ललन चतुर्वेदी का व्यंग्य 'डूका की नीलामी'

 

ललन चतुर्वेदी


व्यंग्य मर्म पर चोट करने वाली विधा मानी जाती है। और विधाओं में यह पैनापन उस तरह का नहीं होता जो व्यंग्य के मूल में होता है। यह किसी व्यक्ति, विचार, परम्परा, प्रणाली आदि के बारे में हो सकता है। कोई भी विषय व्यंग्य से अछूता नहीं होता। काम करने के बाद रिटायरमेंट एक प्रक्रिया है। लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि कोई भी व्यक्ति रिटायर होना नहीं चाहता। इसे आधार बना कर कवि ललन चतुर्वेदी ने एक व्यंग्य लिखा है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं ललन चतुर्वेदी का व्यंग्य 'डूका की नीलामी'।



डूका की नीलामी                          

                             

                              

ललन चतुर्वेदी 


        

आखिरकार डूका रिटायर हो गया। आदमी हो या जानवर, एक दिन एक दिन सब को रिटायर होना पड़ता है। जानवर रिटायर होता है तो उसकी चर्चा नहीं होती। उसका कोई प्रतिनिधि नहीं है। उसका कोई संगठन नहीं है। चूँकि डूका एक बड़े आदमी की पहरेदारी एवं सुरक्षा के लिए नियुक्त था, इसलिए उसके रिटायरमेंट और नीलामी की संक्षिप्त चर्चा हुई। खबर पढ़ी तो मैं भी थोड़ा दुखी हुआ पर उतना नहीं जितना रिटायर होते हुए आदमी को देखने से हो जाता हूँ। कैसे समझाऊँ कि रिटायर होना रिटायर्ड हर्ट होने से भी कहीं अधिक दुखद है। रिटायर्ड हर्ट होने के पश्चात खेल में लौटने की संभावना बनी रहती है। परन्तु रिटायर होना खेल से सीधे बाहर हो जाना है। वापसी की संभावना ही समाप्त हो जाती है। खिलाड़ी दर्शक की भूमिका में आ जाता है। जब खेलने का मौका नहीं मिलता है तो खिलाड़ी हवा में खेलने लगता है। हवा में बैट भाँजते हुए खिलाड़ियों को आपने देखा ही होगा। खेल के प्रति उसके लगन को देख कर लोग मन ही मन उसकी सराहना करते हैं। हर आदमी को खेलने का मौका मिलना चाहिए। पर सब वैसे सौभाग्यवान नहीं होते। अब जो लम्बी पारी खेल कर खेल को अलविदा कहने पर मजबूर हो उसकी पीड़ा स्वाभाविक है। 



जो अपनी पूरी जवानी सेवा को समर्पित कर देता है उसे एक दिन निवृत्त कर दिया जाता है। वह निवृत होना नहीं चाहता। आप ही बताइए, जो व्यक्ति सज-धज कर हर दिन ऑफिस ऐसे जाता हो जैसे वह डेटिंग पर जा हो जा रहा हो, उसे एक दिन पूरी विनम्रता से भव्य समारोह में सभी लोगों की उपस्थिति में ऑफिस आने से मना कर दिया जाता है। यह तेज रफ्तार इंजन में ब्रेक लगने जैसा ही है। वह सेवातुर है और उसे सेवा करने से मना कर दिया गया है। उसे आराम करने की सलाह दी गई है। मैं सलाह ही दे सकता हूँ। वन डे पर बैन लगा रहे हैं तो टेस्ट मैच खेलने दीजिये। यह भी संभव नहीं तो ट्वेंटी-ट्वेंटी में जगह दे दीजिये। अनुभव भी तो कोई चीज है! कोच या कमेंटेटर का भी रोल क्या बुरा है? बात समझिए। जिस व्यक्ति ने छतीस बरसों तक नौकरी से महबूबा की तरह इश्क किया हो उसे आसन्न बुढापे के ठीक पहले महबूबा से वंचित होना पड़ रहा है। इस दर्द को बुढ़ापे में पत्नी-वियोग से गुजरने वाला व्यक्ति ही समझ सकता है। वह दफ्तर की गलियों को महबूब की गलियों से कम नहीं समझता है और महबूब की  गलियों से निकलना बेहद तकलीफदेह होता है। कुछ महीने तक वह तरह-तरह के बहाने बना कर इन गलियों में भटकता रहता है। उसके ही जूनियर उसे सीनियर सिटीजन कह कर संबोधित करते हैं। सेवा काल की जो सीनियरिटी उसे प्यारी लगती थी अब वही पीड़ा पहुँचाने लगी है। वह इस सम्मान को स्वीकारे या नकारे, तय नहीं कर पाता। 





इधर एक सुखद खबर आयी है (हालाँकि सीमित रूप में पहले भी थी) कि सिस्टम में बैठे लोगों ने अनुभव के महत्व को स्वीकार किया है। रिटायर लोगों को उनकी योग्यता एवं अनुभव के अनुसार पर ठेके पर रखा जाने लगा है। अब अनुभवी आँखों में उम्मीद की रोशनी लौटने लगी है। उन्हें आधे पगार पर सेवा के योग्य स्वीकार किया जाने लगा है। आधा पाने में कोई बाधा नहीं है। पंडित लोग आधा पा कर खुश हो जाते हैं। और सच्चा पंडित तो प्रणाम सर से ही परम प्रसन्न हो जाता है। यह सुखद है कि यदि उनके हाथ-पैर दुरुस्त रहें तो वे पाँच वर्षों तक सेवा प्रदान करते रहेंगे। यह दूसरी बात है कि समय के साथ उनके दांत आदि जवाब देने लगे हैं पर इससे कोई हर्ज नहीं। सिस्टम को नख-दंत विहीन प्राणी बेहद पसंद है। इन दिनों एक अच्छी बात देखने को मिल रही है कि सीनियर सिटीजन अपने फिजिकल फिटनेस के प्रति बहुत सतर्क रहने लगे हैं । उनकी जिजीविषा देखते बनती है।हमारे मित्र प्यारे लाल जी तो साठे पर पाठे दिखाई पड़ते हैं।  उनकी गाड़ी हमेशा टॉप गियर में चलती है। वह जवानों को मात देते हैं। कहते हैं- "एज इज जस्ट ए नंबर।" इतने सीनियर को कैसे समझाऊँ कि ग्यारह और इकसठ में बहुत अंतर होता है। उन्हें देख कर मुझे उस तोते की अकसर याद आती है जो पिंजरा खोलने के बाद पिंजरे की नाच-नाच कर परिक्रमा करता रहता है। पुनः थोड़ी देर बाद अपने चोंच से पिंजरे को बंद कर लेता है और आत्माराम-आत्माराम जपने लगता है। मालकिन आती है और उसे हवा में टाँग देती है। वह सोचता है कि वह पिंजरे में सुरक्षित है। बंधन भी सुरक्षा की गारंटी देता है!



खैर बात डूका की हो रही थी। इस बहाने इधर-उधर की बहुत सी बातें हो गई। डूका अपनी जवानी के दिनों में सवा लाख रुपए में खरीद कर लाया गया था। उम्र के आखिरी पड़ाव में वह कमजोर होने लगा तथा उसके सुनने की क्षमता समाप्त हो गई। उसके रिटायर होने की चर्चा होने लगी। अंततः उसकी बोली ही लगा दी गई। डूका विदेशी नस्ल का खूंखार कुत्ता था। वह साधारण कुत्ता होता तो उसकी क्या कीमत होती? वह सरकार की ओर से नियुक्त कुत्ता था, इसलिए उसकी कुछ कीमत रखी गई। उस का न्यूनतम मूल्य पाँच सौ रुपए रखा गया। अंत में वह पंद्रह सौ रुपए में नीलाम हो गया। इस संदर्भ में पशु अधिकार कार्यकर्ताओं के सवाल अनुत्तरित रह गए। नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा जिनकी सुरक्षा में वह नियुक्त था, का इस मुद्दे पर कोई आधिकारिक वक्तव्य नहीं आया। डूका की नीलामी कोई साधारण घटना नहीं है। 




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