पीयूष कुमार का आलेख 'हिंदी सिनेमा में हाशिये पर आदिवासी'


पीयूष कुमार


सिनेमा अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम रहा है। साहित्य और संस्कृति को जनता तक ले जाने का यह एक लोकप्रिय माध्यम रहा है। हिन्दी सिनेमा की अपनी एक अलग ख्याति रही है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि हिन्दी सिनेमा जनता को लुभाने के लिए बने बनाए लीक पर एक लम्बे अरसे तक चलता रहा है। इस क्रम में कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों पर जब फिल्मों के माध्यम से कुछ प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया तो उसमें भी यह प्रवृत्ति सहज ही देखी गई। हालांकि लीक से इतर भी कुछ महत्त्वपूर्ण काम हुए। इसी क्रम में पीयूष कुमार ने आदिवासियों को केन्द्र में रख कर बनाए गए फिल्मों की गम्भीर तहकीकात की है। आज पहली बार पर हम पीयूष कुमार के इस आलेख को प्रस्तुत कर रहे हैं। इस आलेख को हमने ‘पाठ’ के जनवरी-मार्च 2025 अंक से साभार लिया है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं पीयूष कुमार का आलेख 'हिंदी सिनेमा में हाशिये पर आदिवासी'।


'हिंदी सिनेमा में हाशिये पर आदिवासी'


पीयूष कुमार


हिंदी सिनेमा में आदिवासी का विचार आते ही वे उस रूप में सिनेमा में दिखाई देते हैं जो कि वास्तव में हैं नहीं। इसकी बड़ी वजह यह है कि आरम्भ से हिंदी सिनेमा में प्रभु वर्ग की सोच, विचार, दृष्टि और पकड़ रही है। इसी कारण एक सौ दस वर्षों का भारतीय सिनेमा आरंभ से ही एकांगी हो कर सामाजिक रूप से उच्च स्थिति प्राप्त लोगों की दृष्टि का सिनेमा बन गया। इस महादेश में जहां सबसे अधिक सामाजिक विभेद हैं, हाशिए के कई वर्गीकृत समाज भी हैं, हिंदी सिनेमा यह बात भूल गया और याद आया भी तो बहुत कम याद आया। गौरतलब है कि हाशिए का यह बड़ा समाज सिर्फ गरीब के रूप में भारतीय सिनेमा में हमेशा से प्रस्तुत हुआ है जो अमीर-गरीब के मार्क्सवादी अवधारणा को आदर्शवादी कामनाओं की तरह देखता है। सिनेमा को भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसके जातिगत और लैंगिकता के विभेदपूर्ण वास्तविकता के रूप में देखने में समर्थ होना था।


विमर्श के वर्गीकरण के लिहाज से देखा जाए तो स्त्रियों को भारतीय सिनेमा ने जहां अधिकांश फिल्मों में रीतिकालीन भोग्या नायिका बना कर रख दिया, वहीं दलितों के पक्ष को आज तक प्रतिरोध या बराबरी के स्तर से हिंदी फिल्में नहीं दिखा पाईं। इसी तरह एक वर्ग है आदिवासियों का जो हिंदी सिनेमा में भी उसी हाशिए में है, जिस तरह वह वास्तविक समाज के हाशिए में है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी का 10.45 करोड़ अर्थात 8.6 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासियों की है। इसका अर्थ यह हुआ कि हर बारहवां व्यक्ति आदिवासी है। यूं तो भारतीय समाज में संवैधानिक रूप से प्रतिनिधित्व के नियम के कारण जनजातीय समाज अर्थात आदिवासी समाज के लोग विभिन्न हिस्सों में दिखाई अवश्य देते हैं पर वे सारेे क्षेत्र जहां प्रतिनिधित्व का कोई नियम नहीं है, आदिवासी वर्ग की उपस्थिति वैसी नहीं है जैसा और जितना होना चाहिए। इस उपस्थिति को जब हम हिंदी सिनेमा में देखते हैं स्थिति बेहद निराशाजनक दिखाई देती है। यदि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हिंदी सिनेमा में आदिवासियों का प्रस्तुतिकरण फूहड़, असभ्य, बर्बर या मनोरंजन मात्र के रूप में किया गया है। रियल से रील तक में आदिवासी ऐसा क्यों है, इसे बस्तर की कवि पूनम वासम की कविता ‘प्रवेश निषेध है’ के इस अंश से बेहतर समझा जा सकता है - 


‘‘हमारी आत्मा, हमारी देह पर 

एक ठप्पा लगाया गया 

जिस पर लिखा था ‘जंगली’ 

जिसका मनुष्यों की बनाई हुई दुुनिया में 

प्रवेश निषेध है।’’


हिंदी सिनेमा में आदिवासियों को प्रस्तुत किया जाना दादा साहब फाल्के की फिल्मों से ही दिखने लगा था। उनकी ज्यादातर फिल्में जो पौराणिक अधिक थीं, उसमें जंगल में रहने वाले लोगों का चित्रण असुर, दैत्य या राक्षस के रूप में किया गया है। स्पष्ट है कि मूक फिल्मों के दौर से ही सिनेमा में आदिवासियों को उनके मूल जीवन से अलग नागर दृष्टि से देखे जाने की शुरुआत हो गई थी। मूक फिल्मों के कुछ समय बाद बोलती फिल्मों का दौर आया और भारत की पहली बोलती फिल्म के रूप में ‘आलमआरा’ (1931) दर्ज हुई। गौरतलब है कि इस फिल्म की नायिका जुबैदा ने जो चरित्र निभाया था वह अपनी प्रस्तुति में लगभग एक आदिवासी युवती (बंजारन) का चरित्र था। बोलती फिल्मों का विकास हुआ और हिंदी सिनेमा में प्रगतिशीलता आई। अब हिंदी सिनेेमा पारसी थियेटर के रंग ढंग से बाहर निकालकर यथार्थवादी और सुधारवादी सिनेमा की ओर बढ़ने लगा। दुर्भाग्य से इस बदलाव के बावजूद आदिवासियों को लेकर फिल्मकारों की जो सोच थी वह जस की तस रही। महान फिल्मकार महबूब खान निर्देशित 1942 में एक फिल्म आई थी, ‘रोटी’ जो मार्क्सवादी विचारधारा की फिल्म थी जिसमें मेहनतकशों के हक और हुकूक पर बात की गई थी। इस फिल्म में आदिवासियों का चित्रण किया गया पर यह मुद्दा नजरअंदाज कर दिया गया कि आदिवासियों के भी अन्य गरीबों की तरह के हक, समस्या और संघर्ष हो सकते हैं। इस फिल्म में भी आदिवासियों को पारंपरिक मानसिकता के अनुरूप पत्ते लपेटे, मस्ती करते, नाचते दिखाया गया है। इसी तरह की उस दौर की अनेक फिल्में हैं जिनमें आदिवासियों को उसी फूहड़ और अवास्तविक रूप में प्रस्तुत किया गया है मसलन, ‘विलेज गर्ल’ (1945), ‘अलबेला’ (1951), ‘दुपट्टा’ (1952), ‘श्रीमतीजी’ (1952) आदि। इसी क्रम में एक फिल्म आई थी ‘मधुमती’ (1958) जिसे प्रतिभाशाली निर्देशक बिमल राय ने निर्देशित किया था। यह पूरी फिल्म पहाड़ों पर  देहात में है पर उसमें भी आदिवासियों को सिर्फ नाचने गाने तक ही रखा गया है, फिल्म के केंद्रीय विषयवस्तु में उनके किसी वास्तविक मुद्दे पर कोई बात ही नहीं की गई है। जाहिर है, आदिवासियों को इसी दुनिया और समाज का समझाने की दृष्टि प्रतिभाशाली फिल्मकारों में भी विकसित नहीं हुई थी।




1968 में आई फिल्म ‘इज्जत’ पहली ऐसी फिल्म कही जा सकती है जिसमें आदिवासी स्त्री का यौन शोषण मुख्य विषय था। फिल्म में मुख्य चरित्र का नाम है शेखर (धर्मेंद्र) जो कि एक आदिवासी मां का लड़का है और जिसका पिता ठाकुर प्रताप सिंह (बलराज साहनी) है। ठाकुर शेखर की आदिवासी मां सांवली से प्रेम कर के उसे गर्भवती तो कर देता है लेकिन उसके आदिवासी होने के कारण सांवली से विवाह नहीं करता। यह मुद्दा फिल्म में दूसरी बार तब उठता है, जब ठाकुर का बेटा दिलीप भी एक आदिवासी लड़की झुमकी (जयललिता) से प्यार करता है पर उसे अपनाने से इंकार करता है। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रही कद्दावर नेता जयललिता की अभिनेत्री बतौर यह एकमात्र हिंदी फिल्म है। यह फिल्म व्यवसायिक रूप बनाई गई थी और हिट रही थी। यह फिल्म इस लिहाज से उल्लेखनीय है कि पहली बार हिंदी सिनेमा के मुख्य चरित्र के रूप में आदिवासी युवक व युवती को प्रस्तुत किया गया था। आदिवासियों को लेकर पूर्वग्रह का एक अच्छा उदाहरण इस फिल्म में इस रूप में देखा जा सकता है कि शेखर की मां चूंकि आदिवासी है, इसलिए शेखर का रंग काला है। पूरी फिल्म में शेखर की भूमिका निभाने वाले कलाकार धर्मेंद्र को काले रंग का मेकअप लगा कर पेश किया गया है। इस फिल्म में प्रस्तुत गैर आदिवासियों द्वारा आदिवासी महिलाओं के यौन शोषण की कथा आदिवासी क्षेत्रों की वास्तविकता रही है। इसका एक चर्चित उदाहरण बस्तर का रहा है जहां 1970 के दशक में बस्तर के बैलाडीला प्रोजेक्ट की स्थापना के बाद ऐसे मामलों की बाढ़ आ गई थी जिसमें बाहर से आये गैर आदिवासी कर्मचारियों ने स्थानीय आदिवासी युवतियों को प्रेमजाल में फंसा कर उनका यौन शोषण किया था। इस मामले पर तत्कालीन कलेक्टर ब्रह्मदेव शर्मा ने कड़ी कार्यवाही करते हुए उन कर्मचारियों को शोषित लड़कियों से विवाह करवाया था। ऐसा न करने पर कर्मचारियों को जेल की सजा और नौकरी से बर्खास्त करने का प्रावधान किया गया था।




आदिवासियों के राजनैतिक मुद्दे पर एक महत्वपूर्ण फिल्म है, ‘यह गुलिस्तां हमारा’ जो 1972 में आई थी। यह फिल्म पूर्वाेत्तर भारत स्थित अरुणाचल प्रदेश के भारत को-चीन सीमा पर दुर्गम क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी समुदाय की स्वायत्तता और स्वयं को भारत का अंग मानने, न मानने की दुविधा  पर बनाई गई फिल्म थी। विषय राजनैतिक रूप से सामयिक था पर यदि यह फिल्म प्रचलित हिंदी सिनेमा की नाटकीयता के बजाय यथार्थवादी बनती तो आदिवासी विमर्श की दृष्टि से अच्छी फिल्म तो बनती ही, अपने राजनैतिक विषय के साथ भी न्याय कर पाती। गौरतलब है कि इस समय अरुणाचल प्रदेश भारतीय संघ का राज्य नहीं बल्कि केंद्र शासित प्रदेश था।


1970 के बाद हिंदी सिनेमा ने नया रूप धारण किया। सिनेमास्कोप, टेक्नीकलर होती फिल्में हिप्पी चलन, स्मगलिंग, अपराध जैसे विषयों के साथ प्रतिहिंसा वाले सिनेमा का आगाज हुआ। नायक के प्रतिरोध का यह रूप बहुत लोकप्रिय हुआ और सिनेमा में ‘एंग्री यंग मैन’ की स्थापना हुई जो अपने पर हुए अत्याचार का बदला लेने को जायज ठहराता है। गौरतलब है कि आज तक सिनेमा में किसी गरीब पर अत्याचार का बदला लेने का क्रम जारी है पर जंगलों से संसाधनों के लिए अपनी जमीन से बेदखल किए जा रहे आदिवासियों की मूल समस्याओं और संघर्ष को कोई फिल्म में नहीं दिखाना चाहता। सिनेमा अब भी खाए पिए अघाये लोगों के मनोरंजन की दृष्टि से ही प्रस्तुत हो रहा जिसकी नजर में आदिवासियों का न कोई जीवन है, न कोई समस्या है और न ही विकास का कोई स्वप्न उनके पास है। इस गैर आदिवासी मानसिकता को कवि आनपा मराण्डी की कविता ‘दिकू बाबू’ की यह पंक्तियां बखूबी जाहिर कर पाती हैं - 


‘‘पीपली से दिल्ली 

नियमगिरि से कलिंगनगर 

जहां कहीं भी हो जो भी हो 

मेरा क्या जा रहा है? 

मैं तो ठीक ही हूँ 

ईंट की चारदीवारी से घिरी

मेरी ऊंची अट्टालिका के ठंडे कमरे में 

मैं दिकू बाबू हूं!’’


1976 में शशि कपूर और हेमामालिनी अभिनीत एक फिल्म आई थी, ‘नाच उठे संसार’। इसकी कहानी, संवाद में प्रयुक्त शब्दों और दृश्यों से लगता है कि यह रांची के आस पास किसी आदिवासी गांव के सामाजिक वातावरण से लिया गया है। इसमें हंड़िया (चावल की शराब) पीने के दुष्प्रभावों को दिखाया गया है साथ ही आदिवासियों पर ईसाई मिशनरियों के प्रभाव को भी जाहिर किया गया है। कहानी की पृष्ठभूमि आदिवासी क्षेत्र की रखने के बावजूद यह फिल्म भी आदिवासियों को उस रूप में जाहिर नहीं कर सकी, जो वास्तव में है। इसी तरह एक फिल्म है, ‘शालीमार’ जो 1978 में आई थी। इस फिल्म की कहानी एक द्वीप में घटती है और उसमें वहां के स्थानीय निवासी अर्थात आदिवासियों को भी चित्रित किया गया है। अफसोस कि इस चित्रण का स्तर और ढंग वही है जो अब तक दिखाया जाता रहा है। आदिवासियों के लिए विचित्र सी वेशभूषा, असभ्य और आदमखोर किस्म के व्यवहार का चित्रण इस फिल्म में भी किया गया है। हिंदी सिनेमा में आदिवासी संस्कृति को किस तरह विकृत किया जाता है, यह 1983 में रिलीज हुई एक बहुत अच्छी फिल्म ‘सदमा’ के गीत ‘ओ बबुआ, ये महुआ क्या करे...’ से समझा जा सकता है। इस गाने में कमल हसन और सिल्क स्मिता के बीच स्वप्न रोमांस फिल्माया है जो हिंदी सिनेमा के आदिवासी सभ्यता को लेकर बनाई गई विकृत मानसिकता के पारंपरिक ढांचे में प्रस्तुत किया गया है। इस गाने में वे दोनों अर्द्धनग्न अवस्था में कामुक हाव भाव के साथ गाते-नाचते हैं। इस फिल्मांकन का मतलब तो यही निकलता है कि आदिवासी समुदाय महुए की शराब पीकर उन्मुक्त हो कर सेक्स की हद तक जाने वाला रोमांस करता है। यह निर्देशक की कल्पना है कि ऐसा रोमांस उसे आदिवासी जीवन में सहज लगता है जबकि उसके अपने कथित सभ्य जीवन में असहज लगता है। जाहिर सी बात है कि यह आदिवासी समाज को देखने की गैरआदिवासी दृष्टि के कारण ऐसा फिल्मांकन किया जाता है।




एक प्रसिद्ध फिल्मकार हैं मणिरत्नम। उनके द्वारा निर्देशित फिल्म ‘रावण’ (2010) का नायक बीरा आदिवासी समुदाय का है। बीरा हिंसक है, आतंकी है और अपराधी है। जाहिर है, आदिवासी समाज को लेकर हिंदी सिनेमा की दृष्टि संकुचित और अल्पज्ञानी है। वह आदिवासियों को हू... हू... करते, भाले पकड़े, पत्ते लपेट, राख चुपड़े, असभ्य, अशिक्षित और अपराधिक रूप में ही जानता है। फिल्म ‘रावण’ के बीरा के विवरण से बस्तर के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना पर ध्यान जाता है। बस्तर में 1910 में ‘बूमकाल विद्रोह’ हुआ था। इस विद्रोह के नायक थे बागाधूर जिन्हें गुण्डाधूर के नाम से जाना जाता है। इतिहासकार और भाषाविद प्रो. राजेंद्र प्रसाद सिंह का कहना है कि अंग्रेजी सरकार ने उन्हें पकड़ने के लिए 1910 में ‘गुण्डा एक्ट’ बनाया था। गुण्डाधूर पकड़ में तो नहीं आये पर यह एक्ट चलता रहा और अब भी चल रहा है। यह एक्ट तो एक उदाहरण है, आदिवासियों के 160 समूहों को ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम 1871’ के ब्रिटिश कानून के द्वारा अपराधी श्रेणी में इसी तरह सूचीबद्ध किया गया था। इस व्यवस्था का इसका भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा। शायद इसलिए भी हिंदी सिनेमा के फिल्मकारों की मानसिकता में आदिवासी असभ्य या अपराधी के रूप में रह गए हैं।  


हिंदी फिल्मों में आदिवासियों ले कर सोच का स्तर कितना गिरा हुआ है यह 2015 में आई फिल्म ‘एमएसजी 2’ के इस संवाद में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं - “आपने इस इलाके में आ कर बड़ी गलती कर दी। ये आदिवासी न इंसान हैं और ना ही जानवर, ये शैतान हैं।’’ यह फिल्म डेरा सच्चा सौदा प्रमुख और अपराध में सजा काट रहे अपराधी गुरमीत राम रहीम सिंह द्वारा बनाई गई थी और मुख्य किरदार भी उसके द्वारा ही निभाया गया था। पूरी फिल्म आदिवासियों के वास्तविक संस्कृति और सभ्यता से परे थी। इन्हीं वजहों से इस फिल्म पर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में प्रतिबंध लगाया गया था। इसी तरह आदिवासियों के गलत चित्रण को व्यवसायिक रूप से सफल फिल्म ‘बाहुबली’ में देखा जा सकता है जिसमें गैर आदिवासी राजा की बर्बरता को तो वीरता की तरह पेश किया गया है और जब वही काम उसके विरोधी कालकेय आदिवासी करते हैं तो उनकी वीरता को बर्बर और हिंसक बना कर नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है।  




आदिवासियों को ले कर सिनेमा में संकुचित नजरिया पारंपरिक फिल्मों के अलावा बायोपिक में भी नजर आता है। 2014 में एक बायोपिक फिल्म आई थी, ‘मैरी काॅम’। यह विश्व चैंपियन बाॅक्सर और ट्राइब्स इंडिया की ब्रांड एंबेसेडर मैरी काॅम के जीवन पर आधारित थी। इसमें मैरी कॉम की भूमिका प्रियंका चोपड़ा ने की थी। प्रियंका को मैरी काॅम जैसा दिखने के लिए जटिल मेकअप करना पड़ता था जिसके लिए समय और बजट अधिक लगता था। विचारणीय है कि फिल्म के निर्माता यह क्यों नहीं सोच सके कि पूर्वोत्तर की ही किसी अभिनेत्री को इस फिल्म में ले कर स्थानीय संस्कृति, भाषा और लोकेशन को भी फिल्माया जाता। जाहिर है, फिल्मकार को व्यवसायिक सफलता की ज्यादा जरूरत है न कि वास्तविकता की। यहां उसने मैरी काॅम के नाम को, उनकी प्रसिद्धि को एक टूल के रूप में इस्तेमाल किया और इसे स्त्री सशक्तिकरण के लिहाज से महत्वपूर्ण बता कर आदिवासी वास्तविकता से ही दूर कर दिया। प्रसंगवश, हिंदी सिनेमा से इतर एक उदाहरण बंगाली फिल्म ‘अरण्येर दिन रात्रि’ का एक उदाहरण उल्लेखनीय है। इस फिल्म यह बताती है कि ‘आदिवासी का चरित्र आदिवासी नहीं कर सकता’ की मानसिकता से महान फिल्मकार सत्यजीत रे भी नहीं बच सके हैं। 1970 में उन्होंने यह फिल्म बनाई थी और इस फिल्म ने दुनिया भर में अपने आर्टविजन के रूप में प्रशंसा का पात्र बनी थी। इस प्रशंसित फिल्म की सबसे विचित्र बात यह है कि सत्यजीत रे ने पलामू क्षेत्र की स्थानीय आदिवासी लड़की ‘दुली’ के चरित्र के लिए अभिनेत्री सिमी ग्रेवाल को लिया था। फिल्मकार के हिसाब से चूंकि दुली आदिवासी थी और उसे काला ही होना था तो सत्यजीत रे ने गोरी और छरहरी और गोरी सिमी ग्रेवाल को गहरे काले रंग से पोत कर आदिवासी लड़की बना दिया! दुली के उस छोटे रोल के लिए उन्हें कोई स्थानीय आदिवासी लड़की या कलाकार नहीं मिल सकी, यह विडंबना ही है। प्रियंका चोपडा और सिमी ग्रेवाल के यह दो उदाहरण बताते हैं कि कितना भी ‘महान’ फिल्मकार हो, सिनेमा में गैर आदिवासी सोच से निरपेक्ष नहीं रह सकता।




इसके बावजूद भारतीय सिनेमा में आदिवासी जीवन को यथार्थ से परे दिखाने वाली लगभग सभी फिल्मों के बीच चंद फिल्में ऐसी भी हैं जो आदिवासी समाज और जीवन को वास्तविकता के करीब प्रस्तुत कर सकी हैं। इन फिल्मों में यथार्थवादी फिल्मकार मृणाल सेन निर्मित फिल्म ‘मृगया’ जो 1977 में आई थी, महत्वपूर्ण है। यह फिल्म उड़िया कथाकार भगबती चरण पाणिग्रही की कहानी ‘शिकार’ पर आधारित है। यह एक संताल आदिवासी युवक की कहानी है जो अंग्रेज अधिकारियों के द्वारा अपनी पत्नी के यौन शोषण का प्रतिरोध करता है। फिल्म वास्तविक जीवन के करीब है जहां गरीब लोग, आदिवासी लोग शोषित हैं और उनका शोषक स्थानीय साहूकार है। इस फिल्म में आदिवासी समाज, संस्कृति और उनके आर्थिक राजनैतिक और दैहिक शोषण को बारीकी से प्रस्तुत किया गया है। गौरतलब है कि यह फिल्म मिथुन चक्रवर्ती की पहली फिल्म है और इसमें बेहतरीन अभिनय के लिये उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।




इसी क्रम में जीवन के अंधेरे और पीड़ा को सघन वास्तविकताओं के रूप में स्क्रीन पर पेश करने वाले फिल्मकार गोविंद निहलानी की फिल्म ‘आक्रोश’ (1980) आदिवासी शोषण पर बनी एक महत्वपूर्ण फिल्म है। इस फिल्म में एक आदिवासी पात्र भीकू लहण्या (ओमपुरी) की पत्नी नागी (स्मिता पाटिल) का जमींदारों द्वारा बलात्कार कर हत्या कर दी जाती है और उसकी हत्या का इल्जाम भीकू पर लगा दिया जाता है। इससे भीकू पर इतना मानसिक दबाव आ जाता है कि वह कुछ बोलता ही नहीं है। वह एकदम चुप हो जाता है और उसकी आंखों में बेबसी, पीड़ा और आक्रोश हर वक्त एक साथ दिखाई देते हैं। उसकी इस चुप्पी का भयंकर निष्कर्ष निकलता है। फिल्म के आखिर में भीकू अपनी बहन पर मुनीम की कुदृष्टि को जब देखता है, वह अपनी ही बहन की कुल्हाड़ी से हत्या कर देता है! फिल्म भीकू लहण्या जैसे मजलूम आदिवासी लोगों के ऊपर किये गये अत्याचारों को अति यथार्थवादी रूप में जाहिर करती है और अपने भयंकर समाप्ति के बाद दर्शकों को स्तब्ध कर देती है।


बहुत कम लोग जानते हैं कि विख्यात लेखक अरुंधती राय ने एक फिल्म में काम किया था और वे उसमें आदिवासी लड़की ‘सायला’ बनी थीं जिसे बिना मेकअप के उन्होंने सहजता से निभाया था। यह फिल्म थी, ‘मैसी साहब’ जो 1985 में आई थी। पर्यावरणविद प्रदीप कृष्ण द्वारा निर्देशित यह फिल्म 1929 में मध्य भारत के देशकाल और वातारण में एक अंग्रेजीदां भारतीय क्लर्क फ्रांसिस मैसी (रघुवीर यादव) की महत्वाकांक्षा पर आधारित है जो एक आदिवासी लड़की सायला से प्यार कर उससेे विवाह कर लेता है। इस विवाह में ग्रहण तब लगता है जब मैसी आदिवासी परंपरा के अनुसार वधू मूल्य नहीं चुका पाता है और सायला को उसके घर वाले वापस ले जाते हैं। पूरी फिल्म में सायला चुप रहती है जो उपनिवेशवादी अत्याचार की गवाही का प्रतीक है। एनएफडीसी द्वारा निर्मित और अंतर्राष्टीय पुरस्कारों से सम्मानित यह फिल्म आदिवासी परिवेश, जीवन और व्यवहार को वास्तविकता में पेश कर सकी है।





आदिवासी क्षेत्रों में एक बड़ी समस्या आदिवासी लडकियों का शारीरिक शोषण रहा है। इसी तरह की एक वास्तविक घटना पर निर्देशक जगमोहन मूंदड़ा ने 1985 में फिल्म बनाई थी जिसका नाम था, ‘कमला’। एक पत्रकार (मार्क जुबेर) को पता लगता हे कि मध्यप्रदेश की आदिवासी लड़कियों को खरीदा जाता है तो उसे खबर बनाने वह भी एक लड़की कमला (दीप्ति नवल) को खरीद लाता है और दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस करके आदिवासी लड़कियों की बिक्री की जानकारी देता है। अपने विषय के लिहाज से यह एक साहसिक फिल्म थी जिसकी सफलता में संदेह था पर इसे पर्याप्त तारीफ मिली। यह फिल्म ह्यूमन ट्रेफेकिंग की समस्या के साथ कथित सभ्य वर्ग के द्वारा आदिवासियों के उत्थान को दिखाने के लिए उन्हें एक वस्तु मात्र समझने की मानसिकता को जाहिर कर पाने में सफल होती है।


मनुष्य की सुविधा और नागर सभ्यता की पूर्ति के लिए सबसे अधिक नुकसान आदिवासी समाज ने झेला है। प्राचीन काल में आदिवासी समूहों का बाह्य संपर्क अधिक नहीं था तब तक उनकी समस्यायें अधिक नहीं थीं पर आधुनिक दुनिया में उपनिवेशवादी ताकतों ने जब अपने भौतिक - आर्थिक विकास के लिए संसाधनों पर कब्जे की शुरुआत की तो उसके प्रभाव में आदिवासी ही आये। ऐसे में, संघर्ष होना स्वभाविक था। इस संघर्ष ने आदिवासी समाज से प्रखर क्रांतिकारी नेता दिये जिन्होंने अपने तीव्र प्रतिरोध से शोषकों को हिलाकर दिया। इन्हीं में से एक क्रांतिकारी हैं, बिरसा मुंडा जिन्हें धरती आबा अर्थात धरती का भगवान कहा जाता है। 2004 में उनके जीवन पर आधारित फिल्म आई थी, ‘उलगुलान एक क्रांति’ जिसे पूर्व लोकसभा उपाध्यक्ष करिया मुंडा ने लिखा था और अशोक शरण ने निर्देशित किया था। इस फिल्म में बिरसा मुंडा द्वारा ‘दिकुओं’ अर्थात अंग्रेज सरकार और जमींदारों के खिलाफ चलाई गई क्रांति को आदिवासी जीवन और संस्कृति के साथ प्रभावी तरीके से फिल्माया गया है। यह फिल्म अन्य आदिवासी नायकों पर इसी तरह के बायोपिक बनाये जाने की जरूरत को प्रेरित करती है।





आदिवासियों के प्रति गैर आदिवासियों या कहें, प्रभु वर्ग की मानसिकता को पहली बार किसी बड़ी व्यवसायिक फिल्म ‘चक दे इंडिया’ (2007) में वास्तविक रूप में जाहिर किया गया है। इस फिल्म में चार आदिवासी लड़कियां जो झारखंड और पूर्वोत्तर भारत की हैं, वे भारतीय हाॅकी टीम की सदस्य हैं। प्रैक्टिस और चयन के लिए पूरी टीम जब साथ होती है तो दिल्ली की एक सीनियर प्लेयर के द्वारा उनके आदिवासी होने को जंगली होने के भाव में मजाक उड़ाया जाता है और सहजता में ही यह भी पूछ लिया जाता है कि वे सांप-वांप तो नहीं खाती हैं? वास्तव में इन हाॅकी प्लेयर्स के बिना भारतीय हाॅकी टीम की कल्पना ही नहीं की जा सकती है पर फिल्म में उनकी संख्या तो कम दिखाई ही गयी है, उन्हें अशिक्षित, गंवार और हिंदी न बोल पाने वाली खिलाड़ी के रूप में दिखाया गया है। खास बात यह भी है कि इन आदिवासी खिलाड़ियों को फाइनल टीम में जगह नहीं मिलती और पूरे समय टीम से बाहर रखा जाता है। गौरतलब है कि भारतीय हाॅकी आरंभ से ही झारखंड के आदिवासी हाॅकी प्लेयर्स से सजी हुई है और तमाम विश्वस्तरीय प्रतिस्पर्धाओं में भारत को विजेता बनाया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 1928 ओलंपिक में पुरुष हॉकी टीम के कप्तान जयपाल सिंह मुंडा हैं जो एक मुंडा आदिवासी थे और जिनके नेतृत्व में भारतीय हाॅकी टीम ने स्वर्ण पदक जीता था। जयपाल सिंह मुंडा ने ऑक्सफोर्ड से शिक्षा पाई थी, भारतीय सिविल सेवा के लिए चयनित हुए थे और संविधान सभा के सदस्य भी थे। इसी फिल्म में मणिपुर और मिजोरम की आदिवासी खिलाड़ी लड़कियों को वस्तु की तरह समझे जाने को भी जाहिर किया गया है। फिल्म में उन्हें माडर्न बताया गया है जिनसे पुरुष उनका ‘रेट‘ पूछते हैं। इस रेट पूछने के पीछे यही मानसिकता है कि पूर्वोतर के लोग भारतीय नहीं, ‘चीनी या नेपाली‘ होते हैं और आसानी से उपलब्ध हो सकते हैं। यह फिल्म इन दृश्यों में आदिवासी मुद्दों को और बेहतर कर सकती थी पर यह एक सीमा से अधिक न हो सका।




हिंदी सिनेमा में कुछ वर्ष पूर्व 2017 में रिलीज ‘न्यूटन’ एक ऐसी फिल्म है जिसमें बस्तर के आदिवासी इलाकों  की चुनाव-प्रक्रिया को यथार्थ रूप में पेश किया गया है। यह फिल्म मनोरंजक तरीके से छत्तीसगढ़ के बस्तर में आदिवासियों को जो एक तरफ नक्सली तो दूसरी तरफ पुलिस के बीच की पीड़ादायक स्थिति में फंसे हुए हैं, उस समस्या को प्रस्तुत करती है। फिल्म में उन्हें नक्सली मतदान से मना करते हैं वहीं प्रशासन लोकतंत्र की मजबूती के लिए वोट देने के लिए प्रेरित करता हैं। इस दोतरफा मार में फंसे आदिवासियों को यह भी मालूम नहीं कि उनके क्षेत्र से उनका उम्मीदवार कौन है। फिल्म ‘न्यूटन’ के माध्यम से आदिवासियों के तकलीफदेह जीवन और उनके प्रति सरकारी उदासीनता को वास्तविक रूप में पेश कर पाती है। यह फिल्म अमित वी. मसूरकर ने निर्देशित की थी और इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्टीय अवार्ड तो मिला ही, यह ऑस्कर अवार्ड के लिए भी भेजी गई थी।




सिनेमा में आदिवासी विषय पर ‘भूलन द मेज’ फिल्म जोे छत्तीसगढ़ी और हिंदी में बनी है, उसका उल्लेख करना आवश्यक है। यह फिल्म मिथक से जागरण की उज्जर कथा है जो भविष्य के सिनेमा के लिए लाइट हाउस की भूमिका में खड़ा हो गया है। इसका कथानक एक साहित्यिक रचना है। रायपुर के साहित्यकार संजीव बख्शी के उपन्यास ‘भूलन कांदा’ पर आधारित इस फिल्म को निर्देशक मनोज वर्मा ने जिस तरह से सेल्युलाइड पर उतारा है, वैसा हिंदी सिनेमा में भी देखने को कम मिलता है। फिल्म छत्तीसगढ़ी आदिवासियत की सामूहिकता, सहकार और जीवन मूल्यों को सफलतापूर्वक जाहिर करती हैं। यह भाव साहित्य और सिनेमा में कम ही देखा गया है। छत्तीसगढ़ में मान्यता है, जंगल मे भूलन कांदा की बेल पर पैर पड़ जाने से इंसान जंगल मे भटक जाता है और जब तक कोई आकर उसे छूता नहीं, वह भटकता ही रहता है। यहां भूलन कांदा प्रतीक है कथित सभ्य समाज का जो मनुष्यता से, सामूहिकता से, जीवन की सरलता से, प्राकृतिक सहअस्तित्व से दूर होकर जीवन की विसंगतियों में उलझा हुआ है जिसे वास्तविक ‘मुख्यधारा’ का आदिवासी समाज इस कहानी के माध्यम से जगा रहा है। ग्रामीण सामूहिकता के माध्यम से यह फिल्म न्याय व्यवस्था और प्रशासन पर वाजिब सवाल खड़ा करती है और जनमानस को समझने की सम्यक दृष्टि देती है। यह फिल्म सबसे पहले इटली के मेडिटेरियन फिल्म फेस्टिवल में अक्टूबर 2017 में प्रदर्शित की गई। इसके बाद यह फिल्म इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल कैलिफोर्निया, कोलकाता के नेज इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में सम्मानित हुई और 67वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में फिल्म को सर्वश्रेष्ठ क्षेत्रीय फिल्म का सम्मान भी प्राप्त हुआ है।




भारतीय सिनेमा में वंचित वर्गों की आवाज, जीवन, पीड़ा और प्रतिरोध को प्रदर्शित करने में समकालीन तमिल फिल्म उद्योग आगे है। 2021 में टी. जे. ज्ञानवेल द्वारा निर्देशित फिल्म ‘जय भीम’ तमिल के साथ हिंदी में भी प्रदर्शित हुई थी। फिल्म का शीर्षक अंबेडकरवादी नारा अवश्य है पर यह एक संवेदनशील वकील के द्वारा पुलिस हिरासत से भागे हुए एक गरीब आदिवासी को न्याय दिलाने की कहानी है। वास्तविक कहानी पर आधारित यह फिल्म गरीबों और हाशिए के लोगों के प्रति पुलिसिया रवैये को यथार्थ रूप में पेश तो करती ही है, फिल्म हिरासत में रखे जाने के कानून की समीक्षा भी करती है। यह फिल्म ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज हुई थी और IMDb की सर्वोच्च रेटिंग तक जा पहुंची थी। यह फिल्म सिनेमा का ऐसा महाकाव्य है जिसे शोषितों जो कि सबसे ज्यादा दलित और आदिवासी हैं, पर फिल्म बनाते समय आदर्श के रूप में रखा जाना चाहिए। तमिल सिनेमा में जातीय भेदभाव को लेकर वहां के युवा निर्माता निर्देश पा. रंजीत बहुत मुखर हैं। उन्होंने ‘काला’ और ‘कबाली’, जैसी फिल्में बनाई हैं जो सतह के भीतर जाति आधारित समाज की आलोचना और बहुजन नायकत्व की अवधारणा को लेकर चलती हैं। इसी वर्ष उनकी निर्देशित फिल्म ‘थंगलान’ आई है जिसमें उन्होंने आदिवासी इतिहास को जादुई यथार्थवाद के रूप में पेश किया है। तमिल के साथ हिंदी में रिलीज इस फिल्म में कोलार गोल्ड माइन में सोना निकलने से पहले रहने वाले आदिवासी समुदाय का चित्रण किया है। बड़े बजट की किसी फिल्म में आदिवासियों को पहली बार वीर, प्रतिरोधी और वास्तविक रूप में पेश किया गया हैं। खबरें हैं कि पा. रंजीत बिरसा मुंडा की बायोपिक बनाने वाले हैं। चूंकि उनकी प्रस्तुति वर्ल्डवाइड और बहुत बड़े बजट की होती है, इस लिहाज से उनके इस प्रोजेक्ट को देखना रोचक रहेगा।





इन तमाम फिल्मों के अलावा आदिवासियों की उपस्थिति हिंदी नक्सल समस्या पर बनी फिल्मों में भी दिखाई देती हैं। यह फिल्में नक्सलबाड़ी आंदोलन से प्रभावित रही हैं। इन फिल्मों में सीधे तौर पर आदिवासी विमर्श तो नहीं है पर इस हिंसक आंदोलनों में जो अब आतंक का पर्याय बन गया हैं, उसमे सहज ही आदिवासी आ गए हैं। ऐसी कुछ फिल्में जैसे, ‘हजार चौरासी की मां’, ‘लाल सलाम’, ‘चक्रव्यूह’, ‘रेड अलर्ट’, ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’, ‘द नक्सलाईट’, ‘स्प्रिंग थंडर’ और ‘बुद्धा इन टेफिक जाम’ प्रमुख हैं। इन फिल्मों में ‘हजार चौरासी की मां’ और ‘बुद्धा इन ट्रेफिक जाम’ नक्सल समस्या को ठीक ढंग से देखती हैं। अन्य फिल्मों की कहानी का मूल विषय भी नक्सलवाद है जिसमें पिसते आदिवासियों और उनके जीवन संघर्ष को देखा समझा जा सकता है।


यह सर्वविदित है कि व्यवसायिक या लोकप्रिय सिनेमा का मुख्य उद्देश्य धन कमाना रहता है, ऐसे में यह उम्मीद तो नहीं की जा सकती कि कोई बड़ा बैनर आदिवासियों और उनके विषयों को बड़े परदे पर आम फिल्मों की तरह दिखायेगा पर तमिल सिनेमा के निर्माता निर्देशक पा. रंजीत से सीखा जा सकता है कि बहुजन या आदिवासी समाज की ओर से देखे जाने की सिनेमाई दृष्टि कैसी हो सकती है। महान नाइजीरियाई लेखक चिनुआ अचेबे ने लिखा है, ‘‘जब तक हिरण अपना इतिहास नहीं लिखेंगे, शिकारियों की शौर्यगाथायें गाई जाती रहेंगी।’’ यह कथन खासतौर से झारखंड के आदिवासी युवाओं ठीक से समझा है। यहाँ के युवा इन दिनों साहित्य के साथ सिनेमा में आदिवासी विषयों पर बेहतर काम कर रहे है। वे बजट कम होने के कारण डाक्यूमेंट्री फिल्मों को अधिक चुन रहे हैं और आदिवासी संस्कृति, जीवन और संघर्ष को बेहतर प्रस्तुत कर पा रहे हैं। यह सुखद है कि इस विषय पर कुछेक सार्थक फिल्मों और आदिवासी साहित्यकारों, फिल्मकारों के प्रयासों के आधार पर बदलते समय के साथ आशा की जा सकती है कि हिंदी सिनेमा में आगे आदिवासियों को, उनके जीवन को उचित प्रस्तुति मिल सकेगी।





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टिप्पणियाँ

  1. बहुत ज़रूरी और अच्छा आलेख। पीयूष जी को साधुवाद! 'पहलीबार' का शुक्रिया!

    - कमल जीत चौधरी

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