चिंतामणि जोशी
आज साहित्यिक पत्रिकाओं की जहां एक ओर बहुतायत है वहीं अन्य जरूरी विषयों पर पत्रिकाएं इक्का-दुक्का ही दिखाई पड़ती हैं. व्यक्ति और समाज के साथ राष्ट्र को भी एक दिशा देने में इस तरह की पत्रिकाएं अहम् भूमिका निभातीं हैं. शैक्षिक दखल ऐसी ही पत्रिका है जो शैक्षिक नवाचारों पर दृष्टिपात करती है. वस्तुतः शैक्षिक दखल का यह प्रयास एक सामूहिक प्रयास है, उन लोगों का जो
शिक्षा के माध्यम से समाज में बदलाव लाना चाहते हैं. एक लोकतान्त्रिक
समाज बनाना चाहते हैं. एक ऐसा समाज जिसमें हर बच्चा अपना बचपन पूरे आनंद
और सम्मान के साथ जी सके ताकि जब वह एक वयस्क नागरिक बने तो तमाम कुंठाओं
और तनावों से मुक्त जीवन जीते हुए समाज को आगे ले जाने में अपना महत्वपूर्ण
योगदान दे सके. हमारा मानना है कि हमारे शिक्षक साथियों के पास नायब
शैक्षिक अनुभव हैं जिनका लाभ अन्य शिक्षक साथियों से होता हुआ अंततः बच्चों
तक पहुँच सकता है. हमारे अधिकांश अध्यापक विषयवस्तु को बच्चों को आत्मसात
करवाने के लिए कोई न कोई नवाचार जरूर करते हैं. हम चाहते हैं की उनका वह
नवाचार उनके विद्यालय तक सीमित न रहे बल्कि देश भर के अध्यापकों तक पहुंचे. शिक्षकों के नवाचारों को एक दूसरे तक पहुँचाने के लिए 'शैक्षिक दखल' एक
पुल की भूमिका का निर्वहन कर रहा है. पहली बार पर प्रस्तुत है पत्रिका ‘शैक्षिक दखल’ की कवि एवं शिक्षक चिंतामणि जोशी द्वारा की गयी समीक्षा.
शैक्षिक सरोकारों को समर्पित 'शैक्षिक दखल' का प्रथम वर्ष का प्रथम अंक अभी-अभी आया है.इस पत्रिका के आद्योपांत अध्ययन के उपरान्त मेरे मन की आँखें इसे आने वाले कल के लिए शैक्षिक मूल्यों के पुनरुत्थान हेतु एक अभियान एवं शैक्षिक गुणवत्ता सुधार हेतु एक आन्दोलन एक रूप में देख रही है.
हैं. प्रारम्भ में महेश पुनेठा जी ने पाठ्यपुस्तकों के बोझ तले सिसकती रचनात्मकता का यथार्थ एवं हृदयस्पर्शी चित्रण किया है।शिक्षा के सिद्धांत एवं नवाचार कहने, सुनने में तो बेहद अच्छे एवं उपयोगी लगते हैं लेकिन उनके व्यवहारगत क्रियान्वयन की स्थिति को यह कथन स्पष्ट कर देता है कि आज हमारी शिक्षा व्यवस्था में स्वंत्रतता, अवसर की उपलब्धता और चुनौती का घोर अभाव है। बात शिक्षक की हो या बच्चों की वे तमाम तरह के प्रतिबंधों एवं बोझ से दबे हैं। महेश जी के आलेख से एक आम शिक्षक की शिक्षा के प्रति सरोकारों की सुगंध आती प्रतीत होती है।
हैं. प्रारम्भ में महेश पुनेठा जी ने पाठ्यपुस्तकों के बोझ तले सिसकती रचनात्मकता का यथार्थ एवं हृदयस्पर्शी चित्रण किया है।शिक्षा के सिद्धांत एवं नवाचार कहने, सुनने में तो बेहद अच्छे एवं उपयोगी लगते हैं लेकिन उनके व्यवहारगत क्रियान्वयन की स्थिति को यह कथन स्पष्ट कर देता है कि आज हमारी शिक्षा व्यवस्था में स्वंत्रतता, अवसर की उपलब्धता और चुनौती का घोर अभाव है। बात शिक्षक की हो या बच्चों की वे तमाम तरह के प्रतिबंधों एवं बोझ से दबे हैं। महेश जी के आलेख से एक आम शिक्षक की शिक्षा के प्रति सरोकारों की सुगंध आती प्रतीत होती है।
परिचर्चा के
माध्यम से राजीव जी ने जहाँ एक ओर रचनात्मकता एवं स्वतंत्रतता का सम्बन्ध स्पष्ट
करने के क्रम में शिक्षकों, विद्यार्थियों, रंगकर्मियों, चिंतकों एवं साहित्यकारों
के उपयोगी विचारों का सुंदर समेकन किया है. प्रोफेसर ए. के. जलालुद्दीन से बातचीत
भाषा के साथ.साथ सभी शिक्षकों के लिए भी उपयोगी है।
‘वांका’ के रूप
में एक गरीब, वंचित बच्चे की शोषण तथा अन्याय से बाहर निकलने की पुकार संवेदनशील मनों
को द्रवित तो करती है लेकिन न तो बाबा के पास कोई राह दिखती प्रतीत होती है न ही
व्यवस्था के पास. हाँ गुलफाम का किस्सा शिक्षकों व अभिभावकों से वह सब सहजता से कह
गया है जिसे गुलफाम न कभी बोल पाया, न कभी किसी को समझा पाया। हमारे परिवेश में
तमाम गुलफाम हैं जो शिक्षक, अभिभावक एवं समाज की समझ सकारात्मक होने पर तोलम बनने
से बच सकते हैं।
एन सी एफ 2005में
अनुशंसा की है विद्यार्थी में अभिब्यक्ति हेतु आत्मविश्वास, दूसरे को सुनने का
धैर्य एवं दूसरे के अच्छे विचारों व कार्यों को प्रोत्साहित करने की क्षमता विकसित
करनी होगी लेकिन शिक्षक विवेक शाह का कटु अनुभव हमारी सोच, कार्यसंस्कृति एवं
व्यवस्था पर कई प्रश्नचिन्ह लगा जाता है।
समाचार पत्रों
में शिक्षा जगत की मौजूदगी को दर्शाने वाली ख़बरों का डॉ० दिनेश जी का संकलन
प्रशंसनीय हैं। एक कुलबुलाहट होती है, आंखिर वह दिन कब आएगा जब शिक्षा जगत से जुडी
अधिकाधिक ख़बरें समाचार माध्यमों में स्थान बनायेंगी.
नजरिया, आते हुए
लोग, देखता हूँ पीछे मुड़ कर, अनुभव अपने-.अपने स्तंभों में प्रकाशित सामग्री भी
उपयोगी, प्रासंगिक, पठनीय एवं प्रेरणादायक है। अश्वघोष एवं हरीश चन्द्र पाण्डेय की
कविताओं के बिना शायद अधूरापन रहता।
और अंत में दिनेश
कर्नाटक जी ने अपने आलेख ‘शिक्षा में भय का दुष्चक्र’ में शिक्षक साथियों के मन
में व्याप्त भय, शंका और भ्रांतियों से विचारों की श्रृंखला को प्रारंभ कर सकारात्मक
प्रवाह के साथ ‘अंत भला तो सब भला’ की तर्ज पर भयमुक्त लोकतान्त्रिक शिक्षा और
आनंदालय की धारा से संगम कराने में सफलता पाई है।
चिंतामणि जोशी पिथोरागढ़ में रहते हैं. अच्छे कवि के साथ-साथ एक शिक्षक हैं. सेवारत शिक्षकों के प्रशिक्षण में मुख्य संदर्भदाता के रूप में इनका सक्रिय और प्रभावशाली योगदान रहता है .
कृपया पत्रिका के प्रकाशन, मूल्य आदि संबंधी भी संक्षिप्त जानकारी देंवें.
जवाब देंहटाएंपत्रिका का इंतजार
जवाब देंहटाएंबढिया जानकारी दी आपने
उन सभी मित्रों से जो हमारी इस मुहीम से सहमत हैं ,विनम्र अनुरोध है कि स्वयं तथा अपने मित्रों से यथा सामर्थ आर्थिक सहयोग प्रदान करवाकर इस मुहीम को मजबूत करने की कृपा करें........शैक्षिक दखल कोष को बढाने में अपना योगदान करें.......बैंक खता संख्या हैं.....51962000235186656......s.b.i raanibag haldwani .......dinesh karnatak पत्रिका के चार अंकों का शुल्क सौ रुपये ,आठ अंको का दो सौ रुपये और आजीवन शुल्क एक हजार रुपये है.
जवाब देंहटाएंपत्रिका के मिलने का इन्तजार रहेगा ...फरवरी के पुस्तक मेले में यदि मुलाक़ात होती , तो बेहतर होता ..
जवाब देंहटाएंमित्रो माफ़ी चाहते हैं दरअसल जो ऊपर नंबर दिया गया है वह ए.टी.एम्. कार्ड का न. है .शैक्षिक-दखल का खाता भारतीय-स्टेट-बैंक,-रानीबाग,-उत्तराखण्ड-में-है।-,जिसकी-खाता-संख्या--323832494530-है।जो दिनेश कर्नाटक जी के नाम है .I.F.S. COD ......SBIN0008546
जवाब देंहटाएंhttp://teachersofindia.org/hi/ebook/%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%B6%E0%A5%88%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%A6%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A4%B2-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%A8%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%95
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