित्तर बिगड़े तो कभी सुख शांति नहीं
होती। यह बात अम्मा को बराबर कचोटती है। भीतर-ही-भीतर सालती है। बेटे को ‘पित्तर-दोष’ लगा है। अम्मा एक बार ‘मशाण’ जगाने वाले के पास गई थी। उस आदमी को पित्तरों को बुलाने में महारत
हासिल थी। इतना गुणी कि सात पीढ़ियों के पित्तर बुला देता।
अम्मा
ने भी पूछा तो पिता आए थे। अम्मा सुनाती है, उनकी वही जुबान, वही बोलचाल, जैसे काली चादर के नीचे मशाण जगाने
वाला नहीं बल्कि खुद पिता बैठे हों। कहने लगे,
“लाड़ी! तुम्हारे से कोई गिला-शिकवा
नहीं। बेटे के पास मन अटका है। उसे ही भेजना।”
पर
कैसे भिजवाए बेटे को। शहर ही का होकर रह गया हैं उसकी बला से कुछ हो। भुगतेगा, जब पानी सर से चढ़ जाएगा।
*** *** *** ***
आंगन
में बांधे बैल चौथे-पांचवें दिन खूंटा जरूर उखाड़ देते हैं। एक दिन ऐसा ही हुआ। धूप
में सोई अम्मा को भेड़ का मिमियाना सुनाई दिया तो उठ गई। भेड़ अच्छी चुगलखोर है।
अम्मा को उसी के मिमियाने से बाकि पशुओं की हरकतों का पता चलता है।
अम्मा
के बैल बहुत शरीफ हैं पर कई दिनों से आपस में लड़ने लगे हैं। एक-दूसरे से दोनों को
इरख हो गई है। अम्मा ने उठते ही भेड़ की तरफ देखा। वह खूंटे के चारों ओर डर के मारे
घूम रही थी। रस्सी का फंदा लग गया। अम्मा के नजदीक पहुंचते ही धड़ाम से गिर पड़ी। अब
बैल संभाले या भेड़। बैल को जोर से झाडा तो उल्टा सींग मारने दौड़ आया। अम्मा के हाथ
एक मोटा डंडा न लगता तो खेत में फेंक दी होती। अनर्थ। अपशकुन। जरूर किसी ने कुछ कर
दिया है। वरना अम्मा के पशु मजाल कि उसकी न सुने। पहले जैसे-कैसे डरते हुए उसे
ओबरे में भगा कर बंद कर दिया। फिर भेड़ की रस्सी दराटी से काट दी। कई बूंदें पानी
उसके मुंह में डाला तो जान में जान आई।
अम्मा
के लिए खूंटों की परेशानी हमेशा रहती है। खूंटा नहीं गाड़ा जाता। ओबरे के आंगन की
बीड़ पर तब तक बैठी रहती है जब तक कि कोई गांव का मर्द या छोकरा-छल्ला दिख न जाए।
इस बार देवता का पुजारी दिखा। जोर से हांक दी तो वह खेत से ही ऊपर चढ़ आया। नजदीक
पहुंचा तो अम्मा ने माथा टेक कर सुख-सांद पूछी। बैठने को पटड़ा दिया और साथ एक बीड़ी
भी दे दी। पुजारी ने जितनी देर में बीड़ी सुलगाई, अम्मा भीतर से घण लेकर पहुंच गई।
“पंडजी सबसे पैले तो खूंटा गाड़ दो। इस
बैल ने तो आज जान से ही मार दी थी।”
उसने
कंधे से पट्टू पटड़े पर फेंक दिया और घण लेकर खूंठा ठोंकने लग गया। खूंटा लगा तो
अम्मा को चैन आया। पुजारी ने आंगन में दूसरे खूंटो पर भी एक-एक ठोंक दी ताकि पक्के
हो जाएं।
“ऐसा कभी नहीं हुआ था पंडजी। आप जरा कुछ खोट-दोष देख दो,” अम्मा कहने लगी।
यह
कहते अम्मा भीतर गई और उल्टे पांव लौट आई। कांसे की थाली में कुछ कणक के दाने
पुजारी को थमा दिए। वह पटड़े पर चौकड़ी मार कर बैठ गया। कांसे की थाली उल्टी जमीन पर
रख दी। उस पर दाने रखे। फिर उठाए और अम्मा को कहा कि फूंक मार दे। अम्मा ने वैसा
ही किया। पुजारी ने दानों को कुछ देर मुट्ठी में बंद रखा। मुंह के पास ले जाकर कुछ
मंत्र का जाप किया। देवी-देवताओं का नाम लिया और फिर थाली की पीठ पर डाल दिए।
बारी-बारी दानों की गिनती शुरू हो गई। अम्मा सामने उकडूं बैठी एकटक देखती रही।
मन-ही-मन देवता का नाम भी जपती रही।
पुजारी
का चेहरा लाल हो गया। जैसे देवता आ रहा हो। नीचे से तीन बार दाने उठा कर अम्मा को
दिए। तीनों बार पांच-पांच आए। अम्मा जानती है चार और पांच दाने रक्षा के होते हैं
जबकि छः दाने दोष-खोट के। दाने पकड़ाते पुजारी ने समझाया,
“देख देवरु। कुछ गल जरूर है। कल जेठी सक्रांत है। तू कोठी के पास जरूर
आना। देवता रक्षा करेगा। कुछ दाने बाहर-भीतर फेंकना और कुछ आटे की पिन्नी में बैल
को खिला देना।”
पुजारी यह कहते-कहते उठ कर चला गया।
अम्मा
ने वैसा ही किया। दूसरे दिन का इंतजार मन में बैठ गया। सोचती रही जरूर कुछ बात है।
देवता की कोठी वह अवश्य जाएगी। पंची करवाएगी। अपने साथ बहू-बेटे के लिए भी पूछेगी
कि उनका घर से मुंह किसने फिरवा दिया। किस दुश्मन ने भूत फेंक दिया।
***
*** *** ***
दूसरे
दिन अम्मा ने जल्दी-जल्दी घर का काम निपटाया। देवता की कोठी अम्मा के मकान से एक
फर्लांग भी नहीं है। बिल्कुल दरवाजे के सामने। बाहर निकले तो सीधी नजर देवता पर
जाए। इसलिए अम्मा कभी आंगन में जूठ-परीठ नहीं फेंकती। हमेशा गंगा-जल या गौंच छिड़क
दिया करती है। घर-गृहा पवित्र रहे तो मन को शांति रहती है। पर अम्मा के मन को
शांति मिली ही कब?
तीन
बजे अम्मा रोट-धूप लिए कोठी के पास पहुंच गई। पहुंची तो दीवाल के बाहर जूते उतार
दिए और जहां औरतों के बैठने की जगह थी वहां चुपचाप बैठ गई। पहले देवता को माथा
टेका। फिर रोट की ठाकरी एक कारदार के पास थमा दी। कारदार ने रोट बाहर भैरों के लघु
मंदिर के पास उल्टा दिया। तीन उंगली रोट उठा चारों तरफ अम्मा के नाम से देवता को
फेंक दिया और पीछे से गौंच के दो-चार छींटे। फिर कुछ चावल और एक फूल ठाकरी में डाल
अम्मा को लौटा दी। अम्मा ने उन्हें माथे से वांच दिया।
चुपचाप
बैठी अम्मा की नजरें कोठी के आंगन में थीं। कारदार इकट्ठे होने लगे थे। देवता का
बजंतर बाहर निकाल दिया था। नगारची ने नगाड़ा, ढोलिये ने ढोल, चांबी ढोल वालों ने एक-एक चांबी, नरसिंगे वाले ने नरसिंगा और करनालची ने
करनाल थाम ली थी। शहनाइया अब नहीं था। अम्मा को वह खालीपन भीतर तक काट गया। पति
याद आ गए। वही देवता की हर रस्म अपने परिवार से कारदार के रूप में निभाते थे।
पति
ही देवता के शहनाइये थे। हर सक्रांत को, हर जातर में और हर देवता के काम में
उनकी हाजरी रहती। अम्मा को लगा कि जैसे वह अभी कहीं से आएंगे। बजंतरियों के बीच
बैठने से पहले दोनों हाथों से देवता को मथा टेकेंगे और फिर थैली से शहनाई निकाल कर
पत्ता ठीक करने लग जाएंगे। फिर चिंचियाएंगे और उनके स्वर के साथ ढोलिया भी अपना
स्वर ठीक करने लग जाएगा।
अब
पति नहीं है तो कोई देवता का शहनाइया भी नहीं। अम्मा की आंखें भर गई हैं।
पंची
शुरू होने लगी है। अम्मा आगे खिसक गई। पुजारी कोठी से बाहर आया तो अपने आसन पर
बैठने से पहले इधर-उधर नजरें दौड़ाईं। अम्मा ने दूर से ही हाथ जोड़ दिए।
कोठी
के आंगन में पूरब की तरफ बैठता है पुजारी। दाएं-बाएं कारदार यानि पंच। सामने तीन
अलग-अलग देवता के गूर। पंचों ने एक थाली में, धूप, चावल, सिंदूर और दो-तीन डलियां गुड़ की अपने
पास रख लीं।
देव-बाजा
शुरू हुआ। ढोल-नगाड़ा और दूसरे बाजे खनके। लोगों की नजरें केंद्रित हो गईं। अम्मा
का जैसे रोंआ-रोआं खड़ा हो गया। अम्मा को ऐसा ही होता है जब देवता का जंग शुरू हो
जाता है। सारे वाद्य यंत्र जब एक साथ बजते हैं तो वातावरण में जैसे एक अजीब-सा जोश
भर जाता है। बीच-बीच में एक कारदार रोट यानि आटे की चुटखियां उठाकर चारों तरफ फेंक
देता है और पीछे से गौमूत्र के छींटे...।
पुजारी
में कंपकंपी होने लगी। मुख्य गूर भी पुजारी ही हैं। देवता आने लगा। बजंतर और भी
तेज हो गया। हाथ श्रद्धा से जुड़ गए, सिर
झुक गया और देवता पूरी तरह आ गया।
देवता
आता है तो पुजारी जोर से ज़मीन पर हाथ मार देता है, “रख्खे...।”
सभी
ऐसा ही कहते हैं। पंच चावल या कणक के मुट्ठी भर दाने पुजारी के कंपकंपाते हाथ में
डाल देता है। पुजारी कई बार हवा में रक्षा के दाने उछालता है।
पंची
शुरू हो गई। अम्मा का कलेजा फटा जा रहा है। हाथ रखती तो झटक जाता। कितनी बेचैनी।
कितना भय। देवता ने खुद अम्मा को हांक लगाई तो वह चौंक कर खड़ी हो गई, “आगे आ जा देवरु।”
एक
कारदार झटपट अम्मा को नजदीक लाया। देवता जोर से खेला। खूब किल्कें दीं। कई बार
लोहे का शंगल अपनी पीठ पर पटका। अम्मा इस बीच चुपचाप खड़ी रही। पर भीतर एक तूफान
था। आज सब कुछ कह देगी देवता से। सब कुछ मांगेगी... कितना कुछ है अम्मा के मन में
मांगने को। एक बात होती तो पूछे, अम्मा
के पास तो प्रश्न-ही-प्रश्न हैं। दुख-ही-दुख हैं। सभी प्रश्न आंखों में तैर आए।
छलछला गईं आंखें... देवता ने पढ़ ही ली होंगी। वह तो मन की बूझता है। उसके पास भला
क्या छुपाना?
“बैल ठीक है न?”
“तेरी रक्षा है देवा।”
“ये लो मेरे रक्षा के चावल। आंगन के
चारों तरफ फेंकना। जा...आज के बाद तेरा बाल बांका भी न हो। कांटा भी न टूटे।”
अम्मा
ने सिर झुका लिया। आंखों में तैरते हजारों प्रश्न दो बूंदों में धरती पर आ
गिरे।....शायद देवता ने सहेज लिए हों। देवता अम्मा को देखता रहा...अपार श्रद्धा की
देवी थी अम्मा। बे-जुबान पशु, और
देवता ही तो सहारे हैं अम्मा के। अम्मा को लगा जैसे शरीर पर से हजारों मन बोझ उतर
गया हो।
***
*** *** ***
कोठी से बाहर निकली तो कुछ औरतें दीवाल पर
बैठी दिखीं। टोक दिया,
“माल़ नजदीक है देवरु, रोज माल़ गाने आया करियो।”
कुछ
नहीं बोली अम्मा। चुपचाप चली आईं।
घर
पहुंची तो औरतों का बुलाना याद आ गया। माल़ याद आ गई। इस पशुओं के त्योहार को
कैसे-कैसे नहीं मनाती थी अम्मा।
पर
मन नहीं करता कहीं आने-जाने को। वरना पहले कोई माल़ अम्मा के बिना नहीं गाई जाती।
आठ दिनों पहले शुरू हो जाती। कोठी के पास कई घंटों देर रात तक औरतें गाती रहतीं।
चांदनी रात में दूर-दूर तक गीतों की आवाज जाती। अम्मा उन्हीं के बीच रहती। माल़
गाती। तरह-तरह के हंसी-मजाक होते। ठठेलियां होतीं और आठवें दिन अम्मा के पशु
सजे-संवरे पानी के पास सबसे पहले पहुंचे होते। अम्मा ने भुनी मक्कियों और अखरोटों
की चन्नियों की झोली भरी होती। जो भी मिलता, उसे ही मुट्ठी भर दिए जाती।
कल
और आ रही है माल़। अम्मा की माल़ तो पिछले बरस जैसी होगी। निपट अकेली। कोई नहीं
गाएगा। कोई नहीं आएगा। बिल्लियां होंगी। एक गाय, दो बैल और दो भेड़ें। इन्हीं के बीच
मनेगा अम्मा का यह त्योहार। अम्मा गाएगी तो आवाजें मन की दहलीज से बाहर न निकलेंगी, चारदीवारी से टकरा कर रह जाएंगी।
मनानी
तो है ही। कोई दूसरा त्यौहार होता तो अम्मा टाल देती। पशुओं का त्यौहार बरस बाद
आया है, इसे तो मनाना ही है। अम्मा भूल गई थी
कि हारों के लिए बुंगड़ी और सरतवाज के फूल भी लाने हैं। सरतवाज तो आंगन में खूब हैं
पर बुंगड़ी के फूल दूर घासनी से लाने होगें। यही तो फूल हैं जो माल़ को पशुओं के
गले में सजता है। सरतवाज के लाल और बुगड़ी के सफेद फूलों की मालाएं पशुओं के गले
में सजी कितनी भली लगती हैं।
हल्के
अंधेरे में ही गई थीं अम्मा। सफेद फूल को चुनने में देरी ही कितनी लगी होगी। झटपट
लौट आई। चांगड़ से एक पुल्ली शेल निकाला। सरतवाज के फूल तोड़े और चार-पांच हार ढिबरी
की रोशनी में गूंथ दिए।
सुबह
वही दिनचर्या थी। अम्मा उठी। आज का दिन तो पशुओं के नाम है। कामकाज निपटाया। पहले
छोटी बच्छिया खोली। उसे खूब हरा घास खिलाया। आंगन में गोबर से लिपाई की। उसके मध्य
आटे और हल्दी से छोटा-सा मंडप बनाया। फूल रखे, जूभ लाई। पिन्नियां तड़के ही बना थीं।
एक कड़छी में आग के अंगारे भरे और उस पर थोड़ा घी डाल दिया। धूप तैयार। बच्छिया को
खड़ा किया। उसके पांव धोये और धूप से पूजा की।
फिर
ओबरे में चली गई। हार बैलों और गाय के गले में पहना दिए। हल्दी और चावल का हल्का
पीला रंग गिलास में मुंह पर लगा सभी की पीठ पर छापे लगा दिए।
सजे-धजे
पशु सुंदर लग रहे थे। भेड़ों को जरूर ईर्ष्या हुई होगी। वे कनखियों से गाय-बैलों को
निहार रही थीं। अम्मा ने बहुत सारी आटे की पिन्नियां बनाई हुई थीं। उन्हें भी
एक-एक खिला दी। अनायास ही गीत के बोल मुंह से फूट पड़े..., “माल़ लगी गाईए...होऽऽमालो।”
गांव
से भी माल़ गाने की आवाजें आ रही थीं।
यादें
ताजा होने लगी। सभी साथ होते। पिता सबसे पहले गाय पूजते। गोशाला में बारी-बारी
सबके पांव धोते। पिन्नियां खिलाते जाते। और गांव के पशुओं के लिए भी पिन्नियां ले
जाते। शाम को खूब खाना-पीना होता। कई-कुछ पकता। आज न पति है न बेटा। बहू के लिए
माल़ काला अक्षर भैंस बराबर। यादों ने रुला दिया। अम्मा को। अब अम्मा ऐसे ही रोया
करती है उठते-बैठते, काम
करते। रोटियां पकाते। सोते और जागते।
***
*** *** ***
डाकिये
ने आवाज दी तो अम्मा चौकस हो गई। बोला, “काकी चिट्ठी है।”
गोशाला
से उल्टे पांव दौड़ गई।
अम्मा
को भला कौन लिखेगा चिट्ठी। बेटे ने तो कभी दी नहीं। बेटी ऐसे ही किसी आने-जाने
वाले के पास राजीबंदा भेज देती है। जरूर डाकिये को धोखा लगा है।
फिर
भी पूछ ही लिया,
“मेरी....?”
“हां काकी, तेरी ही है। देख तेरा ही नाम लिखा है, पर अम्मा कैसे पढ़े। डाकिए को ही कहती
है कि पढ़ कर सुना दे।
डाकिए
ने ही बताया था कि,
“काकी तुम्हारा बेटा आ रहा है....।”
चौंकी
थी अम्मा, “मेरा बेटा...?”
विश्वास
नहीं हो रहा था कि डाकिया सच बोल गया। हाथ में खुली चिट्ठी भगवान हो गई अम्मा के
लिए। जाते डाकिये को आवाज देना चाहती थी कि बहू नहीं आ रही है उसके साथ। पर वह
निकल गया।
कुछ
मायूस हो गई। वह आएगी भी क्यों। उसकी क्या लगती हूं मैं। वह तो शहरी मेम है। गांव
नहीं भाता। गोबर-मिट्टी से बास आती है। रसोई में धुंआ काटता है। लस्सी, खैरू नहीं खा सकती। घास-पत्ती नहीं काट
सकती। बैठने को कुर्सी नहीं है। घूमने को बाजार। खुले मे पाखाना नहीं कर
सकती...बेटे को भी मेम ही ब्याहणी थी। किसी शरीफ खानदान की लड़की लाता तो सुख से
रहता।...मत आए कोई। ज्यादा कटी, थोड़ी
रही। कितने दिन जीऊंगी। फिर मर्जी करें। जमीन-जगह रखें चाहे बेचें। मेरी बला से।
पर जब तक प्राण हैं चलाए रखूंगी। सह लूंगी सब कुछ।
***
*** *** ***
शनीचर
को देर रात आया था बेटा।
सड़क
गांव से बहुत दूर है। पैदल कोई सात मील चलना पड़ता है। बड़ी आस लिए थी अम्मा। बरसों
बाद मां-बेटा एक साथ खाएंगे।
बेटा
आया तो पहले सीधा अपने कमरे में चला गया। घर में एक कमरा उन्हीं के लिए बंद रहता
है। अम्मा ने कभी नहीं खोला। कपड़े बदल कर काफी देर बाद आया। अम्मा ने ढिबरी की लौ
और तेज कर ली थी। देखेगी कितना जवान हो गया है। कैसा लगता है। कमजोर तो नहीं हो
गया होगा?
कहीं
पीछे चली गई है अम्मा। छोटा-सा था। स्कूल से आता...बाहर बस्ता फेंकता......और सीधा
पीठ पर चढ़ जाता। हाथ भी नहीं धोता...रोटी खाने की जल्दी लगी रहती ...अम्मा आधी
रोटी और मक्खन देती ...खाकर गोद में सो जाया करता...।
अब
वह बड़ा हो गया है। साहब है ...आया तो पैरापावणा करके चुपचाप चूल्हे के पास बैठ
गया। अम्मा चाहती थी वह खूब गले लगे ...भरी आंखों से पूछे-क्या इतने दिनों मां याद
नहीं आई...। कुछ नहीं हुआ। ऐसा नहीं, मां रोई नहीं-भीतर-ही-भीतर...। बिना आंसुओं के रोना कोई मां से सीखे।
अम्मा
ने चाय दे दी। फिर हाथ धोने को पानी। वह मुकर गया। बोला, रोटी शहर से ही बांध रखी थी। बस से
उतरते ही खा ली।
उसके
लिए इतना कहना सीधा था। अम्मा पर क्या गुजरी होगी, कौन जाने? घुट कर रह गई। मानो बिजली टूट गई हो।
ऊपर कोई पहाड़ गिर गया हो। एक तूफान उठ गया भीतर। पर अम्मा आदी हो गई है। मन
आंधियों और तूफानों का ही तो घर है।
फिर
बेटे ने ही चुप्पी तोड़ी थी।
“मां सुबह चले जाना है। बहुत काम है।
नन्हें को अंग्रेजी स्कूल में दाखिला करवाना है। सिफारिश करवाई थी कुछ नहीं हुआ।
अब पूरे तीस हजार डोनेशन मांगते हैं।
अम्मा
की समझ में अधिक कुछ नहीं आया। पर वह भांप गई कि बेटा पैसे को आया है। फिर बोला,
“मां इस महीने पैसे नहीं दे सकूंगा।”
अम्मा
ने विश्वास दिलाया,
“तू फिक्र क्यों करता है। भगवान का दिया
मेरे पास बहुत है बेटा। तू अपना काम कर। अब के बाद भेजना ही मत। मेरा खर्च ही क्या
होता है।”
सांत्वना
दे गई अम्मा। लेकिन बेटे के मन में बात कहीं चुभ गई। कुछ नहीं बोला। चुपचाप बैठा
रहा। अम्मा भी कई पल चुप रही। बस चिमटे से चूल्हे में यूं ही आग खरोड़ती रही। इस
चुप्पी में कई सवाल छुपे थे। तरह-तरह के। फर्क इतना था अम्मा के पास जवाब हो सकते
हैं पर बेटा तो हर तरफ से खाली है। अम्मा ने जैसे उसका चेहरा पढ़ लिया हो।
“नींद लगी होगी बेटा तुझे। बिस्तर बिछा
आती हूं।”
कुछ
नहीं कह पाया वह। अम्मा उठ कर चली गई। बिस्तर झाड़ा, चादर बदली और नई रजाई निकाल कर रख दी।
कमरे को काफी देर तक निहारती रही...आश्चर्य हुआ। अपने ही घर का कमरा कितना अजनबी-सा
लगा था अम्मा को। मानो किसी अनजाने घर में पसर आई हो।
वह
भी उठ गया। थका हुआ-सा। कितना मुरझाया हुआ चेहरा है उसका। जैसे हजारों गम मन में
घर कर गए हों। चुपचाप कमरे में चला आया...हारा हुआ-सा। मन की बात भी न अम्मा से कह
पाया। पास रहते हुए भी कितना दूर हो गया है वह। सोचता रहा, कैसे जाएगा शहर। खाली हाथ लौटेगा तो
पत्नी टोक देगी। मां से पैसे नहीं लाए। कैसे फीस भरेगी। वह चालाक है। जानती है
बुढ़िया का खर्च कितना है। बेटा जो भेजता है उसे ऐसे ही रखती होगी। चार-पांच सालों
की रकम कम नहीं होती। मिल जाए तो क्या हर्ज है।
कमरे
में बहुत देर बैठा रहा था वह। बेचैन। खामोश।
अम्मा
ने कुछ भी नहीं खाया। कैसे खाती। बेटा इतने दिनों बाद आया भी तो शहर से रोटियां ले
कर। पकाई रोटियां उसी तरह ढंक दी। बीड़ी भी नहीं सुलगाई। अम्मा की चुप्पी फिर
बिल्लियां तोड़ गईं।
काली चुपचाप चूल्हे के सेंक में घुर्राने लगी
और निक्की अम्मा की गोदी में चढ़ कर गला चाटने लग गई। अम्मा जानती है जब उन्हें
शिकार नहीं मिलता, दूध
के लिए यह दुलार ऐसे ही चलता है। अम्मा ने उसे दाएं हाथ से पकड़े रखा और बांए से
बाल्टी से दूध उनके बर्तन में उड़ेल दिया। खूब सारा। दोनों छप्प-छप्प पीने लग गई।
पहले से ज्यादा दूध उड़ेल गई अम्मा।
***
*** *** ***
आज
हर तरफ अजीब-सा सन्नाटा है। अम्मा का किसी के साथ कोई झगड़ा नहीं है। बिल्लियां फिर
पास आ जाती हैं। दोनों ही गोदी में चढ़ गई हैं। उन्हें अम्मा का स्नेह और चूल्हे का
सेंक अपूर्व आनंद देता है। अम्मा उन्हें खूब प्यार करती है। खूब सहलाती हैं। आज तो
जैसे स्नेह के अंबार लग गए हैं। बच्चों की तरह उन्हें अपनी छाती में भींच लिया है।
तुतलाती जुबान में पता नहीं उन्हें क्या-क्या कहती जा रही है।... बिल्लियां समझती
होंगी अम्मा की जुबान। वह जितना बड़बड़ाती है, बिल्लियां उतना ही प्यार अम्मा से करती
जाती हैं। अम्मा से बतियाने लगती हैं। म्याऊं...म्याऊं...घुर्ड...घुर्ड...घुर्ड।
उधर
बेटे से कमरे में रहा नहीं गया तो हिम्मत बटोर कर रसोई तक चला आया। दरवाजा बंद था।
अम्मा रसोई का दरवाजा बंद कर लिया करती है। बेटे को भ्रम हुआ अम्मा के साथ कोई दूसरा
आदमी बातें कर रहा है। ऐसी रात कौन हो सकता है। आगे बढ़ा और झुक कर दरवाज के पोरों
में से भीतर झांका। सभी कुछ देख गया। भूल गया कि वह अम्मा से पैसे लेने आया है।
उसे लगा वह यहीं गांव में रहता है। जैसे अम्मा की गोदी में बिल्लियां नहीं, वह स्वयं है। अम्मा उसे दुलार रही है।
बालों को सहला रही है। उसका संपूर्ण वात्सल्य उमड़ आया। वह बचपन के क्षणों को फिर
जीना चाहता है। अम्मा के पास बैठ कर। अम्मा की गोदी में सिर रख कर। चाहता है पहले
जैसा अम्मा उसे डांटे। झगड़ा करे। वह अपना यह अधिकार इन जानवरों को कभी नहीं
देगा... कभी नहीं।
दरवाजा
खोलना चाहता था पर रुक गया। मन में एकाएक प्रश्न उठा,
“कि क्या वह इस योग्य है। इस स्नेह के काबिल है?”
तभी
अम्मा ने भीतर से टोका।
“सो जा बेटा... सुबह जाना है न।“
अम्मा
ने आहटें पढ़ लीं। कैसे देखा इस घुप्प अंधेरे में उसे। वह तो दबे पांव आया था। वह अचंभित
रह गया। कुछ कहता, उससे पहले ही अम्मा ने फिर कहा, “तेरे सिरहाने पैसे रख दिए हैं बेटा।
लेते जाना। तेरे काम आएंगे।“
”पैसे...?“
अम्मा
को किसने बताया कि मैं शहर से पैसे के लिए आया हूं। कैसे पढ़ ली मन की बात। पर इस
समय इसका तो ख्याल भी न रहा था उसे?
मन
किया जोर से चीखे। रोए। चिल्लाए। कहे कि मुझे अम्मा तुम्हारा प्यार चाहिए। पैसे
नहीं...। मन की चीख-पुकार मन ही में घुट कर रह गई। जुबान ही जैसे बंद हो गई हो। वह
न कुछ सुन सकता है और न कुछ बोल सकता है। अंधेरे की परतों ने जैसे उसे पूरी तरह से
जकड़ लिया हो। पांव जीवन में धंस गए हों। उसे नहीं पता वह ऊपर है या कि नीचे। धरती
पर है या आसमान पर। खड़ा है या कि बैठा हुआ।
अम्मा
फिर बिल्लियों के साथ बतियाने लगी है। जैसे उसे कुछ पता ही नहीं कि उसका बेटा
दरवाजे के बाहर खड़ा है।
वह उल्टे
पांव लौट आया था। सिरहाने देखा एक पुराने रुमाल में चार सालों के पैसे बंधे
हैं।... आंखें बरस आईं। आज हिसाब पूरा हो गया।
अम्मा
की बिल्लियों से बतियाने की आवाजें अभी भी उसके कानों में पड़ रही थीं।
सम्पर्क-
मोबाईल
- 098165 66611
ई
मेलः harnot1955@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)
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