सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'अभिव्यक्ति की आज़ादी किस खोह में है?'

 

सेवाराम त्रिपाठी 


अभिव्यक्ति की आजादी लोकतन्त्र की रीढ़ होती है। इसके बिना लोकतन्त्र निर्जीव हो जाता हुआ। उसकी आत्मा मर जाती हुआ। इस आजादी को जब भी प्रतिबंधित करने की कोशिश की जाती है, लोकतन्त्र डगमगाने लगता है।अभिव्यक्ति की आजादी से व्यक्ति को खुद की स्वायत्तता का बोध होता है। इससे शासक वर्ग को अपनी खामियों को जानने का मौका मिलता है। वह शासक वर्ग जो सत्ता प्राप्त कर अपनी राह से प्रायः विचलित हो जाता है। लेकिन स्थितियां तब और दुरूह हो जाती हैं जब शासक वर्ग अहंकारी हो जाए। जब शासक वर्ग कुछ भी सुनने के लिए तैयार न हो। जब शासक वर्ग बहुसंख्यकों को तुष्ट करने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हो। सेवाराम त्रिपाठी ने इन्हीं स्थितियों के मद्देनजर यह महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'अभिव्यक्ति की आज़ादी किस खोह में है?' 




'अभिव्यक्ति की आज़ादी किस खोह में है?'

            

सेवाराम त्रिपाठी 

  


"चुप्पियां  बढ़ती जा रही हैं

उन सारी जगहों पर

जहां बोलना ज़रूरी था

बढ़ती जा रही हैं वे

जैसे बढ़ते बाल

जैसे बढ़ते हैं नाखून

और आश्चर्य  कि किसी को वह

गड़ता तक नहीं

मैंने एक बुजुर्ग से सुना था 

कि चुप्पियां जब भी बढ़ती हैं

अंधेरे में नदी की तरह 

चुप हो जाता है एक पूरा समाज 

एक जीता-जागता राष्ट्र

भूल जाता है अपनी भाषा

और एक फूल के खिलने से भी 

दरक जाते हैं पहाड़

ऐसे में मित्रों

अगर बोलता है कुत्ता

बोलने दो उसे

वह वहां बोल रहा है

जहां कोई नहीं बोल रहा है"


(चुप्पियां - केदारनाथ सिंह)

 

    

इस दौर में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कई तरह के पहरे हैं, जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए? हमारा संविधान देश के प्रत्येक नागरिक को बोलने की आज़ादी देता है। अपना धर्म चुनने की आजा़दी देता है। अपने को अभिव्यक्त करने की आज़ादी देता है। खान-पान, रहन-सहन और वेष-भूषा की स्वतंत्रता देता है। और जब हमारे बोलने की स्थिति में कोई रुकावट आती है तो संकट बढ़ जाता है। स्वतंत्रता किसी सरकार की कृपा का मामला नहीं है और किसी व्यक्ति के द्वारा दी गई दया की भीख।


"बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल जबां अब तक तेरी है

... ...बोल ये थोड़ा वक्त बहोत है

जिस्म-ओ-जबाँ की मौत से पहले

बोल कि सच ज़िंदा है अब तक

बोल जो कुछ कहने हैं कह ले"


(फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)


    



   

फैज़ ने यूं ही नहीं कहा था। जब भी किसी  व्यक्ति को गूंगा बनाने की कोशिश होती है तो संविधान हमें अधिकार देता है उन्मुक्तता का। किसी भी राष्ट्र को अपने आप से प्रश्न पूछना चाहिए कि क्या उसने देश के सबसे कमज़ोर और अंतिम व्यक्ति को, दबे- कुचले आदमी को न्याय दिलाने की कोशिश की है। उसकी ज़रूरी समस्याओं को निपटाने में उसकी मदद की है। क्या उसने हमें समानता और बंधुत्व की दुनिया तक ले जाने का कोई प्रयत्न किया है। क्या उसने हमारी अस्मिता और आकांक्षाओं को, हमारी सांस्कृतिक विरासत और बहुलता को छेड़ा है। उसने अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बंदिश क्यों लगाई है। हमारी किसी भी आज़ादी को छीनने की साज़िश रची है तो क्यों। ऐसा उसने किस शह पर किया है? आख़िर क्यों ये प्रश्न इस दौर में सामने आ रहे हैं?  प्रश्न है कि क्या देश के नागरिकों को बाईपास कर दिया जाए। यदि ऐसा नहीं किया तो उसकी अभिव्यक्ति की आज़ादी को छीनने का कोई अधिकार किसी सरकार या किसी सत्ता को नहीं होना चाहिए? असमानता, अन्याय और घमंड की तमाम विकृतियों ने दिन-ब-दिन नई-नई चीज़ों और समस्याओं को पैदा किया है। हमारी स्वतंत्रता समानता बहुलता और बंधुत्व को छीनने की साज़िश रची जा रही है?

          


सौभाग्य से हम एक कद्दावर और बहुत बड़े, महान लोकतंत्र में हैं। जिसकी सांस्कृतिक विविधता और बहुलता है, लेकिन हमारी आज़ादी, लोकतंत्र और संविधान को मात्र संसद में मत्था टेक कर तो शायद नहीं बचाया जा सकता? बचाया जा सकता है तो नागरिकों की समस्याओं को ठीक ढंग से हल कर के। लोकतंत्र चलाने के लिए बड़ा दिल और जिगरा होना चाहिए। विपक्ष की संवेदनशील आवाज़ें भी सुनना चाहिए। अन्यथा सब कुछ ढकोसला ही होता है? संवैधानिक मान्यताओं को सुरक्षित और संरक्षित करने की ज़िम्मेदारी गद्दी पर बैठे लोगों की होती है? क्या इस देश का किसान नागरिक नहीं है? क्या उसको कुचल कर समाप्त किया जा सकता है? सही-सही काम  किया जाए तभी  तो कोई बदलाव संभव है। संसद में मत्था टेकने की कवायद आख़िर क्यों की जाए। इस नाटक की ज़रूरत ही क्या है? जब होड़ लगी हो कि आज़ादी, लोकतन्त्र और संविधान की मूल मान्यताओं और भावनाओं को करीने से कुचलना है। संवैधानिक अधिकार, मान्यताओं और संस्थाओं को किस कीमियागिरी से खेलना है। तब अभिव्यक्ति की आज़ादी का क्या मूल्य और औचित्य है। क्या इस पर विचार और पुनर्विचार नहीं होना चाहिए? क्या इसकी कोई गुंजाइश शेष है? मुझे निराला जी की पंक्तियां स्मरण आ रही  हैं।


"गहन है यह अंध कारा

स्वार्थ के अवगुण्ठनों में हुआ

लुंठन हमारा

.. प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की

याद जिससे रहे वंचित  गेह की

खोजता फिरता न पाता हुआ

मेरा हृदय हारा"

       

  

अभिव्यक्ति की आज़ादी को गुलामी में बदलने में ज्यादा वक्त कभी नहीं लगता। अभिव्यक्ति की आज़ादी कोई राष्ट्रीय शगल का बायस नहीं हो सकती। हरिशंकर परसाई ने सच ही लिखा है-"लोग समानाधिकार की बात करते हैं। आदमी-आदमी की समानता की बात तो दूर है। पशु के समान तो अधिकार मिल जाए आदमी को।.." बड़ी-बड़ी बातें बघारना, मनमानी व्याख्याएं हांकना, मनुष्यता का कचूमर निकाल देना है। संविधान और आज़ादी तो  बहुत दूर की दुनिया है। कुछ की नज़र में अभिव्यक्ति की आज़ादी के बड़े -बड़े फतवे जारी किए जाते हैं। जब आज़ादी, जनतंत्र और संविधान ही नहीं होगा तो अभिव्यक्ति की आज़ादी कहां होगी? उसका लोग क्या करेंगे। क्या आचार डालेंगे या मुरब्बा बनाएंगे।




          

लोग प्रश्न उठाया करते हैं। जबकि अभिव्यक्ति की आज़ादी ख़ामोशी की अनंत परतों में भी छिपी रहती है। हम भूमंडलीकृत  आधुनिकता में हैं और कारपोरेट घरानों के कब्जे में। हिंदुत्व जिंदाबाद की आंधियों में अल्पसंख्यक लोगों का जीवन कराह रहा है। फिर भी एक बड़ा तबका ऐसा भी अस्तित्व में आया है जो हमारे सामान्य अभिव्यक्ति रूपों में भी बंदिश लगा देने के पक्ष में है। वैसे सच को सच कहना भी काफ़ी मुश्किल चीज़ है। और सक्षम अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाने ही पड़ते हैं। मुक्तिबोध ने लिखा भी है कि -


"अब अभिव्यक्ति के खतरे

उठाने ही होंगे

तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब"


जाहिर है कि अभियक्ति के खतरे राजनीति में, धर्म नीति में, सभ्यता संस्कृति और समाज में व्याप्त हैं। हमारे देश का एक हिस्सा इसमें खुश रहना चाहता है कि सत्ता की मार्केटिंग और उसकी किसी भी बात पर चुप्पी लगाई जाए। लेकिन ज़िंदा हकीक़त का कोई क्या करे। हम इस दौर में मूल्यहीन संपन्नता की विकृतियों को, भयावह अंधेरे में उठती हुई चीख़ों को देख सुन रहे हैं। क्या इन पर आवाज़ नहीं उठनी चाहिए या नहीं उठानी चाहिए। सिस्टर निवेदिता को पत्र लिख कर स्वामी विवेकानंद ने बताया था। "खून चूसना ही जब मुख्य विचार हो, तब भलाई नहीं हो सकती। कुछ  आधुनिकीकृत अर्द्धशिक्षित राष्ट्र -बहिष्कृत लोग ही वर्तमान अंग्रेज़ी सरकार मुझे यहां से उठा कर इंग्लेंड ले जायेगी और फांसी दे देगी।"

   

क्रूरता और उन्माद में, कट्टरता के साथ लोकतंत्र नत्थी कर दिया गया है। सफ़ाई देने से क्या होगा? हमारे अनेक लेखक जनतंत्र के लिए निरंतर प्रयास करने में जुटे हैं। तरह -तरह की चर्चाओं से अवाम का ध्यान बंटा रहे हैं। लेकिन सभी ऐसे नहीं हैं? मुक्तिबोध ने एक लंबा अरसा पहले इस यथार्थ को भांप लिया था। उनके शब्द हैं - "हमारे बहुत से कवि और कथाकार, (इसमें अन्य को भी शामिल कर लें) मारे डर के, उस वास्तव को नहीं लिखते हैं जिसे ये भोग रहे हैं, क्योंकि ये उस वास्तव से उड़ जाना और उड़ते रहना चाहते हैं। अनुभूत वास्तव का आज जितना अनादर है उतना पहले कभी नहीं था।" (एक साहित्यिक  की डायरी)

     

कोई भी अपनी असीमित लिप्सा की वजह से राष्ट्र की लोकतांत्रिकता को अपाहिज नहीं बना सकता? क्योंकि जैसा कि जय शंकर प्रसाद ने लिखा है कि - "अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है। अपने को नियामक और कर्ता समझने की बलवती स्पृहा उससे बेगार कराती है।" अभिव्यक्ति की आज़ादी इस दौर में प्रश्न वाचकों के सामने है। इस प्रश्न पर बार-बार विचार और पुनर्विचार होता रहा है। 


संविधान हमें अधिकार देता है आज़ादी से जीने का गुलामी का नहीं। यदि उस पर कार्रवाई हुई पहरा बिठाया गया तो भारतीयता और स्वतंत्रता दोनों अभिशप्त होगी। राष्ट्रवाद-राष्ट्भक्ति और झूठ की फैक्ट्रियां वाट्सएप यूनिवर्सिटियों से सत्ताएं अपने को मजबूत करने की होड़ में हैं। ये अत्यंत संकुचित मानसिकता है? यहां किसी एक धर्म को तवज्जो नहीं दी जा सकती?


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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


सम्पर्क 


रजनीगंधा 

06, शिल्पी उपवन ,

अनंतपुर 

रीवा (म. प्र.)


मोबाइल - 7987921206

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