पंकज पराशर की दस कविताएँ

पंकज पराशर

इस समय के युवा आलोचकों में पंकज पराशर अपना काम चुपचाप लेकिन बखूबी कर रहे हैं. बेहतर आलोचक होने के साथ-साथ पंकज एक संवेदनशील कवि भी हैं. कवि जो आस-पास की घटनाओं को गौर से देखता ही नहीं, शिद्दत से अपने अन्दर महसूस करता है. कई बार अपने को ठगा महसूस करता है बिल्कुल उन आम लोगों की तरह ही जो अपने को हर कदम पर ठगा हुआ पाते हैं. इसे महसूस करने वाला ही तो आजिज आ कर यह पूछ सकता है - 'मैं पूछता हूं सेठों, भाई लोगों से और दाँत निकाले नेता लोगों से/ कहाँ है मेरा देश, कौन है मेरे जीने के अधिकारों का पहरूआ?' शिल्प के स्तर पर भी एक सधाव पंकज की कविताओं में दिखाई पड़ता है. यह सधाव अतिरिक्त सजगता की वजह से नहीं अपितु कवि द्वारा अपनी कविता को जीने और बरतने की वजह से है. तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं पंकज पराशर की नयी कविताएँ.     


पंकज पराशर की दस कविताएँ

खेत
कितनी हत्याएँ हुई कितने काग़ज हुए स्याह-सफेद
इस महाभारत में दोनों घरों के आठ जन रहे खेत

कोई भागा दिल्ली कोई पंजाब कोई गया पूरब मुलुक बंगाल
पीछे-पीछे भागती रही पुलिस गिरफ्तारी का वारंट लिए
कुर्की-जब़्ती में चला गया वह भी
जो कुछ मिला था खेत से

बीजों की बाट जोहता हुआ खेत रहा वहीं का वहीं
खेतिहर की आस में खेत से जंगल में बदलते हुए  

जमीन से इतना लगाव और मनुष्य से इतना अलगाव!
मैंने देखा कुरुक्षेत्र की जीत हिमालय की ओर प्रस्थान कर रही थी  

खेत के पीछे खेत होते परिवार के दुर्योधनो-युधिष्ठरो-
दाव-पेंच सत्य-असत्य नीति-अनीति तमाम दाव-पेंचों से विजयी होकर
जब लौटोगे इन खेतों पर सांझ के अंधेरे में तो तुम्हें
खेत के पीछे खेत रहे परिजन बेतरह याद आएँगे
और क्या जाने इस विजय का रास्ता भी हिमालय की ओर मुड़ जाए!                                 

फसल
जो फसल उगाना नहीं जानते वे उगाते हैं हथियार
फिर हथियारों से लूट लाते हैं खेतों में उगी फसल।

कपास

जिस सफेदी के पीछे घर भर के चेहरे हो गए सफेद
और दस्तावेजों पर अंगूठा लगाते-लगाते स्याह हो गया भविष्य
उस कपास की सफेदी बारिश में मलिन हो रही है

मोल-तोल की दुनिया में तोल कर बोलना तो जानता है
मोल करना नहीं जानता किसान चुपचाप सहता हुआ
कीटनाशकों से नाश करता स्याह भविष्य के सफेद कर्जों को।

बाढ़

बाढ़ जब आती है शहर में तबाही के तमाम हरबे-हथियारों के साथ 
तो बचने की पूरी छटपटाहट के साथ डूबने लगती हैं-
गाय-बैल मुर्गे-मुर्गियां कुत्ते बिल्ली अपने तईं पूरी कोशिशों करने के बावजूद

जब कभी शहर में आती है बाढ़ तो पानी में गिरे लोहे की तरह
बहुत तेजी से डूबती है मानवता पूरी निर्लज्जता के साथ

डूबती हुई ज़मीन पर खड़ा इनसान देखता है आसमान की ओर
जिसकी कृपा से जल-थल हुई धरती और डूबती चली जाती है
आसमानी कृपा-जल से

अल्ला मेघ दे पानी दे की पुकार सृष्टि के अंतिम छोर तक चली जाती है 
पानी बीच मीन पियासी की तरह
दो घूँट पानी के लिए ताकते आसमान की ओर

बाढ़ के जाने के बाद लौट आते लोग
लौट आती हैं चीजें धीरे-धीरे घरों में
मगर उस मरे हुए कुत्ते की लाश कांटे की तरह चुभती रहती है
नींद भरी आंखों में जब रात के सन्नाटे में कुत्ते तक नहीं भौंकते
और बर्बादी की गंध में लिथड़े हुए लोग जागते रहते हैं सुबह तक
सोने की कोशिश में करवटें बदलते हुए। 

टिकट 

सुबह से खड़े-खड़े सिर पर आ गई धूप 

तब कहीं पहुंच सके टिकट खिड़की तक


नोट गिनते हुए बहुत सफाई से एक नोट नीचे गिराते
डपट कर पूछा टिकट बाबू ने-कहां का टिकट?
-अमरितसहर बाबू जी, जनसेवा से अमरितसहर

सुबह से खड़े हैं लाइन में एक दाना नहीं डाला मुंह में
बाबू ने फिर डपटा जोर से-सौ रुपये कम हैं
सौ रुपये और ला जल्दी से देहाती भुच्च,
चले आते हैं मुंह उठाए न जाने कहां-कहां से

दस रुपये सैकड़ा सूद की दर से मिला वह नोट
वज्र की तरह गिरा उसके कलेजे पर
वह वहीं गिरा जैसे तरु गिरा हहाकर
कुल्हाड़ी से कटने के बाद।

मां के निधन के बाद गाँव

जहां पहुंचते ही भूल जाता था रास्ते की थकान
इस बार यही भूल गया कि यह वही गांव है
जहां की धूल-मिट्टी से पोषित हुआ यह शरीर

अब गांव में बहुत कम रह गए हैं लोग 
कुछ कम बची है संबंधों की उष्मा
कम हुई है मनुष्यता के प्रति आस्था
बहुत कम बचा है लोगों से लोगों का सरोकार
और अब कम है लोगों से लोगों का संवाद,

लेकिन मनुष्यों की मनुष्यता भले कम हुई हो
लेकिन पशुओं की पशुता अब भी है अक्षुण्ण

अब चितकबरी गाय की ही कथा सुन लीजिए-
जिसकी सानी में जब तक नहीं मिलाती थी मां दो चार-मुट्टी आटा
और नहीं फेरती थी पीठ पर दो-चार बार हाथ
वह मुंह उठाए खड़ी रहती मां के इंतज़ार में, 
अब इतना ही खाती है कि बस खड़ी है-
डबडबायी आंखों से कहते हैं पिता
मिनट-मिनट पर आंगन की ओर मुंह उठा कर करती है-
...बां...बां...बां...

...और ससुरा यह झबड़ा कुत्ता भी कुछ कम पाजी नहीं
जिसे बरसों से आदत थी मुट्ठी भर भात और दो-चार रोटियों की
जो उसे मिलता रहा बिला-नागा जब तक जिंदा रही मां

अब कुछ भी हो वह नहीं लपकता खाने पर
न भौंकता है उस तरह ऊंची आवाज में 
रोज रात के तीसरे पहर उठाता है रुदन की तान
जिसे डांटते हुए कांप जाते हैं पिता किसी अनहोनी की आशंका से 

मां कहती थी-घर बनाता है पुरूष मगर बसाती है स्त्री
जिसकी उपस्थिति में पुरुष नहीं जान पाता स्त्री ही होती है घर

लोगों ने बहुत जल्दी कर लिया कलेजे को पत्थर
बहुत जल्दी रम गए अपनी-अपनी दुनिया में
आखिर मरे हुए के पीछे कौन मरता है संसार में

मनुष्य होता है समझदार और व्यवहारिक
जो बिछुड़ते ही भूल जाता है जीवन भर का साथ,
मगर इन जानवरों का क्या करूं जो अपनी बां...बां...बां...
और रात्रि रुदन से चीरते रहे मेरा कलेजा

मैंने देखा मनुष्य भले अब नहीं रहे उतने मनुष्य 
लेकिन पशु अब भी हैं उतने ही अधिक पशु 

सो मैंने तय किया इस बार
कि पशुओं की खातिर भी मैं जाता रहूंगा गांव। 

  
ग़रीब रथ

पुष्पक विमान से उतरे लोकतंत्र के पहरुए दिन में दिखाते हैं सपने
ग़रीब अंतड़ियों से अमीर आवाज़ निकालने की कोशिशों में नाकाम
ग़रीब-जन मज़दूरों को गांठानुकूलित जनरल बोगियों के समानांतर
वातानुकूलित ग़रीब रथ में तीव्रगामी सफर के

जिनके सपनों को लील कर लौट गई कोसी
जिनकी आंखों में खचित हैं महज पांच बीस सात रूपये की दवा के बग़ैर 
दम तोड़ते बच्चों की अंतिम पुकार 
उनकी आंखों में वे बोते हैं-सहरसा-अमृतसर-सहरसा
वोटांतरण की आस में ग़रीब रथ में सफर के सपने 

बाढ़ से बचकर आया मनुष्य नहीं
उसकी आँखें बोलती हैं-चलो दिल्ली चलो पंजाब,
भैया जहां भी मिले पांच कौर भात
पकड़ो वह ट्रेन जिसका मासूल हो सबसे कम 
समय की कौन कमी भले बीत जाए रास्ते में ही दो रात

जिसने आंखों के सामने तबाह हुआ घर-दुआर, खेत-पथार
जिसके परिजनों का न हो सका अंतिम संस्कार
उसकी आंखों में कहां उग सकेगी सपनों की फसल!

पैंतीस किलो के पिता से पूछता है मानव कंकालवत बच्चा
किधर बंधेगा ग़रीब रथ का इंजन-घोड़ा
किधर फहराएगा गाट बाबू लाल-हरा झंडा
शीशमहल बने गरीब रथ से कैसे बुलाओगे पूड़ी-सब्ज़ी वाले को
हाथ निकाल कर खिड़की से बार-बार

ग़रीब रथ के अमीर बोगियों में सवार बाबू-भैयों का दूर तक
पीछा करती हैं शीशमहल-सरीखे बोगियों में बैठ पाने की हसरतें
और आश्वासनी चाशनी में फंसी मक्खी की तरह
फड़फड़ा  कर शांत हो जाती हैं।

मरण जल
रात एक नदी की तरह बह रही है
और बढ़ती जा रही है अंधेरों की बाढ़ 
लगता है झींगुरों के अलावा और कोई नहीं है गांव में,

उससे पूछो कि वह कौन है
जो मेरे गांव पर बुलडोजर चलवाता है
वह कौन है मुझे बताओ जो अपने हम्माम के लिए
बड़े-बड़े बाँध बनवाता है?

रात की इस नदी में बार-बार गूँजती है
उस आदिवासी औरत की आवाज़
जिसके मुँह में जब आवाज़ आई तो कहने को
कुछ भी नहीं बचा उसके पास
जो कुछ था वह देश की जम्हूरियत की भेंट चढ़ गया

जिसका देश शहर नहीं जंगल है 
उसे नगर में तुमने जगह नहीं दी
और जंगल से विस्थापित करके बन बैठे माई-बाप,

किसने तुम्हें ये हक दिया कि तुम मुझे सभ्य बनाओ
मुझे जीना सिखाओ
जैसे तुम हो सभ्यता की साबुन और तहज़ीब के अलंबरदार

मेरा बेटा जब मरा तो उसके हाथ में तुम्हारा ही झंडा था
मेरे बाप को जो फाँसी हुई वह जुर्म तुमने किया था
और मैं विधवा आज इसलिए हूँ कि मेरे पति ने
तुम्हारा ज़रख़रीद गुलाम बनने से इनकार कर दिया था

तुम्हीं बताओ तुम्हारे लोकतन्त्र को और क्या-क्या चाहिए मेरा? 
मेरी आँखें, मेरा गुरदा, मेरे स्तन, मेरी जाँघें
एक जंगल की औरत पूछ रही है तुमसे
विकास के अलंबरदारों और लोकतंत्र के पहरुओं से 
     
अफसोस, मेरे पूरे वजूद में लेकिन कुछ भी नही बचा है अब
सिवाए मरण जल के और कुछ नहीं!


सब हँसता है अपुन को देख कर

ये कायकू कैता है मेरे कू बोलने का नइ
अपुन नइ बोलेंगा तो और कोन बोलगा मेरे वास्ते
तू इदरीच आके मेरे कू जास्ती बोलने से रोकता है भिडु
कि ये साला भाई लोग जरूर खल्लास करेगा मेरे को किसी दिन

ये साले भँडुवे ठुल्ले रोज आकर वसूलते हैं अपना हिस्सा
और फिर भी दाँत दिखा के कैसा एहसान दिखाता है नेता के माफिक
भाई तो कभी भी आ जाता है हफ्ता वसूलने पूरे लश्कर के साथ
अपुन कैसा चूतिया के माफिक खाली देखता रह जाता है,

ये भड़ुँवागिरी तो भिडु मरवाने से भी बुरा है
मगर सेठ लोग जो साला मार-मार के लोगों को माल बनाता है
और कमाठीपुरा में अपुन लोगों पर धौंस दिखाता है
कभी पोलिस का तो कभी नोटों के बंडल का ताबड़तोड़

ये जो पेज थ्री पार्टियों में डीलिंग करते हैं बड़े-बड़े धंधों का
हार्लिक्सी नस्ल की लौंडियों को पेश करके रोशनी के भीतर के अंधरे में
सेठ लोग ये साला बड़ी-बड़ी फैक्ट्री चलाता, पैसा बनाता और इज्जतदार हो जाता है
भंडुवागिरी कर के वह साला समाज और सरकार दोनों का बाप बन जाता है

अब तो हमारा यह सरकारी और सामाजिक बाप
कमाठीपुरा को उजाड़ने का ले आया है आर्डर
चलाएगा बुलडोजर और साफ करके खेत बना डालेगा हमारी खोली को
जहाँ बनने वाले बड़े-बड़े मॉल में आएंगी बड़ी-बड़ी गाड़ियों में
बड़े-बड़े सेठों के घर में सप्लाई की जाने वाली हाई क्लास की सोशलाइटें

हमारा काम ताबड़तोड़ करेंगे सेठ लोग बिल्कुल पेशेवर की माफिक
दस पेटी, बीस पेटी माल इधर से उधर होगा मिनटों में
अपुन गटर के कीड़े की माफिक कुलबुलाते हुए जीने के लिए भी
गिड़गिड़ाता रह जाएगा और आक्खा मुंबई से बुहार कर फेंक दिया जाएगा

हमारा कौन-सा देश है भिडु?
साला तुम भी नहीं बोलता कुछ

वह देश ढूँढ़ कर ला दे मेरे कू सारे जहाँ से अच्छा गाता है
बच्चा लोग म्यूनिस्पेलिटी के स्कूल में
अपुन को न कोई जीते जी जीने देता न मरने पर श्मशान में जगह देता
जिंदगी भर साला हरामी, आवारा सुन-सुन कर लात खाते हुए जीना....

मैं पूछता हूं सेठों, भाई लोगों से और दाँत निकाले नेता लोगों से
कहाँ है मेरा देश, कौन है मेरे जीने के अधिकारों का पहरूआ?

बोलता कोई नहीं, साला सब हँस कर निकल जाता है
अपुन को अकेला चीख़ता छोड़ कर।

बाजार-हाट
सावन-भादों की बारिश में धान रोपते हुए लगनी तक भूल गया इस बार
इतनी उमर हुई अभी तक नहीं देखी कभी
ऐसी वर्षा और ऐसा समय विकराल-
कहते हैं पिता विगत समय से त्राण पाने का निःश्वास छोड़ते हुए

किस तरह की मेड़ों की रखवाली किस तरह लाया ब्लैक में उर्वरक
किस तरह की है जन-मज़दूरों की चिरौरी जी ही जानता है
किस तरह खलिहान तक पहुंची है फसल

तीन दिनों से चिरौरी कर-करके हार गया धान लिवालों के
हर बनिये से पूछा हर बाज़ार से गुज़रा हर ख़रीदार तक पहुंचा
बाज़ार का तलबग़ार हूं लेकिन ख़रीदार नहीं बिकवाल हूं
किसी तरह ये धान बिके तो प्राण जुड़े

बाज़ार को चाहिए दस रूपये किलो हमारा धान
साढ़े नौ रुपये किलो हमारा गेहूं मिट्टी के मोल गन्ना
बाज़ार को चाहिए हमारा अन्न हमारा ख़ून-पसीना
हमारा जीना हमारा होना सब कुछ चाहिए बाज़ार को

बाज़ार को चाहिए कुछ ख़रीदने के लिए आया हुआ ख़रीदार
अपने माल की कीमत सुन कर असहज किसान
नहीं चाहिए बाज़ार को।


सम्पर्क-
ए-203, ग्रीन पार्क अपार्टमेंट,
पो. देवी नगला, क्वार्सी-एटा बाईपास रोड,
अलीगढ़-202001 (उत्तर प्रदेश) 

फोन- 09634282886

ई-मेल : dr.ppamu@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

  1. ये ऐसी ही कवितायें है जो इतिहास बन रहे समय को सोचने पर मजबूर करती हैं । समर्थ और सार्थक कविताओं के लिए कवि और संपादक को बहुत बहुत बधाई !

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  2. ये ऐसी ही कवितायें है जो इतिहास बन रहे समय को सोचने पर मजबूर करती हैं । समर्थ और सार्थक कविताओं के लिए कवि और संपादक को बहुत बहुत बधाई !

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  3. eak dam bakvas poem hai mujhe coment karte huye bhe khed hai ki etni ghatiya poem bhe poem kahi ja rahi hai

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. पंकज जी अनावश्यक रूप से पांडित्य प्रदर्शन मत कीजिए

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