रामजी तिवारी की कविताएँ और उनके कविता संग्रह पर सोनी पाण्डेय की समीक्षा



रामजी तिवारी

रामजी तिवारी का दखल प्रकाशन से हाल ही में पहला कविता संग्रह ‘अंधेरे समय का आदमी’ प्रकाशित हुआ है. इस संग्रह की एक समीक्षा की है युवा कवयित्री सोनी पाण्डेय ने. सोनी द्वारा लिखी गयी यह पहली समीक्षा है. समीक्षा के साथ-साथ इसी संग्रह से रामजी तिवारी की चुनिन्दा कविताएँ आपके लिए प्रस्तुत है. तो आइए पहले पढ़ते हैं रामजी की कविताएँ और फिर सोनी पाण्डेय की समीक्षा.  

रामजी तिवारी की कविताएँ 

नालायक
 
मैं नालायक हूँ
और यह मेरा अपना चुनाव है,
अब लायक होने की शर्तें
इतनी नालायक हैं
कि नालायक बनने में ही
आदमी का बचाव है

नहीं जानता
कि नालायक कब से हूँ,
डाक्टर बनने के बाद
आदिवासी इलाके को
कार्यक्षेत्र के रूप में चुनने पर
पिता ने नवाजा था
शायद तब से हूँ

‘पिता समझदार हैं’
माँ ने इस पर आजीवन संदेह रखा,
लेकिन इस चला-चली की बेला में
पहली बार उनकी नवाजिश पर नेह रखा
जब गाँव की रामरती चाची
माँ से लिए गए कर्जे को
तीन साल में तीन गुना लौटाने आयीं थीं,
और मैंने सिर्फ मूलधन लेने वाली बात सुझाई थी

घर में घोषित नालायकी को
मेरे गाँव ने उस समय रुई जैसा धुना था,
जब उस बीहड़ इलाके की
इकलौती आदिवासी शिक्षिका को
मैंने अपना जीवन साथी चुना था

मेरी नालायकी से
परिवार कभी सुखी नहीं हुआ,
यह और बात है
जिस पर मैं कभी दुखी नहीं हुआ
उस समय भी नहीं
जब मेरे बेटे की
डाक्टर वाली ईच्छा अधूरी रही, 
मैं वह डोनेशन नहीं जुटा सका
मेरी मजबूरी रही
तब मेरे बेटे ने
अपने दोस्तों से कहा था,
‘मेरे दादा-दादी ठीक ही कहा करते थे
सचमुच उन्होंने एक नालायक को सहा था

मित्रों
चाहा तो मुझे भी गया था
लायक ही बनाना,
कि बीच रास्ते यह ‘समझ’ आ गयी
जिसने लिख दिया इस माथे पर
नालायकी का यह तराना

मुखौटे

मुखौटे तब मेले में बिकते,
राक्षसों और जानवरों के अधिकतर
होते जो भारी, उबड़ खाबड़
और बहुत कम देर टिकते |

पहनते हम शर्माते हुए,
तुम फला हो न ?
कोई भी पहचान लेता
तब गड़ जाते लजाते हुए
मुखौटा और भारी हो जाता,
हम उतार फेंकते
शर्म जब तारी हो जाता

मुखौटे
अब बाजार में बिकते हैं,
जब चाहें खरीद लें
जैसे चाहें पहन लें
और बहुत देर टिकते हैं
इतने सुगढ़,
इतने वास्तविक,
इतने हलके
कोई जान न पाए,
औरों की क्या कहें?
आदमी तो कभी-कभी
अपने को भी पहचान न पाए

मुखौटे
अब हर चीज के होते हैं,
दुनिया चौंधिया जाए
ऐसा मंजर बोते हैं
कल दुकानवाला कह रहा था
हमारा हुनर तो देखते जाइए,
मैं भेड़िये को भी
गाँधी बना सकता हूँ 
अपनी पसंद तो बताईए

अब
आँखों की चुकती हुयी रोशनी
दिनों-दिन बढ़ता यह प्रदूषण
और इतनी उन्नत किस्में
मुखौटों की
सोचकर ही रूह कांपती है,
यह चारा है
या मुखौटा ओढ़े कोई बंशी
जो मुझे भी नाथ देना चाहती है

मोल-भाव

कहाँ है बच कर निकलना
कहाँ करना है मोलभाव,
जीवन की विसात पर
सोच समझ कर धरना है पाँव

कितना बचेगा
रिक्शेवाले की पीठ पर
उभरी नसों को थोड़ा कम आँक कर,
ठेले वाले के पसीने में
अपने उभरे अक्स को
थोड़ा कम झांक कर

कितना बचेगा
पांच लौकी और दस किलो तरोई लेकर
सड़क के किनारे बैठने वाले से भाव तुड़ा कर,
छाया के लिए दिन में तीन बार
जगह बदलने वाले मोची से
पालिश में दो-चार रूपया छुड़ा कर

कितना बचेगा
प्रेस करने वाले से
पचास पैसा प्रति कपड़ा कम करा कर,
और चौका-बर्तन करने वाली की पगार से
पचास रूपया महीना कम करा कर

उन सबसे
जो सब्जी में नमक भर कमाते हैं,
और उसी में
अपने परिवार की गाड़ी चलाते हैं

नहीं-नहीं
मैं अफरात के नहीं लुटाता हूँ,
वरन मैं तो
बचाने का हर नुस्खा जुटाता हूँ

मसलन धनतेरस में
यदि मैं तनिष्क वाले से बच गया,
पिज्जा और मैकडोनाल्ड की जगह
सप्ताहांत घर में ही जँच गया
मैं यदि बच गया नवरात्र में
पुजारियों के जाल से,
बारह महीने में
चौबीस भखौतियों के भौंजाल से
शहर के हर कार्नर वाले प्लाट पर
लार टपकाने से,
और एक दूसरे को कुचल कर
बेतरह भाग रहे जमाने से

तो खुला रख सकता हूँ
दस-बीस जरुरत वाले
हाथों के सामने
आजीवन अपना हाथ,
और हिसाब लगाने पर पाउँगा
कि अंततः फायदे ने ही
दिया है मेरा साथ ... 
                      
औरतें
हम पुरुषों को
औरतें ही देती हैं आकार,
उन्हीं की नज़रों में चढ़ कर
हम पैदा होते हैं
आदमी के रूप में पहली बार

हमारे भीतर उतर कर
साफ़ करती हैं वे जालों को,
जहाँ से हम अब तक चलते रहें हैं
पशुओं जैसी चालों को

‘हम आदमी हैं’ वाला सम्मान
हमने तब सुना था,
जब स्कूल में शाम ढलने पर
उस अनबोली सहपाठिन ने
घर छोड़ने के लिए
तमाम परिचितों के बीच से
हमें चुना था

जब ट्रेन की सहयात्री साथिन ने
देखा था मुझमें अपना भाई,
और बस की अनजानी साथिन ने
बगल की सीट पर आराम से यात्रा कर
दी थी मुझे बधाई

जब मेरी भार्या
मेरे हर उठे हुए हाथ पर मुस्कुराती है,
यह सिजदा या आमंत्रण में होगा
सोच कर शर्माती है

सच मानिए
मैं इसलिए नहीं पखारता
विदा होती बहन के पैरों को
कि बचा रहे मेरा वैभव,
वरन इसलिए कि उसे छूकर
मैं पवित्र करता हूँ अपना गौरव

फिर वे कौन हैं
जो आदमी बनने के लिए
औरतों से दूर भागा करते हैं,
क्या वे अपने भीतर की पशुता से
इतना डरते हैं ...?

उन्हें बताईए कि
सफाई पसंद होती हैं औरतें
रखतीं चौकस हमेशा नजरें,
कौन जानता है
भला उनसे बेहतर
गंदगी के होते कितने खतरे

तभी तो लगाता हूँ
उनसे मैं गुहार,
कि आओ मेरी साथिनों
मुझे आदमी बनाओ
तुमसे है मनुहार

बड़की अम्मा
बड़की अम्मा
रहतीं हमेशा हाथ जोड़े
भखौती के लिए,
गोया दो हाथ
और मिलना चाहिए था
उन्हें मनौती के लिए

किसी बीमार के लिए करनी हो दुआ,
किसी को गंतव्य पर पहुँचना हुआ
कोई हो जाए परीक्षा में पास,
कोई रोजी-रोटी के लिए
रहे न उदास
जैसी अनेक भखौतियों के
उनके पास अरमान थे,
कोई घालमेल न हो
इसलिए हर-एक के लिए
अलग-अलग भगवान् थे

हिन्दू होने के नाते
भगवानों का टोटा
तो कभी नहीं था उनके पास,
वे लगभग बराबर ही थे
जितनी कि जीवन में
मिली थी उन्हें साँस

मगर उन्हें तो मांगनी थी भखौतियाँ
गाँव-जवार के लिए भी,
अपने घर के साथ
मित्र-रिश्तेदार के लिए भी

कुछ जिद्दी परेशानियां जब नहीं सुलझती,
तब बड़की अम्मा उन्हें लेकर
अल्लाह के दरवाजे पर पहुंचती

किसी ने ताज़िया में पायक बन कर
किया हसन-हुसैन का आदर,
किसी ने चढ़ाया मलीदा
तो किसी ने चादर

बड़की अम्मा की भखौती
फूलती रही फलती रही,
हमारे बीच के पुल से
भगवानों की आवाजाही भी चलती रही

कि एक दिन काल
उनके फेफड़े में बैठ गया,
वह तब निकला
जब उन्हें ऐंठ गया

इस बीच विचलित हुआ हमारा ध्यान
और पुल में आ गयी दरार,
अभी संभल भी नहीं पाए थे
कि टूटकर गिरने लगे अरार

बंद हो गयी भखौतियों के
बीच की आवाजाही भी,
लग गयी भगवानो के
आने जाने पर मनाही भी

सोचता हूँ
इस जनम में 
बड़की अम्मा कहाँ होंगी,
हमारी तरफ ही
या वहाँ होंगी

नहीं-नहीं
उनके पास तो
बचा हुआ था ईमान,
सच मानिए  
वे हर जनम में पैदा होंगी
बतौर इंसान

 

अंधेरे समय का आदमी : लोक अनुभूतियोँ का सहज चित्रण

सोनी पाण्डेय

कविता मनुष्यता की पहचान है। कविता लेखन के लिए कवि का केवल चिन्तनशील होना आवश्यक नहीँ वरन उसका ज़मीन से जुड़ा होना नितान्त आवश्यक है। कवि पहले स्वयं जीता है और इसी क्रम में संघर्ष पथ पर चलते हुए अपने परिवेश के यथार्थ को महसूस करता है। टूटता है तो कई बार तोडा जाता है और इस टूटने-जुडने की प्रक्रिया से कविता जन्म लेती है। "कविता मनुष्य की संवेदनात्मक लय है" समझाते हुए आलोचक पंकज गौतम जी ने एक बार कहा था  -"कविता का शिल्प गौण है कथ्य प्रमुख, यदि कवि की पकड अपने समय की संवेदनात्मक अनुभूतियोँ पर है तो कविता बनेगी और अपने समय का प्रतिनिधित्व भी करेगी।" "अंधेरे समय का आदमी " रामजी तिवारी का पहला कविता संग्रह है जिसमेँ संकलित कविताऐँ कहीँ व्यक्तिगत तो कही सार्वभौमिक तथ्यों को समेटती अपने शीर्षक की सार्थकता को सिद्ध करती हैं। रामजी तिवारी की चिन्तन दृष्टि ये पंक्तियाँ स्पष्ट कर रही हैँ -

कुचल दिये जाते हैँ
बायेँ चलने वाले जिस दौर मेँ,
बचा लिए जाते हैँ
बीचो-बीच चलने वाले
उसी ठौर मेँ।

कवि की कविताओँ का लोक उसकी मूर्त चेतना का लोक है। पूरे संग्रह की कविताओँ मेँ कहीँ अमूर्तन दिखाई नहीँ देता। कवि सजग है अपने समय की छद्म विद्रूपताओं से, "अर्जी" शीर्षक कविता मेँ लिखता है

आदमी को अटल रहना चाहिए
अपने निर्णयोँ पर
मैँ इसके हाथ नहीँ आऊँगा
क्योँकि भविष्य मेँ
सब कुछ ऊपर ले जाने वाली अर्जी
मंजूर हो गयी
तब तो मैँ इन मूर्खोँ जैसा
हाथ मलता रह जाऊँगा।

रामजी तिवारी अपने समय का आकलन स्वानुभूतियोँ की कसौटी पर करते हैँ। आज के मशीनी युग मेँ परिवार हो या समाज व्यक्ति किसी को संतुष्ट नहीँ कर सकता और हर किसी की आँखोँ मेँ असंतोष भाव को सहज देख सकता है। "नालायक" कविता मेँ कवि कहता है -

मैँ नालायक हूँ
और ये मेरा अपना चुनाव है
अब लायक होने की शर्तेँ
इतनी नालायक हैँ
कि नालायक बनने मेँ ही
आदमी का बचाव है।

आगे इसी कविता मेँ अपने गाँव की सामाजिक स्थिति को रुई की धुनिया का बिम्ब उठा कर साकार चित्र उकेरता है कि -

घर मेँ घोषित नालायकी को
मेरे गाँव ने उस समय रुई जैसा धुना था
जब उस बीहड़ इलाके की
इकलौती आदिवासी शिक्षिका को
मैँने अपना जीवन साथी चुना था।

आज के दौर को मुखौटोँ का दौर कहना अतिश्योक्ति नहीँ होगी। हमारे चारोँ तरफ हर चेहरे पर चेहरा चढा हुआ है। कवि अपने बचपन मेँ झांकता है तो पाता है कि वह समय आज जितना जटिल नहीँ था। लोगोँ को पहचानना आज इतना कठिन नहीँ था। वर्षोँ का अर्जित विश्वास एक क्षण मेँ गवां बैठते है आदमी क्योँकि आदमी के भीतर का आदमी आज घोर अवसरवादी है, उसके अन्दर कितनी हसरतेँ एक साथ पल रही हैँ इसे भौतिकता की आँधी मेँ देख पाना सम्भव नहीँ। कवि लिखता है

मुखौटे
अब बाजार मेँ बिकते हैँ
जब चाहेँ खरीद लेँ
जैसे चाहेँ पहन लेँ
और बहुत देर टिकते हैँ
इतने सुगढ़
इतने वास्तविक
इतने हल्के
कोई जान न पाए
औरोँ की क्या कहेँ?
आदमी तो कभी-कभी
अपनोँ को भी पहचान न पाए।

इस संग्रह की स्त्री विषयक कविताऐँ बेजोड़ हैँ। रामजी तिवारी बडी बेबाकी से लिखते हैँ कि -

मर्द के जीवन मेँ औरत
एक नाड़ा है
जो यदि खुल जाए
तो वह नंगा हो जाए।

रामजी तिवारी लोक के कवि हैँ। वह लोक जहाँ कवि ने औरतोँ की करुणा से परिपूर्ण ममतामयी रुप को देखा था। ‘बडकी अम्मा’ कविता मेँ कवि हमारे लोक की भोली-भाली स्त्री को रेखांकित करता है

बड़की अम्मा
रहतीँ हमेशा हाथ जोड़े
भखौती के लिए,
गोया दो हाथ
और मिलना चाहिए था
उन्हेँ मनौती के लिए।

‘बडकी अम्मा’ कविता मेँ कवि ने लोक के साम्यवादी व्यवस्था को कैसे ये अनपढ औरतोँ गढती हैँ, बडी सहजता से व्यक्त किया है। ‘बडकी अम्मा’ के हाथ केवल परिवार के लिए नही पूरे ग्राम समाज के लिए उठतें हैं और जब अपने देवता कम पड जाते हैँ तो पीर, पैगम्बरोँ तक पहुँच जाते हैँ। बडकी अम्मा का चरित्र उस ग्रामीण स्त्री का प्रतिनिधित्व करता है जो अन्त तक पूरे परिवार को बाँधे रखने का भरपूर यत्न करती है। बिल्कुल प्रेमचन्द की कहानी बडे घर की बेटी की तरह।

रामजी तिवारी की भाषा सहज और सरल है। कविताओं में देशज शब्दोँ का प्रयोग कवि के जमीनी होने का साक्ष्य सहज प्रस्तुत कर जाता है। तरकारी, अरुआने, भखौती जैसे आँचलिक शब्द कविता मेँ सहजता से आए हैं और भाषा की यह सरलता पाठक को सीधे-सीधे कविता से जोडती है । कथ्य पूरे संग्रह का मजबूत है जो समकालीन कविता की पहली शर्त मानवीय सरोकारोँ से जुडाव को पूरा करता है। शिल्प, भाषा, लय और छन्द पर बात कर मैँ कविता के मूल तथ्य भाव से भटकना नहीँ चाहती। इसलिए अन्य लोगोँ पर छोडती हूँ रामजी तिवारी की इन पंक्तियोँ के साथ।

आखिर मानव जाति
कब तक रहेगी सोती?
होने वाली है सुबह
क्योँ कि कोई भी रात
इतनी लम्बी नहीँ होती।

सोनी पाण्डेय






सम्पर्क-
रामजी तिवारी
मोबाईल- 09450546312

सोनी पाण्डेय
ई-मेल - pandeysoni.azh@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. आपकी समीक्षा कहीं से भी पहली बार की लिखी नहीं लग रही है सोनी मैम,
    एक कवयित्री के तौर पर आपको हमेशा से ही पढता रहा हूँ
    पर आपकी ये नई भूमिका आश्चर्य में डालती है आपने राम जी सर की कविताओ के प्राणतत्व निकल लिए है
    कविताओ के जिन बिन्दुओ पर चर्चा होनी चाहिए थी वह बिंदु अपने खोज कर सजग पाठको का काम आसान कर दिया है
    कहना चाहूँगा कि मुझे आपकी यह समीक्षा बेहद पसन्द आई

    बाकि राम जी सर तो बेजोड़ है
    उनकी छोटी कविताये विशेष रूप से पसन्द आई......

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  2. उन सबसे
    जो सब्जी में नमक भर कमाते हैं,...... ....जितना सहज उतना ही अनदेखा रह जाने वाला सच.. बेहतरीन कवितायेँ. हमारी जानी पहचानी ज़मीन पर ही खड़ी होकर उसे कुरेदती हुयी.. वीरू से इत्तेफ़ाक रखती हूँ सोनी.. आपने अपने कवि-मन की चलनी से चाल कर इतनी सहज कविताई का सत् निकला है.. लगता ही नहीं पहली बार समीक्षा की हो.. बधाई.. Ramji Tiwari जी को बधाई.. 'पहली बार' का आभार..

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  3. आज पता चला इतना सुंदर लिखते है रामजी भाई...गजब

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  4. कविताएँ सोचने पर मजबूर कर देती हैं। अपनी ज़मीं से जुड़ी और समय के साथ चलती इन कविताओं की एक अलग सी शैली है। सरल और सहज भाषा में लिखी इस संग्रह में सभी कविताएँ बढ़िया है

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  5. सटीक समीक्षा और सुन्दर कविताएँ

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  6. Duniya mein jb 80% logon ka jivan Bijli pani Roti kapda makaan jaise moolbhoot zaroorton ka sanghrsh matra hai...jisme koi chmtkaar nhi. Phir kavitaon kalaa mein chounkaane vali jise adbhut kaha jata hai, ki apeksha kyun. Chand Nkshtron Ki aalochna se pare yah kavitai seedhe dil mein utrti hai. Kavita ke chaaro ttv inke yahan par svbhavik roop se aate hain... Khaaskr Bhaav aur Shaily. Inka poora sangrh padha ...Raamji bhai aapka dhanyavaad!! Santosh bhai aapka aabhaar. Soney pandey ji aapne achchhi parichaytmk sameeksha likhi hai. Likhte rahen...Shubhkaamna!!

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