प्रेम शंकर सिंह




(चन्दन पाण्डेय) 
 


फरेबी इश्क़ की दास्तान


(चन्दन पांडेय की कहानियां)


चन्दन पांडेय ख्यातिलब्ध युवा कहानीकार है. 'भूलना' नाम से एक संग्रह पहले ही प्रकाशित हो चुका है. अभी हाल ही में दूसरा संग्रह 'इश्क़ फरेब' नाम से प्रकाशित हुआ है. इस संग्रह में कुल तीन कहानियां हैं- सिटी पब्लिक स्कूल, शहर की खुदाई में क्या कुछ मिलेगा और रिवाल्वर. कहना न होगा कि इस संग्रह में शामिल कहानियों के द्वारा चन्दन ने यह साबित किया है कि वह सिर्फ सादे शिल्प और और गांवों के अमानुषीकरण के रचनाकार नहीं हैं.

संग्रह की पहली कहानी 'सिटी पब्लिक स्कूल" है. जैसा कि नाम से ही जाहिर है यह महानगरीय "कानवेंट कल्चर" पर फोकस कहानी है. आई मीन इसका थीम यही है. माने कि पूरी कहानी हिन्दी में लेकिन आपको लगे कि हिन्दी नही देवनागरी पढ़ रहे हैं. कहीं कोई भदेसपना नहीं, न ही कोई देसजपना. आप कह ही नही सकते कि यह कहानी उसी बनारस की है जिसमें काशीनाथ सिंह रहते है और कहानी भी लिखते है. किसी को बुरा लगे तो लगे. और कोई लेखक इसकी परवाह क्यों करे और करे भी तो कितनी?

कहानी केन्द्रित  है पब्लिक स्कूल में पढते तीन युवाओं सुजीत, तरुण और निकी ('यानी निकिता शाह') के बीच बनने वाले प्रेम त्रिकोण पर जहां कि नरेटर की भूमिका में सुजीत है. किंतु कहानी में अगर सिर्फ यही होता तो शायद कहानी में कोई उल्लेखनीय बात नहीं होती. दरअसल यह कहानी व्यवस्था के अन्दरूनी कमजोरियों के चलते पैदा होते उस युवावर्ग की त्रासदी का बयान है जो नकली और ओढे गये जीवन मूल्यों को ही अपनी हकीकत समझने लगता है. यह कहानी उस परिवेश में पले बढे युवाओं की है जो उस शिक्षा व्यवस्था का शिकार है जो बाहर से जितनी तड़क-भड़क वाली है, भीतर से उतनी ही खोखली है और 'बेरोजगारों के बीमार कारखाने' की तरह है. उस बीमार कारखाने से निकला युवा ही इस नई शिक्षण संस्था का अध्यापक है. उसके बारे मे उसके विद्यार्थियों की राय कहानी के पहले ही पैराग्राफ में पता चल जाती है जिसके बारे में नरेटर अंजाने ही कुछ महत्त्वपूर्ण सूचना दे जाता है- ' अगर मै फिजिक्स मैम के स्कूल से हट जाने की बात बता दूं दैन यू विल हैव सम डाटा बेस इंफार्मेशन ओनली. पर फिर कभी आप ये सब नहीं जान पायेंगे कि क्यों मैं जितना भी समझदार हूं उससे कम समझ्दार होना चाहता हूं. मेरे स्कूल के टीचर्स स्टुडेंट्स के सामने इतने लाचार क्यों है. और ये भी कि मै कौन ? निकी कौन? तरुण? ग्रुप? ब्लू फिल्म्स? अ किस ऑन ग्रेट लिप्स.'
 
सुजीत निकी के बैग मे जो कुछ भी अपनी मोहब्बत के इजहार का सामान रखता रहा हो, लेकिन निकी सुजीत के बजाय तरुण के साथ ज्यादा फ्रेंडली फील करती थी. इस बात को लेकर सुजीत और तरुण, जो कि अन्यथा बहुत अच्छे मित्र थे, के सम्बन्धों में खटास आना शुरू होती है. सुजीत का मानना था कि- ' जब मै निकी के मामले में तरुण से थोड़ा पिछड़ने लगा तो .......... मुझे लगता रहा था, मेरे और तरुण के बीच बाइक्स, बड़ी गाड़ियों और पॉवर फुल फेमिली से ज्यादा डिफरेंस सेल्फ कॉनफिडेंस पैदा कर रहा था. ऐसा तब, जबकि तरुण का रोल नम्बर, टेंथ क्लास के लिए ठीक मेरे पीछे था ताकि वो पास हो सके. दरअसल प्राईवेट स्कूल्स और गवर्नमेंट स्कूल के तमाम डिफरेंस में एक बेसिक डिफरेन्स था जिसमें प्राइवेट स्कूल मैनेजमेंट अपने स्टुडेंट का फार्म ऐसे सीरियल में फिलअप कराता था कि बोर्ड एग्जाम्स में हरेक अच्छे लड़के के पीछे कमजोर लडके का रोल नम्बर हो ताकि कमजोर लड़का कैन गेट सेटिसफैक्टरी मार्क्स' 

 . 
 एक मित्र जो  दोनो में से किसी की सम्भवित प्रेमिका है, के उपर वर्चस्व और अधिकार के लड़ाई का दिल्चस्प मोड़ तब आता है जब एक दिन प्रेम की राह पर बिगड़े हुए ये बच्चे क्लास में 'उत्तेजना की लिपटी हंसी' हस रहे थे और अजीत सर द्वारा रंगे हाथ पकड़ लिए जाते है. लेकिन इनका बिगड़ा आत्म विश्वास यह मान कर चलता है कि पच्चीस हजार रुपए फीस देने वाले किसी बच्चे को पच्चीस सौ रुपये पाने वाले अध्यापक के कहने पर नही निकाला जा सकता. क्योकि सुनारी और ठेकदारी का काम करती आई डाईरेक्टर की फैमिली तो बिजनेस के घाटे को पूरा करने के लिए शेयर मार्केट और स्कूल के बिजनेस में उतर आयी है.इसी लिए तो तरूण जो अमीर घर का बिगडा शाहजादा था,सुजीत को समझाते हुए कहता है कि 'तुम्हे क्या लगता है, जिसे वो पैसा देते हैं उसके कहने पर वो उसे स्कूल से निकाल देंगे जिससे वो पैसा लेते हैं. गवर्नमेंट स्कूल समझ रखा है क्या.' माने कि यह जमाने के तमाम गुणा गणित को समझती हुई एक ऐसी पीढ़ी की कथा है जो आने वाले भारत का भविष्य तो है पर अपने भविष्य के प्रति बेपरवाह. लेकिन इन्हे पता है कि श्रद्धा और भक्ति के योग से प्रेम नहीं शून्य बनता है. कहानी की नायिका निकी सुजीत के 'फेवर' और तरुण के संह के कारण पैदा हुए 'अवसर' में से किसी एक के चुनाव का निर्णय नहीं ले पाती.

दूसरी कहानी "शहर  की खुदाई में क्या कुछ  मिलेगा" में कॉलेज से निकले, विश्वविद्यालय की दहलीज पर प्रेम कर पाये युवा दिलों की प्रेम कहानी है. यह प्रेम कहानी उस दौर की है जब दूरियां किलोमीटर से नहीं घंटों में नापी जाती है . जीवन तथा गमे रोजगार की दिक्कतों को झेलते मेघा और विपुल की इस प्रेम कहानी में एक शहर है ओमानी और एक दूसरा शहर भी है - ' एक तो बनारस का मौसम- साला हर वक्त जैसे आत्मा में धूल उड़ती रहती है. चौराहे बेचैन लोगो से भरे रहते हैं.' प्यार में कैद युवा मन की कई गहरी संवेदना और तमाम उतार चढाव को पार करती यह कहानी इन शहरों के बाहर भी कई शहरो में (भोपाल, दिल्ली, बंगलौर आदि) अपना रंग रूप ढ़ूढ़ती है. पर असुरक्षा और अविश्वास इस प्रेम के पहरेदार हैं और गमे रोजगार इनके यार. जिन्हे अपने घर और परिवार की बेड़िया न रोक पायीं उन्हे इस बात की जरूर चिंता है कि ' जीवन में कितना कुछ आपके माफिक नहीं होता.'

कहानीकार ने इस कहानी  में आत्मव्यंग्य का अनूठा  इस्तेमाल किया है. वह विपुल के जरिए यह साबित करना चाहता है कि यह प्रेम कहानी उसकी है. उसके उदाहरण भी देता है- '' जिन दिनों में लेखक ( मशहूर हअहअहअ) बनने की फिराक में था उन्ही दिनों मे हमारे बीच अनुपम का जिक्र आया. वो मेघा को एम. बी. ए. की कोचिंग में मिला था. मैने मेघा का सहज ज्ञान दुरुस्त किया- अनुपम हमें विश्वविद्यालय कैंटीन में सबसे पहले दिन मिला था. मेरी याददाश्त की तारीफ मेघा ने सर पीट कर की, पूरे पागल हो. इतने ध्यान से खुद को पढाई में लगाते जरा." दरअसल नायक कोई कहानी लिखना चाहता भी नहीं है. उसे तो अपनी प्रेम कहानी कहनी है पर मेघा अगर सुनने को तैयार हो तब. कुल मामला इतना है बस. पर यह कोई इतना आसान मामला नहीं है क्योंकि- 'दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ हम/ कहने में उनके सामने बात बदल बदल गई.'

इसी हड़बड़ाहट में  वह यह लिखता है कि- 'मेरा लिखना, लिखने की कोशिश जैसा था. मेरे पैर असंतुलित पैर  की तरह बेसम्हाल हो जाते . एक वाक्य सही नहीं पड़ता था. असंतुलन ऐसा था कि पैरों के उठने गिरने का भी सटीक अन्दाजा मुझे नहीं होता था. बेअन्दाज उंचाईयों से मेरे शब्द गिरते तो उनकी एड़ी में बहुत चोट आती थी. जैसे वहां की हड्डी कुचल गई हो. जब मैं कहानी लिखने के ख्याल से उबरा तब तक मेरे पैर ऐसे घायल हो गये थे कि मैं उनका कभी इस्तेमाल ही नहीं कर पाया. मेघा लाख कहती रही
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 मैने लिखना भी  क्या चाहा.अपनी ही कहानी.  आप हंसेंगे. अपनी ही  कहानी का मैं मारा हुआ  था. कहानी से चाह कर  भी मेघा और विपुल का नाम नहीं हटा पाया. कोई दूसरा नाम रखते ही कहानी भूसा हो जाती थी. ' और सचमुच पूरी कहानी लेखक ऐसे घायल पैरो के सहारे लिखता रहा.मेघा ने उसे आत्मनिर्भर बनाने की कई कोशिशें की पर उनका परिणाम सिफर था. यह जरूर है कि मेघा और अपने बीच वह अनुपम, शिव, अभिषेक को भी महसूस करता था जो कई बार तो मेघा को 'मेरी मेघा' भी आखिर बोल ही देते थे.

उसकी हसरत थी कि विश्वविद्यालय  से छूटा साथ जिन्दगी के किसी मोड़ पर दुबारा मिले, पर 'अबके हम बिछड़े तो कभी  ख्वाबों में मिलें' किसी ने यूं ही तो नहीं लिखा था. हशरत आखिर हशरत ही रहती है. विपुल का आत्म स्वीकार है कि 'साईकिल से कुचले जाते सूखे पत्तों की चरमाराती आवाज़ मेरे भितरघात का पार्श्व संगीत तैयार करती थी. सुनसान और झनझनाती दोपहरी में अच्छे खयालों की गुंजाइश नहीं थी.' एक अंतहीन इंतजार के बीच लगातार गहराते इस प्रेम कहानी नायक का चरित्र जहां खासी आत्मग्रस्तता का शिकार है वहीं नायिका ज्यादा संजीदा और गम्भीर होने के कारण आकर्षित करती है. लेखक की पिछली कहानियों की अपेक्षा यह एक उल्लेखनीय बात है क्योकि अधिकतर महिला पात्रों का चरित्र चन्दन की कहानियों में नकारात्मक ही है. लेकिन इस कहानी में नायक अपनी दुविधाग्रस्तता और असुरक्षाबोध के कारण नायिका के बारे में तमाम शंकाएं अवश्य पालता है पर इससे उसकी मानसिक दुर्बलता का ही पता चलता है. कहानी का शीर्षक इस नाते भी मह्त्त्वपूर्ण बन जाता है कि सभ्यता के विकास में अग्रणी शहरों में जीवित ऐसी प्रेम कथाओं का अवशेष किसी खुदाई में तो नही मिलेगा क्योंकि वहां तो जीवन को सफलता के मुहावरो में देखने की आदी आंखे होती हैं किसी के इंतजार में खुली आंखें नहीं.

संग्रह की आखिरी  कहानी 'रिवाल्वर' है. किंचित लम्बी और इसी कारण थोड़ा बोझिल भी. यह्कहानी कम से कम बीस पेज न लिखे बगैर भी पूरी हो सकती थी. लेकिन शाबाशी देनी होगी लेखक को कि छोटी सी कथावस्तुके भीतर कई आवेगों के सहारे वह इतनी बड़ी कहानी लिख सका.यह सादे शिल्प के भीतर एक चमत्कार पैदा करने की कोशिश का परिणाम है.
 
अपनी प्रेमिका (नीलू) के प्रेम में मार खाये नायक गौतम का मन है कि उसकी वह हत्या करे. और हत्या के लिए वह भी अपने किसी प्रिय की तो सबसे पहले अपने को समझाना पड़ता है कि आखिर उसकी हत्या वह क्यों करना चाहता है. गौतम यह सब कल्पना की मदद से कर लेता है. अपनी आत्मा में नीलू की मृत्यु तो वह पहले ही कर चुका होता है इस तरह- 'मानो आप आमलेट खा रहे हों, और दारू नहीं पी रहे हों. पर आमलेट का स्वाद स्वायत्त नहीं होता. अगर एक बार आप आपने उसके साथ दारू पी ली हो तो जन्म भर आमलेट आपको शराब के नशे में सराबोर रखेगा और आप शराब न पीते हुए भी उसकी कल्पना के लिए मजबूर हैं. यहां शराब की जगह कभी राहुल, कभी देवब्रत, तो कभी सिद्धार्थ नीच राठी ने ली. एक बार मै कल्पना के रथ पर सवार हुआ तो पाया कि नीलू में हर वो कमी मौजूद है जिसे मैं ढ़ूढ़ना चाहता था. ऐसा करते हुए मै बस इस बात का ख्याल नहीं रख पाया कि कहां सच्छाई खत्म हो रही है और कहां भ्रम शुरू. रही नीलू की बात, तो उसे अपनी कल्पनाओं में पाने के लिए मुझे इधर उधर झांकने की जरूरत नहीं थी.'

लेकिन कथानायक को नीलू से कई शिकायतें थीं. वह प्रेम को लोकतांत्रिक मानने  के नुश्खे को खारिज करता है क्योंकि उसके लिए यह नितांत व्यक्तिगत है. उसे यह गुमान  भी है कि फैज़ जैसा लेखक तो सिर्फ रकीब से सपने में  मिला था, सही में तो सिर्फ  वह मिला. उसे यह भी शिकायत है कि ' इनसान बनाने की कीमत पर मेरी याददाश्त को तुमने  गुनाहगार बनाया- उसका सूद  बहुत बढ़ाकर मुझसे वसूल किया और तब भी मै यह नहीं कह पाया - अगले जनम में. वैसे इस प्रसंग मे कविता के साथ  अगर लेखक (शमशेर) का नाम  लिया जाता तो कोई हर्ज़ न  होता.

विश्वासघात, घृणा और अपराध  की भयानक कशमकश के बीच इस कहानी का विस्तार लगातार एक सस्पेंस बनाये रखता है किंतु किंचित नाटकीयता के साथ. नीलू को लेकर नायक जिस भयानक दुर्भावना से प्रेरित है उसे फैज़ जैसे लेखक से प्रमाण पुष्ट करने का कोई औचित्य नहे है, क्योकि वहां तो उस रकीब को गले लगाने की मंशा है जो अपनी ही (कभी रही) प्रेमिका के हुश्न से बावस्ता है.- तुने देखी है वो पेशानी वो रुखसार वो होठ/ जिन्दगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने/ तुझ पे उट्ठी है वो खोई हुई साहिर आंखें/ तुझको मालूम है क्यों उम्र गवां दी हमने. लेकिन यहां तो उसे विश्वासघात मानकर कत्ल करने पर उतारू है नायक. नायिका के प्रति किसी सम्मान को तो छोड़िए भयानक घृणा से भरा हुआ है वह. वह भी सिर्फ शक -सुबहे की बुनियाद पर. पहले भी चिन्हित किया गया है कि स्त्रियों के प्रति एक नकारात्मक्ता चन्दंके यहां दिखाई पड़ती है पर यहां तो कुछ ज्यादा ही हो गया है... टू मच. नीलू के बारे में यह तो बार बार बताया जाता है कि वह अपने गुप्त स्वार्थों के कारण कई प्रेम करती है किंतु कहीं यह जाहिर नहीं हो पाता कि वे गुप्त स्वार्थ क्या हैं और उन्हे अपने देह सम्बन्धों से वह कैसे पूरा करती है?

और वह रिवाल्वर? जिसे नीलू की हत्या के लिए गौतम खरीदता है. चेखव ने एक बार  कहा था कि अगर नाटक में  मंच पर बन्दूक दिखे तो उसे कहीं न कहीं नाटक के भीतर चलना जरूर चाहिए. यह कहानी जिस तरह की नाटकीय परिणतियों के सहारे चलती है उससे पाठक को यह उम्मीद रहती है कि शायद कहीं रिवाल्वर चले. लेकिन अंत तक यह सिर्फ 'छुछिया फायर' ही साबित होता है.

इश्क़ फरेब ( कहानी संग्रह)- चन्दन पांडेय,  पेंगुइन  बुक्स, 2012

 

संपर्क -
प्रेम शंकर सिंह,
दयालबाग  एजुकेशनल इंस्टीट्यूट, 
दयालबाग, आगरा -282005, 
मो- 09415703379

टिप्पणियाँ

  1. चन्दन को इस दूसरे संग्रह की बधाई ..वैसे अगर मैं भूल नहीं रहा हूँ , तो 'सिटी पब्लिक स्कूल' वाली कहानी पहले संग्रह में भी है | शायद वह उस संग्रह की अंतिम कहानी है | कान्वेंट कल्चर की भाषा में अपनी बात कहती हुयी |..बेशक , चन्दन हमारे दौर के श्रेष्ठ युवा कथाकारों में से एक हैं , और जिसने भी उनका पहला संग्रह पढ़ा होगा , वह मुझसे जरुर सहमत भी होगा ...| उम्मीद करता हूँ , कि यह संग्रह भी हमारी इस समझ को और मजबूत करेगा | अच्छी समीक्षा के लिए प्रेमशंकर जी को भी बधाई ..|

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  2. Chandan bhai naye sangrah ke liye badhai.premshankar jee yun hee likhte rahiye. Aapko padkar accha lagta hai. Dhanyavaad. - kamal jeet choudhary ( j and k )

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  3. बधाई. अतिप्रासंगिक है.............

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