श्रीकान्त पाण्डेय का आलेख ‘मरघट में तूं साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार?’
श्रीकान्त पाण्डेय |
राजनीतिज्ञों
के लिए साहित्य और संस्कृति हमेशा एक टेढ़ीखीर होती है।
शौकिया तौर पर वे इसे आजमा कर मुसीबत को आमंत्रण दे देते हैं। हमारे
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को बिहार के चुनावों के समय दिनकर की याद आई है।
अब साहब को यह याद क्यों आयी है इसे समझना थोडा भी मुश्किल नहीं।
भाई, जाति-धर्म का मामला है। सामने पहाड़ सा खड़ा बिहार का
चुनाव है। ऐसे में उन्हें लगता है कि दिनकर के हवाले
से इन जातियों को सहज ही साधा जा सकता है।
लेकिन उन्हें शायद यह नहीं पता कि साहित्य संकीर्णताओं से मुक्त करने का काम करता
है। न केवल उस रचनाकार को बल्कि समकालीन समाज को
भी। और साहित्य भी वही कालजयी साबित होता है जो
समय की सरहदों को लांघ कर लम्बे समय तक अपनी उपादेयता बनाए रखता है।
कबीर, तुलसी और रहीम जैसे मध्ययुगीन रचनाकार आज भी अगर प्रासंगिक बने हुए हैं तो
यह उनकी रचनाओं की ही ताकत है।
प्रधानमन्त्री मोदी के इस दिनकर-प्रेम को विश्लेषित करने का प्रयास किया है युवा
आलोचक श्रीकान्त पाण्डेय ने। तो आइए पढ़ते हैं श्रीकान्त का
यह आलेख ‘मरघट में तूं साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार?’
22 तारीख को राष्ट्र
कवि रामधारी सिंह दिनकर को एक ऐसे व्यक्ति ने दिल्ली में याद किया जिसके सूट पर
खून के अनगिनत दाग हैं। जिनकी विचारधारा के लोग लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और
कलाकारों पर हमला करने के लिए कुख्यात हैं। तो आखिर उन्होंने
राष्ट्र-कवि दिनकर को क्यों याद किया? भाई, वे देश के प्रधानमंत्री हैं। चूंकि वे साहेब
हैं इसलिए जाहिर सी बात है कुछ भी कर सकते हैं। अपने भाषणों में
वे कहते भी हैं कि इस देश के सवा सौ करोड़ भारतीयों के वे प्रधानमन्त्री हैं - ऐसा
वे बार-बार दुहराते रहते हैं। उन्हें गोयबल्स
की यह उक्ति अच्छी तरह से मालूम है कि ‘सौ बार बोला गया झूठ सच लगने लगता है।’ पर असल दिक्कत
तो यही है कि यह सच लगता तो है; लेकिन सच होता नहीं। और इसका सच न
होना एक दिन तो सामने आ ही जाता है।
रामधारी सिंह दिनकर |
देश में लोग प्रतिदिन
मारे जा रहे हैं। कहीं धर्म के नाम
पर, कहीं जाति के नाम
पर, कहीं नक्सल तो कहीं माओवादी के नाम पर। राजस्थान जहाँ उन
साहेब की पार्टी की ही सरकार है वहां नागौर जिले में दलितों पर मध्ययुगीन सामंती जातिवादी
बर्बरता कहर ढा रही है। मध्य प्रदेश में दलितों की शादियों में सवर्ण तबके के सामंत
ईंट-पत्थर बरसा रहे हैं वहां भी इन्हीं की पार्टी का शासन है। इस सब पर ये
साहब चुप्पी साधे हुए हैं जबकि आमतौर पर बोलने के लिए ये देश ही नहीं दुनिया भर में
बदनाम हैं। ये साहेब दिनकर
के हवाले से कह रहे हैं- ‘एक या दो जातियों के समर्थन
से राज नहीं चलता.. यदि
जातिवाद से हम ऊपर नहीं उठे तो बिहार का सार्वजनिक जीवन गल जाएगा।' बिहार का सार्वजानिक जीवन
किससे बनता है? वहां की भूमिहीन पिछड़ी, दलित हाड़तोड़ मेहनत करने वाली जनता से ही न!
और इसी जनता का रणवीर सेना के मुखिया ब्रह्मेश्वर ने नरसंहार किया था। उनके बच्चों पर बंदूक से
हवा में उछाल कर निशाने लगाए गए थे। इसी हत्यारे सवर्ण
जातिवादी मुखिया को आपके मन्त्रिमंडल के एक वर्तमान मंत्री ने गांधीवादी बताया था
और उसे श्रद्धांजलि देने वे मन्त्री जी उसके गांव तक गए थे। एक पुलिस अधिकारी ने आपके
इस वर्त्तमान मंत्री गिरिराज सिंह का कट्टर जातिवादी गिरोह रणवीर सेना से सम्बन्ध
का खुलासा भी किया था। अभी नागौर (राजस्थान) में जैसे ट्रैक्टर से दलित रौंदे गए। ठीक उसी तरह बिहार में सवर्णों
के ट्रैक्टर से बथानी टोला में भी दलित रौंदे गए थे। क्या सचमुच समय बदल गया है
और 16 मई के बाद इस देश ने शर्माना छोड़ दिया है! समय आ गया है कि ब्रह्मेश्वर
मुखिया को भी जाति उन्मूलन का महान कार्यकर्ता घोषित कर दिया जाए और इस महान काम
के लिए उसे ‘भारत रत्न’ भी दिया जाए। आखिर जब नाथू राम गोडसे देशभक्त
हो सकता है तो ब्रह्मेश्वर मुखिया ने कौन सा कांना भंटा खा रखा है। फिर जाति उन्मूलन का इससे
बढ़िया उपाय क्या हो सकता है कि बंदूक-ट्रैक्टर-तलवार-आगजनी आदि से उन्हें समूल ही
साफ कर दिया जाए। जब दलित, पिछड़ी जातियां ही इस देश में नहीं रहेंगी तो जातिवाद की समस्या का
सवाल ही पैदा नहीं होगा। और इस तरह बिहार ही क्यूं पूरा देश ही विकास के राजमार्ग पर
फर्राटा भरने लगेगा। मगर सोचता हूँ दिनकर होते तो मुखिया के बारे में, उसे
गांधीवादी कहने वाले के बारे में, फिर प्रधानमंत्री द्वारा उसे मंत्री बनाने के
बारे में क्या कहते, सोचते! दिनकर के जिस पत्र का हवाला दिया गया उसी में दिनकर ने
आगे यह भी कहा है, ‘अपनी
जाति का आदमी अच्छा और दूसरी जाति का बुरा होता है, यह
सिद्धान्त मान कर चलने वाला आदमी छोटे मिजाज का आदमी होता है।’ यहां हम चाहें
तो ‘जाति’ शब्द की जगह ‘धर्म’ शब्द रख दें तब भी दिनकर के मंतव्य में बहुत फर्क
नहीं पड़ता। लेकिन साहेब, आप
की तो पूरी राजनीति और विचारधारा ही इसी श्रेणीगत श्रेष्ठता पर टिकी है जिसके
दिनकर कभी भी समर्थक नहीं रहे। अब
प्रधानमंत्री जी यह खुद तय कर लें कि दिनकर के कहे हुए के आईने में वे किस मिजाज
के आदमी हैं? आज देश में हजारों किसान
मर रहे हैं और आप आप श्रृंगार करने में जुटे हुए हैं। दिन में दसियों
बार ड्रेस बदलने का क्रम बदस्तूर जारी है। अगर दिनकर होते
तो आज अपनी ये पंक्ति जरुर दोहराते
‘मरघट
में तू साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार?
यह
बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में!’
कभी दिनकर ने यह
सवाल दिल्लीनशीं शासकों से बहुत पहले पूछा था। क्या दिनकर के
पार्थिव शरीर के साथ दिनकर का यह सवाल भी मर गया? यह हो सकता है दिनकर की सीमाएं
हों पर वे फासिस्ट हिन्दूवाद और सामंती जातिवाद के समर्थक नहीं हैं और इसलिए जब भी
आप दिनकर जैसे रचनाकारों का ‘इस्तेमाल’ करेंगे तब आप चाह कर भी ‘मियां की जूती,
मियां के सिर’ मुहावरे को चरितार्थ होने से रोक नहीं पाएंगे। सरदार वल्लभ भाई
पटेल द्वारा आर. एस. एस. की की गई भर्त्सना का उदहारण सबके सामने है। लेकिन दिनकर को
उन्हीं के कहे हुए से दिल्ली में सरेआम मारा गया। यह दिनकर की वैचारिक
हत्या करने की कोशिश है। यही तो गोडसे की परंपरा भी है – ‘हत्या परमोधर्म:’। एक खास जाति,
बिहार के आगामी चुनावों को देखते हुए वहां भूमिहार जाति के वोट बैंक को साधने के
लिए दिनकर का इस्तेमाल किया गया। प्रधानमन्त्री
जी, क्या आप सचमुच जाति का खात्मा चाहते हैं? सच कहूं तो मुझे लगता है आप सिर्फ
बिहार का चुनाव जीतना चाहते हैं। लगता नहीं बल्कि
पक्का यकीन भी है। ‘प्रजातन्त्र का नियम है कि जो नेता चुना जाता है, सभी वर्गों के लोग उससे न्याय की आशा करते हैं।’ यह तो समय
ही बतायेगा कि दिनकर की इस बात पर प्रधानमंत्री कितने टका खरा उतरते हैं। सवाल तो यह भी है
कि क्या आज इस देश के ईसाई, मुसलमान, आदिवासी, मजदूर इस देश के अपने इस प्रधानमन्त्री
से न्याय की आशा और उम्मीद कर सकते हैं!
“आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा?
मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा
आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,
पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।”
मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा
आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,
पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।”
-रामधारी सिंह दिनकर
(युवा आलोचक श्रीकान्त पाण्डेय इन दिनों दिल्ली
विश्वविद्यालय से शोध कर रहे हैं। फेसबुक पर ‘राजन
विरूप’ नाम से सक्रिय हैं। आजकल कविता की आलोचना पर गंभीर काम करने में जुटे हुए हैं।)
सम्पर्क-
मोबाईल – 09451868121
बहुत सुंदर । कहना जरूरी है ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंशानदार
जवाब देंहटाएंआलोचक का काम ही आलोचना करना है । परंतु यदि कोई देश के विकास के साथ राजनीती भी साधे तो क्या बुरा है इस भारतीय राजनीती में कौन है जिसके सूट पर दाग नहीं विचार कीजिये................शिवा
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