निलय उपाध्याय का यात्रा संस्मरण 'हरिद्वार : गंगा का सबसे पुराना बाजार है'
कवि
निलय उपाध्याय पिछले वर्ष गंगा यात्रा पर थे। गंगोत्री से गंगासागर की यह पूरी यात्रा
उन्होंने सायकिल से पूरी की। निलय उपाध्याय ने इस यात्रा को अब शब्दों में ढालना
शुरू किया है। अनहद-5 में हरिद्वार के संदर्भ में लिखा गया उनका यह संमरण पाठकों
के बीच काफी सराहा जा रहा है। इस संस्मरण में निलय ने सत्ता, धर्म और पूंजीपतियों
के गठबंधन पर एक नजर डाली है। गंगा जिसे हम माँ कहते नहीं अघाते, हमारे विकृत सोच
के चलते मृतप्राय हो चली है। गंगा की इस
दुर्गति और हकीकत जानने के लिए पढ़िए निलय उपाध्याय का यह महत्वपूर्ण संस्मरण।
हरिद्वार : गंगा का सबसे पुराना बाजार है
निलय उपाध्याय
इतिहास के मुख्य दवार परखडे
एक आदमी ने, जो वर्तमान था
मुझे रोक कर पूछा-
गंगा चाहिए
लेना हो तो जल्दी बोलो
बहुत कम बची है?
मैं जहा खड़ा था
बहुत खूबसूरत बाजार था
चारो ओर सजी थी दुकाने
इतिहास की,
धर्म की, संस्कृति की
और जाने कितनी दुकाने
सबसे बडी थी दुकान
वहां अपराध की
उसके बराबर थी धर्म की
सुना दोनों का मालिक एक है
कोई कान में पूछता
कोई चिल्ला कर
कोई गुण बताकर पूछ्ता
कोई सुन्दरता का हवाला देकर
पहाड से किसी ताजी सब्जी की तरह
अभी अभी उतरी थी
जमीन पर गंगा
मचा था शोर,घिरी थी
खरीदने बेचने वालो के बीच
कोई छूकर देखता कोई हाथ में लेकर
हरिद्वार
गंगा का सबसे पुराना बाजार है
हरिद्वार में नन्दी जी के साथ रूका था।
लौट कर भी वहीं जाना था, जाते समय किए गए वादे के तहत
मातृ सदन भी जाना था। जब से पता चला कि स्वामी निगमानंद की हत्या की गई है तब से
मन जैसे वहां अंटक गया था।
पर्वत की घाटियों के बीच अठाईस दिन तक जिस मनोरम शान्त माहौल और हिमालय की हवाओं से
निकल कर आया था, लग रहा था जैसे मेरा मन कही उधर ही छूट गया हो।
इस बार यह हरिद्वार विलकुल अलग सा लगा।
मेरे पास कुछ योजनाए थी जिसे मैं हरिद्वार में रूक कर
पूरा करना चाहता था। मुझे कुछ जानकारियां चाहिए थी और इतने दिनों की यात्रा में
जानने का तरीका भी विकसित हो चुका था। मैं समझ गया था कि पंडितो की आदत है पहले
कथा सुनाऎगे फ़िर अपनी बात कहेंगे। यह कला तो अभिव्यकित के लिए दमदार है, मेरे लिए
भी अनुकरणीय है पर देर तक झेला नही जा सकता। जब मैं बता देता कि सारे पुराण पढ
चुका हूं, कथा मत बताईए तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं बच जाता।
अब कोई ऐसा नहीं मिला जिससे बात की जा सके।
ऊपर जो सन्यासी मिले, उनमे ज्ञान न था पर मनुष्यता
थी। ऋषिकेश में कई जगह गया था, मन न रमा। श्रीराम शर्मा आचार्य के आश्रम जा कर और
घृणा से भर गया।
उपर से लोगो की इतनी भीड़, ये कौन सा समाज है।
इतनी अंध श्रद्दा क्यो है?
जहां गया जिससे मिला दुकाने ही दुकानें दिखीं।
खिन्न मन से धर्मशाला में आया और सो गया। रात में
खाना खाने की इच्छा नहीं हुई। अगली सुवह मेरी नीद सवेरे खुल गई। इन दिनो अगर नींद
सवेरे खुल जाय तो फ़िर नहीं आती। कल की एक एक बाते आई तो मन बैठ गया। मुझे यहां
पीछे की कई बाते सुलझानी थी।
अब तक जितने मंदिर मिले सब हरिद्वार के किसी न किसी
मठ से जुडे थे।
यह एक अलग तरह का सम्राज्य था। इसके अलावे ईश्वर को
समझना था। यह मुझे पता चल गया था कि काशी से बडा केन्द्र हरिद्वार है। यहां तो
बकायदा धर्म की सेना है।
अनमना सा
डायरी खोल कर अब तक मिले लोक देवताओ की सूची बनाई।
उनके चरित्र और कथानक को देखा पहली बार ऐसा लगा जैसे
भक से उजाला सा हुआ। समझ गया कि हरिद्वार और ऋषिकेश में इस अमृत का घड़ा छलकाने
वाले तो शंकराचार्य है। मन ही मन इस जगह को मैं काल के हिसाब से विभाजित किया।
क्या शंकराचार्य से पहले की गंगा विशुद्ध नदी थी। क्या
शंकराचार्य के बाद गंगा के कन्धों पर पुराणों और मोक्ष का बोझ लादा गया जिसे वह आज
तक ढो रही है। अंग्रेजों के आने के बाद की गंगा जल को संसाधन बना दिया गया। ये
सूत्र खुल जाने के बाद मन कुछ हल्का हुआ और लगा कि ये हमारी पडताल के बिन्दु है। समझ
में अच्छी तरह आ गया था कि गंगा के तट पर संस्कृतियो के दो बड़े युद्ध हुए हैं जिसमे गंगा पराजित हुई है, उसके
असर और परिणाम दिखाई दे रहे थे। अब जितने कारण गिनाए जा रहे है, वे सब छल है, कमाई
के पेंच है।
हरिद्वार में जाने कितनी कथाओं की जमीन है। ये कथानक
कैसे विकसित हुए, कब विकसित हुए इसका विकास कैसे हुआ। इस पर बात चलती रही। वहां
शंकराचार्य पर एक किताब मिली जिसमें उस वक्त की चर्चा थी जब शंकराचार्य आए थे।
उस किताब मे हरिद्वार की कोई खास बात नहीं मिली पर यह
पता चला कि हरिद्वार में कुछ दिन तक अपने शिष्यों के साथ निवास करने के बाद जव वे
ऋषिकेश पहुंचे तो पता चला कि वहां ऋषियों ने यज्ञेश्वर की एक मूर्ति की स्थापना की
थी और उसी की पूजा अर्चना वहां होती थी। आचार्य ने विष्णु मंदिर को देखा परन्तु
मूर्ति को न देखकर क्षोभ हुआ। लोगों के मुंह से सुना कि वहां चीन के डाकूओ का
उपद्रव था, लोगों ने डर के मारे मूर्ति गंगा के पेट छिपा दी थी। बाद में गंगा की
धारा में पता नहीं किधर बह गयी, खोजने पर उसका पता नहीं चला। शंकराचार्य शिष्यों
के साथ गंगा तीर पर घूमते रहे। अंत में हरिद्वार में उन्होने एक स्थान बताया और वह
प्रतिमा मिल गई। एक बडे समारोह में उस मूर्ति की स्थापना की गई। इसके सहारे अनुमान
किया कि जब डकैतो के डर से मूर्ति छुपाई जाती हो तो वहां का माहौल कैसा होगा। यानी
ये तमाम कथाएँ उसके बाद की हैं।
उसी किताब में बिलकुल यहीं उदाहरण दुबारा मिला, जब
शंकराचार्य बदरिकाश्रम गए। वहां पहले नर बलि की प्रथा थी। तांत्रिक पूजा का उग्र
रूप वहां विद्यमान था। यहां भी उनको पता चला कि प्रधान मंदिर में नर नारायण की
मूर्ति नहीं है और कारण वही चीन के डकैत थे, यहां इस बात का उल्लेख है कि
पुजारियों ने उस मुर्ति को नारद कुंड में फ़ेक दिया था जो बाद में खोजने पर नहीं
मिली।
इस पर आचार्य ने नारद कुंड में स्वयं उतर कर मूर्ति खोजने
का प्रस्ताव दिया। पुजारियो ने समझाया कि नीचे-नीचे इस कुंड का संबंध अलकनंदा के
साथ है। यहां उतरने पर प्राण हानि का भय है।
आचार्य उनकी बात न मानकर उस कुंड में उतरे। उनके हाथ
में वह मूर्ति लग गई। बाहर निकलने पर देखा कि यह पद्मासन में बैठे चार भुजा वाले विष्णु
की मूर्ति है परन्तु वह मूर्ति का दाहिना कोना टूटा हुआ है।
आचार्य ने विचार किया कि बद्री नारायण की मूर्ति कभी
खंडित नहीं हो सकती।
उन्होने मूर्ति को वापस गंगा में फ़ेंक दिया और इस तरह
तीसरी बार जब वहीं मूर्ति निकली तो आकाशवाणी हुई कि कलियुग में इसी मूर्ति की पूजा
होनी चाहिए। उन्होने वैदिक पद्धति से उसकी स्थापना की और अपने सजातीय नंबूदरीपाद
ब्राहमणों को उसकी पूजा के लिए नियुक्त कर दिया।
यहां भी यह बात समझ में आ जाती है कि ये सारी कथाएं
उसके बाद की हैं और कमाई के चक्कर में शंकराचार्य के चेलों के द्वारा समय समय पर
चिपकाई हुई हैं। मुझे लगा कि यहां गली गली में पसरे अनगिन कथानको में समय बिताना बेकार है. मेरी तलाश
दूसरी है।
सोचा सुबह सुबह
ऋषिकेश में गंगा का तट पकड कर चलूँ।
एक छोर से चलूँ, दूसरी ओर से आटो पकड कर आ जाउंगा। जो
पुल हरिद्वार और ऋषिकेश को जोडता था वहां से अपनी यात्रा सुबह सुबह आरम्भ की। राह
में शौच करते लोग, गधो पर पत्थर ढोते लोग, कुछ दयनीय से साधुओ कें झोपडे और कहीं
आश्रम के महल और अंत में बीस मिनट चलने के बाद मेरा मार्ग अवरूद्ध हो गया तो मन भी
बदल गया। वहां से सामान उठा कर ऋषिकेश से हरिद्वार निकल गया।
हरिद्वार में नन्दी भाई के अलावे दीपक घई, अनिल और कई
लोग मेरे आने का तीब्रता से इंतजार कर रहे थे। पैदल आने की थकान भी थी। पीठ पर वजन
था और कमर में दर्द का अहसास हो रहा था। मेरे पास जो पैसे थे खत्म हो गए थे और अब
मुझे लग रहा था कि ए टी एम कार्ड न ले जाकर गलती की। वहां आते ही पता चला कि नन्दी
जी एकाउंट में उसी पत्नी ने पैसा डाल दिया है तो थोड़ी राहत मिली।
हरिद्वार का काम टुकडो में आरम्भ हुआ।
भ्रमण भी चलता रहा। रिश्तेदारियां भी चलती रही। मगर
हर जगह कुछ ना कुछ अनोखा और अनुपम सा मिलता चला गया। किसी के यहां जाकर नाश्ता
करना, किसी के यहां खाना खा लेना। अभी आगे मेरी बहुत लंबी यात्रा थी, उसका नक्शा
भी देखना था, कम से कम कन्नौज तक की यात्रा का प्लान करना था लेकिन मेरे दिमाग में
एक बात जाने कब से हलचल मचा रही थी।
जब मैं टिहरी था तो यह घटना हुई थी।
एक आदमी अपनी औरत को डांट रहा था क्योकि प्यास लगने
पर उसने भगीरथी का जल पी लिया था और उल्टी कर रही थी। इसके अलावे राह में कई जगह
मरे हुए जानवर दिखे, कई जगह पानी की सतह पर एक गंदी परत भी दिखी जो पिछली आपदा की
थी। सोचा क्यों ना पानी की जांच कराऊँ और पता करूं कि इतनी जगहों पर बंधने के बाद
शुद्धता के पैमाने पर कितना खरा है। गंगा के पानी की गुण वत्ता क्या है। बिजली की
चक्की चलाने के बाद और अपनी मिट्टी बांध में छोड कर आने के बाद पानी में चरित्र
में आखिर क्या फ़र्क आता है।
मित्रों से कहा कि मैं गंगा के जल का माईक्रो
बायलोजिकल टेस्ट कराना चाहता हूं।
मेरी बात सुन सब चुप हो गए।
मैने कहा कि जब तक यह जानकारी नही मिल जाएगी, यहां से
नहीं जाऊंगा।
एक मित्र ने कहा-जांच तो हो जाएगी, लिखित रिपोर्ट नही
मिलेगी।
मैंने कहा कि मुझे मंजूर है। मुझे किसी को रिपोर्ट
नहीं करना। सबसे पहले मुझे पानी के माईक्रो बायोलोजिकल टेस्ट का पहले पैमाना बताया
गया कि उसकी इकाई एम पी एन है। सामान्य अवस्था में
साफ़ पानी ००
एमपीएनप्रति १०० एमएल
नदी का पानी १०० एमपीएनप्रति १०० एमएल
हरिद्वार में
गंगा का पानी ७००
एम पी एन प्रति १०० एम एल
जांच का यह परिणाम सुन कर मेरा सिर घूम गया।
हरिद्वार में गंगा का यह हाल। समझ गया कि हरिद्वार के
उपर गंगा का सबसे बडा संकट बंधन है। इस बंधन के जाने कितने परिणाम है। गंगा का
पानी की शुद्धता ७०० एम पी एन प्रति १०० एम एल, यह परिणाम तो प्रदूषण है। जिस राह
से मैं गुजरा गंगा पांच जगहों पर बांधी गई थी। मनेरी, उत्तर
काशी, टिहरी, कोटेश्वर, ऋषिकेश हरिद्वार में। मुझे चुप देख जांच
करने वाला वैज्ञानिक बता रहा था कि देखिए निलय जी बिजली निकालने से पानी पर कोई
फ़र्क नहीं आता, पर रोकने से बहुत फ़र्क आता है।
इस पानी मे कोलीफ़ार्म की संख्या गुणन शैली में बढती
है ।
अभी जो यह गंगा का पानी है पीने के लायक नही है और स्वास्थ्य
के लिए अत्यंत हानिकारक है। इससे इस्तेमाल से पेचिस तो तय है, आंत का कैन्सर भी हो
सकता है।
मेरे साथ के सारे मित्र चुप हो गए। इस पर हमारा कोई
वश नहीं था।
अब अंग्रेजो का काल।
किसी ने कहा -दिल्ली ले चलो गंगा के जल को। यह संसाधन
है। इसका पानी पीने के काम आएगा और शौचालय के लिए भी। पहली बार गंगा का जल संसाधन
बन गया। हमारी संस्कृति मे गंगा के जल का जो मान था, वो खत्म तब हुआ जब 1848 में अंग्रेज
इंजीनियर कर्नल प्रॉबी टी कॉटले के नेतृत्व में गंगा से गंगा नहर निकालने का विराट
अभियान चला, जिसका उद्घाटन भारत के तत्कालीन
गर्वनर जनरल लार्ड डलहौजी ने किया।
सम्राट अकबर ने यमुना से दो नहरें पूर्वी और पश्चिमी यमुना
नहर के नाम से नहरें निकाली थीं।
शाहजहां अपने शासन काल में पश्चिमी यमुना नहर को
दिल्ली तक ले आया था।
उसी नहर को आधार बनाकर हरिद्वार में गंगा को विभाजित
किया था और उसके समझौते मे मदन मोहन मालवीय सहित पांच तत्कालीन राजा शामिल हुए थे।
यह तय हुआ था कि साठ प्रतिशत पानी दिल्ली नहर को मिलेगा, गंगा को चालीस प्रतिशत और यह भी
समझौते मे था कि पानी कम होने पर दिल्ली नहर में मात्रा बढाई जा सकती है।
अब एक गंगा
थी और दो धाराएँ।
आस्था कमजोर
नहीं पडे, उत्सव धर्मी स्थान बना रहे, इसलिए पूजा और अर्चना के स्थल की अनिवार्यता
थी, क्योकि मोक्ष की बाजार जम चुका था।
यहां एक और
छल हुआ।
पूजा स्थल मूल
गंगा की धारा पर नही,गंगा नहर पर बनाया गया और कहीं कोई विरोध नहीं हुआ।
शंकराचार्य
के नाम पर तथा धर्म के नाम पर जी रहे लोगो में किसी ने नहीं पूछा
हे सरकार, इस गंगा नहर पर विष्णु के पांव कैसे
चल कर आ गए,
यह नहर पूजनीय
कैसे हो गई, यह तो सरासर धार्मिक भावनाओं के साथ धोखा
है।
यह नहर जिसका
पानी दिल्ली के संडास में जाता है, पूजी जाती है, आरती होती है और उसी में दीप दान होता है, वो मोक्ष
देती है और यह देखना मेरे लिए हृदयविदारक था कि मूल गंगा अनेरिया गाय की तरह
उपेक्षित एक किलोमीटर दूर बहती रहती है। जल्द ही गंगा का दूसरा संकट भी आत्मा पर
दर्ज हो गया।
गंगा का
दूसरा संकट था यह- विभाजन। पहले बंधन, फ़िर विभाजन।
समझ में आ
गया कि अपना देश भी बंधा था, अपना देश भी विभाजित हुआ था। हमारा समाज भी बंधा था
और विभाजन भी हुआ। मनुष्य भी बंधा है और विभाजित भी हुआ है। लगा कि गंगा और देश के
बीच कही न कहीं कोई रिश्ता है? यह उतना ही रीयल है, उतना ही इमेज और उतना ही
मेटाफ़र।
और क्या कहूं
अपनी खुशी का।
मुझे वह
सूत्र मिल गया जिसकी पडताल के लिए यात्रा पर निकला था।
गंगा के इस विभाजन पर तत्कालीन इंजीनियर काटले ने जो अपनी
रिपोर्ट दी थी उसका हिन्दी अनुवाद सुखबीर सिंह ने किया है। आप उसे पढिए तो पता
चलेगा कि अंग्रेजी हुकूमत के इंजिनियरों के भीतर आज के इंजीनियरो की अपेक्षा अधिक
पर्यावरण की चिन्ता थी। अविरलता उसकी शर्त थी।
आजादी मिली ।
अंग्रेज गए और
हमने अपनी उस अविरलता के समझौते को भी तोड़ दिया। सारे बांध अंगेजो ने नहीं, हमने
बनाए। हमने भी गंगा के जल को संसाधन ही माना। हमारी सरकार ने गंगा से मां शब्द को
नोच कर फ़ेक दिया और नाटक करती रही। आज इस विभाजन के पानी की मात्रा का कोई आकलन
नहीं है। गंगा के हिस्से तो बस आंसू और बाढ का पानी है।
ठहरिए, विभाजन के अभी और किस्से है।
मैं उस विभाजन की बात नही करता जो सप्तर्षियो के नाम
पर हुए मैं उस विभाजन की बात करता हूं जो हमारे समय के महान नायक पोंण्टी चड्ढा ने
किए।
गंगा की सफ़ाई का ठेका पोण्टी चड्ढा नामक शराब के
व्यवसायी को मिला जिसके पीछे अपराध की बहुत बडी ताकत थी। उसका चलन था, भूंजा बेचने
से खरबपति बना था। उसके चरित्र का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि मुलायम और
मायावती एक दूसरे के कट्टर विरोधी थे मगर दोनों पोंटी के कट्टर शुभचिन्तक थे।
पोण्टी ने सफ़ाई के नाम पर अवैध खनन का बाजार गर्म किया
था ।
हरिद्वार में अवैध खनन की शुरुआत १९९० के आस पास हुई।
पोंटी साहब की सफ़ाई आसान थी। सफ़ाई के बहाने खनन कानूनी रूप से वैध था। उनकी सफ़ाई
बस यहीं थी कि गंगा में से पत्थर उठाता, ट्रक और ट्रैक्टर पर लादा जाता, क्रशर
मशीन पर पहुंच जाता। इस तरह सरकार के सहयोग से अघोषित खनन की शुरूआत हो गई और नए
बनने वालो मकानो के लिए रेत और गिट्टी का कारोबार चल निकला।
इसी दौरान पोंटी चड्ढा को एक नया रोजगार समझ में आया।
उसने कहा कि एक करोड़ रूपया दो हम गंगा देंगे।
जिस आश्रम ने उसे रूपया दिया, उसने उस आश्रम के सामने
से गंगा की धारा निकाल दी।
अब आपको यह भी बताता हूं कि आश्रम के पास इतने रूपए
कहां से आ गए।
एक घटना
सुनाता हूं, अगर आपको याद हो तो पहले एक हजार का नोट चलता था जिसे
इंदिरा जी की सरकार द्वारा काले धन की शिकायत पर बन्द कर दिया गया और कहा गया कि
जिनके पास वे नोट हो आ कर उसे बदल ले। यह ब्लैक मनी बाहर निकालने के लिए था।
दिल्ली के कारोबारी जिनके पास ब्लैक मनी के रूप में
बहुत पैसा जमा था, समझ नहीं पाए कि अब क्या करे? गया इतना धन हाथ से। किसी को अकल फूटी..और ट्रक में ट्रंक मे
भर कर हरिद्वार आ गए। यहां आश्रमों से मिल कर तय किया कि वे इसे दान बताकर कैश करा
ले
मगर कैसे?
दान का तो हिसाब होता नहीं।
और कमीशन तय, अंत-अंत तक चालीस फ़ीसदी कमीशन हो गया था। कई आश्रम रातो-रात मालो माल हो
गए। उसी में कोई आशा राम बापू हो गया, कोई पाईलट बाबा। जो
रास्ता धर्म की ओर मुडता था, धन की ओर मुड गया। आज इन गैरिक
नागरिको के लिए रात में हेलिकाप्टर से लडकियां आती हैं। आज भी उनके रिश्ते इनकम
टैक्स को बचाने को लेकर बने हुए है और अभी नए-नए जाने कितने बन भी रहे है। आधा से
अधिक हरिद्वार खरीद चुके है और आज चौथा घर दिल्ली का है। यह हरिद्वार नहीं दिल्ली
का आरामगाह और एय्यासगाह है।
हरिद्वार की गर्दन पर कस गया है दिल्ली का पंजा,
हरिद्वार हरिद्वार नही रहा। सब कुछ बदल चुका है। वे
संत ही महत्वपूर्ण हैं जिनके पास सबसे अधिक पैसा है। सच्चे और तत्व चिंतन करने
वालों की पूछ नहीं है।
धर्म का राजनीतिकरण हो चुका है।
राम जन्म भूमि के लिए भारी संख्या में यहां के संत अयोध्या गए थे। उसके बाद कुछ साधु एम पी और एम एल ए भी होने लगे। वहीं से सन्यास को एक और धारा मिल गई। राजनीति के साम दाम दण्ड का प्रयोग आरम्भ हो गया और दलो की राजनीति आरंभ हो गई। विश्व हिन्दू परिषद वालो ने नरक बना दिया। समाज में साधुओं का सम्मान भी कम हो गया।
राम जन्म भूमि के लिए भारी संख्या में यहां के संत अयोध्या गए थे। उसके बाद कुछ साधु एम पी और एम एल ए भी होने लगे। वहीं से सन्यास को एक और धारा मिल गई। राजनीति के साम दाम दण्ड का प्रयोग आरम्भ हो गया और दलो की राजनीति आरंभ हो गई। विश्व हिन्दू परिषद वालो ने नरक बना दिया। समाज में साधुओं का सम्मान भी कम हो गया।
बात पोण्टी चड्ढा की चल रही थी।
उसको सन २००० मॆ ब्लैक लिस्टेड कर दिया गया। लेकिन वह
अपना काम कर चुका था। हरिद्वार में वह एक नया नवधनाढ्य वर्ग विकसित कर चुका था
जिसका एक पैर अपराध की राजनीति में था तथा दूसरा बाजार में था। उसने उस विरासत को
अपना लिया।
अब तो ऎसा लगता है कि हिमालय को उखाड फ़ेकने के लिए एक
बडी सेना खडी है, उत्तराखंड बनने
के बाद इसे गढवाल मंडल के जिम्मे दे दिया गया। और अराजकताएं पनप गयीं, अब तो चौकी के इंचार्ज पटवारी और मंत्री तक का भी हिस्सा बंटने लगा। आप
वहां जाकर देख लीजिए उत्खनन पर रोक के वावजूद भॊ कतार में खडी क्रशर मशीनें कैसे
चल रही हैं।
मै महसूस कर रहा हूं कि हरिद्वार गंगा का सबसे बडा और
सबसे पुराना बाजार है।
इस बाजार में
बिकती है गंगा।
मोक्ष के अलावे अलावे उसका पानी भी बिकता है, उसके
पत्थर भी बिकते है, उसकी नमी पाकर
जवान हुआ जंगल भी बिकता है, जमीन भी बिकती है और आज कल यह
धन्धा बहुत फ़ल फ़ूल रहा हो। होड़ लगी है, भीड़ लगी है। पहले
दुकानें कम थीं, भीड कम थी, अकेली गंगा
बिकती थी अब सब बिकते है। बिक्री का लाईसेंस सरकार देती है। यह है दिल्ली
की महिमा और यह है गंगा।
एक करोड़ ख्रर्च करने पर गंगा दरवाजे के सामने मिल जाती है।
शंकराचार्य
और भिन्न लोगों ने जिन अखाडों और आश्रमों की स्थापना की अब उनका हाल सुन लिया।
गंगा के जल का
हाल देख लिया।
जंगल का हाल देख लिया। पहाड का हाल देख लिया।
अब हरिद्वार की जमीन का हाल।
अभी सबसे कीमती चीज है हरिद्वार में जमीन।
सबसे अधिक पैसा है जमीन में।
जमीन सबसे अधिक सरकार की थी यानी वन विभाग की। वन
विभाग की जमीन को हथियाने के लिए हथकंडॆ बन गए। हम आपको मातृ सदन के गुरूजी के पास
ले चलते है जिन्होने कानूनी लडाई लड कर हरिद्वार जैसी जगह पर १०८ हेक्टर जमीन को माफ़ियाओं के हाथ से मुक्त करा कर
सरकार को वापस किया। लेकिन उसका असर यह हुआ कि माफ़िया तो दुश्मन बने ही, सरकार भी दुश्मन बन गई और खतरनाक ढंग से
उनके कई शिष्यों की हत्या की गई, जिनमे निगमानंद भी थे, जिनके बारे में प्रचारित
किया गया कि वे अनशन करते हुए चल बसे।
मातृ सदन का आश्रम यहां के पांच सितारा आश्रमों से अलग है और लगता है
कि अपने गांव के बाहर है।
आश्रम में सुवह शाम जंगल से मोर आ जाते है। कई बार अजगर भी टहलते हुए निकल आते
हैं। नील गाय और हाथी भी दिख जाते हैं। यहां रूद्राक्ष के दुर्लभ पेड हैं। एक
सिन्दूर का पेड भी था। आंवले टप टप जमीन पर गिरते रहते हैं।
पूरा माहौल शान्त और रमणीय है। हवन और यज्ञ हमेशा चलता रहता
है। कम और अपनी समझ के आधार पर मैं ये दावा कर सकता हूं कि मेरे सामने अगर एक पलडे
पर पूरे हरिद्वार को रख दिया जाय और दूसरे पर मातृ सदन को तो मेरे लिए मातृ सदन का
यह पलडा ही भारी साबित होगा।
स्वामी शिवानन्द जी कहते है कि अपने जीवन में पूर्ण सत्य और
विशुद्ध ब्रहमचर्य का पालन करने के बाद मुझे तत्व बोध हुआ। १९९४ में बद्रीनाथ में
गम्भीर ध्यान की अवस्था में मातृ सदन की भविष्य वाणी हुई और हमने प्राणोपासना के
लिए इस ओर कदम बढा दिए तो उनकी बातों पर सचमुच यकीन होता है।
मातृ सदन में वैदिक प्राणोपासना होती है जिसके तहत साधक
अपने प्राणो को संयमित करता है। आन्तरिक प्राण की गतिविधियो पर लगाम लगाता है। इसके लिए कई
बार समस्त प्राणों की उर्जा शक्ति यानी अन्न का परित्याग भी किया जाता है।
यह पूर्णत: सत्य में स्थित होने पर ही सम्भव है।
इसे ही वे सत्य का आग्रह और सत्याग्रह कहते है।
मातृ सदन इसी प्रकार के सत्याग्रह का अवलंबन करती है।
निगमानंद ने मृत्यु से पूर्व अपने गुरू स्वामी शिवानंद के बारे
में लिखा है कि श्री गुरूदेव ने अपने जीवन की बहुत छोटी अवस्था से ही अखण्ड
ब्रहमचर्य का पालन किया है। ध्यान व तप द्वारा उच्चतम आध्यात्मिक अवस्था को
प्राप्त करने के कारण उनका शरीर इतना पवित्र हो चुका है कि थोडी भी अपवित्रता उनके
शरीर में नाना प्रकार के कष्ट उत्पन्न कर देती है। प्रदूषित वातावरण उनके शरीर को
रोग ग्रस्त कर देता है।
कई लोगों का स्पर्श उन्हें तत्काल मुर्छित कर देता है।
गन्दगी युक्त स्थान पर जाने से,
तेज लाउडस्पीकर बजने से उन्हे
ज्वर हो जाता है। मिलावटी चीजो का भोजन में प्रयोग होने पर वे बेचैन हो जाते हैं और
तब तक शान्त नहीं होते जब तक उल्टी से सब कुछ बाहर निकल नहीं जाता । वे अन्य किसी
ब्यक्ति का कंबल या वस्त्र प्रयोग नहीं करते।
इस कारण एक नियत ब्रह्मचर्यवान सन्यासी उनकी सेवा में रहता
है।
इस कारण आश्रम की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था है,
गाए दूध देती हैं, जो उगाते हैं वहीं खाते हैं और आज भी बाजार पर निर्भरता
बहुत कम है। और कौन जानता था कि उनका यह चरित्र हरिद्वार में एक बडे आन्दोलन की
वजह बन जाएगा।
१९९७ में ही आश्रम की स्थापना के बाद गंगा की दुर्दशा नजर आ
गई।
आश्रम के ठीक नीचे से गंगा की धारा गुजरती है। सैकडो की
संख्या में ट्रैक्टर रोज हड हड तड तड करते आश्रम के बगल से गुजरते और विघ्न पैदा
करते। पहली बार स्वामी जी को इस बात का अहसास हुआ कि प्राणोपासना की क्रियाए
आन्तरिक ही नहीं वाह्य भी है। अपनी व्यवस्थित आन्तरिक अवस्था से बाहरी अव्यवस्था
को भी ब्यवस्थित करना होगा। बाहरी दुनिया में जो भी अनाचार दुराचार भ्रष्टाचार और
तरह तरह की विसंगतियां हैं वह बाहरी प्राण के चंचल होने के परिणाम हैं।
और नई प्राणोपासना आरंभ हो गई।
सत्याग्रह आरम्भ हो गया। २००० आते-आते सकून मिला कि पोण्टी
चड्ढा को गंगा की सफ़ाई से ब्लैकलिस्टेड कर दिया गया। मगर यह अंत नही था। नए खनन
माफ़िया ने तो हद की सारी हदे पार कर दीं। आश्रम भी सत्य की लडाई के लिए कमर कस
चुका था। ९ क्रशर मशीन बन्द हो गए और लगभग २० क्रशर मशीन अप्रत्यक्ष
रूप से बन्द होने के कगार पर आ गए। पेडों की कटाई रूकी और स्वामी जी के साथ जी डी
अग्रवाल के प्रयत्नों से चार परियोजनाए भी बन्द हो गई।
लेकिन अक्टूबर २००९ से जो कुछ हुआ वह और त्रासद है।
इसके बाद क्या हुआ, कहते हुए कलेजा कांप जाता है।
इसके बाद क्या हुआ, कहते हुए कलेजा कांप जाता है।
राजनीति, प्रशासन और माफ़िया का गठजोड हो,
न्यायालय संवेदन शून्य हो तो
कुछ भी सम्भव है। आश्रम के स्वामी दयानन्द १५ अक्टूवर को अनशन पर बैठे। २७ अक्टूबर
को प्रशासन आश्रम की मर्यादा तोड कर उन्हे जबरन उठाकर चिकित्सा जांच के नाम पर
अस्पताल ले गया। उसी क्षण स्वामी यजनानंद अनशन पर बैठ गए और उन्हे भी १८ नवम्बर को
जबरन उठाकर चिकित्सा जांच के नाम पर अस्पताल ले जाया गया।
इसके बाद स्वामी पूर्णानन्द।
प्रशासन और आश्रम के बीच चूहे बिल्ली की तरह यह खेल चलता
रहा और अपने ही तर्को को प्रमाणित नहीं कर पाने के कारण कभी आश्रम छोड जाती और पुन:
अनशन करने पर उठा ले जाती। इस ब्यवस्था का आंतरिक संचालन स्वामी निगमानंद करते थे। कई
बार वे बातचीत के समय अपना फ़ोन किसी और फ़ोन से जोड देते और सारी बाते टेप हो जाती।
ऐन वक्त पर जब उसे सुनाया जाता तो पुलिस अपना सा मुंह लेकर रह
जाती।
जब निगमानंद के अलावे सारे लोग एक एक कर जेल चले गए तो
निगमानंद अनशन पर बैठने के लिए तैयार हो गए। स्वामी शिवानंद यानी गुरू जी ने हालात
समझ कर उनको रोका और खुद जाकर अनशन पर बैठ गए। सत्याग्रहरत स्वामी शिवानंद को भी
गिरफ़्तार कर लिया गया। जेल में भी इनका सत्याग्रह जारी रहा । जेल की न्यायिक
सुरक्षा मे हीं उन्हे नीबू में आर्सेनिक जहर का घोल इंजेक्ट कर दिया गया। इस तरह
का जहर नाखून और बाल के सैम्पल की जांच से प्रमाणित हो जाता है।
जांच हुई, प्रमाणित हुआ मगर उसका परिणाम आज तक बाहर नही आया।
उसी समय मातृ सदन के स्वामी गोकुलानंद सरस्वती को नैनीताल
के सुदूर एक गांव के मंदिर में नस में जबरन स्कोलिन नामक जहर देकर मार दिया गया जो
पोस्टमार्टम के विसरा जांच से प्रमाणित भी हो गई किन्तु पुलिस ने अंतिम रिपोर्ट
लगाकर उसे बन्द कराने का अथक प्रयत्न किया।
तभी कुम्भ मेला २०१० के लिए अधिसूचना निकली।
नैनीताल कोर्ट ने बन्द क्रशर मशीनो को चालू करने की फ़िर से
अनुमति दे दी। यह सूचना पाकर न्यायिक कारवाईयां भी हुई और इस बार १९ फ़रवरी को
मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर स्वामी निगमानंद भी अनशन पर बैठ गए। सभी खुश हो गए।
अब आएगा मास्टर माईंड हाथ में।
२७ अप्रैल को जब निगमानंद आश्रम में गुरूजी के साथ हवन कर
रहे थे और पूर्ण चेतन अवस्था में थे पुलिस आकर उनको उठा ले गई। जबरन अस्पताल में
भर्ती करा दिया गया और ग्लूकोज चढाया जाने लगा। २८ अप्रैल को जबरन नाक से फ़ीडिंग
कराया जाने लगा।
काल बन कर ३० तारीख को एक नर्स आई जो पहले कभी नहीं आई थी और
एक इंजेक्सन दिया।
इंजेक्सन देने के बाद उसने सिरिंज को डस्ट बीन में नहीं
डाला और अपने साथ लेती चली गई। उसी रात निगमानंद की उंगलियों में ऐंठन आरम्भ हो गई
जिसे डाक्टर ने हाईपोग्लेशिया कहा । उनकी हालत निरंतर खराब होती चली गई। एक महिला चिकित्सक आयी और
देखा तो कहने लगी-अरे ये प्वाईजनिंग केस है.. ये डीप कोमा में है
और निगमानंद को एम्बुलेंस में वहां से देहरादून अस्पताल भेजा गया। कहने के बाद
भी आश्रम के किसी भी ब्यक्ति को एम्बुलेंस में बैठने नहीं दिया गया। देहरादून में
डाक्टरो ने प्वाईजनिग का इलाज आरम्भ किया और हालत सुधरने लगी। अचानक न जाने किसका
फ़ोन आया और उनको जाली ग्रांट अस्पताल भेज दिया गया।
और परिणाम तो सबको पता है।
आपको भी, मुझे भी।
पूरे देश में खबर पसर गई निगमानंद नही रहे।
आमरण अनशन करते हुए चले गए।
निगमानंद के गुरू स्वामी शिवानंद के पास पर्याप्त तर्क है
कि निगमानंद मरे नहीं मारे गए हैं और इसकी लडाई को आज भी शिष्य के साथ सत्य की
लडाई मान कर लड रहे है। जब खाना बन जाता है निगमानंद की थाल में उनका खाना उनकी
समाधि के पास जाता है।
आश्रम के कण कण में निगमानंद
की उपस्थिति का अहसास होता है। मैं कामना करता हूं कि उन्हे न्याय मिले।
आपसे भी कहता हूं कि आप यह कामना करे या कुछ और कर सकते हो तो करे।
गंगा के तीर पर देखी गई मेरी यह तीसरी लड़ाई है, पहली लोहारी नाग पाला में हुई जिसमे बी डी
अग्रवाल विजेता रहे और परियोजना करोडो खर्च के बाद बंद हो गई। दूसरी लडाई टिहरी मे
दिखी, जिसके पराजय की दास्तान लिखी जा चुकी है।
अपनी मौत को पार कर मोर्चे पर है निगमानंद।
अब भी मोर्चे पर है स्वामी शिवानन्द।
यह प्राणोपासना है,
जितना हमें प्रकृति ने दिया है उतना ही हमारी भावी
पीढी को मिलता रहे, इसके लिए यह लडाई लडनी ही होगी। आज नहीं तो कल। जितनी देर
होगी उतना अधिक पछतावा होगा।
अगले दिन बाबा शिवानंद किसी मुकदमे के सिलसिले में
दिल्ली चले गए।
जाते-जाते कहा कि निलय जी पर्यावरणविद जी डी अग्रवाल
को बुलाया है आप जरूर मिल लीजिएगा।
जी डी अग्रवाल जिन्होंने मनेरी से उपर चल रही तीन बिजली
की परियोजनाओं को अनशन कर बन्द करा दिया था और पर्यावरण के जाने माने चिंतक है। बी
डी अग्रवाल जो कानपुर मे आई आई टी के प्रोफ़ेसर थे और नौकरी छोड कर दीक्षा लेकर
स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद बन गए बहुत विनम्रता से कहते है कि प्रकृति ने करा लिया, मैने
कुछ नहीं किया।
मैं आर्यसमाजी था,
मूर्ति पूजा में यकीन नहीं करता
था।
ग्रामीण जीवन और प्रकृति के प्रति लगाव की प्रेरणा के
श्रोत वे नानाजी देशमुख को मानते है जिन्होंने उन्हे चित्रकूट के ग्रामोदय
विश्वविद्यालय में रहने के लिए बुलाया और वे सन १९९२ में वहां आ गए। चित्रकूट में
राम की धारा थी। ..रंग गए। ..धारा ने उन्हे कैसे आत्मसात कर लिया पता ही नहीं चला।
वहां रहते हुए कामदगिरी पर वन की कटाई के विरोध में
खडे हुए।
२००५ में जब वे गंगोत्री आए तो देखा कि मनेरी के नीचे
गंगा थी ही नहीं। जलीय प्राणी और पर्यावरण के सवाल उनके भीतर धूमने लगे। वे इस
इलाके मे एक बार १९७८ में आए थे। दोनो के बीच के तुलनात्मक स्मृतियों ने उन्हे
झकझोर दिया और उन्होने तय कर लिया कि इसकी लडाई लडेंगे।
वे इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक गए मगर कोई लाभ
नहीं मिला।
कई लोग जो उनके मित्र थे वे ब्लास्टिंग मुआवजा और
अन्य चीजों को लेकर विरोध में थे मगर बिजली और आर्थिक स्थिति पर चुप लगा जाते थे।
गंगा को बचाने में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी।
हार कर २००८ में उन्होने अनशन का रास्ता अपनाया। कई
संतों ने इसमे सहयोग किया और २४ अगस्त २०१० तक कई कई मोडो और पडावों से गुजरना तो
पडा मगर परियोजनाओं को ही बन्द कर दिया गया।
आदमी मन से चलता है तो अराजक हो जाता है, मन
को बुद्धि नियंत्रित करती है। भारतीय संस्कृति मन पर नियंत्रण करने की संस्कृति है
लेकिन विदेशी संस्कृति खास तौर पर इस्लाम और इसाई धर्म मन पर नियंत्रण नही रखता।
मार्क्स ने पूरी तरह इसे भौतिक ही बना दिया। जगदीश चन्द्र बसु ने साबित किया कि वृक्ष
भी प्राणवान है।
पश्चिमी संस्कृति युद्ध लडती है।
उसने मनुष्य को श्रेष्ठ बना दिया। यह काम हमारे कुछ
पुराणो ने भी किया है, मनुष्य को श्रेष्ट बना दिया है। बलि आदि की विकृतियां भी हैं।
राजाओं और पंडितो ने भी बहुत गलत इस्तेमाल किया है। इसका फ़ल तो भुगतना ही पडेगा।
राजेन्द्र सिंह, बहुगुणा और मेधा पाटेकर ने जो लडाईयां लडी है वे आदमी के
हित के लिए लडी है, प्रकृति के लिए नहीं।
आखिर रास्ता क्या है?
जबाब में थोडी देर के लिए चुप हो गए और कहा कि यह
प्रश्न संस्कृति का है।
इसे रोकने की जिम्मेदारी दो लोगों पर है एक सन्यासी, प्रवचनकर्ता
तथा दूसरी सरकार। मैने सन्यास लेने का फ़ैसला किया था तो मेरी योजना थी कि सन्यासी
और प्रवचनकर्ताओ को एक जुट करूंगा मगर यहां भी..?
देखिए जो भी साधन मनुष्य के पास आता है वह प्रकृति से
ही आता है। जितने विकास प्राधिकरण बनते है जरा गौर कीजिए विनाश प्राधिकरण है। जमीन, हवा, पानी, पत्थर,
कोयला, खनिज के विकास करने वाले क्या विकास कर रहे है। अगर हम यह
सोंचे कि जितना हमें प्रकृति ने दिया है उतना ही हमारी भावी पीढी को मिलता रहे, बस
सब कुछ सही हो जाएगा।
अब मन में थोडी शांति मिल रही है।
जो प्रश्न भीतर भीतर बेचैन करते थे, उनके
उत्तर मिलने शुरू हो गए है।
यह समझ में आ रहा है कि वह संस्कृति कौन सी थी कहां
कहां कैसे मोड आए। बहुत सारे उदाहरण मिल रहे हैं। समझ में आ रहा है समय। अब इस
यात्रा की सार्थकता भी समझ में आ रही है।
हरिद्वार का कार्य लगभग पूरा हो चुका और कल से आगे
यानी उत्तर प्रदेश की यात्रा का आरम्भ मगर क्या करूं मैं, किस धारा का अनुसरण करूँ। हरिद्वार में गंगा तीन धाराओ में विभाजित हो जाती है। एक धारा हरिद्वार से
मेरठ होते कानपुर पहुंचती है जिसे ‘गंग धारा’ कहते है जिससे दिल्ली को पानी मिलता
है। दूसरी धारा हरिद्वार से श्याम पुरी होते बिजनौर में गंगा से मिलती है। .तीसरी
और मूल धारा जिसे ‘नील धारा’ कहते है..
अलग राह से बिजनौर और कानपुर
पहुंचती है। समझ मे नहीं आता कि किस मार्ग का अनुसरण करूं?
समझ में नहीं आया तो फ़ेस बुक पर डाल कर पूछा।
एक सुर से सबने कहा -मूल धारा।
अचानक मेरी नजर सायकिल पर गई।
नन्दी जी के घर यात्रा की बात चल रही थी वहां दीपक जी
और अनिल जी भी थे। मै बता रहा था कि पहले के लोग जब पदयात्रा करते थे सामान कम
होता था। अब तो लैप टाप, कैमरा मोबाईल और चार्जर ही तीन किलो हो जाते है। पदयात्रा
में समान ढोना कठिन लगा। बस क्या था दीपक घई कहने लगे समान ढोने के लिए मेरे बेटे
की सायकिल ले जाईए। अनिल जी ने तो ले जाकर दुकान पर दे दी मरम्मत के लिए।
नहीं निकलता तो यह प्यार कहां समझ में आता। ..
कहां समझ में आता उत्तराखंड?
कैसे समझ में आता यह समय? सायकिल पर सवार हुआ तो पीठ हो गई उत्तराखंड
की ओर। अब तक जिसका चेहरा सामने था अब पीछे हो गया।
हर की पौडी के पास आया तो मैं ईख का रस बेच रहे दुकान
के पास खडा हो गया। सामने गन्ने का ढेर लगा था। एक आदमी चाकू से छील रहा था, जल्दी जल्दी उसके रूखडे पत्तो को तोड रहा
था, एक और आदमी था जो गन्ने को मशीन में डाल कर पेर रहा था,
उसमें अदरख पुदीना डाल कर पेर रहा था और नीबू डालकर स्वादिष्ट बना
रहा था और बेच रहा था।
मुझे लगा कि वह गन्ना नहीं मेरी गंगा है।
कोई अदरख मिला रहा है कोई पुदीना, कोई नीबू और सभी अपनी अपनी तरह से बेच रहे
है। मशीन से चेफ़ुआ भक्क सफ़ेद और रसहीन होकर निकल रहा था । पत्ते अलग पडे थे। मेरे
सामने हरा भरा एक गन्ना क्या से क्या हो गया था।
मेरे सामने गंगा की मूल धारा रेंग रही थी ।
और हर की पौडी की नहर बलखाती जा रही थी। गंगा क्या से
क्या हो गई। मुझे लगा कि देश के समानान्तर एक देश है जो गंगा की मूल धारा की तरह
घिसट रहा है।
जाने क्या तो हो गया है
मेरे हरिद्वार को।
मार खाए कुते सा
दुम दबाए बैठा है..
टुकुर टुकुर
ताकता है आसमान
कही पत्ता भी खडके तो
सिहर जाता है
किसी ने भरोसे में लेकर
किया है जबर्जस्त
घात
महीनों से कुछ
नहीं खाया
वर्षों से नींद
नहीं आई
सिर मे,
देह पर घाव ही घाव
इतना खून कब बहा
था
किसी ने कुछ चला कर मारा है सिर पर
और सुन्न है उसका दिमाग
किसी को पहचान नहीं पाता
अपना नाम भी नहीं बता पाता
घिसट कर चलता है
काठ हो गया है
अपने नंगेपन पर शरम नहीं आती
ऎसे कैसे रौंद दिया
कि उठ नहीं पाए उम्र भर।
अरे कोई तो सुनो
अरे कोई तो देखो
जाने क्या तो हो गया है
मेरे हरिद्वार को।
सम्पर्क-
निलय
उपाध्याय,
रो
हाउस नं १७, नायगांव इस्ट,
वसई
तालुका, जिला ठाणे,
मोबाईल
नं- 09272681941
(इस पोस्ट के समस्त चित्र गूगल के सौजन्य से)
सुन्दर लेख
जवाब देंहटाएंनिलयजी का यह वृत्तांत अनूठा है, सार्थक प्रस्तुति। पहले पदयात्रा, फिर सायकल, दीवानों का काम है। हरिद्वार की व्यथा के पश्चात् अब आगे के वृत्तांत को पढ़ने की उत्कंठा है।
जवाब देंहटाएंमैं 1999 में हरिद्वार गया था। जाना तो रुड़की था लेकिन थोड़ा आगे बढ़ गया। उन दिनों हर की पैडी पर गंगा नहीं थी। किसी से पूछा कि अरे गंगा कहाँ है , तो उसने बताया कि गंगा रेगुलेट की गई है। लौटते हुए एक कविता बनी "Can Ganga be Regulated!" . अब हरिद्वार जाने का मन नहीं करता। हमने अपनी तमाम नदियों को ख़त्म कर दिया है। क्या गंगा, क्या यमुना, क्या कोशी क्या बागमती!
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