हरीश चन्द्र पाण्डे


हरीश चन्द्र पाण्डे हमारे समय के ऐसे महत्वपूर्ण कवि हैं जिनके बिना आज की कविता का कोई वितान नहीं बन सकता. वे बड़े सधे अंदाज में जिन्दगी के विविध  पहलुओं को अपनी कविता में  रूपायित करते हैं. पाण्डे जी की कविता दृश्य की निर्मिती करती है कुछ इस तरह के दृश्य की जिसमें कोई कांट-छांट नहीं की जा सकती.
दिसंबर १९५२ में उत्तराखंड के अल्मोड़ा जनपद के सदीगाँव में जन्मे पाण्डे जी के  अब तक तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. 'कुछ भी मिथ्या नहीं है', 'एक बुरुंश कहीं खिलता है' और 'भूमिकाये ख़त्म नहीं होती'.          पाण्डे  जी  का एक कहानी संकलन जल्दी ही आने वाला है.
सम्पर्क-  अ/ ११४, गोविंदपुर कोलोनी, इलाहाबाद, २११००४
मोबाइल - 09455623176 


प्रस्तुत है हरीश जी की 2 कविताएं

पानी

देह अपना समय लेती ही है
निपटाने वाले चाहे जितनी जल्दी में हों

भीतर का पानी लड़  रहा है बाहरी आग से  

घी जौ चन्दन आदि साथ दे रहे हैं आग का
पानी देह का साथ दे रहा है

यह वही पानी था जो अंजुरी में रखते ही
खुद  ब खुद छीर जाता था              बूंद बूंद 

 यह देह की दीर्घ संगत का आंतरिक सखा भाव था
जो देर तक लड़ रहा था देह के पक्ष में

बाहर नदियाँ हैं               भीतर लहू है
लेकिन केवल ढलान की तरफ        भागता हुआ नहीं
बाहर समुद्र है नमकीन
भीतर आँखें हैं
जहाँ गिरती नहीं नदियाँ, जहाँ से निकलती हैं 

अलग-अलग रूपाकारों में दौड़ रहा है पानी 

बाहर लाल-लाल सेब झूम रहे हैं बगीचों में 
गुलाब खिले हुए हैं 
कोपलों की           खेपें फूटी हुई हैं  
वसंत दिख रहा है पुरमपुर

जो नहीं दिख रहा इन सबके पीछे का
जड़ से शिराओं तक फैला हुआ है भीतर ही भीतर
उसी में बह रहे हैं रंग रूप स्वाद आकार 

उसके न होने का मतलब ही 
पतझड़ है 
रेगिस्तान है 
उसी को सबसे किफायती ढंग से बरतने का नाम हो सकता है 
वूज़ू 

बैठक का कमरा

चली आ रही है गर्म-गर्म चाय भीतर से
लजीज खाना चला आ रहा है     भाप उठाता   
धुल के चली आ रही हैं चादरें पर्दें

पेंटिंग    पूरी हो कर चली आ रही है
संवर के आ रही है लड़की 

जा रहे हैं भीतर जूठे प्याले और बर्तन 
गन्दी चादरें जा रही हैं     परदे जा रहे हैं 
मुंह लटकाए लड़की जा रही है 
पढ़ लिया गया अखबार भी 

खिला हुआ है  कमल-सा बाहर का कमरा 

अपने भीतर के कमरों की कीमत पर ही खिलता है कोई 
बैठक का कमरा 
साफ़ सुथरा       संभ्रांत 

जिसे रोना है                    भीतर जा कर रोये 
जिसे हँसने की तमीज नहीं वो भी जाये भीतर  
जो आये बाहर               आंसू पोंछ के आये
हंसी दबा के
अदब से

जिसे छींकना है वही जाए भीतर 
खांसी वही जुकाम वहीँ 
हंसी ठटठा         मार पीट वहीँ 

वही जलेगा भात 
बूढी चारपाई के पायों को पकड़ कर वहीँ रोयेगा पूरा घर 
वहीँ से आएगी गगनभेदी किलकारी और सठोरों की ख़ुशबू

अभी अभी ये आया गेहूं का बोरा भी सीधे जाएगा भीतर 
स्कूल से लौटा ये लड़का भी भीतर ही जा कर आसमान सर पर उठाएगा

निष्प्राण मुस्कराहट लिए    अपनी जगह बैठा रहेगा
बाहर का कमरा

जो भी जाएगा  घर से बाहर      कभी, कहीं 
भीतर का कमरा साथ-साथ जाएगा  

   

टिप्पणियाँ

  1. हरिश्चंद्र पाण्डेय हमारे समय के महत्वपूर्ण कवियों में से एक है...उनके द्वारा इस समय की जटिलताओ की पहचान और उसके बरक्स सुझाया गया विकल्प, हमारे लिए किसी नेमत से कम नहीं है..."अखबार पढ़ते हुए" कविता में पाण्डेय जी ने हमारे समय की जिस भयावहता से हमारा परिचय कराया था , वह स्तब्ध कर देने वाली है ...वो कल घटी दुर्घटनाओ को , जिनमे शिकार होने वाला सारे नियमो-कानूनों को जानता मानता है, , अखबार के पन्नो पर पढ़ते हुए कहते है.."ये कल की तारीख में लोगो के मारे जाने के समाचार नहीं/ वरन कल मेरे जिन्दा बचकर निकल जाने के समाचार है..."...यहाँ दिख रही दोनों कविताये उनकी संवेदना की कहानी कहती है...दहशत कविता में एक जगह वे कहते है.."एक बार फिर / रगों में दौड़ने के बजाय / खून / गलियों में दौड़ने लगा है..." "किसान और आत्महत्या" , "लय" "देवता" "हिजड़े" , 'कबीर" जैसी अनेक महत्वपूर्ण कविता लिखने वाले हरिश्चद्र जी को हमारा सलाम...

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  2. ’पहली बार‘ में हरीश चंद्र पाण्डेय जी की कविताओं को देखकर सुखद एहसास हुआ । वे मेरे प्रिय कवि हैं। पाण्डेय जी घड़ीसाज की चिमटी की तरह अपने आस-पास के साधारण से साधारण विषय को पकड़कर कविता रच देते हैं। यहाँ प्रस्तुत दोनों कविताएं इस बात का सबूत हैं। मैं उनकी लगभग सभी कविताओं का पाठक हँू इसलिए कह सकता हूँ कि उनकी कविताओं में केवल कुछ चीजों या घटनाओं के सूक्ष्म दृश्य ही उपस्थित नहीं रहते हैं बल्कि अपने समय और समाज की सच्चाइयों पर गहन विमर्श भी मौजूद रहता है। वे साधारण अनुभवों ,चीजों या घटनाओं के ही नहीं ,साधारण आदमी के भी कवि हैं । उन्होंने उन मनुष्यों पर कविताएं लिखी हैं जो मनुष्य होते हुए भी हमारे समाज में मनुष्य का गौरव नहीं प्राप्त कर पाए हैं जिन्हें हिकारत ,उपेक्षा और हंसी के पात्र के रूप में देखा जाता है(हिजड़े) । जो शोषण ,उत्पीड़न एवं अत्याचार के शिकार हैं। कठिन हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी दो जून की रोटी नहीं जुटा पाते हैं। विभिन्न शिल्पों में पारंगत होने के बावजूद गली-गली ,मुहल्ले-मुहल्ले ,रेगिस्तान से पहाड़ों तक भटकने के लिए अभिशप्त हैं। ’कौन बजाए बाॅसुरिया‘ , ’लेबर चैराहे पर‘ ,’वे आईं थी‘ , ’क्या पता‘ आदि कविताएं ऐसे ही लोगों पर हैं। वे जीवन को सुंदर बनाने वाले इन श्रमजीवियो ंका पक्ष लेते हुए श्रम की मौजूदा दशा-दिशा पर अपनी चिंता कैसे व्यक्त करते हंै।
    उनकी कविताएं जीवन को व्यापकता एवं गहराई से व्यक्त करती हैं। पाण्डेय जी इस सच को अपनी कविताओं में स्वीकार करते हैं कि समाज वर्गों में बॅटा है । समाज में व्याप्त उत्पीड़न ,शोषण एवं अन्याय का कारण यह वर्गीय ढाॅचा ही है। इस वर्गीय समाज में न केवल किसान ,मजदूर ,दलित ही हाशिए पर खड़े होते हैं बल्कि स्त्रियाॅ भी कहीं न कहीं हाशिए पर ही होती हैं। वे औरत के दर्द को बहुत गहराई एवं संश्लिष्टता से महसूस और व्यक्त करते हैं- रस्सी सी बटी हुई/औरत/औरत थामे है/कुएॅ की जगत पर/रस्सी /रस्सी /जगह-जगह से टूटी औरत सी । इसी तरह औरत के दर्द को व्यक्त करती उनकी अनेक कविताएं हैं।
    हरीश चंद्र पाण्डेय जी अपने समय की सामाजिक गतिकी को समझते हैं। उनकी कविता पूरी तरह आधुनिक तथा लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता तथा समाजवाद के मूल्यों को प्रोत्साहित करने वाली है। साथ ही वर्तमान समय एवं समाज की विडंबनाओं ,विसंगतियों एवं विद्रूपताओं को उद्घाटित करते हुए उनका समाधान प्रस्तुत करने वाली है। साम्राज्यवाद ,वैश्वीकरण एवं निजीकरण के चलते जीवन में आ रहे सामाजिक-राजनीतिक एवं आर्थिक परिवर्तनों को उनकी कविताएं सिद्दत से दर्ज करती हैं।
    उनकी कविताओं में समाज के अभावों ,संघर्षों ,पीड़ाओं ,दुख-दर्दों एवं विसंगतियों के बहुत सारे चित्र पूरी मार्मिकता के साथ चित्रित हैं इसके बावजूद कहीं भी कविताएं सहृदय को निराशा ,उदासी एवं कुंठा में नहीं धकेलती हैं। आशा का नया संचार करती हैं। चीजों को बचाने का आह्वान करती हैं- गौर से देखो /टपकने को झूलती इस एक बॅूद को/कैसी संपूर्ण है यह इस आधी-अधूरी दुनिया में/मिट्टी होने से / बचा लो इसे।

    अंत में यह भी कहना चाहुँगा कि पाण्डेय जी न केवल एक अच्छे रचनाकार बल्कि एक अच्छे इंसान भी हैं। उनकी सरलता और सादगी को देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि वे ही कविता को नहीं रचते बल्कि कविता ने भी उन्हें रचा है। एक सच्चे कवि में ही ऐसी सरलता ,सादगी और ईमानदारी हो सकती है। ऐसे कवि के चैथे संग्रह की हमें बेसब्री से प्रतीक्षा है। संतोष जी साधुवाद के पात्र हैं कि उन्होंने एक बार पुनः उनकी कविताओं से गुजरने और कुछ कहने का अवसर हमें दिया।

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  3. महेश जी ने इतना सटीक कमेन्ट दिया है कि अब कुछ कहने को छोड़ा ही नहीं.पाण्डेय की रचनाएं मुझे बहुत सहज और मन के करीब लगती हैं.खुद पाण्डेय जी बहुत सरल ,सहज,निश्छल इंसान हैं.उनकी कहानियों का इंतज़ार मुझे भी है.उनकी कलम ऐसे ही रचती रहे यही शुभकामनाएं... !संतोष जी शुक्रिया कि वर्चुअल स्पेस में भी पाण्डेय जी से मुलाक़ात कराई.
    महेश जी की लंबी और बहुत गंभीर टिप्पणी को को देखकर एक ख़याल आया है कि लेखक की रचना के साथ यदि आप इसी तरह की छोटी समीक्षात्मक टिप्पणी लेखक और रचना के बारे में भी दें तो प्रस्तुति और कामयाब और रोचक बन सकती है.

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  4. निःसंदेह हरीश चंद्र पाण्डेय हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं। पर यह दुर्भाग्य है कि उनकी कविता की उतनी चर्चा नहीं होती जिसकी वे हकदार हैं। यहाँ चर्चाएं भी प्रायोजित होती हैं। कैसे-कैसे छुटभैये कवि महान साबित कर दिए जाते हैं पर वास्तव में उनकी उपेक्षा कर दी जाती है जो इसके काबिल हैं।
    हरीश चंद्र पाण्डेय की कविताएं अपने कथ्य और शिल्प दोनों में बेजोड़ हैं । उनकी कविताएं आज की ढेर सारी कविताओं की तरह शुष्क गद्य नहीं हैं। एक सरसता उनकी कविताओं में मिलती है जो लगातार पाठक के दिल में उतरती चली जाती है। वे इस समय के बहुत बड़े कवि हैं। कृतित्व ही नहीं उनका व्यक्तित्व भी उनका विराट है। कविताओं की तरह उनकी कहानियाँ भी दिल को छूने होने वाली होती हैं। यह सब उनके सच्चे व्यक्तित्व का कमाल है।

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  5. हरीश चंद्र पाण्डेय मेरे प्रिय कवियों में हैं, कहूं कि मेरे "भीतर का कमरा"। साहित्य की गिरोहगर्द दुनिया का क्या कीजियेगा।

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  6. हरीश चंद्र पांडे की कविता ' पानी ' में ऐसा गहन तत्‍व-बोध है कि पढ़ते हुए बार-बार लोमहर्षक अनुभूतियां भींचती हैं। इस कविता पर अलग से कभी सविस्‍तार चर्चा होनी चाहिए। सबको उपलब्‍ध कराने के लिए 'पहली बार' का आभार...

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  7. मेरे प्रिय कवियों में से हरीश चन्द्र पाण्डे जी निर्विवाद रूप से किसी खेमे में फिट न बैठने वाले कवि हैं।ये मेरे साहित्यिक गुरू भी हैं। बैठक का कमरा नामक कविता एक लम्बी बहस की मंाग करती है। सरल शब्दों में गझिन बिम्बों से निर्मित यह कविता देखने में साधारण किन्तु है असाधारण एवं बेजोड़। किसके ताप व परिश्रम से गर्म गर्म चाय और लजीज खाना मिल रहा है। झक्क सफेद चादरों को चमकाने में किसका हाथ है कई सारे सवाल दागती दिखती है यह कविता। बात वही है कि दुनिया की सारी इमारतों को गरीब मजदूरों ने ही ही बनाया लेकिन उनकी नसिब में सिर्फ झुग्गी झोपड़ी ही रही हमेशा।
    इस कविता में बाहर का कमरा भी एक झॅॅूठी शान शौकत ही दिखाता है ।उसके भीतर वाले कमरे में कितनी गंध मची है कितनी तबाही मची है बाहर का कमरा उसे दबाए बैठा है। वैसे ही जैसे कुलीन वर्ग निम्न वर्ग को पावों तले दबा कर रखा है। और भारत को शाइनिंग इंडिया बनाने में लगा है। आमीन।
    सम्प्रति.प्रवक्ता.भूगोल राजकीय इण्टर कालेज गौमुख टिहरी गढवाल उत्तराखण्ड

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