जावेद आलम खान की कविताएं
हिन्दी कविता में ऐसे कवि कम ही हैं जिनको पढ़ते हुए नएपन का अहसास हो। चाहें वह विषय हो या शिल्प, हर जगह एकरूपता, या कह लें विषयों का दोहराव ही दिखाई पड़ता है। इस क्रम में युवा कवि जावेद आलम अलग दिखाई पड़ते हैं। दृष्टि की सूक्ष्मता, कहने का साहस और शिल्प को बरतने की एक साफागोई उनकी कविताओं में दिखाई पड़ती है। ऐसा नहीं कि भाषा के स्तर पर वे कोई तिलिस्म रचते हैं। सामान्य भाषा में ही प्रभावपूर्ण ढंग से वे अपनी बातें रख देते हैं। हाल ही में बोधि प्रकाशन से उनका पहला संग्रह आया है। उनका यह संग्रह हमें आश्वस्त करता है। संग्रह की बधाई देते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनके इसी संग्रह की कुछ कविताएं।
जावेद आलम खान की कविताएं
शिनाख्त
गूंगी तहरीरों में दर्ज हुई इतिहास की शिनाख्त
मुर्दा आंदोलनों के मसीहा
इंसानियत की कब्र पर पढ़ते रहे फ़ातिहा
चिड़ियों ने सीखा रूदन का संगीत
दुनिया कातिल की जगह हथियार की पहचान में मसरूफ है
शीशे के चेंबरों में बैठी शराफत
मुर्गों की लड़ाई पर शर्त लगा रही है
आखिर कौन था वह
जिसने ए बी सी डी लिखते नौनिहालों के हाथ से पेंसिल छीन कर
अपने मन मुताबिक शार्पनर से छील कर
उसे चाकू की तरह इस्तेमाल करना सिखाया
कठफोड़वा के साथ खेलते नौनिहालों ने
पेंसिल से लिखने की बजाय
आंख फोड़ने की कला सीखी है
कॉपियों के वे तमाम पन्ने आग के हवाले हैं
जिनके हवाई जहाज और कश्तियां बनाई जानी थीं
चिड़ियों और बच्चों के साथ सभी ने कुछ न कुछ सीखा
बुजुर्गों ने सीखा
जलते शहर में बर्फ की तरह जमे रहने का हुनर
नौजवान सीख रहे थे उन्माद की भाषा
महिलाएं सीख रही थीं आबरू ढोने के गुर
सिर्फ कुछ लड़कियां थीं जो हिरणों के ख्वाब पाले
भेड़ियों के झुंड से घिरी थीं
और गर्दन उठाए डूबते सूरज को देख रही थीं
बासी कामुकताओं से परिभाषित हुआ पुरूषार्थ
उठी हुई गर्दनों से भयभीत है
दक्षिण के बारूद पर बैठी दुनिया की यह अंधी तस्वीर है
कंदील के आंसू
खिले हुए तारे चुम्बनो की वह भाषा हैं
जिसे रात की देह पर उजाले ने निशान के रूप में छोड़ा है
अलसाए आकाश ने शाम ढलते ही
अष्टमी के चांद को आंचल में छिपा लिया है
तार की रगों में दौड़ने वाली विद्युत
लाखों आंखों को बंद कर के ट्रांसफार्मर में सोई है
लाइट की गैरमौजूदगी में सन्नाटों के बीच
अपने स्त्रीत्व के दूसरे ध्रुव पर खड़ी
पति की बेरूखी में नींद से असहयोग करती स्त्री
कमरे में पिघलती
कंदील के आंसुओं में झर रही है
अच्छाइयों का भक्षण करती
अपनी ही नकारात्मकताओं की तरह
खून चूसते मच्छर
रात में निकले अंधेरे के चौकस सिपाही हैं
जिन्हे इत्मीनान से मार कर
युवा नेता की ठसक वाला नवधर्मपरायण लड़का
अपने ही खून से अपने हाथ रंगता है
और खुश होता है गीता के सिद्धांत का हवाला दे कर
कि आतताइयों का नाश होना ही चाहिए
और वह जिसने पुरुषत्व को पुरूषार्थ समझा है
एक जरूरी काम से फारिग हो कर
आंख बंद किए औंधा पड़ा है
रात गहराती जा रही है पूरी शक्ति के साथ
उसका अंधेरा पुरूष की चेतना पर छाया है
और नीरवता स्त्री की नियति में
जबकि लड़का सपनों में सितारे बीन रहा है
पड़ोसी के हिस्से की रोशनी छीन रहा है
नींद की तलाश में हूं
तुम्हारे कपासी स्पर्श से
जो शरीर पर उग आते थे
वहीं कांटे
तुम्हारी स्मृति में
तकिए पर उभर आए हैं
मैं नींद की तलाश में हूं
कैसे दिन आ रहे हैं
दफ्तरों की सीट पर अजगर
मदरसों की बेंच पर तोते
राजभवन की क़ालीनों पर मेंढक
गले में राजाज्ञा की तख्ती लटकाये
घर घर मंडराते अफीमची कबूतर
सड़क पर लोथों की दुर्गन्ध
मांस नोचते गिद्ध और भेड़ियों के झुण्ड
गहरी मित्रता निभा रहे हैं
कैसे दिन आ रहे हैं
बांसुरी का शोक
कहते हैं एक ज़माने में
जलते हुए शहर को
प्रेम राग सुना रही थी
किसी बदनाम बादशाह की बांसुरी
जबकि बांसुरी जानती है
कि उसके छलनी शरीर में फूंकने से
उत्पन्न हुए स्वर
दरअसल रोम का पीड़ा गान था
जिसे आत्ममुग्ध नीरो ने
संगीत मान लिया था
ख़त
तुम्हारा जाना
मेरे जीवन की कोई
भीषण दुर्घटना नहीं है
न ही उस कागज के टुकड़े में
तुम्हारी खुशबू आती है
मैंने इसलिए सहेजा
तुम्हारा आखिरी खत
कि उसके हरेक हर्फ से
मेरी कविताएं जन्म लेती हैं
उम्र गुजरती गई
जिस उम्र में जलालुद्दीन मोहम्मद
गद्दीनाशीन हो कर अकबर ए आजम कहलाए
उस उम्र में मुझे आकर्षित कर रहे थे
पीत पत्रकारिता के अश्लील इश्तहार
जिस उम्र में माराडोना के पंजे
फुटबाल के मैदान को जादू सिखा रहे थे
मैं उस उम्र में फिकरेबाज लौंडों की सोहबत में
भदेस भाषा का व्याकरण लिख रहा था
जिस उम्र में तूतनखामेन दुनिया का पहला अचंभा ईजाद कर रहा था
मैं उस उम्र में तुम्हारे प्रेम में पड़ कर सूरजमुखी बन गया था
तुम जिधर जाती उधर ही घूम जाता दिन भर
तुम्हारे ताप से झुलसा मगर आंख मिलाता रहा
फिर शाम हुई और मेरे देखते ही देखते
हाथ हिलाते हुए क्षितिज की आड़ में गुम हुई तुम
और झुलसी हुई पंखुड़ियों के साथ
मुझे गुजारनी पड़ी एक लंबी काली रात
जिसका कभी अंत नहीं हुआ
जिस उम्र में सिकंदर के बेड़े सागर की छाती पर
दहाड़ते हुए निकले थे विश्व विजय के लिए
मैं उसी उम्र में प्रेम वियोग की नाटिका में
शुतुरमुर्ग का अभिनय करने में व्यस्त था
रेत में छिपी गर्दन दुनियावी हलचलों से बेखबर
हां और न की स्वीकृतियों में हिलने इंकार करती रही
बंद आंखों में हर रोज एक असफल देवदास
आत्महत्या के लिए किसी चौखट पर सर पटकता रहा
पर कहीं से नही आई सांत्वना की एक भी पुकार
आह मैने इतिहास से कुछ नही सीखा
नौकरी की तलाश करती किताबों में डूबी
मेरी जवानी यू ट्यूब पर चलती फिल्म में
उस विज्ञापन की तरह आई
जिसे स्किप कर के लोग आगे बढ़ जाते हैं
मैं उम्र के दूसरे पड़ाव के आखिरी छोर पर खड़ा हूं
सपाट भाषा में कहूं
तो मैं बचपन से सीधा अधेड़ हुआ हूं
और अब जबकि मुझे होना चाहिए एक सफल पिता
एक स्नेहिल अध्यापक
एक जिम्मेदार पति
एक लोकतांत्रिक नागरिक
तब इतिहास से प्रेरणा लेते हुए
मैं अधेड़ उम्र के बदनाम तानाशाह की तरह
अड़ियल खडूंस और जिद्दी कवि बन कर
सिर्फ कविताओं में खर्च कर रहा हूं बची हुई उम्र
तुम देखना चांद
तुम देखना चांद
एक दिन कविताओं से उठा ज्वार
अपने साथ बहा ले जायेगा दुनिया का तमाम बारूद
सड़कों पर कदमताल करते बच्चे
हथियारों को दफन कर के
जमीन को उसका सारा लोहा वापस कर देंगे
और उसकी खाद बना कर फूल उगाएंगे
तुम देखना एक दिन शब्दों की दुनिया से
चुन चुन कर निकाले जाएंगे अपमानजनक संबोधन
लोलुप जीभ अपनी लार समेत
अभ्यस्त हो जायेगी अपनी सीमाओं में रहना
तुम्हारी चांदनी बेनकाब कर देगी घात लगाए भेड़ियों को
लड़कियां गुड्डे गुड़ियों के खेल और मोबाइल की हद से बाहर निकल कर
बेखौफ हो कर खेल सकेंगी छुप्पम छुपाई
तुम देखना और मुस्कुराना उस बरगद के साथ
जिसकी छांव खाप की कैद से मुक्त होगी
जब खिलखिलाहट पर लगे सारे प्रतिबंध
सरे राह लड़कियों के पैरों तले रौंदे जायेंगे
जब गैर बराबरी का हर दकियानूसी दस्तावेज
चूल्हे का ईंधन बनेगा
जिसके इर्द गिर्द बैठ कर बुजुर्ग सर्दियों में हाथ तापेंगे
तुम देखना चांद
एक दिन धरती के यान तुम्हारी तरफ बढ़ेंगे
लेकिन उनमें साम्राज्यवाद का कोई पिट्ठू नहीं होगा
तानाशाहों का मुंह चिढ़ाते कुछ बच्चे होंगे
जो तुम्हे गेंद समझ कर खेलने आ रहे होंगे
उनके साथ होंगी दादियां और नानियां
जो तुम्हारी जमीन पर पलथी मारकर बैठेंगी
और इतमीनान से चरखे से सूत कातेंगी
तुम देखना चांद
कि बम वर्षा से घायल हुई पृथ्वी की देह पर
तुम्हारी चांदनी का लेप होगा
और उसकी शीतल छुअन से रोमांचित किसान
अपनी उंगलियों की कारीगरी से
धान के नन्हे पौधों से धरती को ढक रहा होगा
तुम साक्षी रहना चांद
कि जिस दिन युग करवट बदलेगा
मानवता उतार फेंकेगी कुंभकर्णी कवच
धरती के दोनो ध्रुवों से पिघला हुआ पानी
प्रेमियों की आंखों में उतर आएगा
और वे अपनी संपूर्ण तरलता के साथ दौड़ते हुए
भूमध्य रेखा पर आ कर मिल जायेंगे
तुम उन्हे स्नेह से देखना
और उनके श्रम श्लथ चेहरों पर
अंजुरी भर चांदनी उलीच देना
सभ्यताओं के स्वर्णकाल में
सभ्यताओं के स्वर्णकाल में
हथियारों की खेती हुई और हवस की पूजा
इतनी कि परियों को छुपाना पड़ा कोहे काफ में
खून के रंग वाली धरती और धुंए के आकाश से बने क्षितिज पर
एक कृत्रिम इंद्रधनुष बनाने के लिए
अनगिनत तितलियों को चढ़ानी पड़ी अपनी बलि
जमीन के सीने पर दरार उभर आई थी
दो महाध्रुवों की ओर दुनिया खिंच रही थी
इतनी कि जैसे रस्सियों बंधे पैरों वाला मनुष्य
दो अलग अलग दिशाओं की भीड़ के खींचने पर
बीच से चिरता जाता है
यह खींचतान जमीन से लेकर आसमान तक फैली थी
प्रकृति के दो स्थाई रंग सदियों से जंग में थे
काले और सफेद के शीतयुद्ध में
संतुलन साधक थे बचे हुए रंग
कि एकाएक खबर उड़ी सूरज नई दिशा में करवट ले रहा है
निजाम बदल रहा है ब्रह्मांड का
धूर्त कलमचियों ने काले रंग को लिखा पाप
जरखरीद संगताराशों ने काले रंग के बनाए दस सर
रंगबाजों ने अपनी सुविधानुसार सांवले रंग का अविष्कार किया
काले कारनामे गोरे रंग में छिपकर आए
काली त्वचा बेदखल हुई सभ्यताओं की दास्तान से
जिन बिल्लियों को मिला काला रंग
प्रकृति के समस्त अपशकुन उनके अनुगामी हुए
उनकी सरपरस्ती में हुए दुनिया के तमाम हादसे
उनकी काया की छाया में शरणार्थी हुए अंधेरे
जिन पंछियों को मिला काला रंग
उन पर चालाकी का टैग चस्पा कर दिया गया
उनकी कर्कश और कोमल ध्वनियों को छोड़कर
साहित्य उनकी फितरत को काले अक्षरों से रंगकर
मतलबपरस्ती के मुहावरे गढ़ता रहा
जिन इंसानी नस्लों को मिला काला रंग
उन्हे सभ्यता का दुश्मन मानकर
सभ्य दुनिया की गाड़ी में जोत दिया गया
उनको मारना पाप की जगह पुण्य कहलाया
इतना कि इनके हत्यारे देवता की पदवी से विभूषित हुए
सभ्यताओं के इतिहास रंगों की कलम से लिखे गए
जहां काला रंग अपमान का पर्यायवाची लिखा गया
और उन्हें जन्मजात दास समझने वाली बर्बरता
गोरे रंग में छिपकर सभ्यता कहलाई
राष्ट्रवाद उसी सभ्यता का आधुनिक अवतार है
जो राजतंत्र में रंगों के श्रेष्ठता बोध में छिपा था
और लोकतंत्र में धर्माधता की भीड़ के
दरअसल राष्ट्रवाद देश की किताब में वह पवित्र शब्द है
जिसका मौन वाचन देश की जनता करती है
और सस्वर पाठ हिंसक गतिविधियों में लिप्त ठेकेदार
वह जो मैं हूं
किसी वीरान खंडहर का धन हूं
किसी जन्मांध का काला स्वप्न हूं
आजादी के लिए छटपटाती इच्छाओं का कोष्ठक हूं
मैं खुद ही अपनी उमंगों पर लगा पूर्ण विराम हूं
वह कवि हूं जो अपनी कविताओं का भ्रूण हत्यारा है
वह योद्धा हूं जो बिना लड़े हारा है
वह चालक रहित जहाज हूं जो बे किनारा है
वह तारा जो खुद किस्मत का मारा है
बहती नदी जिसका सारा पानी खारा है
इष्ट की चाह में प्राप्य का हंता हूं
मेरी आंखों पर चढ़ा है मेरा अदृष्ट
मेरी चेतना निर्वात में बदल चुकी है
इक उम्र थी जो गल चुकी है
दुनिया से घबरा कर जब भी अपने में लौटता हूं
खुद को किसी अन्धकूप में पाता हूं
शिखंडी की नींद में जागता हूं
गांधारी के जाग में सो जाता हूं
बाहर से धृतराष्ट्र, भीतर से अश्वत्थामा हो जाता हूं
विद्रोह अंततः एक करूणा है
एक शाम जब परिंदों ने धक्का दे कर सूरज को समुंदर में गिराया था
मुस्कुराती शाम के गालों का रंग जैसे उड़ गया
एक दूसरे को अलविदा कहती चार आंखों में उभर आया पानी
विद्रोही आंसू बन कर निकल पड़ा भीतर से
और रेत में गिर कर बिला गया धरती की कोख में करूणा बन कर
जरूरी नहीं कि विद्रोह सिर्फ तोड़ फोड़ का बायस बने
घर छोड़कर करूणा का अवतार भी बन जाता है
बस उसके साथ सिद्धार्थ का चिंतन होना चाहिए
सम्पर्क
मोबाइल : 09136397400
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