विजेंद्र का आलेख 'आज की हिंदी आलोचना का गिरता स्तर'





वागर्थ के दिसंबर अंक में 'लॉन्ग नाइन्टीज' जैसे एक नवगढ़ित टर्म पर वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी का यह सुविचारित आलेख हम 'पहली बार' पर प्रस्तुत कर रहे हैं। बिना किसी टिप्पणी के सीधे यह लेख आपके लिए विशेष तौर पर प्रस्तुत है।


आज की हिंदी आलोचना  का गिरता स्तर           
    

विजेन्द्र 
  

मैं कई बार कह चुका हूँ कि खराब आलोचना खराब कविता से ज्यादा खतरनाक है। हानिकारक भी। खराब कविता जब हमारे सामने आती है तो हम उसे छोड़ दूसरी चीज़ पढ़ने लग जाते हैं। कविता का अच्छा बुरा कोई असर हमारे चित्त पर अंकित नहीं होता। यदि होता भी है तो इतना धुँधला कि स्मृति उसे पकड़ नहीं पाती। पर आलोचना में पाठक का पूर्व निर्धारित विश्वास होता है कि जो बात यहाँ कही गई है खूब जाँच-परख कर ही कही गई होगी। क्योंकि आलोचक से अपेक्षा ही यह होती है। यह भी सही है कि किसी समय में बड़े से बड़ा कवि अपने समय की आलोचना से असंतुष्ट रहा है। इस सबके बावजूद ईमानदार आलोचक रहे हैं। हैं। रहेंगे भी। अंग्रेजी के महान क्लैसिकल समीक्षक डा0 जानसन का विचार है - मेरे खयाल से बहुत कुछ सही भी है -कि ‘समीक्षा का बड़ा दावा यह है कि  वह आधुनिको (ध्वनि है नये) लेखकों का छिद्रान्वेषण करती है। प्राचीन प्रतिष्ठित लेखकों की खूबियों का बखान। जो लेखक अभी जीवित हैं उनकी क्षमताओं का आकलन हम उनकी दुर्बलतम कृतियो से करते हैं। जब वे नहीं रहते तो उनकी परख उनके श्रेष्ठतम कृतित्व से होती है। जानसन की इन सब बातों में सत्य की व्यंजना है। इसका साफ अभिप्राय है कि कवि-समीक्षक विवाद भारत में ही नहीं पूरे विश्व के साहित्य में जीवित है। यहाँ अपनी बात साफ कर दूँ कि मैं उन बड़े ईमानदार सच्चरित्र समर्पित समीक्षकों की बात नहीं कर रहा जो हर स्थिति में सच बोल कर जोखिम उठाने को अपना जीवन तक दाँव पर लगा देते हैं। जैसे हर समय में प्रमुख कवि और समीक्षक होते हैं। गौण भी। प्रमुख कवि तथा समीक्षक हर समय में विरल होते हैं। गौण बहुतायत में। ऐसे में आलोचना का दायित्व बहुत बढ़ जाता है कि वह कवि का चयन, काव्य स्थापना और मूल्यांकन में अपने को सही साबित करे। ईमानदार भी।


पिछले दिनों ‘वागर्थ’ का अंक 209, दिसम्बर, 2012 देखने को मिला। अंक की प्रमुख सामग्री है ‘1980 के बाद की कविता’। पूरी बात कहने को आठ सवालों में समेटा गया है। अनेक कवियों ने अपनी अपनी तरह से 80 के बाद की कविता के बारे में विचार रखे हैं। क्या यहाँ यह नहीं पूछा जा सकता कि 80 के बाद की ही कविता क्यों? 70 के बाद की कविता से चर्चा क्यों नहीं? मेरे खयाल से 70 के दशक से ही ‘नई कविता’ को हमने ‘समकालीन कविता कहकर उसे बड़े सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की पहल की थी। बकौल प्रख्यात मार्क्सवादी समीक्षक डा0 आनंद प्रकाश के ‘ सत्तर के दशक की खासियत थी उन सवालों को उठाना जिनका संबंध ‘ विचारों, मूल्यों और आदर्शों के व्यापक चरित्र’ था। यही नहीं बल्कि कविता में ‘ सामाजिकता का महत्व फिर से रेखांकित’ होने लगा था। आनंद प्रकाश का यह भी मानना है कि इस दशक में ‘ हिंदी कविता के पूँजी केंद्रित मूल्यों के समर्थक स्वरों का मनोबल निर्णायक अंदाज में तोड़ा’ गया। वे मानते हैं कि इस दशक में कविता के कथ्य में ही परिवर्तन नहीं हुआ बल्कि ‘फार्म के स्तर पर भी कुछ नई चीज़े उभरने’ लगी थी। जबकि 80 के बाद की कविता में ऐसा कोई विशेष मोड़ नहीं दिखाई देता। बल्कि कविता में जो सामाजिक -राजनीतिक चिंतन और फार्म में नयापन उभरा था उसको कुंद करने की कोशिश है।


  

                                                                                                                    
  
80 - 90 के दशक की कविता के बारे में डा० आनंद प्रकाश का बड़ा प्रामाणिक तर्क है कि ‘कविता में यहाँ फिर से शासकीय कला मूल्यों और विचारों की सक्रियता बढ़ी है। आगे वह कहते है कि 80-90 के दशकों की कविता ‘पूरी तरह आत्मकेंद्रित’ है। उसका प्रतिरोधी स्वर मुरझाया हुआ है। यहाँ तक कि इन कवियों को, ‘ न तो अपने समय से खतरा है, न तंत्र से ओैर न सत्तारूढ़ सामाजिक ताकतों से। उनका व्याकरण भी व्यावसायिक है। पुरस्कार, प्रतिष्ठा और महत्व को समर्पित इस काव्य रचना का चरित्र तब अचानक ही स्पष्ट होता है जब हम उसे सत्तर की कविता के साथ रखते हैं। (‘समकालीन कविता: प्रश्न और जिज्ञासायें’, 1911)  मज़े की बात यह कि परिसंवाद में भाग लेने वाले एक कवि ने जोर देकर कहा है कि, ‘1985 के बाद के कवियों ने ऐसा कोई तीर नहीं मारा जिसकी स्तुति की जाये’ ( पृष्ठ 40)। मेरा मानना है कि बिना 70 के दशक की काव्य तथा सामाजिक पीठिका समझे 80 के बाद की कविता को बेहतर नहीं समझा जा सकता। उसी तरह जैसे आदिकाल को बिना समझे हम संत साहित्य के महत्त्व को नहीं समझेंगे। रीतिकाल को बिना समझे क्या हम छायावाद का सही मूल्यांकन करने में कामयाब हो पायेंगे ?

क्या वजह है कि सत्तर  के दशक की अनदेखी सभी बुर्जुआ  तथा ‘तोता रन्टत’ पेशेवर समीक्षकों ने की है ? डा0 आनंद प्रकाश, डा0 रेवतीरमण, डा0 जीवन सिंह, डा0 रमाकांत शर्मा तथा डा0 अमीरचंद वैश्य आदि कुछेक लोकधर्मी समीक्षक हैं जिन्होंने सत्तर के दशक को सप्रमाण बड़े फलक पर समझ कर उसे पुनः व्याख्यायित किया है। ‘कृति ओर’  से जुड़े सजग-सचेत लेखकों तथा पाठकों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि वे इस सोची समझी साहित्यिक साजिश को समझें कि आखिर वे कौन से कारक हैं जिसके चलते बुर्जुआ तथा ‘तोतारटन्त’ पेशेवर समीक्षकों ने सत्तर के दशक की उपेक्षा इतने लंबे समय तक की है? आज भी कर रहे हैं! क्या वे ऐसा कर भी पायेंगे?

‘वागर्थ’ सेठाश्रित - बुर्जुआ मिजाज़ की पत्रिका है। यह अकारण नहीं है कि उसमें भी कविता पर परिसंवाद सत्तर के दशक को छेक के किया जा रहा है। क्या यह फिर से कविता को समाजनिरपेक्ष बनाने का सोचा समझा उपक्रम तो नही। सेठाश्रित पत्रिकायें सदैव ही कविता को अग्रगामी विचार रहित तथा चिंतन विमुख बनाने को सक्रिय रही हैं। ! मदन कश्यप को यदि छोड़ दें तो अधिकांश कवियों के स्वर कविता में गहन चिंतन तथा विचारधारा से कतराते से लगते हैं। जोर है कवि की ‘पूर्ण स्वायत्तता’ पर। मनमौजी ढंग से अपने मनोरंजन को कविता लिखना। मार्क्स को एक रूढ़ि समझ उससे औपचारिक दूरी बनाना। दूसरे बड़ी चतुराई से लोक की संघर्षधर्मी परंपरा को गड्डमड् करके उसे उत्सवधर्मी बनाने की भी कोशिश की गई है। इससे लगता है कि बुर्ज्रुआ पत्रिकायें बड़ी चतुराई से यह काम कर पा रही हैं। यह खेल इतना पेचीदा है कि हमारा नया लेखक आसानी से समझ नहीं पाता। ये पत्रिकायें कुछ लेखक संपादको के सहयोग से पहले लेखकों को अनेक आकर्षण देती है। जैसे नये लेखकों के कविता संकलन छापना। उन्हें पुरस्कृत करना। फिर धीरे धीरे निस्तेज कर उन्हें अपनी शर्तो पर ले आती हैं। ऐसा काम कुछ बड़े बड़े प्रकाशक भी अपनी संस्थागत पत्रिकाओं से कुछेक लेखकों द्वारा करवाने में लगे हैं। सेठाश्रित बुर्जुआ पत्रिकाओं का संपादक मालिक की राय से चलने को ‘बेचारा’ विवश है। कहने को हम चाहें कितनी ही स्वायत्तता की बड़ी बड़ी बात कहें! पर मालिक को खुश तो रखना ही है। इससे उनके लेखन की धार भी बेहद कुंद और यथास्थिति पोषक होने लगती है। बुर्जुआ पत्रिकाओं के संपादक भारतीय मुक्ति संग्राम की अधूरी छूटी क्रांति को अग्रसर करने में लेखकों को प्रेरित करेंगे यह असंभव है! हिंदी के लेखक की बड़ी भारी मजबूरी है। वह इन भड़कीली पत्रिकाओं में छपने का लोभ संवरण नहीं कर पाता। यह स्वाभाविक भी है। हर नया लेखक आखिर प्रकाशन क्यों नहीं चाहे? हरेक लेखक इससे बचने का संघर्ष भी नहीं कर सकता। जब उसे ध्यान आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। मैंने अनेक लोकधर्मी -जनपक्षधर कवियों तथा समीक्षकों को राख होते देखा है! क्या करें पूँजी की विश्वमेाहिनी चमक ही ऐसी है। अच्छे-अच्छे सुनाम धन्य मार्क्सवादी भी इस विश्वमेाहिनी विषकन्या से नहीं बच पाये!



























80 के बाद की कविता पर चर्चा के लिये उन्हीं को चुना है जो बहुत कुछ संपादक और पत्रिका के मिजाज़ को निभा सकें। ज़्यादातर उन कवियों ने ही परिसंवाद में हिस्सा लिया है जो किसी न किसी तरह सत्तर के दशक को चर्चा से किसी तरह बाहर रख पायें। बेहतर तो यह होता कि इन प्रश्नों के उत्तर प्रौढ़ तथा ईमानदार आलोचकों से पूछे जाते। या ऐसे लोगों से जिनका ताल्लुक इन प्रस्तावित दशकों से प्रत्क्षतः नहीं है। इससे क्या यह ध्वनित नहीं निकलती कि हमें या तो आज के आलोचको पर कोई भरोसा नहीं रह गया है! या आलोचना का स्तर इतना गिर गया है कि हम उससे किसी ईमानदार विश्लेषण -परीक्षण की उम्मीद नहीं कर सकते! अन्यथा ऐसा क्या था कि हम कवियों से ही वे निर्णय लेने को कह रहे हैं जिन्हें वे तटस्थ और निस्पृह होकर नहीं दे सकते! हमारे देहात में एक कहावत है, ‘बेई छिनरा, बेई डोली के नीचे’। मुझे लगा अधिकतर, कुछ अपवाद जरूर हैं,  कवियों को  हिंदी कविता की उत्कृष्ट काव्य परंपरा के विकास की चिंता न होकर अपनी चिंता ज्यादा है। इस पूरे परिसंवाद से हिंदी पाठकों में अनेक विभ्रम और अलगाव की प्रवृत्ति जन्म लेगी। अनेक कवियों ने तर्क से कम अपनी निजी रुचि से काम लिया है। अनेक ने तथ्यों की परवाह न कर मनसुहाती बातें कही है। पत्रिका के संपादक ने स्वयं,  ‘दशकवार विभाजन को गलत’ बताया है। जब बुनियाद ही गलत है तो उस पर खड़ा किया गया स्थापत्य सही कैसे हो सकता है! जब वाद ही गलत है तो सही प्रतिवाद कैसे मुमकिन होगा। कहते हैं कि सही सवालों के गलत जवाब हो सकते हैं। पर गलत सवालों के सही जवाब मुमकिन नही। इससे यह भी ध्वनित है कि नई पीढ़ी में इतना आत्म विश्वास नहीं कि वह अपने मूल्यांकन के लिये संयम और अनुशासित होकर प्रतीक्षा कर सके। कविता का मूल्यांकन पत्रिका के रंगीन पृष्ठों पर छपे चित्रों से नहीं होता। उसके लिये संघर्षपूर्ण लंबी काव्य यात्रा तथा उत्कृष्ट रचना के प्रति समर्पण के साथ धैर्य रखना पड़ता है। कई नये कवियों को मैंने झुँझलाते  सुना है कि ‘उनकी चर्चा ही नहीं’ हो रही’ !  मेरे खयाल से यदि हमारा ध्यान उत्कृष्ट लेखन पर इतनी  व्यग्रता से केंद्रित हो तो लेखन समृद्ध होगा। मेरा अपना लंबा अनुभव है कि उत्कृष्ट, मौलिक तथा जनपक्षधर लेखन का मूल्यांकन देर सबेर जरूर होता है। यह भी कि कुछ लोगों को दबा के या हाशिये पर ढकेलने से उनके ऊर्जस्वी विकास को न तो आलोचक की उपेक्षा रोक सकती है। न बुर्जुआ पत्रिकाओं की बेरुखी।

और यह ‘लोंग नाइन्टीज़’ किस चिड़िया का नाम है। हास्यास्पद, अनर्गल और नकल।

जिन चीज़ों को योरुप  कचरा पात्र में फेंक देता है उसे हम मोती समझ कर चुन लेते हैं। कुछ लोगों ने ऐसी हिंदी लिखी है जिसे समझने को हमें कामिल बुल्के का अंग्रेज़ी-हिंदी कोश देखना पड़ेगा। ऐसे कवि हिंदी कविता को क्या दे पायेंगे जो अपनी भाषा ही ठीक से नहीं लिख पाते! इससे वे हिंदी भाषा की दद्रिता साबित करने के सिवाय और कुछ नहीं कर रहे! क्या इन प्रश्नों में कुछ ऐसे प्रश्न नहीं जोड़े जा सकते थे जिस से कवि कर्म, कविता- कवि की तैयारी, अपनी परंपरा तथा कवि आचरण के बारे में भी हम गंभीर हो सकें। मुझे इस परिसंवाद से यही लगा कि हमें न तो अपनी सुदीर्घ काव्य परम्परा की चिंता है, न बड़े राजनीतिक - सामाजिक सरोकारों की! न अपने अत्यंत समृद्ध काव्य शास्त्र की। सबसे ज्यादा खटकने वाली बात है कि किसी कवि को अपने मुक्तिसंग्राम की अधूरी छूटी क्रांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में दिलचस्पी नहीं है। उन ऐतिहासिक शक्तियों की भी अनदेखी है जो हमारी सामाजिक गतिकी को अग्रसर करने का संघर्ष कर रही हैं । प्रश्नों में ऐसा भी कोई संकेत क्यों न हो जिससे हम कविता को समाजिक रूपांतरण में एक अस्त्र की तरह प्रयुक्त कर सकें। जिन बातों को या तो गलत समझा गया या जो महत्वपूर्ण हैं पर जाने अनजाने छोड़ दिया गया उस पर मैं बाद मे चर्चा करूँगा।

फिर भी कुछ लोगों  ने बहुत अच्छी बाते कही  हैं जिन पर आगे चर्चा की संभावनायें मुखर हैं। मसलन एकांत ने कहा है कि, ‘कला और कविता के संसार में प्रायः घुसपैठियों की भरमार होती है, जो नहीं जानते वे क्या लिख रहे हैं। सम्पादक छाप रहे हैं और आलोचक वाह वाह कर रहे हैं, तो वह कविता है। समकालीन परिदृश्य में कोई निंदक नहीं। कोई अपनी कमी देखना सुनना चाहता भी नहीं। साहित्य का संसार बहुत जोड़ तोड़ का हो गया दिखता है। यह आधा सच है। क्योंकि साहित्य में जोड़ तोड, बदनीयती, समीक्षकों कीं बेईमानी,  साहित्य के सामंतों की घटिया कारगुज़ारी आदि का तीखा विरोध भी हुआ है। हो रहा है। उसकी निंदा भी बराबर हुई है। जहाँ विरोध हो रहा है और जिसमें एकांत सहयोग नहीं कर रहे उसे भी रेखांकित करना चाहिये था! एकांत से मेरा विनम्र प्रश्न हैं कि क्या उन्होंने कभी ऐसी विकृतियों को साहस से बेनकाब किया है ? वह चाहते तो क्यों नहीं कर सकते थे! क्यों नहीं किया मुझे नहीं मालूम । जिसे वह सच मानते हैं उसे कहने से क्यों कतरा रहे हैं?  यदि नहीं तो इस तरह की आपत्तियोँ हमे ही कमज़ेार साबित करेंगी! लीलाधर मण्डलोई ने मार्क्सवाद से अनभिज्ञ लेागों को यह कह कर बेहतरीन जवाब दिया है कि, ‘मार्क्सवादी दर्शन जड़ नहीं है। उसमें सिर्फ समाज ही नही अपितु समूची विश्व दृष्टि के प्रति भी वैचारिरक सरोकार है। मण्डलोई के इस कथन से कदाचित अनामिका जी कुछ सीख पायें! उन्होंने ‘वंचित के स्वाभिमान’ का ‘मार्क्सवाद को घमण्डी शत्रु’ बताया है। अनामिका जी, आपकी सदभावनाओं का आदर करते हुये भी समाज में वर्ग-मित्र हैं, तो वर्ग-शत्रु क्यों नहीं होंगे! जिस ‘वंचित’ की आप बात कर रहीं हैं वही तो मार्क्सवाद की शक्ति है। वही उसका नायक। मार्क्सवाद में ही उसका स्वाभिमान सर्वाधिक सुरक्षित है। आपके सामने दिल्ली दरबार में आये दिन इन्ही वचंकों का क्रूरता से अपमान-दमन होता है। क्या आपकी या आप जैसों की कविता में एक भी पंक्ति इसके प्रतिरोध मे खड़ी होती है! यदि नहीं तो वंचकों की इस दिखावटी हमदर्दी का कोई मूल्य नहीं! आदमकद शीशे के सामने खड़े होकर कविता लिखना बेहद आसान है। पर अन्याय तथा उत्पीड़न के विरुद्ध बोलने को जोखिम उठाना पड़ता है। काश एक भी पंक्ति आपकी कविता मे वचितों के स्वाभिमान की रक्षा के लिये होती। ....दिल्ली दरबार आपको ... सबको मुबारिक!
























कवि मदन कश्यप ने दशकों में विभाजित करके कविता पर विचार करने पर बड़े सार्थक सवाल खड़े किये है। उनका कहना है, ‘ अगर नामकरण आठवाँ दशक, नौवाँ दशक किया गया हो, तो उन पर बात करते हुये हमे उस काल खण्ड में प्रचलित सभी प्रवृत्तियों की चर्चा करनी होगी।’ और कमोवेश उन्होंने अपने इस कथन का अपने वक्तव्य में निर्वाह भी किया है। एक और महत्वपूर्ण बात उन्होंने कही है कि, इधर के समय में ‘ व्यापक वाम एकता आधार बना और हाशिये के लोगों को वर्गसंघर्ष के दायरे मे लाने की नयी दृष्टि मिली। लोक-संवेदना को वर्ग से अलग और अवैज्ञानिक मानने का वैचारिक हठ कमज़ोर पडा। और किसानों–आदिवासियों के संघर्षों को कविता में फिर से जगह मिली। मदन जी यहाँ सोचना यह होगा कि क्या यह प्रमुख प्रवृत्तियाँ केवल 80 या 90 के बाद उभरे कवियों में ही थी? क्या 70 में प्रतिष्ठित या उस समय उभरे कवि इन प्रवृत्तियों को प्रचुरता से कविता में व्यक्त नहीं कर रहे थे? बल्कि 80 के बाद उभरे तथा ज्यादातर तथाकथित प्रतिष्ठित कवियों में यह उभार फीका ही था। अधिकाश में लोक का मनोरंजक रूप अधिक था। उसका संघर्षधर्मी रूप बहुत कम। जबकि आज जरूरत लोक के उसी संघर्षधर्मी रूप को बहुतायत से दिखाने की है। तभी हम अपने मुक्ति-संग्राम की अधूरी छूटी क्रांति प्रक्रिया को अग्रसर कर पायेंगे। जनशक्ति का ऐसा उभार मुझे उक्त दशकों में उभरे किसी कवि में दिखाई नहीं देता। लोक की छायाप्रतीति की झलक तो मिलेंगी लेकिन सार तत्व नहीं।

विमल कुमार ने अनेक विचारोत्तेजक सवाल उठाये हैं। जैसे ’आलोक धन्वा भी एक संग्रह के कवि’ बन कर रह गये।....मंगलेश डबराल आजकल ‘जनसंस्कृति मंच’ में जरूर हैं, पर उनकी कविता का मिजाज़ वह नहीं है जो गोरख पाण्डे की कविता का है। उनके यहाँ शिल्प सजगता अधिक है। इसलिये कई बार उनमें रूपवादी रुझान भी दिखाई देता। राजेश जोशी में ‘आत्म-संघर्ष नहीं’ है। वह भी अब ‘ चाँद की वर्तनी’ लिखने लगे हैं। आगे उन्होंने कवियों की पुरस्कारों के लिये जोड़ तोड़ करते रहने की ललक पर व्यंग्य किया है। कहा है, ‘दरअसल हिंदी कविता की उड़ान भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से लेकर साहित्य अकादमी पुरस्कार तक की है।’ यह एक ऐसा सत्य है जो कवि के आचरण से जुडा हुआ है। क्या एक कवि को अपने सदाचरण से यह सिद्ध नहीं  करना चाहिये कि पुरस्कार आदि की भव्यता उसके लिये बहुत ही गौण है। प्रमुख है गहरे सामाजिक सरोकार। अपना उत्कृष्ट लेखन। समाज के प्रति उसका गहन दायित्व! पर देखा गया है कि बहुत सारे कवि इतने ‘बेचारे’ हैं कि वे पुरस्कार समितियों में प्रतिष्ठापित सदस्य कवियों-लेखकों की चारणों जैसी प्रशंसा करते नहीं थकते।  उन्हें पता है कौन कौन पुरस्कार दिला सकता है। कौन कौन विदेशी यात्रायें करा सकता है - यदि कोई संपादक है तो वह उन्हें सिर पर बैठायेगा। उनके विरुद्ध सच को भी नहीं छापेगे। उन्हें किसी तरह परामर्श मण्डल में रखेगा। उन्हें जोर जबरदस्ती अपने समय का अत्यधिक महत्वपूर्ण कवि बतायेगा। यानि हर तरह की चाटुकारिता से वह अपने ईमान को गिरवी रखने को तैयार है! इसी संदर्भ में विमल कुमार ने फिर आचरण का बुनियादी सवाल उठाया है कि ‘आठवे दशक के कवि मुक्तिबोध का नाम जरूर लेते हैं, पर मुक्तिबोध की तरह ‘आत्मसंघर्ष’ नहीं करते। अगर आप में कुटिलता, चतुराई है तो आप आत्मसंघर्ष नहीं करगें। यह साहित्यिक बेईमानी भी कविता में दिखाई देती है। आप जैसा भी है कविता लिखें। पर पहले आप ईमानदार तो हों अपने प्रति और शब्दों के साथ भावनात्मक रूप से जुड़े तो हों।..... इसीलिये ‘विलक्षणतावादी कवितायें अधिक लिखी जा रही हैं। कविता को पहेली बनाने की कोशिश भी कई कवियों ने की है। विमल कुमार का वक्तव्य बहुत कड़वी सचाई को कह रहा है। पर कैसा अंतर्विरोध है कि हिंदी के सबसे अधिक ‘चमत्कारवादी’ कवि केदारनाथ सिंह तथा तर्कहीन बौद्धिक, अमूर्त अध्यात्म-नवरहस्यवादी कवि कुँवरनारायण को वह ‘पूर्ण’ कवि -व्यक्तित्व प्राप्त’ कवि मानते हैं। जैसा मैंने कहा किसी गहरी बैठी मनोग्रंथि की वजह से हम कई बार सच कह कर भी उसे काट देते हैं। हाँ विमल कुमार जी बेईमान और बेशर्म कवि ही नहीं है, अनेक आलोचक भी है।






मैं जनवादी-प्रगतिशील आलोचना की बात कह रहा हूँ। इधर के दिनों में जनवादी आलोचना की दुनिया में दो बड़े हादसे घटित हुये हैं । एक तो बहुत ही दमदार प्रतिभा संपन्न, निर्भय तथा ईमानदार मार्क्सवादी आलोचक डा0 कर्ण सिंह चौहान का साहित्य क्षितिज से एकाएक लुप्त हो जाना। जब उनकी क्लैसिक कृति ‘आलोचना के मान’ में आई तो हिंदी जगत में एक साहित्यिक भूचाल सा आ गया था। हमने समझा कि हिंदी को अब डा0 रामविलास शर्मा का सही उत्तराधिकारी प्राप्त होने को है। कर्ण सिंह चौहान की अनुपस्थिति से जो रिक्ति पैदा हुआ है उसे हम आज तक नहीं भर पाये। डा0 आनंद प्रकाश ने हमें एक बार फिर प्रामाणिक, ईमानदार तथा वैचारिक दृष्टि से पुष्ट जनवादी समीक्षा का भरोसा दिलाया है। दूसरा बड़ा और त्रासद हादसा है अजय तिवारी का पतन। अंग्रेजी में एक मुहावरा है ’पोयटिक जस्टिस’। शेक्सपियर के दुंखांत नाटकों के संबंध मे यह प्रयुक्त होता है। यानि खलनायक को दण्ड मिलना चाहिये।....वैसे मैं अजय के लेखन से कभी प्रभावित नहीं हुआ। उनमें एक खास किस्म की ‘स्नॅाबरी’ यानि एक ‘वर्गदंभ’ बराबर झलकता है। उनके लेखन से मैंने जाना कि-कई अपने मित्रों से कहा भी -अजय तिवारी एक ईमानदार तथा भरोसे के आलोचक कभी नहीं हो पायेंगे! वह बात अब सच होने को है! इस अंक में उनका आलेख पढ़ कर मुझे बड़ी निराशा हुई। मैं कुछ बातों को यहाँ रखता हूँ। एक तो वह ‘लोक’ के बारे में बिल्कुल उलझे हुये हैं। मुझे संदेह है कि यह उनकी अज्ञता है। या किसी व्यूहरचना के तहत ‘लोक‘ के सही रूप को विकृत करने कराने की बुर्जुआ साजिश। यह कहना कि 80 के बाद ‘कवि लोक संवेदना की तरफ आये’ हैं। यह कथन 80 के बाद की सभी कविता पर लागू नहीं होता। यदि थोड़ी घनी कही लोक की झलक है भी तो वह है उसका ‘उत्सवधर्मी’ रूप। लोक का संघर्षधर्मी और जरूरी रूप प्रमुखतः गायब है। दूसरे अजय लोक को नगर और गाँव में बाँटते हैं। यह गलत है। विवेकहीन भी। उन्होंने इस प्रसंग में केदारनाथ सिंह का उदाहरण दिया है कि वह ‘लोक संवेदना से नगर संवेदना की ओर’ गए हैं। इसका मतलब हुआ कि लोक सिर्फ देहात में है। यही नहीं वह कहते हैं कि ‘नगर जीवन कब से लोक का अंग’ हो गया‘। फिर वह लोक को ‘अमूर्त’ भी कहते हैं। उनके लिये लोक ‘किसान जीवन का आधार’ लिये नहीं है। लेकिन पूरे लेख में यह साफ नही है कि लोक अखिर है क्या ? प्रख्यात मार्क्सवादी समीक्षक चंद्रबली सिंह ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक, ‘लोकदृष्टि और साहित्य’ (1956 ) की भूमिका में एक वाक्य दिया है, ‘साहित्य की महाप्राणता लोक जीवन में है। हिंदी साहित्य का इतिहास इसका अपवाद नहीं।’ इस वाक्य की ध्वनि है कि जीवंत तथा प्राणवंत साहित्य बिना लोक के संभव नहीं है। आचार्य भरत तथा अभिनवगुप्त का भी इधर संकेत है। दूसरे, लोक के अनेक अर्थ हैं। उसका एक अर्थ ‘जन’ यानि सामान्य जनता भी है। जन का उलट होगा प्रभु जन। कुलीन जन। यह भी जाने कि हमने लोकतांत्रिक संविधान की जब संरचना की तो उसके आमुख में तीन जीवन मूल्यों पर जोर था। पहला, समाजवाद, दूसरा, लोकतंत्र, तीसरा, धर्मनिरपेक्षता। यह बात अलग है कि हम मुक्तिसंग्राम के संकल्पों तथा अधूरी छूटी क्रांति को तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा पाये। ध्यान देने की बात है कि लोक को जब हम तंत्र से जोड़ रहे थे उस समय हमारे मन में भारतीय समाज का दलित, शोषित, पीड़ित, उपेक्षित तथा बहुल संघर्षधर्मी जन ही था। क्योंकि हमने बड़े बड़े राजाओं, नबावों तथा सामंतों को समाप्त करने की कोशिश की है। भारतीय दलित तथा शेांषित वर्ग के उन्नयन के लिये संवैधानिक अधिकार दिये हैं। इससे लगता है लोक का एक वर्गीय आधार है जिसमें वे सभी जन आते हैं जो अपने श्रम पर जीवित हैं। जिनका दमन होता है। मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के अर्थ में कहें तो ‘सर्वहारा’। सही अर्थों में आज लोकतांत्रिक कवि वही कहलायेगा जिसका समग्र साहित्य लोक या जनता अथवा सर्वहारा को समर्पित है। तो लोक फिर अमूर्त कैसे ? हाँ बुर्जुआ सोच के लोग उसका अमूर्तन जरूर करते रहे हैं। दूसरे अर्थ में अपने साहित्य को लोक के लिये समर्पित करके ही हम लोकतांत्रिक जनवादी, प्रगतिशील या लोकधर्मी संस्कृति की रचना कर सकते हैं। इस विश्लेषण से यदि हम लोक को सामान्य जन या अतिसामान्य जन से जोड़ते हैं तो लोक को गाँव और नगर में विभाजित करना फिर प्रतिक्रियावादी साजिश नही तो और क्या! संघर्षशील सामान्य जन या सर्वहारा गावँ में भी है। शहर में भी है। देखने को पकी संवेदनशील आँखें चाहिये। आज ऐसा चलन-प्रचलन बहुत सामान्य है कि कुछ तथाकथित पथभ्रष्ट पेशेवर समीक्षक इसी प्रकार विभ्रम फैलाकर कुलीन प्रभु वर्ग की सेवा कर रहे हैं। कोई भी ईमानदार, सच्चिरत्र तथा संजीदा लेखक क्या अजय तिवारी के पतन के बाद उनके बड़े बड़े फतबों पर यकीन करेगा? मुझे संदेह है! जिस आदमी को लोक की अवधारणा ही साफ नहीं वह लोक में प्रगतिशील या प्रतिक्रियावादी तत्व कैसे तलाश करेगा? अजय ने लोक में ‘बड़ी कमज़ोरियों’ की बात भी कही है। यदि मार्क्सवादी पथभ्रष्ट हो सकते हैं वैसे ही लोक में भी बहुत सी मानवीय कमज़ोरियाँ हो सकती हैं। जैसे अंतर्विरोध कुलीन और प्रभु वर्ग में होते हैं वैसे लोक में भी होंगे। पर इससे उसके संघर्षशील स्वभाव पर आँच कहाँ आती है! इससे यह बचकानी अवधारणा निर्मूल होती है कि लोक गाँव और शहर में विभाजित है। जहाँ भी सर्वहारा और श्रमशील सामान्य जन की उपस्थिति है वहाँ लोक होगा। उसका परिवेश भी होगा। उसका संघर्ष भी। उसकी खूबियाँ और कमज़ोरियां भी। अतः लोक एक वैश्विक प्रतिरोधी शक्ति है। वह क्रूर, दमनकारी उत्पीड़क सत्ता के विरुद्ध खड़ी होती। संघर्ष करती है। लोक के बारे में एक बात यहाँ और कहना जरूरी है कि हमारा पूरा मुक्तिसंग्राम लोक ने ही लड़ा है। उस समय कोई प्रांत ऐसा नहीं था जहाँ अंग्रेज़ों के विरुद्ध आदिवासी, श्रमिक, छोटे किसान तथा अति सामान्य जन कुर्बानियाँ न दे रहे हों। मसलन क्रांतिकारी बिरसा मुण्डा (झारखण्ड), वनवासी पुंजा भील(राजस्थान), वीर तिलका माँझी (संथाल क्रांति), वनवासी किसान (केरल क्रांति), वीर भागो जी नायक(नासिक विद्रोह), विप्लवी आदिवासी(जगदलपुर) आदि। लोक का यह संघर्षधर्मी रूप इतिहास में आद्यंत जीवित है। यह संघर्ष अनेक स्तरों पर आज भी जारी है। बल्कि इसमें संगठित सर्वहारा और शामिल हुआ है। अगर यह दुर्धर्ष संघर्ष ही अजय तिवारी के लिये अमूर्त दिखता है तो फिर मूर्त क्या है? हमें इस पर गंभीरता से ध्यान देना होगा कि इतिहास तथा साहित्य में लोक के इस संघर्षधर्मी रूप को हम क्यों आँख ओट किये रहे! और आज फिर वही कोशिश जारी है! किसी भी जाति या राष्ट्र में सांस्कृतिक जीवन के साथ उसका एक संघर्षधर्मी जीवन भी होता है। कवि को दोनों समझने पड़ते हैं। इसी तरह हमें लोक को पुनर्व्याख्यायित कर उसके सही रूप को समझना होगा। लोक को समझ कर ही कवि या समीक्षक की लोक दृष्टि बनेगी मार्क्सवाद में यह लोकदृष्टि व्यापक रूप से अंतर्निहित है। क्योंकि वही एक मात्र सर्वहारा का वैज्ञानिक दर्शन है। अजय तिवारी ने बड़ी चतुराई से मार्क्सवाद के बारे में भ्रम फैलाने के लिये कहा है कि ‘उसका पुराना रूप अधिक काम में नहीं आ रहा'। इस बात से गैरमार्क्सवादियों को मार्क्सवाद के लिये अप्रासंगिक बताने की प्रेरणा मिलेगी। बुर्जुआ प्रसन्न होगा। मार्क्सवाद एक ऐसा वैज्ञानिक दर्शन है जो वस्तु स्थिति की ऐतिहासिक द्वंद्वात्मकता पर आधृत है। इसका अर्थ है कि वह हर स्थिति में अपने को विकसित करता है। जो विकासमान है उसका नया पुराना क्या हो सकता है! वह न तो जड़ है। न रूढ़ि। दूसरे, मार्क्स की तत्व मीमांसा आज भी वैसी ही वैज्ञानिक है। मसलन द्रव्य प्राथमिक है। चेतना उसका विकसित उत्कृष्टतम रूप। विरोधी तत्वों की एक रूपता का अटल सिद्धांत। चेतना की सापेक्ष स्वायत्तता। प्रकृति के नियमों का मनुष्य से स्वायत्त होना। अंतर्विरोधों का विश्वव्यापी  सिद्धांत। इतिहास की द्वंद्वमय विकासोन्मुख प्रक्रिया। तथा यथार्थ की छाया प्रतीति और सार तत्व का नियम आदि ऐसी बातें हैं जिन में आज भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। जिस हाब्सबौम का नाम अजय ने लिया है उनके अनुसार तो ‘21वी सदी मार्क्स की सदी’ होगी। लगता है लोक को अजय कोई ऐसी हानिकारक परिसीमा या बंदी गृह मानते हैं जिससे निकलना कवि की बड़ी मुक्ति है। जैसे उन्होंने कहा है कि ‘केशव तिवारी अब लोक से बाहर’ आ गये हैं। अतः अब वह ‘औरंगजेब का मंदिर’ देख सकते हैं। क्या लोकधर्मी कवि सिर्फ कुछ सीमित चीज़ें देखने को ही अभिशप्त है? सवाल है कवि किसी वस्तु को किस दृष्टि से देख रहा है। क्या लोकदृष्टि से वस्तुओं को नहीं देखा जा सकता? जैसे यदि मैं खजुराहो या लिंगराज मंदिरों को दूखूँ तो कहूँगा कि सामंतों में कितनी पतनशील यौन विकृतियाँ थी। पर मैं उन हुनरमंद कारीगरों की उत्कृष्ट कला को जरूर सराहूँगा जिन्होंने उन जीवंत मूर्तियों को राजा के आदेश पर तराशा होगा। पर रूपवादी - कलावादी या अजय तिवारी जैसे उन उत्खनित मूर्तियों में आनंद लेंगे! यही अंतर है लोकदृष्टि और बुर्जुआ दृष्टि में। जो बहुत अच्छे युवा कवि अपने अपने जनपदों में लोकधर्मी कविता लिख रहे हैं उन्हें अजय तिवारी जैसे विभ्रमित समीक्षकों से सजग रहने की जरूरत है! यही नहीं उनके आलोख में ऐतिहासिक तथ्यों का भी विरूपण तथा तोड़ मरोड़ है। यह जान बूझ कर फिर अनेक विभ्रम फैलाना उनकी रिवाजी साजिश का ही एक पक्ष है। जैसे उन्होंने नागार्जुन,- केदार बाबू -त्रिलोचन के बाद एकदम ज्ञानेंद्रपति आदि की पीढ़ी का उल्लेख किया है। मेरा कहना है कि नागार्जुन आदि के तत्काल बाद ही क्या ज्ञानेद्रपति आदि की पीढ़ी सहसा वजूद में आ गई? या वह धूमिल, कुमारेंद्र, कुमार विकल, भगवतरावत, चंद्रकांत देवताले, मलय, वेणु गोपाल, ऋतराज, विष्णु चंद्र शर्मा, नरेश सक्सैना तथा हरिशंकर अग्रवाल आदि की पीढ़ी का ही सहज तार्किक विकास है। इन कवियों का काव्य अवदान किसी भी तरह ज्ञानेंद्रपति आदि की पीढ़ी से क्या कम है? कई बार इतिहास में ऐसा होता है कि कुछ कवि होते हैं। कुछ को ठौंक पीट कर बनाया जाता है। कुछ पर कवि होना थोप दिया जाता है। बहुतायत थोपे हुये कवियों की होती है। जिसे एकांत ने ‘घुसपैठिया’ कहा है। खराब पेशेवर आलोचना ऐसे कवियों पर मुलम्मा का झोल चढ़ाती रहती है। ऐसे समीक्षक और कवियों का एक ही हश्र होता है -सहसा चमक कर बुझ कर राख का ढेर। सातवें दशक की कविता को ढक कर आँख ओट करने जैसा ही तो यह आलोचकीय छल है क्या ? मेरे खयाल से नागार्जुन आदि की तत्काल वाद की पीढ़ी को बिना समझे ज्ञानेंद्रपति आदि की पीढ़ी को क्या हम बेहतर समझ सकते हैं! बल्कि इस पीढ़ी का कद अजय के आलेख से और छोटा हुआ है। कवियों को हम परम्परा के समुचित विकास क्रम में ही बेहतर समझ सकते हैं। जिस तरह अजय ने ऐतिहासिक क्रम का विरूपण किया है यह न केवल अनुचित है। बल्कि अनैतिक भी। शायद ज्ञानेंद्रपति की पीढ़ी के कवि भी इस ऐतिाहासिक विरूपण को गलत समझेंगे।






यदि केशव  तिवारी ने अपने को लोक  से बाहर कर लिया है  तो क्या हमें उनकी कविता पर पुनर्विचार करना  पड़ेगा? वैसे मुझे ऐसे प्रतिबद्ध लोकधर्मी कवि के विचलन की संभावना बहुत क्षीण लगती है। कवियों की उठा पटक कर उन्हें विभाजित करना, कुछ को बगल में दबाना कुछ को दुत्कारना अजय की बहुत पुरानी कूट चाल है। उनके ‘स्नोब’ चरित्र का हिस्सा। मुझे अफसोस है डा0 रामविलास शर्मा जैसे मनीषी आलोचक का सान्निध्य पाकर भी उन्होंने कुछ नहीं सीखा! खुदा हाफिज़ ......

अजय तिवारी का आज तक का लेखन ऐसे ही विभ्रमों, तथ्य विरूपणों, अतार्किक असंगतियों, अंतर्विरोधों से भरा पड़ा है। पूरा आलेख ‘तोतारटन्त पेशेवर समीक्षा’ का बेहतर साक्ष्य है। अजय में न तो मौलिकता है। न श्रेष्ठ कविता को गहराई से समझने की क्षमता। उनकी सतही उबाऊ और टीप टाप के लिखी आलोचना से लगता है उन्होंने भारतीय क्लेसिक्स गहराई से नहीं पढ़े। न अपना काव्यशास्त्र। विदेशी क्लैसिक्स की तो कौन कहे! ऐसी ही समीक्षा को शुक्ल जी ने ‘वाग्विलासी समीक्षा’ कहा है। यानि जो समीक्षा में है वह कविता में नहीं होता। जो कविता में है उसे आलोचना नहीं कहती। ऐसी ही खराब आलोचना ने उसे अविश्सनीय और अप्रामाणिक बनाया है। उसका स्तर गिरा है। हम पहले आलेचाक या कवि के जीवन ,नियत तथा आचरण पर भरोसा करते हैं। बाद में उसके रचना कर्म पर। मैं ऐसी समीक्षा को ही खराब समीक्षा कहता आया हूँ जो खराब कविता से अधिक खतरनाक होती है। बहरहाल लोक के नाम पर किसानों पर कविता भर लिख देना काफी नहीं हैं। हमें उनके वर्गीय संघर्ष को भी दिखाना होगा लोक को बताने के लिये यहाँ महान क्रांतिकारी लोकयोद्धा बिरसा मुण्डा की कुछ पंक्तियाँ देता हूँ -

हमारे पुरखों ने चीतों  बाघों से लड़ कर
जमीन बनाई है
इस जमीन को छीनने  वाले
तुम कौन हो
हम तैयार है तीर  और धनुष ले कर
लड़ेगे साहूकारों और अंग्रेज़ों से 
और जमीदारों से। 






निराला तथा केदार बाबू में लोक सामंतों तथा पूँजीपतियों पर सीधा प्रहार करता है। या फिर नागार्जुन की पंक्तियाँ

खड़ी हो गई चाँप कर कंकालों की हूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक।
तुलसी अपने समय का लोक अपनी तरह से कह रहे  थे –
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख,  बलि
जीविका विहीन लोग  सीद्यमान सोच बस........
आगि बड़वागि तैं बड़ी  है आगि पेट की।

लोक का यह सार रूप  है। इसके बिना बतायें ‘गाँव के माथे पर काँस का फूल’ मात्र ड्राइंग रूम की शोभा भर रहेगा। लोक का संघर्षधर्मी वैश्विक रूप भी है। जैसे अमरीका में वाल्ट ह्विटमैंन, स्पेन में लार्का, चीले में नेरूदा, नाइजीरिया में वाले शोयिंका, रूस में मायकोवस्की, चीन में बाइ जुई तथा तुर्की में नाज़िम हिकमत। तो इससे यह भी धरणा बनी कि लोक भारत तक ही सीमित नहीं है। सवाल हो सकता है कि इन कवियों को मैंने लोकधर्मी क्यों कहा? क्योंकि ये सब शोषित उत्पीड़ित किसानों, श्रमिकों तथा संघर्षशील जनता के लिये अपना जीवन तक दाँव पर लगा रहे हैं। अपने देश की आज़ादी के लिये इन कवियों ने स्वयं बड़ी बड़ी यातनायें सही है। इस दृष्टि से जब लोक पर विचार होगा तो कुछ भिन्न निष्कर्ष सामने आयेंगे। लगेगा कि देसी बोलियों के शब्द, ‘गाँव के माथे पर काँस का फूल’ या भोजपुरी लहज़े में कविता लिखना आदि बातें लोक का मनोरंजक रूप ही है। छायाप्रतीति  है। सार तत्व नहीं। लोकधर्मी कवि वर्ग संघर्ष की व्यापक लोकदृष्टि से प्रेम, सौंदर्य, प्रकृति तथा मनुष्य के अन्य कोमल भावों पर भी बेहतरीन - बेजोड़ कवितायें लिखता है। तभी वह समग्र लोकधर्मी कवि बनता है।






मुझे हिंदी आलोचना का स्तर इसलिये भी गिरा लगता कि वह यह मूल्यांकन नहीं कर पा रही कि हिंदीतर प्रदेशों में जो महत्वपूर्ण हिंदी  कविता रची जा रही है उसका सम्यक् मूल्यांकन हमारे  सामने प्रस्तुत करे। दूसरे, 80 के बाद की कविता 90 तक ही नहीं रुक जाती। उसके बाद भी खासी अच्छी कविता सामने आई है। मैं पहले हिंदीतर (कोच्चीन में एक गाँव) प्रदेशों के हिदी कवियों में अरविंदाक्षन का नाम विशेष महत्व से लेना चाहूँगा। उनके अब तक पाँच कविता संकलन प्रकाशित हो चूके हैं। ’राग लीलावती’( 2004 ) मेरे पास उनका अद्यतन काव्य संग्रह है। वह वैसे मलयालम भाषा के प्रसिद्ध कवि तथा समीक्षक हैं। हिंदी में उनकी कई महत्वपूर्ण आलोचना पुस्तकें भी हैं। जैसा इस कविता के नाम से ध्वनित है अरविंदाक्षन गहरे मानवीय राग के लाकेधर्मी कवि है। काव्य यथार्थ के बारे में वह कहते हैं कि, ’कवचहीन होकर ही मैं यथार्थ को देखता हूँ। कवचधारी यथार्थ के मध्य से कवचहीन होना मेरे लिये प्रीतिप्रद तथ्य है। पर इससे यथार्थ कवचों से मुक्त नहीं होता। तनावग्रस्त होने का कारण यही है। इस अनुभव को मैं शब्दों में ढालने की कोशिश करता हूँ। इन कविताओं को एक कवचहीन व्यक्ति का पागलपन समझिये, बस। अपनी कविता ‘अवतार और यथार्थ’ कृष्ण और पूतना के मिथक को लेकर है। इसमें आज के मनुष्य की हिंसा, पूँजीकेंद्रित–साम्राज्यवादी देशों के विषाक्त आक्रामक तथा रुग्ण सांस्कृतिक प्रभाव तथा मानवीय विनाश की विभीषिका का चित्र दिया है। अंत में उस खतरे को पहचान कर उससे सजग रहने की चेतावनी भी-एक विकल्प का भी संकेत है।

कृष्ण को मारने के लिये
कंस ने अपने भाइयों को भेजा...
पूतनाओं का प्रलोभकारी रूप सब को आकर्षित कर रहा है
हमें बस कंस को पहचानना  है
पूतना को पहचानना है।

अरविंदाक्षन आज की हिंदी  कविता के कवचहीन यथार्थ के महत्वपूर्ण कवि हैं। हिंदी समीक्षा का यह दुर्भाग्य ही है जो ऐसे कवियों का सम्यक मूल्यांकन अभी नहीं हो पाया। वह आज भी सक्रिय हैं। पिछले दिनों कई पत्रिकाओं में मैं ने उनकी अर्थवान कवितायें पढ़ी हैं। जब ‘राग लीलावती’ छपी तब प्रख्यात समीक्षक डा0 जीवन सिंह  ने इस काव्य कृति की समीक्षा ‘कृतिओर’  में लिखी थी। हिंदी के पेशेवर समीक्षकों का उनके समग्र कृतित्व पर अभी उतनी गंभीरता से ध्यान नहीं गया जितना गंभीर उनका कृतित्व है। एकबार उनसे मिला हूँ। बहुत ही आत्मीय और नेक दिल इन्सान हैं। इसीलिये वह  हिंदी के एक महत्वपूर्ण अच्छे कवि हैं। दूसरे कवि हिंदीतर प्रदेश जम्मू के हैं, अग्निशेखर। ‘काल वृक्ष की छाया’ ( 2006 ) में उनका संग्रह आया है। अग्निशेखर की कविताओं में उनके प्रदेश की मार्मिक छवियाँ हमें आकर्षित करती है। आद्यंत मिथकों के माध्यम से उन्होंने कश्मीरी पंडितो की निर्वासन त्रासदी को बड़ी गहरी पीड़ा से व्यक्त किया है। हिंदी के आलोचकों का उधर अभी ध्यान कम गया है।  इसी तरह शेख मोहम्मद कल्याण जम्बू के हैं। उनका कविता संग्रह ‘समय के धागे ’ ( 2003 ) में आया है। अपने समय की विडंबनायें, मनुष्य के सपने तथा सहज प्रकृति के चित्र उनकी कविता को आकर्षक बनाते हैं। राम कुमार कृषक एक प्रौढ़ और गंभीर कवि हैं। उनके अब तक सात कविता संग्रह छप चुके हैं। मेरे पास उनका अद्यतन संग्रह है ‘‘लौट आयेंगी आँखें (2002)। मुझे यह देखकर बेहद प्रसन्नता है कि रामकुमार जी गीत- गज़ल में सिद्ध हो कर बहुत ही मनमोहक मुक्तछंद रचते हैं। कवि विष्णुचंद्र शर्मा ने उन्हे, ‘अपनी आँखों देखी कठोर और क्रूर सचाइयों का धैर्यवान कवि' कहा है। रामकुमार जी की कवितायें बहुत सहज, सरल, सुबोध हैं जैसे उनका जीवन हैं। उनकी बनक। कहीं कहीं तीखे व्यंग्य भी हैं। उनकी कविता पढ़कर सहसा नागार्जुन और परसाई जी याद आते हैं।




मेरा सवाल है अभी तक कृषक जी कि कविता का सम्यक मूल्यांकन हिंदी आलोचना क्यों नहीं कर पाई ? अजय के आलेख से पता लगता है कि हमारी दृष्टि मझोले-सझोले बे-सूद तथा अखबारी कवियों पर ही  अटकी रहती है! मेरे विचार से रामकुमार जी की कवितायें कुमार अम्बुज, नीलेश रघुवंशी, नासिर अहमद सिंकदर, हरिओम राजोरिया आदि की कविताओं से किसी अर्थ में कमतर नहीं हैं। बल्कि उनकी कविताओं से बेहतर हैं। अजय ने जिन अति सामान्य कवियों के नाम बार बार दोहराये हैं उनमें न तो कोई बड़ी काव्य संदृष्टि (विज़न) है। न अपनी जातीय समृद्धि के चिन्ह हैं। न जनपदीय स्थानीय रंग है। शब्दों की मितव्ययता भी नहीं है। न काव्य लय। न हिंदी का अपना ठेठ मुहावरा। भाषा एकदम निर्जीव, अनूदित और किताबी। युवा कवि रमेश प्रजापति को भी छेका गया है उनका संग्रह, ‘पूरा हँसता चेहरा’ (2006) में आया है। रमेश प्रजापति की कविताओं में जीवन के प्रति गहरी आस्था है। सामान्य मनुष्य की तकलीफों के सांकेतिक बिंब चित्र उनकी कविताओं में हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण कवि हैं अशोक तिवारी। अब तक उनके दो संग्रह (सुनो अदीब, 2003; मुमकिन है, 2008) आ चुके हैं। अशोक ने एक प्रतिबद्ध जनवादी कवि के रूप में खासी सार्थक पहचान बनाई है। उनकी कविता में लोकधर्मी स्थानीयता का रंग हमें आकर्षित करता है। मूलतः ब्रज प्रदेश के होने की वजह से अशोक की कविता में ब्रज जनपद की बड़ी स्वस्थ अुगूँजें सुनाई पड़ती हैं। विजय सिंह (बंद टाकीज, 2009) एक प्रतिबद्ध, प्रतिभासंपन्न तथा लोकधर्मी अत्यंत संभावनाशील कवि है। उनकी कविता अपने आस पास के अति सामान्य जीवन जगत को स्थानीयता के गाढ़े रंग के साथ व्यक्त करती है। जैसे ‘बंद टाकीज’ उनके घर के सामने जाने कब से बंद पड़ा है। यह एक काव्य प्रतीक भी है। वस्तुगत यथार्थ भी। ऐसे विषय पर दृष्टि जाने का अर्थ है हम अपने परिवेश के प्रति कितने सजग सचेत हैं। विजय सिंह की कविताओं में सामाजिक सरोकार भी गहरे हैं। उनके कवि स्वभाव में निर्भयता तथा साहस अनुस्यूत हैं। वह एक खास बनक के कवि हैं।  महेशचंद्र पुनेठा के (भय अतल में -2010) संग्रह में कठोर पहाड़ी जीवन के सांकेतिक तथा जीवंत चित्र हैं। यह कवि अपने परिवेश को बड़ी सजगता से देखता परखता है। महेश बहुत ही निर्भीक और ईमानदार कवि हैं। उनकी कविता में लोक संधर्ष की बड़ी संश्लिष्ट अभिव्यक्ति संभव हुई है। उनके राजनीतिक सरोकार भी बहुत साफ और दिशा सूचक हैं। सबसे अच्छी बात है वह आलोचनापरक गद्य भी लिखते हैं। गद्य भी उनका बहुत पारदर्शी और सहज है। मुझे महेश से बड़ी उम्मीदें हैं। सुरेश सेन निशांत के (वे लकड़हारे नहीं थे-2010) संग्रह का जब मैं ने फ्लैप लिखा उस समय भी वह मुझे एक अत्यंत संभावनाशील कवि लग रहे थे। निशांत ने अपने आस पास के सामान्य लागों की बड़ी सहज चरित्र सृष्टि की है। वह कविता को कभी उबाऊ या निरा गद्य नहीं होने देते। उनके बिंब सक्रिय लोक जीवन से उद्दीप्त होते हैं। सुशील कुमार (जनपद झूठ नहीं बोलता, 2012) ने इधर अच्छी खासी पहचान बनाई है। उनकी कविता में जनपदीय चेतना मुखर है। क्रियाशील मनुष्य के सहज चित्रों से बातें कही गई हैं। सुशील अपने यहाँ की बोली से अपनी काव्य भाषा को बराबर पुष्ट करते हैं। शंभु बादल ( मौसम को हाँक चलो-2007) , ( सपनों से बनते सपने-2010), लंबी काव्य यात्रा तय कर चुके एक प्रौढ़ कवि हैं। पर अभी समीक्षकों का ध्यान उधर नहीं गया! सूरज प्रकाश राठौर, (काले कोट वाले जंगल में-2011),  अलीक, (कबीर राग, 2001)  तथा (गलियों का गायक, 2009 ) कुमार मुकुल, ( ग्यारह सितंबर और अन्य कवितायें-2006), अनिल गंगल (स्वाद- 2000), ओम भारती (जोखिम से कम नहीं-1999, रजत कृष्ण, (छत्तीस घरों वाला घर, 2011) शैलेंद्र चौहान ( श्वेत पत्र-2002 ), रेखा चमौली, (पेड़ बनी स्त्री, 2012), संदीप अवस्थी, ( वह स्त्री लिख रही है-2011),  आत्मा रंजन, (पगडण्डिया गवाह हैं,  2011), अजय कृष्ण(कैद है एक नन्ही उम्मीद, 2008)  रेवतीरमण शर्मा,( एक दुनिया यह भी है, 2011) कपिलेश भोज,(यह जो वक्त है, 2010), राघवेद्र के दो कविता संग्रह (अँजुरी भर रेत) तथा (एक चिठ्ठी की आस) आ चुके हैं। वह एक प्रतिबद्ध जनवादी कवि के रूप में पहचान बना रहे हैं। कुमार वीरेंद्र भी भविष्णु लोकधर्मी कवि हैं। उनका भी एक संकलन आ चुका है। इधर मैंने उनकी कवितायें नहीं देखी। शकुंत भी दूर दराज इलाके में रहकर बेहतरीन जनवादी कवितायें लिख रहे हैं। उनके कई संकलन आ चुके हैं। शंकरानंद उभरते युवा कवि हैं। उनका एक संग्रह (दूसरे दिन के लिये- २०१२) में आया है। शंकरानंद की कवितायें जनसंघर्ष को व्यक्त कर एक सुंदर भविष्य की ओर संकेत करती हैं।






इन सब कवियो की कविताओं में पर्याप्त वयस्कता और लोकधर्मिता होने के बावजूद अजय तिवारी के आलेख तथा पत्रिका परिसंवाद में कहीं अर्थवान उल्लेख नहीं है। 9वें दशक के बाद उक्त कवियों ने अपनी स्वायत्त पहचान बना कर अपने को अच्छी कविता के बल पर स्थापित किया है। इनको बिना समझे जाने 9वे दशक के बाद की कविता का चित्र न सिर्फ अधूरा रहेगा। बल्कि निहायत कमज़ोर और अप्रमाणिक भी।


कुछ कवियों के संग्रह न आने के बावजूद उनकी कविता ने हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। बहुत ही दूरदराज के अत्यंत कठिन इलाके में रचनारत अजेय (केलंग) की कविता हमें  आश्वस्त करती है। पिछले दिनों मैंने उनकी कुछ कवितायें ’पहलीबार’ ब्लाग पर पढ़ी। उनकी लोकधर्मिता ने मुझे प्रभावित किया है। अजेय की कविता जीवन के कठिन संधर्ष से उपजी लगती है। उसमें गहरा स्थानीय रंग है। मनुष्य की आंतरिक पीड़ा के सांकेतिक बिम्ब-चित्र बार बार उभरते हैं। बहुत अच्छी बात है कि कहीं पस्तहिम्मती के संकेत नहीं हैं। इसी तरह अच्युतानंद मिश्र का कोई संग्रह अभी नहीं आया है। पर उनकी कवितायें हमें एक भविष्णु कवि का एहसास कराती हैं। अच्युतानंद जनपक्षधर कवि हैं। दूसरे , उनकी कविता में बड़े राजनीतिक सरोकारों के ताने बाने भी गुँथे बिंधे रहते हैं। एक और महत्वपूर्ण युवा कवि है संतोष चतुर्वेदी। उनकी बिल्कुल हाल की कवितायें मैंने ‘स्वाधीनता’ विशेषांक तथा ‘पहली बार’ में पढ़ी हैं। संतोष की कवितायें सामयिक प्रश्नों का सामनाबे-खौफ करती हैं। उनकी एक कविता ‘मुकम्मिल स्वर’ स्वाधीनता’ २०१२ के शारदीय विशेषांक में छपी है। कविता बाजार के बहाने साम्राज्यवादी बढ़ती पूँजी के कुप्रभावों पर तीखा प्रहार है। चाहे इस पूँजी ने कितना ही हमें अमानवीय तथा संवेदनाहीन बनाया हो, फिर भी कुछ लोग इसके प्रभाव से मुक्त होकर इसके प्रतिरोध के लिये संघर्ष कर रहे हैं। इस कविता ने एक नई उम्मीद तथा विकल्प की ओर संकेत कर हमें पस्तहिम्मत होने से बचया है। उनकी दूसरी कविता ‘मोछू नेटुआ’ एक लंबी कविता है। यह कविता एक ऐसे विरल तथा संघर्षशील लोकधर्मी विषय पर हैं जहाँ प्रायः हम पहुँच ही नहीं पाते। दोनों कवितायें को एक संभावनाशील लोकधर्मी कवि बनाती हैं। सुना है बहुत ही जल्द उनका दूसरा कविता संग्रह भी आने को है। एक अन्य महत्वपूर्ण हमारा कवि अरुणाभ सौरभ भी बराबर छूट रहा है। ‘कृतिओर’ में छपी उनकी कविता को वाचस्पति ने पुरस्कृत कर पुरस्कारों की एक नई स्वस्थ परम्परा प्रारंभ की है। अरुणाभ की कवितायें जीवन और प्रकृति के बहुत करीब हैं। ‘पहलीबार’ ब्लॉग में भी मैंने उनकी अच्छी कवितायें पढ़ी हैं। मुझे अरुणाभ कवि कर्म के प्रति गंभीर दिखते हैं। यह अपने आप में कवि बने रहने के लिये बड़ी खूबी है। मेरे अत्यंत प्रिय और एकदम युवा कवि हैं नित्यांनद गायेन। लोकधर्मिता उनकी कविता का प्राण है। यह कवि साहसी है। निडर और आत्मविश्वासी भी। कहें आजके समझौतापरस्त समय में एक बहादुर बे-खौफ श्रेष्ठ कवि। ये गुण आज के बहुत कम कवियों में लक्ष्य किये जा सकते हैं। उनकी कवितायें आज की क्रुर व्यवस्था तथा सांसकृतिक पाखण्ड पर तीखे प्रहार करती है। इधर मैंने ‘ स्वाधीनता’ शारदीय विशेषांक तथा ‘पहलीबार’ ब्लाग पर उनकी बेहतरीन कवितायें पढ़ी हैं।

























मुझे प्रसन्नता  है लोकधर्मी कविता 90 के बाद भी विकसित हो रही है। मैंने यहाँ खासतौर से उन्हीं कवियों की चर्चा की है जिन्हें जानबूझ कर अजय तिवारी तथा परिसंवाद आयोजकों ने विस्मृत किया है। जबकि प्राणहीन तथा बानवटी कवियों का मंत्रोच्चार बराबर किया गया है। उक्त कवियों की कविता हमें 9वे दशक के बाद की कविता का समृद्ध विकास दिखाती है। पर इन कवियों को ऊँचाइयाँ छूने के लिये कठिन संघर्ष भी करना होगा। कविता अत्यंत कठिन कर्म है। वह हमसे त्याग, सदाचरण तथा समर्पण की माँग करती है। इससे साफ है कि कुछ ‘तोतारटन्त पेशेवर तथा वाग्विलासी समीक्षक’ किस तरह अनर्गल को सार्थक तथा सार्थक को अनर्गल बनाने में लगे हैं। मुझे प्रसन्नता इस बात की है कि ‘कृतिओर’ के यशस्वी संपादक डा0 रमाकांत ने कुछ अच्छे लोकधर्मी कवियों पर विस्तार से अपनी पुस्तक, ‘कविता की लोकधर्मिता’ में मूल्यांकन परक आलेख लिखे हैं। क्या हमें हिंदी आलोचना के गिरते स्तर के बारे में चिंता नहीं होनी चाहिये? हम चाहेंगे ‘कृतिओर’ ऐसी विभ्रमकारी, संकीर्ण तथा पूर्वाग्रही प्रवृत्तियों का लगातार विरोध करती रहे। हम यह भी चाहेंगे कि इन सवालों पर हमारे सजग लेखक तथा पाठक गंभीरता से सोचें।          




                 

(विजेंद्र जी हमारे समय के वरिष्ठ कवि, एवं चिन्तक हैं। साथ ही कृतिओर जैसी महत्त्वपूर्ण पत्रिका के संस्थापक संपादक हैं।आलेख में प्रयुक्त सभी पेंटिंग्स विजेंद्र जी द्वारा बनायी गयी हैं।)

टिप्पणियाँ

  1. विजेन्द्र ने यहाँ बहुत महत्वपूर्ण सवाल उठायें हैं .हिंदी कविता में पहले ही आठवें दश कके माध्यम से भ्रम पैदा किया गया सरोकार विहीन गैर राजनीतिक चुस्त और चालक मन की कविता को स्थापित किया गया और ऐसा करते हुए कलावाद कि अनुशंसा करने की हद तक- गर्त में गिरने से गुरेज़ नहीं किया गया .वस्तुतः आठवें दशक(हालाँकि यह पद ही विरोधाभासी है क्योंकि सही पद तो अस्सी के दशक की कविता होनी चाहिए) की कविता ने अपनी पिछली पीढ़ी से कोई गंभीर बहस कर खुद को स्थापित नहीं किया बल्कि कुछ पूर्वाग्रहों को आधार बनाकर पूरी पीढ़ी का आकलन कर दिया( देखें राजेश जोशी की पुस्तक एक कवि की नोटबुक).यहाँ मैं विजेन्द्र जी की बात में एक बात और जोड़ना चाहूँगा -तथाकथित आठवें दशक के माध्यम से हिंदी कविता में नयी कविता की वापसी होती है (भारत भवन से नामवर सिंह के सानिध्य में अशोक वाजपेयी और उनकी पार्टी ने जो कविता की वापसी का नारा बुलंद किया था दरअसल वह नयी कविता की ही वापसी थी और कविता के नए प्रतिमान लिखने वाले आलोचक का पुनर्जीवन ).अब लॉन्ग 90s के नाम पर यह नया शिगूफा .साहित्य में ऐसी चीज़ें दूर तक नहीं जाती.

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  2. यदि इस आलेख का खुद को ही समझने के लिये सरलीकरण करुँ तो सार यही नजर आता है कि वो भी दौर था जब एक फिल्म के फर्स्ट डे फर्स्ट शो का आँखों देखा हाल फिल्मी दुनिया का एक समीक्षक लिखता था .. अधकचरा साहित्यिक भाषा में .. जिसे पढ़कर लोग फिल्में तक देख ही लेते थे कि अच्छी ही होगी .. ये लोग भी खरीदे गऐ और परिणीति ये .. कि अब ये स्टार बाँटते रहते हैं पर कोई इनकी नहीं सुनता । आलेख निष्पक्ष लगा जो सुखद है क्योंकि अब ऐसे आलेख तक की मनसा स्पस्ट कहूँ तो चुकते साहित्यकार का उपस्थिति दर्ज कराने का प्रयास .. अपने गुट से बाहर के लोगों का धमकाने या फिर शाब्दिक पांडित्य के प्रदर्शन के साथ दुराग्रह की अभिव्यक्ति भर रह गया है । और हाँ .. ये कहावत तो अब आप अपने देहात की परिधी से बाहर कर इसे हर कुचक्री मठाधीश के माथे की सार्वजनिक मुहर कर ही दें विजेंद्र जी कि .. तुमई छिनरा तुमई डोली के नीचे । एक और बात .. जहाँ इस तरह के आलेख लिखने वाले वरिष्ठ ये तक नहीं जानते की आजकल के वे कौन से " बच्चे " हैं जो लिख रहे हैं और एक ही पंक्ति मैं " आज कल लिखने वाले " पंक्ति लिखकर ५ - १० पन्नों तक के आलेख लिख डालते हैं .. वहां आदरणीय विजेंद्र जी ने बाकायदा आज के नए कुछ अच्छे रचनाकारों का जिक्र किया ये बड़ा भला लगा ... उम्मीद है की श्री विजेंद्र जी के इस आलेख के बाद कुछ लोग सोचने पर मजबूर होंगे की या तो बेहतर लिखें .. या बेहतर लिखने वालों को आगे लाकर अपने बड़प्पन का परिचय दें .. या ये भी न करें तो कम से कम किसी नवोदित को पढ़े बगैर ऊटपटांग भविस्यवानियाँ तो बंद ही कर दें की " साहित्य अब मर चला " " --- आज के लेखकों में वो बात नहीं " ... " अब वो दौर नहीं रहा .. आदि आदि .. बेबाक प्रतिक्रिया के लिए माफ़ करें .. डॉ मोहन नागर

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  3. किसी भी आलेख पर केवल परिचर्चा होनी चाहिए फिर भी अपनी एक छोटी सी रचना .. विजेंद्र जी कृपया इस घष्टता के लिए माफ़ करें ..

    जिस पेड़ की जड़ें
    गहराई तक उतर चले पानी तक
    नहीं पहुँच पातीं
    ठूंठुआकर गिरते आकाल की
    सबसे पहली भविष्यवाणी
    वही बांचता है !

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  4. Vijendra jee aapka aalekh bahut accha laga. Mera yeh manana hai ki hame kisi ke diye sathapataya pramaan kee apeksha charitra nirmaan kee aur dhyaan dena chahiye.acchee kavita pahachanee hi jati hai use koi khaarij nahi kar sakta. Dhanyavaad. - kamal jeet Choudhary ( j and k )

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  5. विजेन्द्र जी इस दौर के विरल रचनाकार हैं. हैं.साथ ही आज की कविता के गंभीर अध्येता भी.जिस गहन परिप्रक्ष्य में विजेन्द्र जी की लोकधर्मिता का प्रश्न है वह अनूठा तो है ही,पूरे लोक जीवन के आख्यान को पकड़ने की स्वस्थ आलोचनात्मक परंपरा भी.पहलीबार के पाठकों के लिए यह आलेख आज की कविता की आलोचनात्मक नब्ज़ को पकड़ने के लिए वाजिब दस्ताबेज है. विजेन्द्र जी ने अपनी जिस रचनात्मक ऊर्जा का प्रयोग किया है,वह आज की कविता खासकर युवा कविता को समझने के लिए एक व्यवस्थित पाठ की तरह है.ऐसे सुव्यवस्थित पाठ को प्रस्तुत करने के लिए विजेन्द्र जी का आभार,साथ ही पहलीबार प्रस्तोता संतोष भाई का विशेष आभार जो नियमित रूप से गंभीर रचनात्मक सामग्री लेकर आते हैं.संतोष भैया से निवेदन की इस सामग्री को अनहद' में प्रकाशित करें ताकि यह लंबे समय तक संरक्षित रह सके.
    -अरुणाभ सौरभ

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  6. अरुणाभ जी ने बहुत सठिक लिखा है विजेंद्र जी के बारे में . यही पर यह फिर साबित होता है कि क्यों विजेन्द्र जी अपने समकक्ष लेखक - आलोचकों से अलग हैं . इस आलेख यह तो साबित होता ही है कि विजेन्द्र जी आज की युवा पीड़ी को निरंतर और बहुत गंभीर रूप से पढ़ते हैं बिना किसी भेदभाव के.
    जरुर इसे किसी पत्रिका में भी जरुर प्रकाशित किया जाना चाहिए ताकि भविष्य के लिए सुरक्षित रहे .

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  7. विजेंद्र जी का यह लेख बहुत महत्वपूर्ण है | वे न सिर्फ समग्रता में अपनी बात कहते हैं , वरन बेबाकी से कहते हैं | हमने कृतिओर के सम्पादकीयों में यह देखा है , कि उन्होंने अपने लिए आलोचना के कौन से प्रतिमान स्थापित किये हैं , इस लेख में उसे पुनः देखा - पढ़ा जा सकता है | इस पूरी बहस को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण सूत्र के रूप में इस लेख को पढ़ा जाना चाहिए |

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  8. समाज में जिस तरह आलोचको का स्तर गिरा है उसी तरह साहित्य की दुर्दशा करने बालो की भी वृद्धि हुई है,अब कुछ ऐषे लोग
    साहित्य पर चर्चा करते है जो सच में साहित्य की परिभाषा से अनभिघ होते है,आज के कुछ समीक्षको के लेखन का तरीका सिर्फ जनमानश को सच से दूर ले जाने मात्र तक ही सही है,।
    कुछ लेखक तो सचमुच अपने पथ से भटक जाते है,और वे ये भूल जाते है कि हमें क्या करना है। क्या लिखना है,

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  9. vijendra ji 70 ke daur ke mahatwapurna kavi hai.isme koi shak nahi ki vichaar(intellect) aur jan dharmita ke bisaat par 70 ki kavita etihasik mahatwa rakhti hai aur uske samane 80 aur 90 ki kavita borjuawadi aur punjiwaaad ke kharab mulyon ka samarthan karti dikhti hai.kumarendra,vijendra aur kumar vikal ki kavita ka mulyankan kiye bagair hindi alochna mahaj darbaari bani rahegi.

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  10. यह परिचर्चा आलेख निष्पक्ष नही है सारांशत: यह पूर्ण रूपेण कट्टर साम्यवाद की कट्टरता से अभिप्रेरित है ,जिसका अस्तित्व पुरी दुनियां से लगभग समाप्ति की ओर है इसका कारण ,मार्क्सवाद नही है वाद सही है मै इसका आदर करता हूं , परन्तु इस वाद के अधिकांश साहित्यकर्मियों की बेइमानी और खुद के अमीर बनने के लालच का एक पांव सेठों के घर मे भी पैठ बनाना है इस दुहरी मानसिकता से संघर्ष को सही आँच नही मिली न समाज समृद्ध हुआ न साहित्य । हिन्दी साहित्य की कविता किसी एक ही वाद की बपौती नही है ? सेठाश्रित पत्रिका का अर्थ क्या है ? क्या यह पत्रिका राजभाषा हिन्दी जिसकी छाती पर अंग्रेजी बैठी मचल रही है उस हिन्दी का भी प्रतिनिधित्व नही कर रही है ,जहां अंग्रेजी का समुद्र फ़न ताने फ़ुफ़कार रहा है आप तो स्वयं अपने लोगो मे ही लड झगड रहे हो अंग्रेजी से क्या लडोगे अलगाव विद्वेष से कुछ नही होनेवाला इतनी समझ पहले सीखिये फ़िर समीक्षक का पद वहन करे और बहुत प्रखर इमानदार जन लोकधर्मी आलोचक विद्वान संपादक ज्ञानी यदि स्वयं को मानते है तो प्रथम राजभाषा हिन्दी को बनाने हेतु प्रथम हुंकार के अलख का शंखनाद आप क्यो नही बजाते ? और कौन सेठाश्रित नही है ? कौन सी सरकार है संस्था है जो अपराधियो चापलुसो गुमाश्ताओ से भरी नही है ? क्या आपकी पत्रिका मे चेले नही है सभी को आप समान वेतन समान अधिकार दे रक्खा है ? ज्ञान पीठ को किस सेठ ने दान दिया इसे सेठाश्रित क्यो नही कहा आपने ? और आलोचक हमेशा विदेशी लेखको के कथन को प्रमेय क्यो बनाते रहते है क्या खुद उनकी कोई रीढ नही है अगर नही है तो आलोचक समीक्षक कवि लेखक मिलकर और उत्कृष्ट साहित्य का पहाड क्यो नही खडा कर लेते ,जो दुसरे देशो के समीक्षको की सूक्तियां उधार लेकर प्रयोग कर रहे है ? बहुत उत्कृष्ट साहित्य की बात करते है आपके इस साहित्य से कौन से गरीबों की दीनदशा सुधर गयी है देहात की अश्लील कहावत कहकर आप कौन से सदचरित्र का परिचय दे रहे है ।
    इस संकीर्ण सकेन्द्रित गुट वाद की चरमता पर ध्यान देकर समय गंवाना निर्र्थक है अस्तु ।

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  11. युवा कविता की अपनी ठोस जमीन है, संवेदना है , लोक और जनपद से जुड़ा विस्तृत जीवन संसार है, इस कविता को विजेन्द्र जी छु सकते है इसलिए की, उनकी कविता उनका जीवन संसार उनकी प्रतिबधता में कही भी छल-कपट नहीं है ,उन्होंने जिस सहजता से युवा कवियों के निश्चल जीवन संसार को मार्ग प्रशस्त किया है वह अद्दभूत है , विरल है . विजेन्द्र जी का यह आलेख युवा कवियों के प्रति उनके प्रेम को दर्शाता है एक बड़ा कवि उतना ही सहज होगा जितनी की उसकी कविताए होती है विजेन्द्र जी इसके सबसे बड़े प्रमाण है , समकालीन कविता का संकट यह है की उसके तथा कथित आलोचक मुह देखी, पीठ थपथपाई आलोचना करते है और कविता के जीवन संसार को भटकाते है थोथी प्रसंसा से कविता अच्छी तो लग सकती है लेकिन वह कभी भी मूल्यवान नहीं हो सकती ।

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  12. आपकी नवीनतम पाँच कविताएँ - धरती तभी बचेगी, उन किरदारों की जरूरत है, लड़ता है आदमी सतत समर, क्या गंगा भी होगी लुप्त और वाल्ट ह्विटमैन की याद में, ‘पहली बार‘ पर देखीं और पढ़ीं। पाँचों कविताओं में परिपक्वता है। पके फल का मीठा रस है। अभी-अभी खिले गुलाबों की सुगन्ध है। लोक-चेतना से निर्मित आपकी पाँचों कविताओं में श्रमशील मानव की भावनाएँ व्यक्त की गई हैं।

    इन कविताओं में पर्यावरण विनाशक साम्राज्यवादी शक्तियों की तीखी आलोचना है। पसीना बहाने वाले हुनरमंद किरदारों की जरूरत समझी गई है। इसीलिए आप कहते हैं - “आने दो, कविता में उन्हें भी आने दो/जो तख्तों में चोबे ठौंक कर/मुझे सहूलियत देते हैं।“

    आपकी कर्मभूमि मरूभूमि हैं जहाँ का किसान कठोर श्रम करता है। अपनी जीविका के लिए। खेतों में खड़ी फसल के लिए। लेकिन वहाँ अक्सर पानी की कमी रहती है। सूखा की आशंका बनी रहती है। दोआबा के मूल निवासी होने के कारण आप ठीक सोचते हैं - “रेत ही रेत देख पाती जहाँ तक आँखें/न वृक्ष, न घास, न फूल, न पत्ती/यह कितना भिन्न है दोआबा से/मेरे धड़कते दिल से/आदमी ही लड़ता है सतत समर।“

    यह लड़ता हुआ आदमी आपकी कविता का केन्द्रीय पात्र है, जो सामूहिक रूप में जनशक्ति है।

    आप पर्यावरण के प्रति चिन्तित रहने वाले कवि हैं। इसलिए गंगा के बारे में ठीक सोचते हैं कि सरस्वती के समान गंगा भी लुप्त होगी? एक युग था जब सरस्वती जल से भरी रहती थी। उसकी प्रशंसा में वैदिक कवियों ने अनेक सूत्र रचे हैं, जिनके कारण सरस्वती वाणी का पर्यायवाची शब्द माना जाता है। लेकिन अब गोमुख के ग्लेशियर धीरे-धीरे पिघल रहे हैं। अनेक बाँधों ने गंगा का प्रवाह मंथर कर दिया है। मैदानों में आ कर उसकी धारा छिछली होती जा रही है। इसीलिए आप दुखी हो कर पूछते हैं - “तेरा पवित्र जल दूषित/ कहाँ खोजूँगा तुझे भविष्य में/ तेरा एक जल-कण/ रक्त कोष है मेरा/ तू ही नहीं और नदियाँ भी होती जा रही हैं पतनालियाँ/ ओ भगीरथ, मेरे वैज्ञानिक/ तुम बताओ दृष्टिवान अंधों को/ चौकन्ने बहरों को/क्यों हैं वे इतने क्रूर अपनी माँ के प्रति।“

    इस कविता में आपने अभिजनों के प्रति अपना सात्विक अमर्ष व्यक्त किया है और पानी से वंचित साधारण जनों के प्रति हार्दिक संवेदना व्यक्त की है - “ऐसा विकास क्या/मुठ्ठी भर पाएँ अपार सुविधाएँ/बहुल समाज मरे भूखा असहाय/अपौष्टिक आहार से होता रहे लँगड़ा-लूला।“



    और अन्तिम कविता में आपने अपने प्रिय कवि वाल्ट ह्विटमैन को याद करते हुए ठीक लिखा है कि वह अमेरिका का महानतम कवि है, जो आपकी लोक-चेतना के निकट है। उसके विश्व प्रसिद्ध काव्य संकलन “लीब्ज ऑफ ग्रास“ का भावात्मक अनुवाद “दूब के तिनके“ किया है, जो आपके एक संकलन का स्मरण कराता है। उसने अपनी कविताओं के माध्यम से काव्य भाषा में फ्री बर्स को जो प्रतिष्ठा दिलवाई है, वह आज भी अनुकरणीय है। आपकी कविताओं में भी यह रूप देखने को मिलता है। लेकिन आपकी भाषिक संरचना गद्यात्मक न होकर लयात्मक है, जो कविता के लिए अनिवार्य है। आपने अपना विश्वास इस प्रकार व्यक्त किया है - “गुजरने दो कठिन समय को/ वर्तमान के वृक्ष को हिलाते हुए तुम आज भी मेरे साथ हो/ ‘दूब के तिनको में‘ मुखर है/ भविष्य अमरीकी कविता का।“

    आपकी प्रत्येक कविता संवेदात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन से युक्त है। साधारण जनों की पक्षधर है। लयात्मक है। सहज संप्रेषणीय है। निजी वैशिष्ट्य से युक्त है। भगीरथ को वैज्ञानिक के रूप में संबोधित करके आपने मिथकीय चरित्र को वैज्ञानिक दृष्टि से देखा है। ऐसी उत्कृष्ट कविताएँ कभी-कभी पढ़ने को मिलती हैं।

    हाँ, एक दो स्थानों पर प्रूफ रीडिंग की भूलें दिखाई पड़ती हैं। जैसे टंकित किया गया है कि दूब के तिनकों में मुखार है। इस वाक्य में ‘मुखार‘ के स्थान पर ‘मुखर‘ होना चाहिए। टंकित किया गया है कि ‘मुरझाए पेड़े रूख‘। ‘पेड़े‘ के स्थान पर ‘पेड़‘ होना चाहिए।

    दिनांक 05.09.2012

    आपका छोटा भाई,

    अमीर चन्द वैश्य

    चूना मण्डी, बदायूँ

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  13. kuchh chhadma,banavati, mukhauta-dhaari aur aatmkendrit kviyo, jinhe apne va apni 'kavita' ke siva aur kuchh dikhai nahi deta,unki pahchan jaruri hai.
    vijay pratap singh

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  14. इस विषय पर मेरा आलेख १३ जनवरी के प्रभात वार्ता में छप चुका है. उसे भी देखें. हो सके तो ब्लॉग के हवाले करें.
    आग्नेय

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  15. सच कहूँ तो नेट पर आलोचनात्मक निबंध नहीं पढ़ पाता, खास कर यदि लम्बाई देख ली तो बिदक ही जाता हूँ, किंतु इस आलेख को जो शुरु किया तो फिर पढ‌ता ही चला गया ।कितना सुखद आश्चर्य है कि एक वरिष्ठ कवि एकदम युवा कवियों को पढ़्ता ही नहीं रहता है, बल्कि उसका मूल्यांकन भी करता चलता है ,साथ ही साथ छद्म-विमर्षों की हवा निकालते हुये युवा रचनाशीलता के सबल पक्ष को सामने रखता है...

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  16. युवा पीढ़ी की तरफ विजेन्द्र जी का रुझान, आत्मीयता एवं निष्पक्षता अप्रत्यक्ष तो नहीं है । मेरी उनसे जब भी बात हुई है, उन्होंने खुलकर कहा है कि किस प्रकार एक कवि का लोक के प्रति धर्म निर्वाह ज़रूरी होता है । काव्य को लोक के लिए समर्पित कर के जीवन के सार्थकता की वे हमेशा बात करते हैं । किस प्रकार 'लोक' मनोरंजन का साधन न होकर 'लोकतंत्र' का वह 'लोक' है, जो जिजीविषा से प्रेरित होकर श्रम-सौंदर्य को सर्वोपरि जीवन-मूल्य मानता है ।

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