आग्नेय





'लॉन्ग नाइन्टीज' और  कविता पर बहस के क्रम में अभी तक आप पढ़ चुके हैं विजेंद्र जी  और अमीर चन्द्र वैश्य जी के आलेख. इसी कड़ी में प्रस्तुत है कवि, सम्पादक आग्नेय जी का आलेख  


लॉन्ग नाइन्टीज : पूर्वज हिन्दी कविता का उच्छिष्ट



यदि तुम अपने युग की कृतज्ञता को हासिल करना चाहते हो, तुम्हें उसके साथ कदम मिलाकर चलना होगा। यदि तुम ऐसा करोगे, तुम कुछ भी महान नहीं रच सकोगे। यदि तुम्हारे पास कुछ भी महान है रचने के लिए तो तुम्हें आने वाली पीढी से अपने को सम्बोधित करना होगा। केवल तब, निश्चित ही तुम अपने समकालीनों के बीच अनजाने बने रहोगे। तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे जिसे जबरन एक मरुस्थलीय द्बीप में अपना जीवन बिताने के लिए विवश कर दिया गया हो। वहाँ परिश्रमपूर्वक तुम एक स्मारक बना लोगे ताकि भविष्य के समुद्र-यात्री यह जान सकेंगे, एक समय तुम्हारा भी अस्तित्व था।
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आर्थर शॉपनहार
 

यह टिप्पणी लिखते हुए मुझे हरिशंकर परसाई की एक लघु कथा याद आ रही है। कथा इस तरह है। एक बार पृथ्वी के ऊपर रहने वाले खुदा ने हिन्दी साहित्य की दशा-दिशा जानने के लिए अपने दरबार में एक फरिश्ते को तलब किया। खुदा ने संजीदा हो कर उससे कहा कि आजकल मुझे ख्वाबों में हिन्दी के अनेक लेखक-गण दिखाई देते रहते हैं। वहाँ कुछ न कुछ अवश्य ही घट रहा है। तुम्हें मेरा हुकुम है कि तुम मेरे सबसे प्रिय ग्रह पृथ्वी पर जा कर हिन्दी के लेखकों की एक सूची बना कर मेरे सामने पेश करो। खुदा ने इस काम के लिए उसे एक पेन्सिल और एक रबर दिया और कहा कि तुम जिस लेखक से मिलो, उससे कहना कि खुदा चाहता है कि वह अपना नाम या तो पेन्सिल से लिख दे या वह चाहे तो रबर का उपयोग भी कर सकता है और किसी दूसरे लेखक का नाम उससे मिटा सकता है। इस काम के लिए उसे पेन्सिल और रबर में से एक किसी का विकल्प चुनना होगा। फरिश्ता पृथ्वी पर पहुँच कर अपने काम में व्यस्त हो गया। वह दिन-रात लेखकों के घर जा कर सूची में उनसे नाम लिखने का अनुरोध करता। कुछ लेखक जो विनम्र थे और खुदा से डरते थे, चुपचाप पेन्सिल लेकर अपना नाम लिखा देते। वे रबर वाले विकल्प से अपने को दूर ही रखते। फरिश्ता कुछ ऐसे लेखकों से भी मिला जो सूची में सबसे पहले लिखे गए नामों को पढते और रबर का विकल्प चुन कर अपने जानी दुश्मन लेखक का नाम खुदा की दिए हुए रबर से मिटा देते। परसाई जी ने यह नहीं लिखा कि खुदा ने इस सूची का क्या किया? मैं परसाई जी की इस कथा का समकालीन कविता के सन्दर्भ में पुनर्लेखन करना चाहता हूँ क्योंकि मेरी दृष्टि में ऐसा करना समयानुकूल है। मैं खुदा की जगह किसी सम्पादक को हिन्दी के कवियों की सूची बनाने का काम देना चाहता हूँ। इधर खुदा हिन्दी कविता के प्रति उदासीन है और कवियों के झमेले में पड़ना नहीं चाहता। मेरे विचार से सम्पादक सूची बनाने के काम में बेहद दिलचस्पी रखते हैं। वे यदा-कदा सूचियाँ बनाते और छापते रहते हैं। अब की बार मेरी कहानी में खुदा की जगह कवियों की सूची बनाने की इच्छा एक सम्पादक के मन में पैदा हुई। वह खुदा से कम तो था नहीं, उसने एक फरिश्ते की जगह नौ फरिश्तों को आदेश दिया। इन फरिश्तों में 8 अधेड़ कवि फरिश्ते और एक सफेद बालों वाला वरिष्ठ आलोचक फरिश्ता था। उनसे कहा गया कि वे कवि बद्रीनारायण द्बारा घोषित 'लॉन्ग नाइन्टीजके कवियों की एक फेहरिश्त बनाकर उसे पेश करें। यह सम्पादक खुदा की तरह मासूम और तटस्थ नहीं था। उसने इन फरिश्तों से यह भी कहा कि वैसे मैं तुम्हें पेन्सिल और रबर दोनों दे रहा हूँ, उनका तुम्हें ही उपयोग करना है, खबरदार जो तुमने उनको अन्य कवियों को दिया। मेरी कहानी का यह खुदा जरा खुदगर्ज  था। उसने फरिश्तों से डाँटकर कहा कि हर सूची में उसका नाम हो। हो सके तो सब से ऊपर हो। यदि तुम लोग ऐसा नहीं कर सके तो मैं स्वयं इसका प्रबन्धन कर लूँगा। मैं यह काम पत्रिका के आवरण पर आसानी से कर लूँगा। तुम लोग देखना मैं यह काम कैसे अन्जाम देता हूँ? वैसे तुम लोग अपनी-अपनी सूचियाँ बनाओ, मैं भी सम्पादकीय में अपनी एक सूची छापूँगा। फिर देखूँगा कि तुमने अपनी सूचियों में उन कवियों के नाम का उल्लेख किया है या नहीं जिनके नाम मेरी सूची में हैं। इन नौ फरिश्तों में से एक नेक फरिश्ते ने ही कवियों की सूची नहीं बनाई। बाकी 8 फरिश्तों ने बाकायदा अपनी-अपनी सूचियाँ सम्पादक की सेवा में अर्पित कर दीं। यह नेक फरिश्ता अब फरिश्ता नहीं रह पाएगा। उसे देश-निकाला जरूर मिलेगा।

 


मेरा पाठकों से अनुरोध है कि मेरी इस कथा को परीकथा न समझें। यह एक आभासीय यथार्थ है। सचमुच ऐसा हुआ है। एक पत्रिका के सम्पादक ने सात कवियों और एक आलोचक द्बारा बनाई गई सूचियाँ छापी हैं। उस पत्रिका के सम्पादक ने स्वयं एक सूची छापी है। पत्रिका के आवरण पर छपी सूची में सम्पादक का नाम और उसके कविता संग्रह का नाम सबसे ऊपर है। (आवरण की कटिंग में भूल से एक नाम कट गया है - सम्पादक की ओर यह लिखा जाएगा)। आज तक मैंने किसी पत्रिका के आवरण पर इतनी आत्म-रतिग्रस्तता नहीं देखी है।
 
पत्रिका के इस अंक का नाम 'लॉन्ग नाइन्टीजदिया गया है। यह नाम पढकर मुझे ऐसा लगा कि इलाहाबाद में किसी पंडे ने सम्पादक के कानों में कोई मंत्र फुसफसा दिया हो और वह उसका जाप करने लगे। दरअसल यह 'लॉन्ग नाइन्टीज क्या है। कहा जाता है बद्रीनारायण ने हिन्दी के अधेड़ कवियों के लिए अंग्रेजी में यह सिक्का ढाला है। बद्रीनारायण का कोई लेख पढता हूँ या सुनता हूँ तो मुझे घिन आने लगती है और मितली होने लगती है। क्या वे हिन्दी के लेखक हैं? इस अंक में तीन पृष्ठ की उनकी टिप्पणी में 3० से अधिक अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग किया गया है। उनके हिन्दी पर्याय भी नहीं दिए गए हैं। टिप्पणी की तीन पंक्तियों में अंग्रेजी के सात से अधिक शब्दों का उपयोग हुआ है। यह कैसा हिन्दी का लेखक है जो अपने विचारों को भी हिन्दी में व्यक्त नहीं कर पाता है?
 
मुझे यह अंक देख कर लगा कि हिन्दी के कतिपय अधेड़ कवियों ने अपना धीरज खो दिया है। वे अपनी कविता का मूल्यांकन स्वयं आयोजित कर रहे हैं। इस मूल्यांकन-अभियान की रणनीति के अन्तर्गत अपनी सूची में युवा कवियों का नाम शामिल करके उनको पथभ्रष्ट कर रहे हैं। बेशक यह सच है कि आज जो युवा कवि लिख रहे हैं, उनमें अपार रचनात्मक सम्भावनाएँ हैं किन्तु यह भी उतना ही सच है कि देवीप्रसाद मिश्र, कुमार अम्बुज और संजय चतुर्वेदी को छोड़ दिया जाए तो सूची में शामिल बाकी अधेड़ कवियों की कविताएँ पाँचवें-छठवें दशकों की कविता का उच्छिष्ट हैं, उसका अपरद है, उसका अपशिष्ट है। उनकी कविताएँ वे खोटे सिक्के हैं जिनको वे युवा कवियों की कविताओं की मुद्रा में चलवाना चाहते हैं।

सम्पादक का काम सूची बनवाना नहीं है। यहाँ सूची में नाम शामिल होने-न-होने के प्रश्न का कोई औचित्य ही सिद्ध होता है। कवियों का मूल्यांकन कवियों की सूचियों से नहीं होता है। किसी भी दशक की काव्य-प्रवृत्तियों पर विमर्श करने से ही उसको समझा जा सकता है। कविता को समय-सीमा में बद्ध कर देने से उसकी कोई पहचान नहीं बनाई जा सकती है। अधेड़ और युवा कवियों की कविताएँ भी मध्ययुगीन हो सकती हैं, यदि कवि की जीवन-दृष्टि में व्यापकता और गहनता नहीं हो। इन अधेड़ कवियों की कविता में शब्दों, प्रतीकों, बिम्बों, रूपकों का घटाटोप है। उनकी कविता विचार-शून्यता की कविता है। उसमें कुछ भी अनुभूत नहीं है। सब कुछ कविता की किताबें पढकर रचा गया है।
 


 
कविता के किसी कालखण्ड को परिभाषित ही किया जाना है तो उसे विशेषित करके कोई नाम दिया जाता है। पहले भी इन कालखण्डों को नाम दिए गए हैं, जैसे भक्तिकाल, रीतिकाल, छायावाद, प्रयोगवाद, प्रगतिवाद, अकविता, नई कविता इत्यादि। 'लॉन्ग नाइन्टीज पद निरर्थक पद है।
जैसा कि लूकाज ने लिखा है कि साहित्यिक प्रश्नों में यह तय करने के लिए क्या नवीन है और क्या प्रगतिशील है। वास्तव में इतिहास की एक ठोस समझ की माँग करता है किन्तु साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादकों और 'लॉन्ग नाइन्टीजके स्वयं-घोषित प्रायोजकों में ठोस ऐतिहासिक आधार का अभाव है। बचकाने सौन्दर्यशास्त्र और फूहड़ समाजशास्त्र के अल्पज्ञानी उद्घोषक हिन्दी कविता से उसकी ऐतिहासिकता का हनन करने के लिए लामबन्द हो गए हैं परिणामस्वरूप वे स्मृति लोप के शिकार हो चुके हैं। वे हिन्दी कविता की लोकधर्मी और प्रगतिदायक गुणवत्ता की उपेक्षा करके उसको सामाजिक मुद्दों से अलग करके और अपने पूर्वज कवियों का तिरस्कार करते हुए समकालीन कविता को 'लॉन्ग नाइन्टीजके कठघरे में बंद कर देने का एक बौड़म असफल प्रयास कर रहे हैं। 'लॉन्ग नाइन्टीजके अधिकांश कवि कलावादियों से भी अधिक खतरनाक हैं। हिन्दी में ये पंखहीन फरिश्ते हिन्दी कविता की महान परम्परा के खिलाफ 'लॉन्ग नाइन्टीजका कागभुसुण्डी खड़ा करके युवा कवियों को भ्रमित करना चाहते हैं। कविता का मूल्यांकन करने के न तो उनके पास शिल्पगत औजार ही हैं और न काव्यात्मक मूल्यों की मीमांसा के लिए उनके पास कोई वैचारिक पद्धति ही है। वे बौद्धिक रूप से भी इतने सक्षम नहीं हैं कि वे समकालीन कविता पर कोई विचार-विमर्श कर सकें।
मैं इन अधेड़ कवियों से कुछ सवाल पूछना चाहता हूँ, जो सम्पादक महोदय ने नहीं पूछे। मेरा सवाल है कि वे कविता क्यों लिख रहे हैं और वे कविता लिखने से क्या हासिल करना चाहते हैं? उनकी राजनीति में किस तरह की दिलचस्पी है? साहित्य में प्रतिबद्धता, जवाबदेही और समाज-सापेक्षता के प्रति उनकी क्या अवधारणाएँ हैं? उनकी कविताओं के क्या विषय हैं और वे अपनी कविता के लिए शब्दों का कैसे चयन करते हैं? उनकी कविता का क्या विधि-विधान है और उनकी जीवन-दृष्टि का यथार्थ क्या है? उनके लिए जीवन-मूल्यों और प्रकृति के नियमों के क्या अर्थ हैं? मुझे उम्मीद है, ये अधेड़ कवि जो स्थापित होने की लालसा में आकण्ठ डूबे दिखाई दे रहे हैं और अपनी ही छवियों को देखकर इतरा रहे हैं; थोड़ा रुककर, सोचकर अपने को ही एक बार पुन: अपनी कविताओं के दर्पण में निहार लें। उनका नारद-मोह भंग हो जाएगा।

अन्त में, जर्मन कवि हाइने की कविता की चार पंक्तियों से टिप्पणी का समापन करता हूँ-
 
तुम मुझे कभी-कभार समझते हो
मैं भी तुम्हें कभी-कभार समझता हूँ
जब कभी गन्दगी में हम-तुम मिलते हैं
हम एक-दूसरे को तुरन्त खूब समझ लेते हैं।

***            ***          ***          ***



आग्नेय हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि एवं सम्पादक हैं.
'सारा वृतान्त उसके लिए', 'कोई हो जो देखे', 'भूल गए शब्द लिखना' आग्नेय के महत्वपूर्ण कविता संग्रह हैं. 'सत्यापित' में आग्नेय के 'साक्षात्कार' पत्रिका में लिखे गए सम्पादकीय आलेख हैं. 'शब्दातीत' आग्नेय की डायरी लेखन का संग्रह है.  'रक्त की वर्णमाला' नामक इनका एक कविताओं का अनुवादित संकलन भी है.
      
आजकल भोपाल से 'सदानीरा' पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं.
(आलेख में प्रयुक्त सभी पेंटिंग्स एस. एच. रजा की हैं, जिसे हमने गूगल से साभार लिया है.)

सम्पर्क-
मोबाईल- 09303139295






टिप्पणियाँ

  1. लांग नाइनटीज का यह विमर्ष पह्ली नजर में ही बचकाना है, और इसका सही विश्लेषण है यह आलेख..

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  2. कई अनसुलझे सवाल ..दमदार सवाल हैं इस आलेख में .

    -गायेन

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  3. इस बहस को "पहली बार" ब्लाग ने एक और आयाम दिया है | निश्चित रूप से यह एक सराहनीय कार्य है | इस लेख से कुछ सहमतियाँ और कुछ असहमतियां भी हो सकती हैं ,और साहित्य में यह होना भी चाहिए , लेकिन उन्होंने कवियों के सामने जो सवाल रखे हैं ,उनसे शायद ही कोई असहमत होगा | उन्हें बधाई और प्रस्तुति के लिए पहली बार का आभार |

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  4. मैं इन अधेड़ कवियों से कुछ सवाल पूछना चाहता हूँ, जो सम्पादक महोदय ने नहीं पूछे। मेरा सवाल है कि वे कविता क्यों लिख रहे हैं और वे कविता लिखने से क्या हासिल करना चाहते हैं? सार्वकालिक प्रश्न |- सुन्दर सृजक

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  5. Anil Tripathi- idher yani aapke sabdo me adhed kavi bhi koochh likh rahe hai kya? inhe samajhne ke liye mai apna dimaag unnat karne me asamarth hoon devi bhai aur sanjay ji ko to padhata rahta hoon,

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  6. Karyakram ke is bhaag ke prayojak hai l...o...n...g n...i...n...teeeeeeeee...s !!! Abhaar.

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  7. लांग नाइंटीज के विचार से मेरी भी सहमति कभी नहीं बन सकी. मोटा-मोटी यह एक ऐसा मोनोलिथ बनाता है जो 'यथास्थितिवाद' के छाते तले सबको समेटता है तो ज़ाहिर तौर पर जो इस यथास्थिति के खिलाफ लिख रहे हैं वे इससे बाहर हो जाते हैं.

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  8. Arun Hota- Adhed kavi apni kavitayen chhodkar dusron ko padh nahin rahe hain, agar sampadak nahin hain hain to. Kahan to yuva kaviyon ke path pradarshak bankar unhe aage badhne dena chahiye. Baba ne kaha tha- hum tumhari aagwani mein kai -phislan khurach rahe hain, khod rahe jaharili ghasen

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  9. "नारद-मोह" ऐसा मिथक है जो कभी भी किसी का भी भंग नही होता है

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