अविनाश मिश्र की कहानी जहाँ जहाँ गया

                            अविनाश मिश्र 


अविनाश मिश्र मूलतः कवि हैं। अन्य विधाओं में लिखते हुए भी उनका कवि वहां अपने अंदाज में ही मौजूद रहता है। वे अपने लेखन से कुछ नया जोड़ने की सलाहियत रखते हैं।। हाल ही में अविनाश का 'वर्षावास' नाम से नया उपन्यास आया है। इस उपन्यास की भाषा अपने किस्म की अलहदा भाषा है। अपने समकालीनों से भी बिलकुल अलग। शिल्प के तौर पर भी यह एक नया प्रयोग है। पंक्ति दर पंक्ति चिन्तन से भरपूर। यह उपन्यास उन विरोधाभासों को रेखांकित करता है जो हमारे सभ्य समाज की तथाकथित सभ्यता की पोल खोल कर रख देता है। अविनाश के एक वाक्य से इसकी बानगी मिल जाती है 'संकट में श्रम चाहें जिसका हो, अन्ततः श्रेष्ठ के ही काम आता है।' इसी उपन्यास का एक अंश कहानी के रूप में इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी में प्रकाशित हुआ था जिसे आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अविनाश मिश्र की कहानी : 'जहां जहां गया'।


 

जहाँ जहाँ गया 



अविनाश मिश्र



मैं क्या था? 

मेरे पास क्या था? 

मुझे क्या आता था? 

इन तीनों सवालों का एक ही जवाब है—भाषा। 



लेकिन कुछ विकार भाषा में व्यक्त नहीं हो सकते! जैसे यह मेरे अब तक के जीवन का सबसे विशाल विकार है कि मेरा मल अपनी आजीविका के लिए किसी ने कई बरसों तक अपने हाथों से उठा कर अपने सिर पर ढोया है।  



इस आत्मस्वीकृति को पढ़ कर कोई भी सोच सकता है कि मैं शाइर हूँ। लेकिन मैं शाइर नहीं था, मुझे शाइरी करनी पड़ी; क्योंकि मुशायरे बचे हुए थे। वे इस क़दर बचे हुए थे कि उनसे घर भी चल सकता था। वे इस क़दर बचे हुए थे कि जैसे ख़त और ख़ुदा हाफ़िज़, जैसे फ़तवे और वुज़ू, जैसे फटी हुई टोपियाँ, जैसे काले बुर्क़े, जैसे गाढ़े अँधेरे, जैसे तंग और महकती हुई गलियाँ, जैसे वालिद और उनके वालिद के वालिद के वालिद के वालिद से हुई ग़लतियाँ...



उर्दू अदब का अज़ीमुश्शान वक़्त गुज़र गया, लेकिन मुशायरे बच गए। बढ़ी हुई दाढ़ी और छोटे पायजामों वाले पाँच वक़्त के नमाज़ी मेरे ग़रीब वालिद और बुज़ुर्ग इस मुल्क में नफ़रतों और अजायबघरों की चीज़ हो गए, लेकिन मुशायरे बच गए। वे बच गए, इसलिए मुझे शाइरी करनी पड़ी। 



मैं शाइर नहीं था। पर मैंने शे’र कहे और कह कर अपने उस्ताद का मुँह ताका। मेरे शे’र तारीफ़ के क़ाबिल थे, लेकिन उन्होंने कभी मेरी तारीफ़ नहीं की। उन्हें लगता था कि इससे मेरे शे’र वज़्न खो बैठेंगे। वह तस्बीह पर उँगलियाँ घुमाते हुए कहते कि रियाज़ और रियाज़ करो और और रियाज़ करो... 



मैं रियाज़ में रहा, लेकिन मैंने अपने रियाज़ का एक हिस्सा उस तरफ़ भी मोड़ रखा था, जिससे मुझे यह रियाज़ न करना पड़े। मैं ख़ुद को अफ़सानवी तबीयत का शख़्स मानता था और किसी ऐसे इदारे से जुड़ना चाहता था, जहाँ मेरी उन कहानियों की क़द्र हो सके जो मुझे कहनी थीं।



कहानियाँ जहाँ जहाँ जा सकती हैं, वहाँ वहाँ बहुत जाती हैं। दुनिया कहानियों से भरी हुई है। लेकिन उन्हें कहना सबके वश में नहीं है। बड़े बड़े कथाकारों की साँस टूटने लगती है—एक साधारण कहानी लिखने में भी। वे दिन भर ख़ालीपन को ताकते बैठे रहते हैं, कहीं कुछ नहीं घटता। वे कहते हैं कि कहानी दिमाग़ में एकदम साफ़ है, पर वाक्य नहीं मिल रहे। 



मैं इसलिए ही कह रहा हूँ कि दुनिया कहानियों से भरी हुई है, लेकिन उन्हें कहना सबके वश में नहीं है; क्योंकि कहानी वर्णन से ऊब गई है। उसकी स्थिति मेरे बचपन के मुहल्ले की तरह ही बदहाल है। इस बदहाल गद्य में आत्मस्वीकृति कविता की तरह बिखरी हुई है। इसे कविता से बचाना; ग़ैरज़रूरी ब्योरों, पात्रों और संवादों की तरफ़ जाना है। यों कथा नाटक होती जाती है।  दुनिया नाटक से भरी हुई है। दुनिया... 



लेकिन बहुत कुछ दुनिया में नहीं होता, मेरी नाक के नीचे होता है। इसकी समीक्षा में उतरते हुए, मैं इसमें पूरी तरह गिर जाता हूँ; क्योंकि मैं इस सबसे आँखें नहीं मूँद सकता। यह मेरी ‘नैतिकी’ है कि ख़राब चीज़ें भी बेहतर ढंग से सामने आएँ। यह रोज़ होता है कि मुझे अपने इस तरह होने का तर्क समझ में नहीं आता। कितना कुछ है—पढ़ने लायक़—जिसे पढ़ने के लिए किसी को हज़ार बरस की उम्र मिले, तब भी कम है। फिर आख़िर मुझे वह सब कुछ क्यों पढ़ना पड़ता है, जिसे मैं देखना भी न पसंद करूँ? 



मैं एक सतह का घायल संदर्भ हूँ। 



जैसा कि ज़ाहिर है—ग़ैरज़रूरी ब्योरों, पात्रों और संवादों से बच कर—मैं यहाँ यह बता पाने में कामयाब हुआ हूँ कि मैं अफ़साने पढ़ने के पेशे में आ गया। इस आगमन से मेरा अफ़साना रुक गया। लेकिन शाइरी चलती रही। शाइरी ने मेरी ज़ुबाँ साफ़ की। दरअस्ल, मेरे शहर में शाइरों की बड़ी क़द्र थी। उन्हें बड़े इल्तिमास से बुलाया जाता और वे बेहद ज़िम्मेदारी से एक व्यापक जनसमूह से रूबरू होते—हाथों में छोटी छोटी पर्चियाँ थामे हुए—इरशाद, वाह, मुकर्रर, ज़िंदाबाद के शोर के बीच—वह कहते कि देखिए इस शे’र की ज़ीनत रख लीजिए, इस शे’र की आबरू अब आपके हाथ है, ये शे’र अब आपके साथ जाएगा, ये बज़ाहिर बात नहीं है, इसे इस तरह मत देखिए, इस शे’र का जादू टूट जाएगा, देखिए ये एक मतला और दो शे’र अर्ज़ हैं, अर्ज़ किया है कि...



ग़रीबी बहुत थी और गंदगी बहुत थी और बहुत ग़रीबी और बहुत गंदगी में शे’र बहुत थे। शब ओ रोज़ ओ माह ओ साल ग़रीबी और गंदगी बहुत थी। और जैसा कि कह चुका हूँ : बहुत ग़रीबी और बहुत गंदगी में शे’र बहुत थे। शे’र बहुत ग़रीबी और बहुत गंदगी को कितना ही खाते, बहुत ग़रीबी और बहुत गंदगी कम नहीं पड़ती थी। जैसा कि कह ही चुका हूँ : वह बहुत थी—ग़रीबी और गंदगी—काली और घनी। उनमें दरख़्त थे। शे’र दरख़्तों के नज़दीक जुगनुओं से मँडराते थे—एक ही सिलसिले के कई कई शे’र—इस उमीद में कि एक रोज़ उन्हें किसी मुशायरे में पढ़ा सुना जाएगा।





एक मुशायरे से दूसरे मुशायरे में जाते हुए मैंने कई सरहदें लाँघीं। मैं एक से बढ़ कर एक आलीशान जगहों पर ठहरा और उनके भव्य शौचालयों में गया। लेकिन कहीं भी मेरी मुक्ति नहीं हुई। मेरे जीवन के सबसे विशाल विकार का निष्कासन नहीं हुआ। मैं जहाँ जहाँ गया, मुझे अपना वह पहला शौचालय ही याद आया—तीसरी मंज़िल का, जहाँ मैं अपना जल ले कर जाता था। मुझे उतने ही जल में स्वच्छ होना होता था। मेरा मल दूसरी और पहली मंज़िल के मल से मिलते हुए एक ज़मीन पर जमा होता जाता था, जिसे राजकुमारी उठाती थी। वह मेरी माँ की उम्र की थी। वह पहले सारे मल को झाड़ू और बेलचे सरीखे किसी औज़ार से एक जगह समेटती, इससे उसकी तरलता बह जाती; फिर सारे ठोस मल को राख बिछाई हुई टोकरी या बाल्टी में रखती और फिर इस टोकरी या बाल्टी को अपने सिर पर... 



मैं कुछ समर्थ होते ही इस दृश्य से मुक्त हुआ, लेकिन इसकी स्मृति से कभी नहीं—मैंने बहुत चाहा, लेकिन चाह कर भी नहीं। मेरी सारी कल्पनाओं पर हावी यह स्मृति मुझे बार बार बंजर करती रही। मैं जहाँ जहाँ गया, मुझे यह याद घेरती रही। ज़ीरो वॉट के बल्ब की रौशनी में डूबी अँधेरी जगह या दो ईंटों को रख कर बनाई गई जगह या अपनी गंध से समीप की मनुष्यता को अनुकूलित कर चुकी जगह... मैं जहाँ जहाँ गया, उनका ख़ाली मिलना दिन की सबसे बड़ी उपलब्धि रही। उनके बाहर जल से भरा एक ड्रम रखा रहता। मैं अपना जल लेता, स्वच्छ होता और बाहर आकर एक बाल्टी भर जल ड्रम से भरता और हुआ अनहुआ सब बहा देता। 



मैं कुछ और समर्थ होते ही इस दृश्य से भी मुक्त हुआ, लेकिन राजकुमारी अपने सिर पर मेरा मल लिए ही रही। मैं जहाँ जहाँ गया, वह मेरे साथ रही। मैं खुली ज़मीन पर भी गया, तब भी मुझे यही लगा कि मेरा मल तीसरी मंज़िल से दूसरी और पहली मंज़िल के मल से मिलते हुए नीचे गिर रहा है—मकान के पिछवाड़े। राजकुमारी आ चुकी है। मेरी माँ उसका बहुत कम दरमाहा—जो कितना भी होता, कम ही होता—ज़मीन पर रख रही है। मेरी माँ उसकी होली, उसकी दीवाली, उसकी ईदी ज़मीन पर रख रही है। मेरी माँ अपने सिर से ले कर पाँव तक मल की गंध में महकती, पान चबाती, अपने नाम गुदे हुए हाथ से ज़मीन पर रखा दरमाहा और होली और दीवाली और ईदी उठा रही है। मेरी माँएँ आपस में बीमारियों के बारे में बतिया रही हैं।



मुझे लगता है कि मैं अपनी चमड़ी ख़ुद से अलग कर दूँ।


मुझे लगता है कि मैं अपनी गीली आँखें कंचों की तरह बाहर निकाल कर रख दूँ। 


मुझे लगता है कि मैं अपने हाथ राजकुमारी को बेलचा बनाने के लिए दे दूँ।



कंघी मोहाल, कुली बाज़ार, कोपरगंज, खपरा मोहाल, ग्वाल टोली, चमनगंज, टुकनिया पुरवा, नवाबगंज, प्रेमनगर, फ़ेथफ़ुलगंज, बकरमंडी, बाँसमंडी, बाबू पुरवा, बूचड़ख़ाना, बेकनगंज, बेगम पुरवा, भूसा टोली, मैसिया हाता, रेल बाज़ार, लाटूश रोड, शीशामऊ, सुजातगंज, हड्डी गोदाम, हूलागंज...



कहाँ हो राजकुमारी?


मैं जहाँ जहाँ गया—शुष्क शौचालयों से जलचालित शौचालयों तक—घूम घूम कर राजकुमारी के रंग और उसकी गंध मेरे पीछे पीछे और आगे आगे...  



मैं पंक्तियों में लगा रहा। 

मैंने अपनी बारी का इंतिज़ार किया।

मैंने हुआ अनहुआ सब बहाया।





मुझे आगे चल कर ऐसे शौचालय सुलभ हुए जो नितांत मेरे थे। वे मुझे पंक्तियों और प्रतीक्षाओं से दूर ले गए। उनमें जल ही जल था—मेरी उँगलियों पर बराबर नाचता हुआ। वे कितने गंदे हो सकते हैं, मैं जानता था; लेकिन वे इतने साफ़ भी हो सकते हैं; यह अपने अनुभव से जब मैंने पहली बार जाना—मैं हगते हुए रोने लगा। 



मैं जहाँ जहाँ गया, जल्द से जल्द फ़ारिग़ हुआ। मैं जहाँ जहाँ गया, बर्दाश्त नहीं होने पर ही गया। मैं जहाँ जहाँ गया, बहुत नियमबद्ध ढंग से गया। मैं जहाँ जहाँ गया, बहुत ज़रूरत पड़ने पर ही गया। लेकिन अब मेरे पास ऐसे शौचालय हैं; मैं जिनमें बग़ैर ज़रूरत भी बैठता हूँ और कोई बाहर से चिल्लाता नहीं, कोई दरवाज़ा नहीं पीटता कि जल्द निकलो। अब मुझे बहुत देर लगती है। अब मैं बर्दाश्त नहीं करता। अब मेरे जाने का कोई नियम नहीं है। 



मैं जीवन में आए एक एक शे’र पर, मैं जीवन में आए एक एक अफ़साने पर, मैं जीवन में आए एक एक शौचालय पर देर तक ध्यान लगाता हूँ; लेकिन इस विशाल विकार से मुक्ति नहीं कि मेरा मल अपनी आजीविका के लिए किसी ने कई बरसों तक अपने हाथों से उठा कर अपने सिर पर ढोया है। 



इस विशाल विकार से मुक्ति नहीं—न शाइरी, न अफ़साने में, न शौचालय में...।


कहाँ हो राजकुमारी!




(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



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