यतीश कुमार का आलेख 'मनोज कचंगल- खर से पतवार का सफ़र'।

 

मनोज कचंगल


कला मनुष्य के हृदय की वह सूक्ष्मतम अनुभूति है जो अमूर्त को मूर्त करती है। खासतौर पर चित्रकला जिसमें रंगों के लिए विशेष स्थान होता है, एक अलग ही क्षितिज रचती है। इस बिना पर कहा जा सकता है कि चित्रकला सार्वभौमिक होती है। चित्रकला की संप्रेषणीयता को इस कथन से समझा जा सकता है कि 'एक तस्वीर हजार शब्दों के बराबर होती है।' मनोज कचंगल युवा चित्रकार हैं और इनकी पेंटिग्स खुद इस बात की गवाह हैं कि इनमें वह संवेदनशीलता है, जो आज दुर्लभ है। वे खुद को किसी तय खांचे में नहीं बांधते। वे कहते हैं मैं वह नहीं हूं, जो पेंटिंग करता है। मैं बस रंग लगाना शुरू करता हूं और पेंटिंग खत्म हो जाती है। यह एक कलाकार की वह प्रतिबद्धता है जिसमें वह अपनी कला से एकमेक हो जाता है। हाल ही में भारतीय ज्ञानपीठ से मनोज कचंगल की पुस्तक ‘Doors of Perception : The Art of Manoj Kachangal’ हाल ही में प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक से होकर गुजरते हुए यतीश कुमार ने अपनी लेखकीय अनुभूतियों को दर्ज किया है। यतीश कुमार की ये अनुभूतियां बिटवीन द लाइंस की तर्ज पर कहें तो बिटवीन द कलर्स हैं। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं यतीश कुमार का आलेख 'मनोज कचंगल- खर से पतवार का सफ़र'।



मनोज कचंगल - खर से पतवार का सफ़र



  यतीश कुमार



चित्रकला को वास्तविकता की नक़ल नहीं बल्कि सपनों की उड़ान में बदलना है। अपनी डगर तलाश रहे इंदौर के एक बालक के मन में इन पंक्तियों ने ऐसा घर किया कि कैनवास पर कला की अद्भुत जादुई दुनिया उभरती चली गई। ऐसे रंगसाज जिसके बाल-मन की स्मृतियों के कोठर में कहीं सेमल और पलाश का सुर्ख़ रंग आज भी छिपा बैठा है और यही उसकी कला - जिज्ञासा और जिजीविषा को बेचैनी में बदलता रहता है। वह अपनी टीस को थोड़ी देर शांत करने के लिए कैनवास पर वही विकल उकेर आता है।


मनोज कचंगल के लिए कच्ची उम्र में ही रंगों की पक्की दुनिया में प्रवेश का जरिया बनी गाँव में मिट्टी की दीवारों, दरवाज़ों और चौखटों पर त्योहारों में बनाई जाने वाली रंग भरी आकृतियाँ। सदियों का दस्तावेज़ और सबसे पुरानी चित्र कला, भित्ति-चित्रकला बाल-मन में बस गयी और उसी ने सपनों की उड़ान को एक नयी दिशा दे दी। रंगों की निराली दुनिया का द्वार कुछ ऐसे भी खुला जब मनोज नाम के बच्चे ने मनोज नाम के बच्चे को डब्ल्यू (W) से बत्तख़ की चोंच बनाना सिखाया। उसने आस-पास से ही रंग चुनना शुरू किया और खेत-खलिहान तथा हरियाली के कारण उसके जीवन में सबसे पहले हरा रंग उछल आया। फिर नन्हें हाथों ने अक्षरों के डूडल बनाए। प्रकृति ने रेशा और रस दोनों एक-साथ दिए जो बाद में ब्रश और रंग में बदल गए।



रंगों ने समझ और कल्पना दी और कल्पना ने शब्द। शब्दों ने कविता की शक्ल लेना शुरू किया और फिर दूरदर्शन ने हीरो बनने का सुनहरा ख़्वाब दिखाया। ऐसा ख्वाब जिसे पूरा करने के लिए बढ़े पाँव को न पैसों की तंगी रोक पाई न अन्य बाधाएँ। वह झाँसी, कानपुर होते हुए लखनऊ पहुँच गया जहाँ नाटकों ने उसकी आशा को जिलाए रखा। अगला पड़ाव भोपाल, उसके लिए मक्का-मदीना बना और कविता जीने का सहारा। जहाँ से मत्था टेक वह नए सफ़र की ओर निकल चला।






अब तक वह नदी में बहता एक तिनका भर था जिसे किसी गंतव्य की कोई भनक नहीं थी। तक़दीर की नाव थी और भारत भवन का दिया पतवार। यहीं एक ईश्वर से साक्षात्कार हुआ जिसने दिशाहीन नाव को मंजिल की तरफ मोड़ दिया। ईश्वरीय गुण वाले चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की सोहबत में बीते दिनों में शून्य को सृजन की सूरत मिलने लगी और मनोज कचंगल को राह। इंदौर की गलियाँ अब उनका इंतज़ार कर रही थीं। प्रख्यात चित्रकार विन्सेंट वैन गॉग की आत्मकथा ‘लस्ट फॉर लाइफ’ में पढ़ा था कि उन्हें भी यह समझने में वक्त लगा था कि उनकी मंजिल चित्रकला है। बतौर चित्रकार शायद मनोज कचंगल को समझने में भी आज मुझे वही आत्मकथा साथ दे रही है। यहाँ मनोज को समझने की कोशिश करता हूँ तो ‘एकला चलो रे’ वाली बात भी दिखती है।इसका ज़िक्र सुपरिचित कला-समीक्षक विनोद भारद्वाज ने भी अपनी प्रस्तावना में किया है। वह कहते हैं कि अंधेरे से भी शक्ति लेता हुआ यह चित्रकार अपनी ऊर्जा और समर्पण से हर बार अचंभित करता है।



मनोज की चित्रकला की यात्रा समय से पहले शुरू हो गई थी। इस सफ़र में वे समकक्ष चित्रकारों के कोपभाजन भी बने। पहली पेंटिंग प्रदर्शनी भी बहुत पहले आ गई। वर्ष 2001 में लगी उस प्रदर्शनी से जुड़ी एक रोचक बात यह भी है कि उस प्रदर्शनी में जो चित्र नहीं बिका था उसे उन्होंने पुरस्कार के लिए कला परिषद में जमा कर दिया और उस चित्र के लिए उन्हें रज़ा सम्मान मिला। जैसा मैंने जाना, मनोज के लिए रंग कोई छिड़कती हुई बूंदे नहीं हैं। एक सरगम है जिसकी ध्वनि इस वातावरण में घुलती रहती है। मांडू ने उस ध्वनि को और भी तरंगित किया। मनोज ने मांडू की आत्मा में उतरने की कोशिश की और इस अलौकिक अमूर्त स्पंदन को रंगों से उकेर दिया।



कविता की तरह चित्रकला में भी शुरुआती सृजन हम स्वयं करते हैं, बाद में सृजन अपना विस्तार खुद ढूँढ़ लेता है। स्टीयरिंग अब सृजन के हाथों में होती है, हम बस उसके वाहक बने रहते हैं। यहाँ चित्रकार भी ऐसा ही मान रहा है कि अनायास सृजन सबसे सुंदर है और वह भी तब जब ब्रश खुद रंगो को आकार देने लगे। प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमेशा से सर्जक के लिए उर्वरक का काम करती हैं। उसके भीतर कीनैसर्गिक प्रतिभा को क्यूरेट करती है और तदुपरांत यायावरी और प्रकृति उसकी पेन्सिल को और धार देती है। ऐसा ही मनोज के साथ हुआ। सारा एकाकीपन उसने अपनी प्रतिभा को निखारने में झोंक दिया।






यह चित्रकार अनुभूति को अवधारणा में बदलने का रास्ता ढूँढ़ने निकला था। एक अंतहीन खोज जिसका ज़िक्र रंगकर्म की यात्रा के साक्षी रहे कई कला-मर्मज्ञों ने उस किताब में किया है। जीवन दर्शन इस किताब का केंद्र बिंदु है। इस किताब की संपादक रत्नोत्तमा सेन गुप्ता स्वयं कला की बेहतरीन समझ रखती हैं। उनके द्वारा संपादित किताबों में प्रसिद्ध कलाकार जहाँगीर जानी की किताब समेत कई किताबें शामिल हैं। 100 से ज़्यादा चित्रों से सुसज्जित यह किताब मनोज कचंगल की अपनी यात्रा का वितान है। व्यक्तिगत रूप से, इस किताब को जैसे-जैसे देखता-पढ़ता गया, कला के मर्म परत-दर-परत अपनी तहें खोलते गए। चित्रकला के बारे में मेरी व्यक्तिगत जानकारी बहुत ही सीमित रही है और इसे मैं एक संवेदनशील सामान्य व्यक्ति के तौर से ही देख-पढ़ रहा था। यह किताब नहीं पढ़ता तो इतनी सारी अनकही बारीकियों को कभी नहीं जान पाता, रंगों की परतों और उनके बीच की तहों का महत्व और घटाकाश से महाकाश बनने की यात्रा को कभी नहीं जान पाता।



मनोज जिस तरह से चित्रों की दुनिया में प्रवेश करते हैं वह, अचंभित करता है। आर्ट गैलरी उसे पहली नज़र में ही स्वप्न-लोक-सी लगी, फिर वो खुले आकाश में ताउम्र विचरतारहा। चित्रकला उसके लिए कला का एक स्थाई भाव है। यह वो कोना है जहाँ उसे ज़्यादा से ज़्यादा दैविक अनुभूतियों का एहसास होता है, एक पुरसुकूँ जहां उकेरने की संस्कृति में पके धूप में घनी छाया मिलती है।



मन की तरह पेंटिंग में आध्यात्म प्रतिबिंबित है। इस किताब को पढ़ते हुए जितनी बातें मेरे अंतस में उतर सकीं उसे लिख रहा हूँ। मनोज चित्रकला में आकंठ डूबे हुए हैं और उनकी अब तक की यात्रा अचंभित करती है। मिट्टी अपना घर ढूँढ़ ले तो आराध्य मूर्ति में बदल जाते हैं। मनोज का बचपन अपना आधार ढूँढ़ते हुए इस ईश्वरीय कला प्रांगण में पहुँचता है और तब से यह कला उसकी आराधना का माध्यम है। ऐसे कला आराधना करने वाले खुद को कुन्दन बनाते हैं और वहाँ तक पहुँचने के लिए आग से अलग कोई माध्यम नहीं होता है। उसे पता है  रंग कितना पानी सोख सकता है। बिल्कुल जैसे हर एक आँखों के पानी का पैमाना अलग है। आँखें और उंगलियाँ मन से गिटपिट बातें करती हैं, रंगों का स्पर्श उनके बीच का सेतु है। उन्होंने माध्यम की बाध्यता स्वीकार नहीं की और अनेक माध्यम से अपनी कला को विस्तार दिया। कागज़ हो या कपड़े, कला उकेरने में कहीं कमी महसूस नहीं होने दिया। रंगों की यह दुनिया अपने भीतर सभ्यता, संस्कृति, परम्परा इत्यादि को बहुत सूक्ष्मता से समेटे हुए है। इनसे संवाद करते हुए बार-बार नएपन का आभास होता है। स्मृतियों का एक कोलाज है जो उन्हें याद दिलाने के लिए अलार्म का काम करती है कि मनोज! अभी बहुत कुछ बाक़ी है, जिसे तुम्हें पूरा करना है।





दार्शनिक बोध लिए अपनी अस्मिता को चित्र कला में ढूँढ़ना और उसमें खो जाना, उसी का हो जाना एक अंतहीन यात्रा है जिसका ज़िक्र इस किताब में मनोज की कला के बारे में सारगर्भित तरीके से कहे सभी वक्तव्यों में है। संपूर्णता से देखना दर्शन का आधार है और भीतर- बाहर दोनों ओर एक साथ देखना उस दर्शन का विस्तार। अमूर्त कला को प्राण देने की मनोज की ज़िद, यहाँ प्रदर्शित हर तस्वीर से झलकती है। उनकी आँखें मासूमियत से लबरेज़ एक सच्चे विद्यार्थी  की लगती हैं जो बुद्ध के पैरों के नीचे बैठ कर उन्हें ताक रहा है उन्हें अंतस में उकेर रहा है। उनकी आँखों में एक सितारा बन जाने का जुनून दिखता है। निर्दोष मासूम आँखें समय के प्रभाव से परे प्रतीत होती हैं। इस किताब में बचपन से वर्तमान तक की उनकी कई तस्वीरें हैं और इन तस्वीरों में एक बात है जो स्थायित्व लिए है वह है उनकी आँखें।



चित्रकार जब पूर्ण समर्पण को प्राप्त कर लेता है तो, वो रचनाकार और कलाकार के अंतर को मिटा देता है। सृजन एक मात्र उद्देश्य बन जाता है, अनुभूतियों की गाड़ी उसकी यात्रा बन जाती है और निर्वाण उसका साध्य चरम बन जाता है।



मनोज जैसे चित्रकार स्ट्रोक्स नहीं अपना आकाश रचते हैं। उनके लिए  यह आकाश एक अवकाश क्षेत्र भी है जहाँ उनका परिचय सुकून की पराकाष्ठा से होता है और जिसकी प्रतिछाया के पीछे वे आंतरिक और वाह्य, दोनों यात्राओं में निकल पड़ते हैं। एक न एक सिरा पकड़े-पकड़े वे संपूर्णता की ओर चलते रहते हैं। संपूर्णता एक क्षणिक चरम है, एक दैविक संतोष। सृजन का तराशना वहाँ पर आते ही एक स्पार्क के साथ वैसे ही विराम लेता है जैसे कविता रचते हुए कवि की अनुभूति उमंग उसाँस लेती है।





सपाटता को जब उभार मिलती है तो,  शायद कहीं चित्रकार को भी एक उड़ान मिलती है। घटाकाश से महाकाश को प्राप्त करना एक चित्रकार की अहर्निश यात्रा है, जिसके लिए उसके अंदर एक पागलपन व्याप्त रहना ज़रूरी है और उससे भी ज़रूरी है इस उड़ान में अपने आपको ज़मीन से जोड़े रखना। मनोज कचंगल ऐसे कलाकार हैं जिन का मन इंदौर से निकल भोपाल, कोलकाता होते हुए फिर इंदौर और फिर अंत में दिल्ली में बसा। यात्राएँ आपको और भी समृद्ध करती हैं। समृद्धता की यात्रा में जब भी आप प्रिय काम करते हैं समय को लांघ जाते हैं, समय से परे चले जाते हैं, प्रेम में ऐसा ही होता है। सृजन से प्रेम होना ही एकमात्र रास्ता है, जो उस ट्रांस में आवाजाही बनाए रखता है।




शब्दहीन और अर्थपूर्ण यह दो विरल संयोग सिर्फ़ कला में सम्भव है जो अपनी भाषा से अमूर्त को मूर्त करते हैं। कला भौतिक वस्तु की तरह एकार्थ बोध लिए नहीं होती है। समय दृष्टि-बोध बदलता है और संपूर्णता अपना अर्थ। इसमें हर बार कुछ अलग दिखता है चाहे चित्र हो या इनकी खीजती आँखें। विभिन्न दर्ज वक्तव्यों में रंगों के ऊपर विशेष टिप्पणी है, रंगों की समझ कैनवास दर कैनवास परिपक्व होती है। कैनवास पर रंगों के साथ उसकी खुशबू भी जमी रहती है। रंगों की परतों के बीच छाया पनाह लेती है, जिसे अनुभवी आँखों का इंतज़ार होता है।




चित्रकला में विरक्तता की अपनी गति है जो कलाकार की आंतरिक दृष्टि से संचारित और संतुलित होती है। रंगों की तरलता को विलम्ब देना, सूखने से पहले उसके साथ खेलना यह सिर्फ चित्रकार या शिल्पकार के ही बस में है।मनोज को यह भी लगता है कि असंतुष्टियां, अपूर्णता यानी असंतोष या अधूरापन ये भी जरूरी तत्व हैं ताकि सृजन का पहिया घूमता रहे। ऊर्जा का संचार एक बिंदु से दूसरी बिंदु की ओर होना, एक चित्र से दूसरे चित्र में खुद को ढालना है। यह ऊर्जा संचारित हो लय में बदल जाती है और चित्रकार को इसी लय  की खुमारी होती है जिसके नशे में वह गढ़ता जाता है, बरतता जाता है।





स्मृतियाँ नए सृजन का आधार हैं। मुकाम तक पहुँचने में चित्रों की यह स्मृति सहायक होती है। वे सपने देखते हैं और सपनों के साथ-साथ कनखियों से यथार्थ में भी झाँकते हैं। मेरी मनोज से जब भी बात हुई मुझे लगा एक मासूम बच्चा इस समाज के काले धुएँ में छटपटा रहा है। सामाजिक विकृतियाँ उसके भीतर के कलाकार को परेशान कर रही हैं। उसे ऐसा लगता है जैसे उसे बार-बार छला जा रहा है और वह हर छल का जवाब अपने पेंटिंग ब्रश स्ट्रोक्स से देता है।



उनके बारे में कई प्रतिष्ठित कला मर्मज्ञों का लिखा पढ़ना भी कला को समझने में मददगार है। मसलन प्रतिष्ठित चित्रकार, कवि एवं कला संरक्षक प्रयाग शुक्ल का कहना- ‘मनोज का काम संवेदनाओं को पुनर्जन्म देने से कम नहीं।’ देश के अद्वितीय कला समीक्षक केशव मलिक का मानना कि - ‘वह ज़िन्दगी के अनुभव से सींचता है, कला तत्व को निचोड़ता है और फिर उसे चित्रित कर देता है।’ कला मर्मज्ञ सोवम सोम का अपनी टिप्पणी में कहना- ‘मनोज वर्षों से आए लिखित आयाम को तोड़ता है और अपने आयाम रचता है। लीक से हट कर किया गया काम उसे भीड़ से अलग रखने में मदद करता है और सबसे अच्छी बात, वह सिर्फ़ अपनी कला के बारे में बात करता है।’ चर्चित चित्रकार अनिस नियाज़ी के शब्दों में- ‘मनोज ने अपनी भाषा खुद गढ़ी है। रंगों के साथ खेलने का उनका हुनर, अंतरिक्ष की असीमता को प्रतिरूपण करने की कला, उसे विशेष बनाती है।’ कला समीक्षक जवाहर गोयल का यह कहना कि ‘मनोज रंगों के लेयर को अच्छी तरह समझते हैं और उसका अद्भुत प्रयोग अलग-अलग एंगल से प्रतिबिंबित करने में मदद करता है, जो अलग लोगों को अलग तरह से आकर्षित भी करता है।’



चित्रकला ऐसी जगह है जहाँ ज़मीन आसमान से मिलती है और मनोज इस बेहद क्लिष्ट जटिल प्रक्रिया को बहुत शिद्दत से साधते हैं। लेखक अरुणा भौमिक को लगता है, माँ का असमय चले जाना और फिर उस ख़ाली जगह को भरने की मनोज की ज़िद ने उसे निरंतर सोपान पर चलायमान रखा है। मनोज की पेंटिंग आपको पूर्ण नहीं करती बल्कि आपके भीतर ख़ाली जगह छोड़ती है जिसे दर्शक अपने तरीके से भरता है। भावुक मन एक कसी हुई रस्सी जितना तनाव महसूस करेगा, स्पंदित होगा, संवेदित होगा जो एक पेंटर का ध्येय भी होता है। अगर सृजन स्पंदन नहीं करेगा तो और क्या करेगा।





एक चित्रकार के बारे में ऐसे कलामर्मज्ञों का लिखा पढ़ते, चित्रकार को समझते और किताब से गुजरते हुए लगा जैसा मैं रंगों की दुनिया को कुछ और करीब से जान सका।एक अंतहीन खोज का माझी अपनी यात्रा पर है और मेरी शुभकामनाएँ हैं कि उनकी यह यात्रा यूँ ही जारी रहे।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स चित्रकार मनोज कचंगल की हैं।)







सम्पर्क


मोबाइल - 8777488959

टिप्पणियाँ

  1. आदरणीय भाईसाहब,
    जितनी बार भी पढ़ता हूँ, लयबद्ध पठनीयता का आनंद मिलता है. काव्य और गद्य का भेद खत्म. आपको हृदय से बारंबार धन्यवाद, मुझे बेहतरीन आलेख के रूप में अनमोल धरोहर प्रदान की. यह आलेख मेरे जीवन और कला के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. पहले लिखे सभी कला-समालोचकों के आलेखों से अद्वितीय है. आपका अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख मेरी कला को विश्व-कला परिदृश्य में उत्कृष्ट पहचान एवं महत्वपूर्ण स्थान अवश्य दिलाएगा. मैं आपका सदैव आभारी रहूंगा. निश्चित ही आपके जैसे मित्र पाकर अपने आप को सौभाग्यशाली समझता हूँ. शीघ्र ही आपसे मिलना भी होगा. मेरी कला पर अत्यंत महत्वपूर्ण और अद्वितीय आलेख के लिए पुनः हृदय से धन्यवाद.
    "पहली-बार" ब्लॉग संपादक आदरणीय श्री संतोष चतुर्वेदी जी को भी बहुत बहुत धन्यवाद,
    सादर,
    मनोज कचंगल
    7777878755

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  2. बहुत सुंदर लिखा आपने यतीश जी।

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  3. "शब्दहीन और अर्थपूर्ण यह दो विरल संयोग सिर्फ़ कला में सम्भव है जो अपनी भाषा से अमूर्त को मूर्त करते हैं। " कितना सटीक लिखा है यतीश जी ने ! शब्दहीनता के साथ अर्थ को पूर्णता प्रदान करना कला है और एक सम्पूर्ण कलाकार ही ऐसा ईश्वरीय इंद्रजाल रच सकता है ।
    शानदार आलेख, हमेशा के जैसे ... और संलग्न चित्र जो मनोज जी की कृतियां हैं,मुग्ध कर रहे हैं । आप दोनों सृजनकर्ताओं को कोटि कोटि बधाई एवं साधुवाद!

    - रचना सरन

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