आशुतोष प्रसिद्ध की डायरी
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आशुतोष प्रसिद्ध |
आज की दुनिया प्रतियोगिता या परीक्षा की दुनिया है। यह प्रतियोगिता या परीक्षा कदम कदम पर है। एक अजीब सी असमांप्त होड़ या दौड़ है जिससे व्यक्ति का आकलन किया जाता है। प्रतियोगिता में हिस्सा लेते हुए व्यक्ति पर हमेशा कामयाबी का एक दबाव बना रहता है। लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि क्या इन परीक्षाओं से व्यक्ति का सही सही आकलन हो पाता है? एक तरह से मनुष्य को परखने या तौलने का यह माध्यम भर ही तो है। तो क्या इस माध्यम में कोई कमी नहीं? यह होड़, दौड़ या प्रतियोगिता रचनात्मक लोगों के लिए त्रासदी की तरह होती है। यह भी होता है कि अक्सर आम तौर पर बेहतर प्रदर्शन करने वाले इन परीक्षाओं में चूक जाते हैं। तो क्या इस प्रदर्शन के बिना पर ऐसे मनुष्यों को असफल मान लिया जाए जैसा कि आजकल प्रचलन में है। आशुतोष प्रसिद्ध अपनी डायरी में लिखते हैं "अपने को ख़ोजता हूँ और कहीं नहीं पाता, मैं कहीं नहीं हूं की तरह हर जगह हूँ और हर जगह हूँ की तरह कहीं नहीं हूँ। छोटे छोटे सुखों के लिए बहुत लम्बी लम्बी दौड़ है। हर दौड़ इतनी छोटी है कि पूरी होने के बाद लगता है हर प्रतियोगिता आदमी के मुँह पर तमाचा है। हमने तराजू से बस तौलना सीखा और ऊपर नीचे रहना, बराबर रहना नहीं। एक उम्र तक मैं जिसे कह रहा था अब ये बढ़ रहा है अब कहता हूँ उम्र हो रही है तो सूखेगा ही। अपने ही कहे पर शर्म आती है, शर्म आदमी की सबसे नजदीक ब्याहता बेटी है। फसलों को ध्यान से देखता हूँ, सब हरा है, वो इस भय से मुक्त हो कर बढ़ रहे हैं कि उन्हें 90 या 120 दिन में कट जाना है। हम भी तो .. आखिर कितने दिन।" कवि आशुतोष की डायरी पढ़ते हुए लगता है हम बदले प्रारूप में उनकी कविताओं से हो कर ही गुजर रहे हैं। इन कविताओं में जीवन है। जीवन की समस्याएं हैं और इन समस्याओं की तहकीकात है। इन्हें पढ़ते हुए हम सोचने के लिए बाध्य होते हैं। और यही किसी भी रचनाकार की सफलता होती है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं आशुतोष प्रसिद्ध की डायरी।
आशुतोष प्रसिद्ध की डायरी
अ-छोर के छोर पर खड़े हो कर
याद की कई किस्में हैं। उन कई किस्म की याद में एक याद ऐसी है जो हमें शून्य कर देती है। हम अनुभूति से अलग हो जाते हैं। होते हैं तो न होने की तरह अतीत की घड़ी में कहीं यह कहना शायद गलत होगा कि हम अनुभूति से अलग हो जाते हैं क्योंकि अनुभूति से अलग तो मुर्दा भी नहीं होता, क्या मुर्दा से इतर भी होते हुए न होने की कोई सटीक उपमा है? मुझे नहीं मिलती, शायद होगी ही। कभी कभी सुबह सुंदर होती है और दिन ख़राब..
दुनिया में कई तरह की व्याधियां हैं। सबसे खतरनाक व्याधि है सोचना और डरना, मैं इन दोनों व्याधियों से पीड़ित हुआ। और फिर ठीक नहीं हुआ। नहीं होउँगा भी। कहने से खुद को रोक नहीं पाता और कह कर डरता हूँ कहे हुए को अलग ढंग से न सोच लिया जाए।
कई बार मनुष्य अपनी अच्छी आदतों के लिए भी दण्डित होता है क्योंकि वो किसी के लिए बुरी होतीं हैं।
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इन दिनों कालिदास को समग्र रूप में पढ़ रहा हूँ यानि एक साथ एक जगह, संस्कृत का कोई विशेष ज्ञान है नहीं तो ज्यादा अनुवाद पर ही निर्भर हूँ, पहले जब मैं कालिदास को पढ़ता था तो मुझे लगता कालिदास देह को इतना महत्व क्यूँ देते हैं, देह से ही हर उपमा हर रूपक क्यूँ आते हैं, इतना सीमित क्यूँ हैं और लोग उन्हें इतना पसंद क्यूँ करते हैं। तब मैं दसवीं में था, जब पहली बार घर की पेंटिंग के दौरान साफ सफाई करते हुए एक टांड़ से मुझे रघुवंशम मिली थी। वो मैंने इसलिए पढ़ी थी कि जानूँ ये हैं कौन। बाद में ग्रेजुएशन के दौरान लखनऊ में रहते हुए अभिज्ञानशाकुन्तल और मेघदूतम पढ़ी। तब की समझ और अब की समझ में बड़ा अंतर आया है तब मैं अपनी तुकबंदी को अच्छी रचना समझता था, तब मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि अपनी डायरी फेंक सकूँ अपने आपको काट सकूँ, यह पढ़ते, लिखते हुए धीरे धीरे हुआ। मैं दुनिया से ज्यादा अपने आप को देखने में सही हुआ।
इन दिनों कालिदास को लगातार पढ़ रहा हूँ, रात में नींद नहीं आती तो भी कालिदास ही पढ़ता हूँ, आज ऋतुसंहारम पढ़कर खत्म किया।
ग्रीष्म का पहला सर्ग पढ़ते हुए पहले मुझे लगता था कि यह सिर्फ नायिका की देह का बखान है। “कुसुमितलतावितानैः कुसुमसौरभ्यं वहति मन्दं मलयानिलः” यह पंक्ति पहले मुझे रूढ़िगत लगती थी, जैसे कालिदास ने नायिका को केवल पुरुष की नजरों के लिए सजाया हो। लेकिन अब समझ पा रहा हूँ कि यहाँ नायिका सिर्फ सौंदर्य नहीं, बल्कि एक जीवंत भावना है। ग्रीष्म की तपन में उसकी साँसें गर्म हैं, लेकिन उसका हृदय प्रेम की ठंडक से भरा है। उसकी बेचैनी, उसकी थकान, उसकी आँखों में छिपा सपना—ये सब प्रकृति के साथ एक लय में बंधे हैं। वह केवल किसी पुरुष के लिए नहीं, बल्कि अपने आप में एक कहानी है। उसका प्रेम, उसकी उलझन, उसकी तड़प—ये सब मुझे अब एक ऐसी स्त्री की झलक देते हैं, जो प्रकृति की तरह बदलती है, लेकिन अपनी आत्मा को कभी नहीं खोती। वह पुरुष के सुख का साधन नहीं, बल्कि एक ऐसी लय है, जो ग्रीष्म की गर्मी में भी ताजगी लाती है।
मेघदूत में यक्ष-पत्नी जो पहले मुझे बस एक प्रेमिका लगती थी, जो अपने यक्ष के लिए तरस रही है। पर अब “सा तु निवसति कुवलयदलसन्नकान्त्या” यह पंक्ति पढ़ते हुए एक चेहरा मेरे मन में उभर आया। कमल की पंखुड़ियों जैसी उसकी आँखें, लेकिन उनमें आँसुओं की चमक। अलकापुरी में वह अकेली है, अपने प्रेम से बिछड़ कर। पहले मुझे लगता था, यह तो बस एक रूढ़िगत विरहिणी है, जिसकी पूरी दुनिया यक्ष के इर्द-गिर्द है। लेकिन अब उसका दुख मुझे कुछ और कह रहा था। उसका हृदय टूटा है, लेकिन उसकी प्रतीक्षा में एक अटल विश्वास है। यह शायद जीवन का अंतर भी हो तब मैं प्रेम से दूर था, प्रतीक्षा से अनजान था, तड़प स्वार्थ की थी, पर अब नहीं है। अब अपना अस्तित्व ही किसी के होने से अर्थवत्ता पाता हुआ दिखता है। कालिदास की नायिका अपने दुख में डूबी है, फिर भी अपनी गरिमा को थामे हुए है। उसका विरह उसे कमजोर नहीं बनाता, बल्कि एक ऐसी ताकत देता है,जो झकझोर देता है। वह सिर्फ यक्ष की प्रेमिका नहीं, बल्कि एक ऐसी स्त्री है, जो अपने प्रेम को अपने हृदय में संजोए रखती है, जैसे कोई दीया तूफान में भी जलता हो। कालिदास ने उसे नाम नहीं दिया, फिर भी वह मेरे लिए एक चेहरा बन गई—एक ऐसी नायिका, जो अपने दुख में भी अमर है।
कुमारसंभव में पार्वती से मिलना जैसे किसी तपस्विनी की आत्मा को छूना था। पहले मैंने सोचा था, वह बस शिव की प्रेमिका है, जिसका सौंदर्य ही उसकी पहचान है। “तामागतां तां तपसः प्रभावात् सौन्दर्यमूलं कमलायताक्षीम्” यह पंक्ति पहले मुझे सिर्फ सौंदर्य का बखान लगती थी। लेकिन अब, जब मैंने पार्वती की तपस्या को पढ़ा—“क्षामं कृशं सौम्यवपुस्तपोभिः” तो मैंने खुद को ही कोसा। पार्वती ने अपने शरीर को तप में तपाया, लेकिन उनकी आत्मा में एक ऐसी चमक थी, जो शिव को भी झुका देती है। वह सिर्फ प्रेमिका नहीं, बल्कि एक ऐसी स्त्री है, जो अपने सपने के लिए पहाड़ों पर अकेली खड़ी होती है। उसका हृदय शिव के लिए धड़कता है, लेकिन उसकी तपस्या उसकी अपनी है। पार्वती ने अपनी ताकत से, अपने आत्मबल से, नियति को बदला। उनकी आँखों में प्रेम की कोमलता है, लेकिन उनकी आत्मा में एक आग, जो मुझे अपनी ताकत पर विश्वास करने को मजबूर करती है। कालिदास ने पार्वती को एक ऐसी नायिका बनाया, जो सौंदर्य, संवेदना, और शक्ति का संगम है।
मन कितने स्तरों में बदलता है यह समय तय करता है, धीरे धीरे आप जानते हैं कि अब तक आप जो जानते थे वो जानकारी का 1% भी नहीं है। अभी भी यह कहना कि मैं कालिदास को समझ गया मूर्खता ही होगी। कवि कब और कैसे महाकवि हो जाता है वो खुद तय करता है हम आप नहीं, हम आप तो शायद ता उम्र उसकी थाह ही न लें पाएँ।
पहले मैं कालिदास को रूढ़िवादी मानता था। मुझे लगता था, उनकी नायिकाएँ सिर्फ़ सौंदर्य की मूर्तियाँ हैं, पुरुष के लिए बनीं। लेकिन इन दिनों, इन पन्नों को पलटते हुए, मुझे अपनी अ-पढ़ता का एहसास हुआ। शकुंतला का आत्मसम्मान, पार्वती की तपस्या, यक्ष-पत्नी का विरह, उर्वशी की स्वतंत्रता, मालविका की सादगी—ये सब मुझे एक नई कहानी सुना रहे हैं। ये स्त्रियाँ सिर्फ़ प्रेमिकाएँ नहीं हैं। इनके हृदय में प्रेम है, लेकिन इनकी आत्मा में एक आग, एक ताकत, जो इन्हें अमर बनाती है। कालिदास ने इन्हें अपने समय की सीमाओं में लिखा, लेकिन इनकी भावनाएँ, इनका बल, इनकी संवेदनाएँ आज भी जीवंत हैं। कालिदास की दुनिया केवल देह और सौंदर्य की नहीं थी। यह एक ऐसी दुनिया थी, जहाँ स्त्रियाँ प्रेम करती थीं, दुख सहती थीं, सपने देखती थीं, और अपनी ताकत से नियति को बदलती थीं। शकुंतला की पीड़ा “मम संनादति हृदयं तव स्मृत्या” मेरे कानों में गूँज रही है। मैंने कालिदास को गलत समझा था। उनकी नायिकाएँ केवल पुरुष के लिए नहीं थीं। वे अपने हृदय की रानी थीं, अपनी कहानी की नायिका।
हे महाकवि तुम न होते तो हम कैसे जानते उपमाओं में बात करना, उपमाओं में रोना गाना हँसना प्यार करना, तुम न होते तो हम कैसे जानते स्त्री पुरूष का समागम इतना अदभुत होता है। तुम न होते तो कैसे जानता कि कवि का फलक कितना विस्तृत होता है जो प्रेम कहानी में समाज की बारीकी दिखा देता है।
आह अदभुत.. प्रणाम पुरखे..
06 / 08 / 2025; शाम 8 बजे
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बहुत प्रयास करने के बाद भी मैं बहुत लम्बी बात नहीं कर पाता, करीबी रिश्तेदार हों या घर के ही लोग, मैं बहुत कम बतिया पाता हूँ। इस सिलसिले में लोग पूछते रहते हैं कुछ बुरा लगा क्या? सहज क्यूँ नहीं हैं? जबकि मैं अपनी सहजता में भी कम ही बोलता हूँ। दो चार बात के बाद मैं बस सोचता हूँ अब क्या बोलूँ, दरअसल मैं बहुत कुछ भुला रहता हूँ, जैसे मैं किसी के द्वारा बोली गयी कड़वी बात, लड़ाई के दौरान रखा गया तर्क वाक्य या कुछ ऐसा भी जो नहीं भूलना चाहिए सब भूल जाता हूँ, मुझे उस क्षण क्या महसूस हुआ वो याद रहता है, उस महसूस हुए भाव से मेरे भीतर का सब चलता है, जैसे कई बार ऐसा हुआ कि दो लोगों की बात मैंने सुनी पर अगले ही पल जब पूछा गया ये उन्होंने ही कहा था न मैं भूल जाता हूँ, किसने कहा ये वाक्य..।
अपने बचपन से ले कर अब तक ऐसे ज्यादातर वाक्य मैं भूल चुका हूं मुझे भाव याद है जो किसी के बोलने, करने, कहने के बाद मेरे भीतर पैदा हुआ। ज्यादातर जगहों पर यह घातक है, लेकिन मैं इसे सुधार नहीं पा रहा। सुबह कुछ करते हुए मेरे मन में कुछ चल रहा था, उस चल रहे को जब मैं महसूस रहा था तो मुझे लग रहा था अगर इसे मैं लिखूंगा तो अच्छा बनेगा कुछ, फिर किसी और चीज में व्यस्त हुआ भूल गया। ऐसे ही बहुत कुछ चला गया.. जाने दिया।
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जब भी कोई रचना पढ़ता हूँ मैं उसमें से ऐसे शब्दों को सहेज लेता हूँ जिन्हें मैंने कभी अपनी दिनचर्या में, लिखने में, बोलने में, इस्तेमाल नहीं किया हो या कभी सुना न हो। ऐसे मेरे पास लगभग 1200 से ज्यादा शब्द हो गए हैं। कल रात मैं उन्हें एक मिला कर पढ़ रहा था और उससे एक अलग किस्म की ध्वनि निकल रही थी, कई भाषा बोली के शब्द एक साथ, उन्हें एक लय में पढ़ना भी मुश्किल ही है, यह कितनी अदभुत बात है कि हिंदी के उन्हीं सब अक्षरों से इतने अलग अलग शब्द बनते हैं जिन्हें हम बचपन से लिख पढ़ बोल रहे हैं।
ऐसी कितनी ही बातें हैं जो हमें अचंभित करती रहती हैं, कल शाम मैं बाहर से लौट रहा था, मेरे सामने एक ई रिक्शा चल रहा था, उसमें एक स्कूल ड्रेस में बच्चा और एक महिला बैठीं हुईं थीं। उनके बाल इतने बड़े थे, कि वो रिक्शे से लटक कर सड़क पर रगड़ रहे थे, शायद उन्हें पता नहीं रहा होगा, मैंने बाइक थोड़ी तेज कर उनसे कहा, तो वो चौंक कर देखीं, रिक्शा रुकवा कर सही की होंगी, मैं बढ़ता गया, पर बाल देख कर मेरे भीतर लालच आ गई। मुझे हमेशा से बड़े बाल पसंद थे। बड़े बाल और ढीले कपड़े। मुझे देह दर्शन में तनिक रुचि नहीं है वो स्त्री की हो या पुरुष की। बड़े बालों से मुझे जैसे अलग सा कॉन्फिडेंस महसूस होता है, कपड़े जब देह छोड़े रहते हैं तो मैं वो कर पाता हूँ जो चाहता हूं। अब तो बाल लगातार झड़ रहे हैं, कारण कई हैं पर बाल अब वैसे बढ़ते भी नहीं मेरे जैसे मैं चाहता हूँ। हर चीज़ की उम्र ढल रही है। मैं भी अब वैसा कुछ नहीं कर पाता जैसा आज से 10 या 15 बरस पहले सोचता था या करता था। ख़ैर ..
कल से मन ठीक नहीं कर पा रहा हूँ, कई कई चीजें कर के देख लीं, थकान बहुत थी फिर भी नींद नहीं आ रही है सही से, जाने क्या क्या चल रहा है, आंखों में अजीब सी जलन थी पढ़ भी नहीं पा रहा था, सीने में जैसे कुछ भारी सा रखा हो जो हट ही नहीं रहा, जैसे मैं किसी को पुकार रहा हूँ, और वो सुन नहीं रहा। ऐसा कई बार महसूस होता है कि हमसे ज्यादा हमारा जीवन समाज जीता है, हमसे ज्यादा हमारा खून हमारा डर पीता है। हमसे ज्यादा हमारी व्याकुलता कोई नहीं जान पाता, इंतज़ार जैसे किसी शब्द का हम सब स्थायी या अस्थाई ग्रास हैं, इसमें किसी की कोई गलती नहीं, किसी की कोई भूमिका नहीं।
कहीं किसी का कुछ पढ़ते हुआ पढ़ा था 'अनात्म बेचैनी' उस शब्द को उसके मूल अर्थ में महसूस कर रहा हूँ।
नरेश मेहता का उपन्यास 'प्रथम फाल्गुन' पढ़ना शुरू किया है सुबह से 45 पेज पढ़ा है, यहाँ भी गोपा और माहिम के बीच समाज घुसा हुआ है।
03/ 06/ 2025
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जमा-दारी
विस्मय, ऊब, खुशी, उदासी, थकन, अ-सम्भव, अर्वाचीन, आत्मीय, साथ, स्पर्श, भरोसा, आँख, पाँव, बारिश, महादेव, गंगा, अनादि, भीड़, हॉर्न, लूटपाट, पान, काशी, नागरी प्रचारिणी सभा, भव्य, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, बनारसी दास, साजन मिश्र, सुमन केशरी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, हरिवंश, पूर्वायन चटर्जी, बद्री नारायण, पंडित कुमार बोस, व्योमेश शुक्ल, आदि आदि, सुख, अनुभूति, निश्चिंतता, सगाई, परिवार, नेपथ्य, घबराहट, वापसी, गायब..
कुल यही सब है जीवन में इन दिनों। जिसे विस्तार देने का मन नहीं है। बस इतना कहा जा सकता है कि बहुत कुछ बस स्वीकार करना चाहिए कहना नहीं।
कुछ कुछ शब्द लिखना था पर लिखा एक पूरा वाक्य। कुछ कुछ शब्द में क्या हमेशा कुछ कुछ छूट जाता है? या हम बस कुछ कुछ ही कह पाते हैं? इसका ठीक उत्तर क्या है?
हमारे आस-पास कहीं भी अल्प, उप, और अर्द्धविराम नहीं है। हम प्रश्नवाचक चिन्ह और पूर्णविराम के बीच घूम रहे हैं। कभी-कभी विस्मयादिबोधक चिन्ह से भिड़ंत हो जाती है। और हम वहां भी प्रश्नवाचक चिन्ह लगा देते हैं। हम पूर्णविराम और प्रश्नवाचक चिन्ह एक साथ क्यूँ नहीं उपयोग कर सकते? ऐसे ही मेरे मन में एक सवाल यह भी आया था कि हम तिवारी में 'री' की जगह 'ऋ' क्यूँ नहीं लिख सकते? इससे ध्वनि में तो कोई विशेष अंतर नहीं आता।
मैं वासना (केवल काम नहीं) शून्य मनुष्य का चेहरा देखना चाहता हूँ, क्या वासना नहीं होने की चाह भी वासना नहीं है ?
पढ़ रहा हूँ― भारत भूषण अग्रवाल, असंगघोष, मलयज का पत्र, सब कुछ थोड़ा थोड़ा है।
जैसे मैं बार बार उन्हीं शब्दों से अलग अलग बात कहता हूँ वैसे मेरी आत्मा उन्हीं उन्हीं घटनाओं से अलग अलग बात कहती है, मुझे चुप कराती है। लेकिन मैं बोलता हूँ.. वो तेज से कहती है चुप.. होंठ पर उंगली रख कर कहती है चुप रहो, मैं कुछ घड़ी चुप रहता हूँ, फिर बोलना शुरू करता हूँ। कभी उसने कहा था.. तुम बस बोलते रहो, मुझे सुनना पसंद है। अब जो आपको पसंद है उसकी पसंद के लिए आत्मसम्मान गिरवी रख देने में क्या हर्ज है, रख देता हूँ। दरअसल फेंक देता हूँ। प्रेमी को आभारी और विन्रम इतना तो होना चाहिए कि वह किसी चीज़ को अपमान की तरह न ले, लेगा तो सम्बंध से हाथ धो देगा। और इन दिनों हाथ धोना भी अच्छा जुमला नहीं है।
19 जुलाई 2025 / रात 1:40
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अपने को ख़ोजता हूँ और कहीं नहीं पाता, मैं कहीं नहीं हूं कि तरह हर जगह हूँ और हर जगह हूँ की तरह कहीं नहीं हूँ। छोटे छोटे सुखों के लिए बहुत लम्बी लम्बी दौड़ है। हर दौड़ इतनी छोटी है कि पूरी होने के बाद लगता है हर प्रतियोगिता आदमी के मुँह पर तमाचा है। हमने तराजू से बस तौलना सीखा और ऊपर नीचे रहना, बराबर रहना नहीं। एक उम्र तक मैं जिसे कह रहा था अब ये बढ़ रहा है अब कहता हूँ उम्र हो रही है तो सूखेगा ही। अपने ही कहे पर शर्म आती है, शर्म आदमी की सबसे नजदीक ब्याहता बेटी है। फसलों को ध्यान से देखता हूँ, सब हरा है, वो इस भय से मुक्त हो कर बढ़ रहे हैं कि उन्हें 90 या 120 दिन में कट जाना है। हम भी तो .. आखिर कितने दिन। अपनों के लिए जीना है, बढ़ना है, कट जाना है। जो कुछ भी है एक क्रम है। धक धक धक धक होती धड़कन की तरह.. कभी यह क्रम रुकेगा, धक धक धक धक से एक धक कम होगा बस..
30 जुलाई 2025
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बहुत दूर तक जाने के लिए पहले देर तक सोचा, फिर चला, चलते ही थक गया। थकान चलने से नहीं सोचने से हुई। बैठ गया और बस सोचता रहा। सोचते हुए, सोच में चलने पर थकान नहीं होती और दूर तक जाया भी जा सकता है बिना किसी श्रम के, मगर पहुँचा नहीं जा सकता। जिनको कहीं पहुँचने की चाह होती है वो पहले क्रिया करते हैं बाद में इच्छा। कभी कभी इसमें गिरने का खतरा रहता है लेकिन बिना खतरे के तो जन्म भी नहीं होता।
ख़ैर.. मैं मुद्दे से भटक गया।
मैं वर्षों से ऐसे ही भटक रहा हूँ, मेरी भटकन में वो तमाम मंजिल पीछे छूट गयी जिन पर लोगों का तांता लगा हुआ है। मेरी मंज़िल क्या है मुझे ख़ुद पता नहीं है, मैं बस भटकते रहना चाहता हूँ लेकिन अस्थिर हो कर नहीं स्थिर हो कर भटकना। ये है बड़ी कंट्राडिक्टरी बात लेकिन यही है जो है।
बीते दिन मेरे हाथ की रेखाएँ किसी से बोलीं, रेखाओं ने कहा सूर्य पर राहु बैठे हैं, हर बार सफलता की आखिरी सीढ़ी से गिरेंगे। सूर्य का व्रत करें, नमक न खाएं एक दिन। इन सबके बाद मैं देर तक सोचता रहा कि घूस लेकर काम करने की प्रणाली हमारे यहाँ बड़ी पुरातन है, एक किलो लड्डू में अच्छा नम्बर, अच्छा स्वास्थ्य, अच्छा वर, अच्छी कन्या पाया जा सकता है।
यह सब सोचने के बाद थोड़ी देर रोया, फिर हँसा, फिर रोया कि मैं हँसा क्यूँ?
अनन्तः इतना सब सोच लिया कि जो सोच कर चला था वो भूल गया, वहीं रुका रह गया। सोच आगे निकल गया, क्योंकि वह सोच नहीं रहा था, वो अपना काम कर रहा था। मेरी समझ में सोच कोई चालाक लड़का है जो परीक्षा के दिनों में लड़कों के हॉस्टल के कमरे में सरस सलिल फेंक कर ख़ुद पढ़ता है।
01 अगस्त 2025
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हर शब्द की अपनी एक ध्वनि है और हर ध्वनि की अपनी एक छवि, हमने पहले छवि के विषय में जाना या ध्वनि के यह तो मैं नहीं जानता, मगर लगता है शायद पहले छवि को जाना होगा फिर उस छवि के लिए उच्चारित शब्द से निकली तरंग से जाना होगा ध्वनि को और फिर ऐसे हुआ होगा कि हम उस ध्वनि तंरग की आवाज मात्र से भी बना लेने लगें हों छवि..
शायद ऐसा ही हुआ होगा, बच्चों को गौर से देखने समझने पर तो ऐसा ही महसूस होता है।
मेरे जीवन में ज्यादातर ध्वनियों के लिए कोई छवि नहीं है। जो है वो किसी एक छवि पर कई कई ध्वनि है। जीवन में मित्रता हमउम्र से बहुत कम रही, जो रही भी वो मैं निभा नहीं पाया, ऐसा नहीं है वो अभी हैं नहीं, मैं उनके स्वभाव को उनकी जीवनचर्या को वैसे स्वीकार नहीं पाता जैसे वो हैं, यहाँ लगभग लोग मौकापरस्त हैं, फायदे के लिए सब भूल जाने वाले, और उनमें से कुछ ऐसे हैं जिनके जीवन का सारा तार बस कुछ चीजों पर टिका है। हर चीज़ को सामान्य बना देने की दौड़ है। उसी को गाली दे कर उसी के साथ खड़े होने वाले, समझौतावादी लोग हैं सब, जिस गलती और गलत आदमी के साथ होने के लिए माफी मांगते हैं उसी के साथ खीस निपोरते दिखते हैं। लोगों की भीड़ में मैं किसी को कभी मित्र नहीं कह सका। अनुजों और अग्रजों से मेरा घर भरा है। मित्र शब्द की ध्वनि से बनने वाली छवि कोई नहीं रही है जीवन में। इससे मुझे दुःख नहीं हुआ कभी। मेरे जीवन की और सब ध्वनियों से बनने वाली छवियाँ इतनी साफ हैं कि मुझे किसी और की जरूरत ही नहीं महसूस होती, पिछले तीन बरस से तो और ज्यादा ही नहीं होती। कहते हैं घर में जितना कम सामान हो वो उतना कम गन्दा होता है, मैंने सब अनावश्यक सामान और उनसे पैदा होती मोह फेंक दी।
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साल भर से एक दिन की प्रतीक्षा में था वो दिन बीत गया, और ऐसे बीता कि अब प्रतीक्षा का खुरदुरापन कांटे की तरह चुभ रहा है। इधर कुछ दिनों में भीगना और भागना लगा रहा, सूर्य के निकलने से पहले उठता था और चांद के ठीक ठाक चल लेने तक पीठ नहीं रख पाता था। फिर भी लगता था यह बचा है। भीगते भागते भी वहाँ नहीं पहुँच सका जहाँ पहुँचना चाहता था। खैर इससे कोई पीड़ा नहीं है, यह तो जीवन का काम है कि वह न बहुत सपाट हो सकता है न बहुत समतल दोनों दशा में ऊब होती है इसीलिए यह उठापटक बना कर ऊब से निजात दिलाता है।
बाहर लगातार नमी बनी हुई है, बूंद कुछ पल को टूटती है, फिर चल पड़ती है। एक एक साँस पर कई कई छींक जड़ गयी है, देह तप रही है। लेटे बैठे उब रहा हूँ तो कुछ पन्ने पलट ले रहा, कैलाश वाजपेयी की कुछ कविताएं पढ़ी, प्रथम फाल्गुन के कुछ और पन्ने पढ़े, मेल और सोशल मीडिया पर आई कुछ चीजें पढ़ी, कुछ लोगों को मैं बिल्कुल सपाट कह देता हूँ बकवास लिखा है, फिर बाद में पछताता हूँ। लेकिन क्या करूँ.. वो भीतर से इस वेग से आता है कि रोक नहीं पाता। चंद्र किशोर जायसवाल का मर 'गया दीपनाथ' पढ़ रहा था, कुछ पन्नों से ही बड़ी रुचिपूर्ण लगी। पढ़ूँगा।
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कल एक अजीब चीज हुई, मैं कुछ टॉपिक पर लगातार बोलता रहा, जैसे छायावाद, संस्मरण साहित्य, पत्रों पर क्या शोध कार्य हो सकता है। बाद में देर तक सोच रहा था अभी उस दिन जब पूछा गया तो मैं क्यूँ नहीं बोल पाया था। मेरी मेमोरी जाने क्यूँ चीजों को देर से प्रोसेस करती है। अब अपनी बोली गयी बात याद कर रहा हूँ तो लग रहा है ये तो बेहतर बात थी। कुछ सीनियर जूनियर की पी-एच. डी. और सिनॉप्सिस में इतना समय गया है कि लगता है .. खैर। इस बहाने मैं अपने मन मस्तिष्क के उस इलाके में जाता हूँ जिधर कभी जाना होता नहीं। बौद्धिक कसरत की तरह है यह, आनंद आता है।
कोई अच्छी फिल्म देखने का मन है। सुबह से पंडित जसराज जी को सुन रहा हूँ, उनकी आवाज का भारीपन शब्दों में नए किस्म की जान भर देता है, शिव स्तुति, राग भैरवी, राग यमन, उन्होंने ऐसे गाया है कि आप गौर से सुन लें तो रोए बिना रह ही नहीं सकते।
आह.. अदभुत
03 अगस्त 2025
सोचे हुए की याद में याद को सोचता हूँ
सघनता के दिनों में विरलता की याद आती है। जब तारतम्यता टूट जाती है तो निरंतरता की याद आती है। पूरी होते होते चूक गई इच्छाओं की हुक पीठ पर हमेशा चिपकी रहती है।
मैं जिसे समझाना चाहता हूँ उससे डरता हूँ कि कहीं वह पलट कर पूछ न लें कि आप क्या कर रहें हैं तो क्या जवाब दूँगा.. जबकि मेरा कुछ न करना ही जवाब है कि मैं क्यूँ समझाना चाहता हूँ, पर यह सवाल लगातार चलता है इसी चक्कर में हर तरह की निरंतरता टूटी हुई है।
मैं धीरे धीरे बहानेबाज हो गया हूँ, और मेरे आसपास के सब। मैं कुछ दिन बीमार रहता हूँ, तो कुछ और दिन उस बीमारी की आड़ में पड़ा रहता हूँ, कुछ दिन कहीं यात्रा कर लेता हूँ तो उसकी थकन में कुछ और दिन निकाल देता, जाने कौन सी मनोग्रंथि है जो मुझसे हर एक घटना के बाद कहती है कुछ दिन इस घटना के बाद भी आराम चाहिए।
जरूरी सब गैरजरूरी की तरह हो गया है। प्राथमिकता सब बदल गयी है। होने और न होने में सिर्फ़ साँस और चलती हुई धड़कन एक दो फोन है। वो सब भी हमारी ही तरह हैं। हम सब ने मिल कर एक दुनिया बना ली है जिसे हम नहीं लेकिन हमें देखने वाले एक्सक्यूज वाली दुनिया कहते हैं।
हमारे पास योजनाएं हैं उसपर काम करने की हिम्मत भी पर कोई जामवंत नहीं है जो कहे ―
कवन सो काज कठिन जग माहीं।
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
इन दिनों फिर दबी छिपी और भूली हुई शक्तियों को याद कर रहा हूँ, बच्ची को अपनी ग़ज़ल सुनाया, वो मुझे थोड़ा हड़काई कि आपके पास इतना सब है दिखाते बताते क्यूँ नहीं हैं। मैं बस हँस सका। पुरानी कुछ स्क्रिप्ट पर काम कर रहा हूँ, कोई काम करे तो काम बनेगा। एक दो अंडर प्रोडक्शन हैं। आगे राम जाने.. ।
आज का दिन बहुत अटपटा सा था। मैं कभी कभी इंतज़ार करता हूँ कि कोई पूछे हो कि नहीं और कोई नहीं पूछता.. फिर पलट कर खुद जाता हूँ कि चलो अपना ही परिवार है।
05 अगस्त 2025
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 8948702538
सुन्दर
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