प्रभाकर सिंह की कविताएं
प्रभाकर सिंह |
कवि परिचय
प्रभाकर सिंह, हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में प्रोफेसर हैं। कविता, इतिहास लेखन और भाषा चिंतन में इनकी विशेष रूचि है। 'आधुनिक साहित्य : विकास और विमर्श', प्रतिश्रुति प्रकाशन, कोलकाता और 'आलोचना के दायरे', साहित्य भंडार प्रकाशन, प्रयागराज से पुस्तकें प्रकाशित। वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से 'भारतीय भाषाओं में रामकथा' और लोकभारती, प्रकाशन, प्रयागराज से 'रीतिकाल : मूल्यांकन के नए आयाम' संपादित पुस्तकों का प्रकाशन। हिंदी साहित्य ज्ञानकोष में 5 अध्यायों का लेखन। साखी, पक्षधर, बनास जन, कथा क्रम, साक्षात्कार और समीक्षा जैसी पत्रिकाओं में विभिन्न लेखों और समीक्षाओं का प्रकाशन। कुछ पत्रिकाओं में कविताओं का भी प्रकाशन। पिछले दिनों कोरोना काल में वाणी शिक्षा डिजिटल गोष्ठी के अंतर्गत 'हिंदी साहित्य का इतिहास: अध्ययन की नई दृष्टि विषय पर 31 व्याख्यानों का संयोजन विशेष चर्चा में रहा।
संयुक्त परिवार भारतीय जीवन शैली की विशेषता रहे हैं। लेकिन वर्तमान जीवन पद्धति ने इस परिवार व्यवस्था में दरार डाल दी है। पहले हर घर में दादा दादी होते थे। उनकी सीख घर के हर सदस्य को सहज ही उपलब्ध थी। दादा दादी द्वारा रात को सोते समय सुनाई गई कहानियां चरित्र ही नहीं बल्कि जीवन का निर्माण करती थीं। आज के विपुल कविता लेखन में संबंधों पर आधारित कविताएं दुर्लभ हैं। दरअसल आज का हमारा जीवन ही कुछ ऐसा है जिसमें दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ-फूफा, मौसी-मौसा जैसे रिश्तों के लिए जगह ही नहीं है। शायद हमारी पीढ़ी वह आखिरी पीढ़ी है जिसने अपने दादा-दादी से रात को सोते समय किस्से-कहानियां सुनी हैं। प्रभाकर सिंह बी एच यू में हिन्दी के प्रोफेसर हैं और हिन्दी साहित्य के गंभीर अध्येता हैं। प्रभाकर एक सुधी आलोचक भी हैं। इन्होंने कुछ बेहतर कविताएं भी लिखी हैं। 'दादी के किस्से' जैसी उम्दा कविता उन्होंने लिखी है। आइए आज हम पहली बार पर पढ़ते हैं प्रभाकर सिंह की कविताएं।
प्रभाकर सिंह की कविताएं
सपने में महानायक
कल मेरे सपने में मैंने
महानायक को देखा
वह महानायक जो
दुनिया की बेहतरी के लिए
किसी सपने के नायक की
खोज में भटके नहीं, उन्होंने
अपने सपने के कारखाने से
अनगिनत नायकों को पैदा किया
जो आने वाली पीढ़ियों के लिए
नवांकुर सपनों भर दें
सपने में मैंने देखा
महानायक दुखी हैं
प्रतिरोध की वह आवाजें जो
कागजों में कैद हो गई हैं
समय के नायकों ने
समझौते के पत्र पर दस्तखत करके
अपने ही लोगों के हक को
सत्ता के पक्ष में गिरवी रख दिया है
महानायक दुखी हैं कि
लुभावने और मोहक विज्ञापनों ने
तुम्हारे मन को नहीं तुम्हारी
चेतना को भी कैद कर लिया है
तुम्हारे नथुनों में अपने त्रासद
परिवेश के गंध की जगह
विज्ञापन की नकली महक
भरी हुई है और तुम
बेतरह झूम रहे हो
महानायक की उंगली
अभी भी दिखा रही है
संकेत कर रही है कि
जाना तो तुम्हें इधर था
तुम उधर क्यों चले गए
अनंत सवालों के बीच
अभी भी एक थका हुआ
और बूढ़ा उत्तर तुम्हें
संतुष्ट क्यों कर देता है
महानायक बता रहे हैं कि
अपने हिस्से का दुख
संजो कर रखो, अपनी घृणा
का खुद इजहार करो, वर्ना
तुम सिर्फ प्यासे के प्यासे
रहोगे, तुम्हारे हिस्से का जल
कोई और पी जाएगा
इस नई सदी के
नए समय की चमक में
तुम्हारे गुम हो से महानायक
की चिंता और भी बढ़ गई है
अब जब कि जाति और
अधिक जाति हो गई है
धर्म और अधिक धर्म
तुम्हारे सपने के टूटने की
आवाज अब भी तुम्हें
सुनाई क्यों नहीं देती
दो महान कवि
अक्सर मैं सोचता हूं
जब रहीम तुलसी से
मिलने चित्रकूट गए होंगे
महान अकबर से कहा होगा
जहांपनाह कवि से मिलने जा रहा हूं
जिसकी कविता की जमीन का कद
इन महलों के कंगूरों की ऊंचाई से
दरबारों के शान से कहीं ज्यादा बड़ा है
दो महान कवियों के मिलन के साक्षी
वह पेड़, पौधे, नदी, गुल्म और हवाएं
क्या सोचती होंगी, कैसे प्रेम से
निहार रही होंगी दोनों को
तुलसी से मिल रहीम
अवधी पर रीझे होंगे
रहीम से मिल तुलसी का
मन ब्रज से दीप्त हो गया होगा
तुलसी के राम,राम से
गरीबनवाज बन जाते हैं
रहीम के दोहों में
रघुवीर समा गए होंगे
महान तुलसी के सम्मान में
महान अकबर ने
'सियाराम मय सब जग जानी'
नाम का सिक्का ढलवाया
वह सिक्का जिस टकसाल में ढला
वह भाषा की साझी विरासत
का सबसे खूबसूरत टकसाल था
दादी के किस्से
दादी को कभी झक साफ
सफेद साड़ी पहने नहीं देखा
खिलाते हमारे बालों में तेल लगाते
आंखों में काजल आंजते
सूप से दाना पछोरते
अपने पांव में आलता सजाते
रंगों से मिल कर दादी की
साड़ी का रंग बनता था
यह सब करते हुए वह
या तो कुछ गुनगुना रही होती
या तो गाली दे रही होती
पर बेहद मीठी, आत्मीय
दादी को कभी किसी बात
पर रोते नहीं देखा
सबको डांटते देखा
पर लड़ते नहीं देखा
जब वह फुर्सत में होती है
तो हमें कुछ किस्से सुनाती
इन अनगिनत किस्सों कहानियों
को सुनाते सुनाते अक्सर उसकी
आंखों में हमने आंसुओं को बहते देखा
अब लगता है कि वह कथा के
आंसू में अपने निजी दुख के
आंसू मिला कर रोती थी
गोया हमें महसूस हो कि
वह किस्से के आंसू हैं
उन किस्सों के पात्रों से
हमारी मुलाकात नहीं थी,
हां, हमने हमारे जीवन की सबसे
सुंदर जीवित कथा को देखा था
हमने हमारी दादी को देखा था
साथी
सपने में तुम्हारे जो
आशा का दीपक है।
उसकी उम्मीद की मैं
हसरत भरी बाती हूं।।
तुम्हारे वर्तमान की
जो उर्वर ज़मीन है।
उसके इतिहास की,
मैं संघर्ष भरी थाती हूं।।
हर समय साथ चलने
और होने का दम भरता हूं।
बात कुछ और नहीं,
बस थोड़ा सा जज़्बाती हूं।।
तुम्हें अपनी ज़मीन,
अपना मकान मुबारक हो।
मैं तो किराए के मकान
का रहवासी हूं।।
तुम्हारे चाहने वालों में,
समझदार बहुत हैं।
मुझे संतोष है कि,
मैं सिरफिरों का साथी हूं।।
मेरा समय
मेरा बीता समय
मुझे मेरी खोई हुई किताब सा
मिल गया, बंद अलमारी में
किताब में मेरे लगाए
चिह्न और चिप्पियां बहुत कुछ
जस की तस दिख रही थीं
हां उसमें छपे शब्दों और वाक्यों ने
अपने मायने बदल लिए थे
मसलन, क्रूरता के बारे लिखे वृतांत
हमारे समय की चमकदार
वस्तु में तब्दील हो गए थे
घृणा के बारे में लिखे गए शब्द
और अधिक रसीले हो गए थे
मुझे याद है उस किताब में दर्ज
युद्ध का वर्णन पढ़ते समय
मैं कई रात सो न सका था
वही दृश्य इस समय पढ़ते हुए मैं
चाय पर उनकी चर्चा कर रहा था
प्रेम के बारे में उस किताब में
जो नाजुक अल्फ़ाज़ थे उसे
प्रायः दीमकों ने चाट लिया था
और नायकों का तबादला
खलनायकों मे हो गया था
मेरी वह खोई हुई किताब
मुझे अब भी पानी की तरह
पढ़ रही थी और मैं उसे
पत्थर की तरह निहार रहा था
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स युवा चित्रकार मनोज कचंगल की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 09450623078
ई मेल : prabhakarsinghbanaras@gmail.com
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