चन्द्रकला त्रिपाठी की समीक्षा “नाम अब भी चाहता है वह” : कुलभूषण---

 



अलका सरावगी अपने तरह की अलहदा उपन्यासकार हैं। वे हर बार एक नए कथानक के साथ अपनी रचना में आती हैं। यह नया कथानक संस्कृति और परम्परा से कुछ इस तरह आबद्ध होता है कि लगता है जैसे हम अतीत से रू ब रू हो रहे हों। इतिहास और स्मृति की आवाजाही उनके उपन्यासों में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। इधर अलका सरावगी का नया उपन्यास 'कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए' प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास की एक समीक्षा लिखी है कवि आलोचक चन्द्रकला त्रिपाठी ने। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं चन्द्रकला त्रिपाठी की समीक्षा “नाम अब भी चाहता है वह” : कुलभूषण---।



“नाम अब भी चाहता है वह” : कुलभूषण----




चन्द्रकला त्रिपाठी


 

'कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए' शीर्षक उपन्यास में अलका सरावगी फिर एक वृहत्तकथा लोक के साथ है। यह संसार गहरा है, विस्तृत है और इसके भीतर देश-काल के प्रवाह की टोह में उतरता आलोचनात्मक विवेक है। उपन्यास बीसवीं सदी के अंत में स्थित है। इतिहास और स्मृति इसका एक ज़रूरी संदर्भ हैं जिसमें उतरने के लिए उसने एक विलक्षण कोलंबस चुना है जिसका नाम है कुलभूषण जैन।


     


यह कुलभूषण अपने सतत विस्थापन और निर्वासन के सामने अड़े रहने के लिए जो चुनाव करता है वह इस मायने में अद्भुत है कि वह साबुत बचा रहता है। अपने भीतर मनुष्य के प्रति बलिदानी किस्म का प्रेम बचाए हुए वह एक अभंग छंद की तरह है। उसका विश्वास, उसका दारुण आत्म-संघर्ष और निरंतर तिरस्कारों के बावजूद उसकी जिंदगी में बहती हुई रागात्मकता, सब चकित करते हैं। उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह लोभ-लाभ भरी परजीविता वाली दुनिया से अनुकूलित न होने के लिए अड़ा है। यह उसकी अपनों की दुनिया है। पारिवारिक संबंधों की वह दुनिया जो मनुष्य के लिए सर्वाधिक सुरक्षित मानी जाती है। वह इस दुनिया से टूटता है। इसी दुनिया में वह कुलभूषण जैन है। यहाँ मिलती बेगानगी की पीड़ा बहुत असहज तो है उसके लिए मगर एक बड़े संसार से मिलता भरोसा और प्रेम उसे विघटित नहीं होने देते। परिवार के संकरे और अमानुषिक चलन से छूट कर वह और उन्मुक्त हो उठता है। वह उन क्षुद्रताओं से भी छूट जाता है जो उसके परिवार की स्वार्थी मुनाफाखोर संरचनाओं का अर्जित है। अपने प्रिय सखा श्यामा घोबी के बताए बटन के जरिए वह इस निर्मम बेदखली का सामना कर पाता है । यहाँ से जिंदगी उसने रक्त रंजित पैरों से नापी जरूर है मगर प्रेम, दोस्ती, जवाबदेही और उत्सर्ग के बड़े मूल्य के साथ हो कर।


    


अलका सरावगी के लिए मनुष्य की स्वाधीनता का प्रश्न हमेशा एक सर्वोपरि प्रश्न है। उन्हें विशाल जीवन-धारा में संघर्ष करते मामूली लोगों की गैर मामूली मनुष्यता दिख जाती है। ये बहुत मामूली लोग अपने व्यक्ति की मानवीय मणियों समेत प्रायः नहीं देखे जाते। उनकी इस उज्ज्वलता को इनके रहन-सहन के मामूलीपन और मलीनता से रिड्यूस कर दिया जाता है। धीरे-धीरे मजबूत होता हुआ सुविधा और सम्पन्नता का संसार इन्हें बेदखल करता जाता है । इस बेदखली के अनंत रूप हैं। ऐसी ही एक क्रूर बेदखली कुलभूषण की भी है जिसका जन्म कुष्टिया जिले के संपन्न मारवाड़ी परिवार में हुआ है। यह पूर्वी बंगाल का वह हिस्सा है जो भारत विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान बना। पाकिस्तान के इस हिस्से में बांगला बोलने वालों की अधिकता थी। पाकिस्तान अपने मूल चरित्र में उर्दू और पंजाबी के वर्चस्व में उग रहा था। यहीं से भाषाई उपनिवेशन का वह ऐतिहासिक तनाव उभरा था जो बांग्लादेश के जन्म का रक्तरंजित अध्याय बना। यह खूनी इतिहास कुलभूषण के परिवार के बांग्लादेश से निष्कासन का कारण भी बना मगर उस परिवार की समृद्धि ने इन्हें कलकत्ता में संस्थापित कर दिया। व्यापार और व्यापारिक संबंधों के छोर से ये कलकत्ता में अपनी उसी तथाकथित प्रतिष्ठा में उग उठे जिसमें कुलभूषण फिर से एक बेमेल धागा था। जिसका साथ होना उनके लिए परिताप का विषय होता गया। उनके कुल- खानदान की इज्जत के नाम पर कुलभूषण की परीक्षाओं का यह आलम था कि उसके पैरों के नीचे से ज़मीन लगातार निकलती जा रही थी। कलकत्ता शहर के विशाल जनरव में उसने विलुप्त हो कर जीने का एक ठिकाना ढूढ़ लिया था। उसका यह जीवन हठ, अपना प्रेम अपनी स्वतंत्रता और अपनी मानवीय अस्मिता हासिल करने के जिस विकट संघर्ष में है, वह इतना अछोर है कि यह सिर्फ मनुष्य ही नहीं, जातीयता और देश की बेदखली का भी वृत्तांत बनता जाता है।



 

कहा जाता है कि क्लासिक का सर्वोत्तम गुण मनुष्य की आत्मा तक पहुंचना है । उस आत्मा तक जिसमें प्रेम का आलोक भरा हुआ हो। यहाँ तक पहुंचने का रास्ता सीधा नहीं है। जीवन में विकट बीहड़ में कोई आत्मा स्वार्थ-साम्राज्य के अमानुषिक घटाटोप के अतिक्रमण से अछूती कैसे रह सकती है। काजल की कोठरी में कैसा भी सयानापन कब निभ पाया भला। एक निशान काजल का लगेगा ही, यह कहा जाता है। अलका सरावगी की इस कथा के किरदार कुलभूषण में जीवन से आर-पार खेलने का जज्बा है। वह इस काजल के साथ बहुत चतुर होकर खेलता है। उसके व्यक्तित्व में नैतिक मानवीय रूप सूक्ष्मतम भेद रखे हुए हैं।


 


परिवार और काफी हद तक समाज में भी अनवरत तिरस्कारों से जूझता हुआ कुलभूषण पाठक के मन दया जगाने वाला चरित्र नहीं है बल्कि एक ऐसा आईना है जो रुपया रकम और फायदा के हिसाब से विघटित होते जीवन का आईना बन जाता है ।

 


'कुलभूषण - की कथाभूमि का भूगोल भी बांग्ला जातीयता और मारवाड़ी समाज की कठिन समानांतरता तक नहीं है बल्कि अब इसकी एक भुजा पूर्वी बंगाल का वह संदर्भ लेती है जो बांग्लादेश के बनने तक आया है। इस संदर्भ में भारत का नज़रिया और उसका योगदान भी उस यथार्थ ज़मीन पर देखा गया है जिसमें सत्ताएं आम आदमी के नष्ट हो जाने की परवाह नहीं करतीं। इतनी बहुआयामिता और व्याप्ति के बावजूद अलका सरावगी का शिल्प-कथा का जिन्दा और स्पंदित नाभिक क्या खूब संभालता है। जाहिर है कि यहाँ भारत को उस समूचेपन में उद्घाटित करने का मजबूत विवेक है जिसने बांग्ला भद्र लोक की श्रेष्ठता ग्रंथि के निर्माण के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को खूब सावधानी से समझा है। यह अनायास नहीं है कि अलका सरावगी के अन्य उपन्यासों में भी कलकत्ता महानगर के मारवाड़ियों की जातीय निजता और जीवन-संघर्ष की तटस्थ टोह ली गई है। यह 'कलिकथा वाया बाइपास' में भी महत्वपूर्ण रूप से उपस्थित है, 'शेष कादंबरी' में भी है, 'जानकीदास तेजपाल मेंशन' में भी है। इन उपन्यासों में विस्थापन और निर्वासन का बाह्य और आंतरिक यथार्थ बहुत सूक्ष्मता में उभर कर आता है। ये उपन्यास इन दोनों सन्दर्भों से जटिल विसंगत जीवनानुभवों और प्रवृत्तियों को उभारते हैं। इस यथार्थ में निहित जीवन के विशद बहुरंगी अनुभवों की समाई महत्वपूर्ण है। देखा जाए तो अलका सरावगी का कथा-लोक केवल जीवनानुभवों से बनता कथा लोक नहीं है बल्कि प्रत्येक उपन्यास में वह विज़न महत्वपूर्ण है जिसमें स्मृतियों को, इतिहास को और अनुभवों को काम में ले आने की एक सर्जनात्मक तरतीब है। वे अपने कथा-संसार में स्पंदित इलाके में सचेत इतिहास दृष्टि और सौदर्य-बोध के साथ दाखिल हुई है। अलका सरावगी के उपन्यासों के संदर्भ से कलकत्ता को देखा जाया जाए तो यह वह महानगर है जिसे ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने अपने वाणिज्यिक विस्तार के लिए चुना था । इसका विकास और इसकी समृद्धि लगभग उसी व्यंग्य की तरह थी जिस अर्थ में हम आज विकास और समृद्धि को देखते हैं।


अलका सरावगी 




यह सघनतम औपनिवेशिक प्रभावों वाला क्षेत्र साबित हुआ था। शिक्षा व्यापार और आधुनिकीकरण की साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों के अन्तर्गत रुपांतरित होते हुए उसके भीतर निहित बांगला जातीयता का संघर्ष भी उतने ही जोरदार मुकाबले में सामने आया। देश की स्वाधीनता के संपर्क की जमीन यहाँ जितने भावनात्मक आवेग के साथ निर्मित हुई वह सचमुच बांग्ला निजता की अपनी विशिष्टता थी। सामाजिक- सांस्कृतिक सुधारों में चिंतन और दर्शन में टकराहट भरे नवोन्मेष की महत्वपूर्ण भूमिका यहीं बनी और यहीं उन देशी शिक्षित नौकरशाहों की भी निर्मिति थी जो औपनिवेशिक प्रभाव को सभ्यता और सुसंस्कृति के नए पाठ की तरह पढ़ रहे थे। कहीं न कहीं कैलकटा से कोलिकाता तक के रूपांतरण में बांग्ला बुद्धिजीवियों कलाकारों और रचनाकारों में वृत्तांत की देश को ऐसी स्पंदित निजता और व्याप्ति के साथ रचने की बात देखी गई है। इसे हम उस पूरी परंपरा में देख सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि तमाम आलोड़न और बाहरी विजातीय प्रभावों के बावजूद जातीयता को भारतीय परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करने का विवेक यहाँ बहुत सशक्त है। यही कारण है कि यह हमेशा महाकाव्यात्मक रचनाशीलता की बहुत उर्वर भूमि है। अलका सरावगी ने इससे गहरे जुड़ कर इसे अर्जित किया है। यहाँ वे 'इनसाइडर' की तरह हैं। उनकी कथा-शैली में वह सृजनात्मक प्रबंधात्मकता मिलती है जिसमें लय और लोच है। इसीलिए कथा की कई भुजाएं बड़ी सहजता से निकल कर रचे जाते संसार के सभी रंगों में शामिल हो जाती है। यहाँ से देखा जाए तो अपनी बुनियादी जातीय ध्वनियों में अन्वेषित कोलिकाता निरंतर एक कठिन संरचना भी है। इसमें सत्ताओं के साथ चालाकी से साथ खेल उठने का लचीलापन भी है तो उसके सर्वग्रासी चरित्र से निडर होकर जूझ जाने का दम भी है। तीव्र भावनात्मकता के इसके गुण में कभी कोई कमी नहीं आती। इस ज़मीन पर आए प्रवासियों की इनके आंतरिक भूगोल में दखल आसान नहीं है। मगर कुलभूषण गोपालचंद्र दास बन कर उसमें प्रवेश कर जाता है। बांग्ला जातीयता का वही राग, वही तरलता और वहीं लचीलापन कुलभूषण की शख्सियत में घुले हुए हैं। पिता भाई और अन्य संबंधियों के बनियापन से अलग नवैयत वाला कुलभूषण अपनी रूह में बंगाली भी है और लालन शाह फ़कीर की तरह न हिंदू न मुसलमान भी है। वह 'मानुष' होने के प्रेम में है। उसकी पाठशाला में फूट नहीं पढ़ाई जाती है। वह पिता की शिक्षा को एक तरफ कर के अनिल मुखर्जी को रोयें-रोयें से सुनता है जो उसे एक अलग दुनिया की बात बताते हैं। वह दुनिया जो ऐसे सतही भेदों से बहुत ऊपर है। पूर्वी बंगाल में बसे हुए उसके पिता बंगालियों को मारवाड़ियों का दुश्मन कहते हैं। मगर कुलभूषण अपने पिता और संबधियों की तरह मुनाफे में गर्क दुष्ट महाजन नहीं बन पाता। बन पाता तो कुरुपता के बावजूद वह अपने पिता का लायक बेटा होता। पूर्वी बंगाल की उन्मुक्त आबोहवा ने कुलभूषण को पाला है। परिवार से मिली बेरुखी को इधर-उधर कर देने वाला भूलने का बटन श्यामा धोबी ने बताया है। वह बेरुखी भर तो नहीं थी बल्कि लांछन था, बेगारी थी और निरंतर नष्ट कर देने वाली चालबाजियां थीं जो रूप बदल-बदल कर आती थीं। उन सब प्रहारों से कुलभूषण भी खूब रूप बदल-बदल कर मिलता है। उसकी मासूमियत, चतुराई, ज़िद्दीपन, यायावरी, लोभ और निर्लोभ सब बड़े ही अनूठे हैं। उसके निकट और दूर स्थित सभी संबंधों के संदर्भ में वह लगभग परिभाषा से बाहर खड़ा एक किरदार है जिसकी अबूझ सी विशेषताओं को रचने में लेखिका की क्षमता अद्भुत है। कुछेक जगहें ऐसी उपन्यास में आई हैं जहाँ कुलभूषण अपनी यातना को उधेड़ कर कह गया है। बांग्लादेश वाले उसके दिनों में वह अधिक व्यक्त रूप में मिलता है। उसके पास अपनी आज़ादी छीन लेने की जगह है। अनिल मुखर्जी की निकटता से वह दुनिया को अधिक पहचान पाता है। उसे अपने अभावों के रूप दिखाई देने लगते हैं। वह जीवन स्तरों के अंतर से बटे समाज की संवेदनहीनता देख पाता है और अपने जीवन को भी। अनिल मुखर्जी से वह कह उठा है कि - "आपसे सच कहता हूं अनिल बाबू, मैं भी सर्वहारा ही हूँ। जो दिखता हूँ वह नहीं हूँ। यह तो सिर्फ नाटक में मिली हुई भूमिका है। जब भी अपने भाइयों के पास कलकत्ता जाता हूँ तो अपनी असलियत का पता चल जाता है। अपने माँ-बाप की बातें छिप कर सुनता हूँ तब सोचने लगता हूँ मैं जैसा हूँ, वैसा क्यों हूँ। जिस शख्स के लिए अपने परिवार में भी जगह नहीं होती, उससे ज्यादा सर्वहारा कोई नहीं होता।" यह भी वह उनसे कहता हुआ दरअसल खुद से कहता हुआ दिखा है। डॉक्टर जान लेते हैं कि कुलभूषण दुष्ट महाजन का दुष्ट बेटा नहीं है? उसमें एक डिक्लास मनुष्य बसता है, उसकी श्यामा धोबी से दोस्ती है। वह मजदूरों के साथ बीड़ी पी लेता है। गोपाल चंद्र दास बन कर गरीब मुहल्ले में रहता है, कारखाने में काम करता है, बस कंडकटरी करता है। बांग्लादेश के विस्थापितों को खोजता हुआ देश छान मारता है। मुक्तिबोध से शब्द ले कर कहें तो ये ही लोग उसके अपने लोग हैं जिनसे उसकी बनती है* हर किसी गरीब आदमी से बातचीत करने की उसकी आदत से माँ भी चिढ़ती थी उसकी। कुष्टिया में था तो उसके मुसलमान दोस्त थे। उन लोगों में वह पराया नहीं था। भाइयों के कलकत्ता में बसने मे बाद जब चौसठ के हिंदू-मुसलमान दंगे में उसे माँ को लेकर कुष्टिया से कलकत्ता आना पड़ा था तब वह अपने परिवार का चाहा हुआ हिस्सा नहीं था वे उसे चोर समझते थे। उस पर ऐसे अपराध का दोष लगाते थे जो उसने नहीं किया। भाइयों के पास जमता हुआ व्यापार था। उनके पास अपने माँ-बाप भी थे मगर कुलभूषण छोटी-मोटी नौकरियाँ करता हुआ धक्के खा रहा था। परिवार में उसे नौकरों से भी बदतर स्थान मिला था। वह नौकरों से बहुत ज्यादा खटता मगर बदले में उसे कुछ दिखावटी प्रेम जैसा मिल जाता था जिसका ऊपरीपन वह खूब समझता था। उस पर चोरी के झूठे इल्ज़ाम लगा कर मारा भी जाता था। उस पर अविश्वास करना तो उनके लिए आम बात थी। परिवार की ऐसी नृशंसता के बड़े दारुण प्रसंग कथा में आए हैं। ये यातनाएं उसे उसके परिवार में भावनात्मक मूलों से तोड़ कर रख देती हैं। उसके सामने भाइयों की ही नहीं माँ और पिता का भी स्वार्थीपन स्पष्ट है । वह अपने समृद्ध परिवार के मखमल में डेढ़ चप्पलों से घिसटता एक दुर्भाग्य है जिसका कहीं स्वागत नहीं है।



 

"कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए" शीर्षक इस उपन्यास का चरित्र श्यामा घोबी जैसे भूषण का प्रतिरूप ही है। उतना ही कुरूप है वह मगर अपने परिवार में तिरस्कृत नहीं है । उसके जन्म का एक रहस्य है। जोगी बाबा उसे उसकी माँ की झोली में डाल गए थे। वह भी न हिंदू था न मुसलमान/ जोगी बाबा ने ही उसे भूलने का वह बटन दिया था जिसकी उसे भी जब तब जरूरत पड़ती रहती थी। अमला इस उपन्यास का वह स्त्री किरदार है जिसने कुलभूषण की रूह में अपार प्रेम भर दिया है। यह प्रेम उसके जीवन का एक रहस्यमय प्रसंग है। अमला की छवि अत्यंत सुंदर हो कर उसके चित्त में बस जाती है। वह साफ-साफ देख लेता है कि यह केवल रूप की प्यास नहीं है। श्यामा से वह कहता है। यह पता नहीं क्या है जो आदमी को अपनी आत्मा तक से अलग कर देता है। बस तसल्ली यह है कि हम उसी सूरज चांद को देख सकेंगे जिसे वह देखती है। मुझे पता है वह मुझे फिर नहीं दिख सकती। मैने त्रिनाथ देवता से यही कहा कि जो मुझे अनुभव हुआ वह सबको हो। ऐसी प्यास सबको लगे। तुम्हे भी लगे मेरे दोस्त!! 



 

कुलभूषण के जीवन की यह रुहानी पावन करवट उसको भीतर से भर देती है। उपन्यास का यह छोटा सा हिस्सा बड़ा धड़कता हुआ सा है। अमला विधवा है। अमला अली और श्यामा हिंदू, मुसलमान, ताँती और जुलाहा जैसे अलगावों को भुगतते हैं। देश में सांप्रदायिक तनाव है। अमला गर्भवती है, अली की हत्या हो जाती है। ताँती और जुलाहों के बीच सब सुलग चुका है। जाति का भयानक राजनीतिकरण है। दंगे हैं। श्यामा अमला को खोज लेता है। उसकी संतान को अपना नाम देता है। यह भी कथा का एक अयंत पवित्र हिस्सा है जिसमें मनुष्यता की खुशबू है। अमला की संतान मल्ली है। मल्ली ही मालविका है जिसे कुलभूषण अपनी प्रिय संतान की तरह पालता है। मुक्तिवाहिनी के साथ बांग्लादेश की अस्मिता की लड़ाई लड़ता हुआ श्यामा स्वयं को एक बड़े मकसद का पात्र समझता है। उसे गांधी की झलक मिली है और डाँ कासिम की इंसानियत पर भरोसा करता है। श्यामा और अमला की कथा युद्ध की अमानुषिकता के बीच खिला प्रेम और उत्सर्ग का एक पुष्प है। अमला को पाकिस्तानी सैनिकों ने रौंद दिया था। अमला बहुला और लखिन्दर की कथा गाती हैं। वे दोनों बहुला और लाखिंदर की रूह हो जाते हैं। श्यामा अमला को मार कर खुद भी भर जाता है मगर मल्ली कुलभूषण तक पहुंच जाती है। यह मल्ली उसका बहुत बड़ा सुकून है। यह उसके जीवन में प्रगाढ़तम अनुराग का अंश है। अमला का संदर्भ उसके लिए एक नितांत गोपन संदर्भ है और मालविका की मृत्यु उसे बहुत बड़ा आघात दे जाती है। अपने जीवन की विचित्रताओं को जज़ब करके जीता हुआ कुलभूषण बिल्कुल टूट जाता है। मल्ली भी जैसे वही व्यंग्य है जो अमला थी, श्यामा था और कुलभूषण भी है। उसने एक कागज़ पर 'गोरा' की पंक्तियों लिख रखी थीं। कुलभूषण को मिल जाता है वह कागज उसमें लिखा है- "वह क्या है, इसे जैसे समझ ही नहीं पाया। उसकी माँ नहीं, पिता नहीं, देश नहीं, जाति नहीं, नाम नहीं, गोत्र नहीं, देवता नहीं कुलभूषण के सीने में ऐसा दर्द होता है जैसे किसी ने छुरा मार दिया हो।



 

उसके मन में यह चमक जाता है कि मालविका को सब याद था। वह समझ जाता है कि वह सब कुछ भूलने का नाटक कर रही थी। उसका त्रास कई गुना हो उठता है। और यह एक वाक्य इस पूरे विकट व्यंग्य को समेट लेता है कि उसे पत्रकार को फोन कर के याद दिलाना है कि ‘कुलभूषण का नाम दर्ज’ कीजिएगा।



 

इस तरह यह शीर्षक इस बहुपरतीय कथा का खदकता हुआ नाभिक साबित होता है। अलका सरावगी की इस कथा में एक खोए जाते आदमी के उस अर्थ का आविष्कार है जो उसे उसके प्रेम और स्वतंत्रता में रचता है। उसके मामूलीपन की मानवीय दीप्ति है यहाँ जो अनूठी है। कुलभूषण के लिए यह वह जगह है जिसमें वह अपनी बाहरी कुरुपता से मुक्त मनुष्य होने के रंग में है। पूंजी संरचनाओं के वैमनस्य युद्ध और खूनी खेल से अलग वह अपनी स्वतंत्रता को और नैसर्गिक सुंदरताओं में बस कर संभालता है। कुष्टिया की गोराई नदी, जंगल और लोकवृत्त में इसका रहस्य है। उसका रूप कुरूप है। वह वंचित और तिरस्कृत है। मगर निरीह या आत्मविभाजित नहीं है।





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