युसूफ कवि
तेलुगु के युसूफ कवि की यह कविता पसमांदा समाज की हकीक़त को बयां करती है .
युसूफ कवि
अव्वल कलमा
आपको यकीं तो ना आये शायद
लेकिन हमारी समस्याओं का सिरे से कहीं जिक्र ही नहीं
अब भी, एक बार फिर से, उनकी दसवीं या ग्यारहवीं पीढ़ी
जिन्होंने खोई थी अपनी शानो-शौकत
बात कर रही है हम सब के नाम पर
क्या इसी को कहते हैं अनुभव की लूट?
सच तो यही है- नवाब, मुस्लिम, साहेब, तुर्क-
जिनको भी ख़िताब किया जाता है ऐसे, आते हैं उन वर्गों से
जिन्होंने खोई अपनी सत्ता, जागीर, नवाबी और पटेलिया शान-शौकत
लेकिन तब भी सुरक्षित कर ली उन्होंने, कुछ निशानियाँ उस गौरव की
जबकि हमारी जिंदगियां सिसकती रही हमारे हाथों और पेट के बीच
हमारे पास तो कभी कुछ महफूज करने को था ही नहीं
आखिर हम बयाँ भी क्या करते...?
हम, जो अपनी माँ को 'अम्मा' कहते थे
नहीं जानते थे कि उनको 'अम्मीजान' कहा जाता है
अब्ब़ा, अब्ब़ाजान, पापा-- बाप को ऐसे ही संबोधित करते हैं,
हमको बताया गया
आखिर मालूम भी कैसे होता- हमारी आय्या ने तो कभी ये सिखाया ही नहीं
हवेली, चारदीवारी, खल्वत, पर्दा--
हम फूस के महलों में बसर करने वाले क्या जाने?
कहा था मेरे दादा ने, नमाज का मतलब उत्ठक- बैठक!
बिस्मिल्ला- हि-र्रहमाने- रहीम, अल्लाह- ओ- अकबर, रोजा की भाषा
कहाँ सीखी हमने कभी
हमारे लिए त्यौहार क़ा मतलब था अचार- भात
उनके लिए बिरयानी, भूना गोश्त, पुलाव और शीर खोरमा
वह, पहने हुए शेरवानी, रूमी टोपी, सलीमशाही जूते
इत्र की खुशबू में नहाए हुए
और हम अपने चिथड़ों में मस्त
आपको यकीं तो न आयेगा अगर हम बयां भी करें
और आख़िरकार हमें ही शर्मिंदा होना पड़े शायद
सेंटूसाबू, उद्दान्तु, दस्तगीरी, नागुलू, चिना आदाम,
लालू, पेदा मौला, चीना मौला, शेख श्रीनिवासु,
बेटम चारला, मोइनो , पाती कत्ता, मॉल सुरू- क्या यह हमारे नाम नहीं
शेख, सैयद, पठान-- अपने खानदानों की शजरों के अकड़ में
कभी आने भी दिया तुमने हमें अपने करीब!
लद्दफ़, दुदेकुला, कसाब, पिन्जरी...
हम रहे हमेशा अवशेष उस समय के
जब हमारे पेशे ने जाति बन कर हमें डंसा था.
हम भिश्ती बने, तुम्हारे घरों तक पानी ढोने के वास्ते
और धोबी और धोबन, तुम्हारे कपडे धोने के लिए
हज्जाम बन काटे केश तुम्हारे
और मेहतर -मेहतरानी बन जब धोये तुम्हारे पखाने
हम रहे हमेशा अवशेष उस समय के
जब हमारे पेशे ने जाति बन कर हमें डंसा था.
वह कहते हैं, 'हम सब मुसलमान हैं!'
सहमत हैं हम भी, तो फिर इस भेदभाव का क्या मतलब?
अच्छा ही लगेगा हमको-- अगर यह खुदाई नुमाया करे उन हिसाबों को
जो लम्बे अरसे से दफ़न हैं, क्यों ऐतराज होगा हमें भला !
अब क्या जानना बाकी रह गया है साझे दुश्मन के बारे में
अब तो राजफाश करना है इस साझी मैत्री का!
हां, हम ऐसा मानते हैं, जो भी शोषित है वह दलित है
परन्तु अब पुनः परिभाषित करना पड़ेगा शोषण को भी !
आश्चर्य, आश्चर्य-- जो जबान हम बोलते है हमारी नहीं
बताया जाता है कुछ ऐसा ही हमें !
हम उस जबान को नहीं जानते जिसे तुम हमारी कहते हो
बन गए है हम ऐसे लोग जिनकी कोई मात्रि भाषा ही नहीं
बहिष्कार करते हो
क्योंकि हम तेलुगु बोलते हैं
'मुसलमान हो कर भी बड़ी अच्छी तेलुगु बोलते हो तुम'
मुझे खुश होना चाहिए या उदास, पता नहीं!
हमारे सारे ख्वाब तेलुगु हैं, हमारे आँसू भी तेलुगु हैं
जब हम बिलबिलाते हैं भूख से या कराहते हैं दर्द से
अरे, हमारी तो सारी अभिव्यक्ति ही तेलुगु है!
पहेली बन जाते थे हम जब नमाज अदा करने को कहा जाता था
हैरत से कूद पड़ते थे जब अजान का स्वर कान में पड़ता था
हम तो तलाशते थे मौसिकी के रागों को सुरों में
जब इबादत करने को कहा गया अनजानी जबान में
खो दिया अधिकार हमने इबादत के लुत्फ़ का!
आपको यकीं तो न आये शायद
लेकिन हमारी समस्याओं का सिरे से कहीं जिक्र ही नहीं
आत्म सम्मान तो एक दस्तरख्वान है, फैला हुआ सबके सामने
यह विशेषाधिकार नहीं अशराफ़ का
इस से फर्क नहीं पड़ता कौन रौंदता है इज्जत अपने भाई की
विश्वासघात तो आखिर विश्वासघात ही है
सबसे बडा धोखा तो अनुभव की लूट है.
अनुवाद - खालिद अनीस अंसारी
(राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप के १६ जुलाई २०११ अंक से साभार)
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