सुरेन्द्र प्रजापति की कहानी 'बर्खास्तगी'


सुरेन्द्र प्रजापति



भारत की एक बड़ी समस्या भूमि बंटवारे की रही है। खेती की अधिकांश जमीनों पर वे काबिज हैं जो खेती नहीं करते। और जो खेती का काम करते हैं उनके पास वह जमीन ही नहीं, जिस पर परिश्रम कर वे अपनी रोजी अर्जित कर सकें। उदारवादी अर्थव्यवस्था की राह पर चल पड़ने के पश्चात दिक्कतें और बढ़ी हैं। पूंजीपतियों की नजर उन बचे खुचे खेतों पर है, जो उनके कमाई का साधन बन सकती है। खेत अब प्लॉट बन चुके हैं। पूंजीपति वर्ग जिसमें जमींदार भी शामिल हैं, अधिकाधिक कमाने के चक्कर में जुर्म ढाने में भी नहीं हिचकता। कारिन्दे नौकरी के चक्कर में उसकी हर बात मानने के लिए तत्पर रहते हैं। लेकिन जब एक बार जमीर जग जाता है तब फिर किसी को भी रोकना कठिन होता है। सुरेन्द्र प्रजापति ने इसी भावभूमि पर एक कहानी लिखी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुरेन्द्र प्रजापति की कहानी 'बर्खास्तगी'

 

'बर्खास्तगी'


सुरेन्द्र प्रजापति


     मुख्तार साहब बहुत ही अजीबोगरीब इंसान हैं। गाली दो तो खुश, इज्जत दो तो महाखुश। वे कभी भी स्वयं को उपेक्षा का पात्र न बनने दिया। जीते जागते इंसान की सूरत में वे विचित्र मानव हैं। कोई उन्हें गालियां दे, फटकारे, पछाड़े, वे सुस्त मिजाज हैं, उससे उन्हें कोई ताल्लुक नहीं। अपने काम में यंत्रवत लगे रहेंगे। कोई उन्हें इज्जत दे, सम्मान दे, पद-प्रतिष्ठा का पात्र बना दे, लेकिन उससे उन्हें न विशेष प्रसन्नता होता है और न ही विशेष आकर्षण। खरी-खोटी सुनाओ, वे सुनते रहेंगे चुप-चाप, मौन, गंभीर... देरों तक। कोई पार्टी में बुलावा आ जाए या शादी व्याह में निमंत्रण आ जाए वे चुपचाप चल देते हैं। और उसी तरह वे उत्सव में शरीक होते हैं जिस तरह एक भिखारी शांत-मन गंभीर एक ओर पड़ा रहता है, और आशा-निराशा के बवंडर में मौके की तलाश में रहता है कि कब उसके पात्र में भोजन मिले और वह वहाँ से खिसके।


       मुख्तार साहब मानव प्रेमी हैं। वे गरीबों और पीड़ितों का दिल दुखाना नहीं चाहते और न ही कोई विपदा की आह देखना चाहते हैं। वे वहाँ स्थिर रह नहीं पाएँगे। मार खाते हुए किसी बेवस और लाचार को बचाने की झमता उनमें नहीं है और न ही उनके करुण रुदन सुनने की हिम्मत। वे चल देंगे वहाँ से, चलो इस मुसीबत से गला तो छूटा। 


      मुख्तार साहव अपने मातहतों से बहुत डरते हैं। डरते हैं कि उनके चलते वे किसी भले इंसान को पीट न दें। फिर भी वे उनकी इज्जत करते हैं। क्योंकि वे उनके सीनियर अधिकारी हैं। रोजी-रोटी का सवाल है। साथ ही साथ वे उनसे उखड़े हुए रहते हैं, कारण कि वे लोग वजह-वेवजह किसी को क्यों पीटते हैं। लेकिन उनकी खासियत का एक रुख और भी है, वे गरम होते हैं या गुस्साते हैं तो बहुत देर से, और जब गुस्साते हैं तो ठंढा होने का नाम नहीं लेते। जैसे महाभारत का कृष्ण, शिशुपाल का एक सौ गाली सुन कर भी मौन रहे थे। और जब उस दुष्ट की गालियाँ एक सौ से भी पार होने लगीं तब श्रीकृष्ण ने गुस्से में आ कर शिशुपाल का वध कर दिया था। जैसे रेगिस्तान का रेत देर से गरम होता है और देर से ही ठंढा। वैसे ही मुख्तार साहब एक विचित्र इंसान थे।


      वे बंगले के मुख्तार हैं। तंदुरुस्त बदन, गोरा रंग, तन पर धोती कुर्ता, सिर पर टोपी, एक हाथ में छड़ी, दूसरे में एक मोटी सी फाइल। यही उनकी पहचान है।


      सुबह के दस बजे थे। मुख्तार साहब बंगले पहुंचे तो वहाँ का दृश्य कुछ और देखने को मिला। सभी नौकर चाकर, बैरे-बावरची लान में डरे सहमे हुए अवस्था में खड़े थे। बाबू साहब काफी गर्म थे। उनके सामने ही एक अधेड़ किस्म का आदमी, दुबला पतला शरीर, सिर नवाए भय से थर-थर काँप रहा था। सारा शरीर धूल से सना हुआ था। शरीर के किसी-किसी अंग से खून की बुँदे टपक रही थी। बाबू साहब हाथ मे छड़ी लिए लाल-लाल आँखो से उसे घूर रहे थे।


     “वर्षान्त के आखिरी समय में भी लगान देने से ना नुकर करते हो बेईमान, चांडाल, नीच कहीं का”। बाबु साहब गरज कर बोले-- "सारा फसल घर में सैंत कर गिड़गिड़ाते हो दुष्ट।"


      “कुछ भी नहीं हुआ है मालिक, सारा का सारा फसल मर गया माई बाप।" वह अधेड़, सा दिखने वाला व्यक्ति हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ा रहा था। 


      “गुंडा... चोर... बेईमान!!!” बाबू साहब गुस्से की अधिकता में फिर से उस निर्बल व्यक्ति पर खूंखार भेड़िए की तरह छड़ी बरसाने लगे तो वह निःसहाय, व्यक्ति दर्द से कराहने लगा। 


      “अब भौंहें चढ़ाता है कुत्ते, भाड़ भर पेट में निवाला चला गया कि बाप की जमीन हो गई।"


      मुख्तार साहब का हृदय दहल रहा था। वे वहाँ रुक नहीं सके, सीधे वहाँ से चल दिए। भय से सिहर उठे थे वे। लेकिन दिल ही दिल में वे बाबू साहब से काफी नाराज हुए। मन ही मन वे खुद को भी खुब कोसे। उनके शरीर में ताकत नहीं है। हट्टा-कट्टा शरीर ले कर भी चुपचाप सिर्फ ताकते रहे, कुछ कर न सके। उस दैत्य से उस निर्बल इंसान को बचा नहीं पाए। वे चाहते तो अपने एक ही करारी घुस्से से उस नीच का काम तमाम कर सकते थे। लेकिन मन मसोस कर रह जाना पड़ा। क्या करते नौकरी का ख्याल था। घर में बीबी बच्चे की चिंता थी। परिवार को खाने के लाले पड़ जाएंगे। 





       बाबू साहब की नजर मुख्तार साहब पर पड़ी तो जैसे उन्हें साँप सूंघ गया। बाबू साहब गरज कर बोले---”कम्वख्त, अभी तक क्या करता था ? पैर नहीं उठता था क्या?"


      “आ ही रहा था बाबू।" 


      “शटअप! चोरी कर के लौटते समय बिन रुके ही मिलों दौड़ कर साँस लोगे। यहाँ आते शर्म लगती है क्या? दुष्ट कहीं का।"


      शुरू में तो मुख्तार साहब सोचे यह गुस्सा उस व्यक्ति के लिए है, लेकिन जल्द ही ज्ञात हुआ कि बाबू साहब उससे भी सख्त नाराज हैं। 


      “मैं पूछता हूँ यह भोंद्दा क्या तेरा बाप दादा लगता है। पहले क्यों नहीं कहा था कि यह कमीना लगान नहीं देता है।" बाबू साहब गरजे।


      “बाबू सारी फसल तो नष्ट हो गई तो देगा कहाँ से?  मुख्तार साहब दबी जुबान से बोले।


      “चुप कुत्ते! हमसे मुँह लगाता है। चमड़ी उधेड़ दूँगा। जाओ, गोपाल से लगन वसूल लाओ।"


      “साहब उसका भी तो यही हाल है।" मुख्तार साहब साहस कर के बोले। 


      बाबू साहब गरजे---”जाता है या…..!"  वह लगभग मुख्तार साहब पर जैसे टूट पड़ा।


      मुख्तार साहब स्थिर खड़े रहे। उन्हें नौकरी चले जाने का गम नहीं था और न ही अपने पीटे जाने का डर। उन्हें बाबू साहब के मुख से निकले अपने प्रति अपमान और तिरस्कार का भी कोई परवाह नहीं था,  भय था, या चिंता थी, या दुःख था तो गोपाल के लिए। बेचारा गोपाल भी इस जानवर का शिकार बन जाएगा। 


      “कुत्ते जाता है या….!” बाबू साहब गुस्से में चीखते हुए बोले और डंडा संभाल लिए।


      मुख्तार साहब समझ गए कि यह जल्लाद मुझे भी छोड़ने वाला नहीं है। कहीं मार दिया तो इसका क्या जाता है, लेना का देना तो मुझे पड़ जाएगा। ये रईसजादा लोग हैं। मैं क्या कर सकता हूँ। हाँ, उल्टे मुझे ही मुसीबत उठानी पड़ेगी। घर में फिर बीबी-बच्चों का क्या होगा? और तो कोई उसका सहारा नहीं। फिर वे सड़कों पर मारे-मारे फिरेंगे। इसका क्या! पुलिस इसका, चोर गुंडा इसका, कोर्ट-कचहरी इसका, फिर कोई क्या बिगाड़ लेगा इन्हे। वे वहाँ से धीरे-धीरे चलने लगे।


      “जाओ, दौड़ कर जाओ नहीं तो…..।" बाबू साहब कड़क कर बोले और डंडा घुमाते हुए दो चार कदम आगे लपके। मुख्तार साहब सिर पर पाँव रख कर दौड़ लगा दिए। इस गति से जैसे बंदूक से गोली छूटती हो। वहाँ पर खड़े बैरे-बावर्ची आज पहली बार मुख्तार साहब को इतना तेज दौड़ते हुए देखे थे। सबको आश्चर्य हो रहा था कि वे इतना दौड़ कैसे रहे हैं।


      मुख्तार साहब जब रुके तो हाँफ रहे थे। उन्हें पता नहीं चला कि दौड़ते हुए कितनी दूर पहुँच गए। जाने कितनी देर खड़े रहने के बाद किसी अनजान शक्ति ने उन्हें आगे की ओर धकेलने लगा। उनके पाँव अपने आप आगे की ओर बढ़ने लगा। ऊपर खुले आसमान का सूरज सिर पर आ गया था। कड़ाके की धूप थी। सारी धरती परती परिकथा का केंद्र बनी हुई थी।  धरती आग के समान जल रही थी। गर्म हवा मानो चेहरे को झुलसा रहा था।


      मुख्तार साहब के एक पैर में जूते नहीं थे।


दौड़ते समय वह कहाँ फ़ेंकाया था, उसका उन्हें होश ही ही कहाँ, वे तो बस भागने में व्यस्त थे। दूसरे पैर का जूता सही सलामत था लेकिन यह सब देखने की कहाँ फुर्सत थी उन्हें। यह भी नहीं पता कि पैर किस दिशा में जा रहे हैं। समतल जमीन पर पड़ रहे हैं या पत्थरों पर। वे धीरे-धीरे भयभीत मुद्रा में, भविष्य की चिंता करते, शांत गंभीर मुद्रा में  बढ़ते जा रहे थे। ऐसे, जैसे कोई मनुष्य अपने कोई प्रिय बंधु का का दाह संस्कार कर के श्मशान घाट से लौट रहा हो। 





      फिर उन्हें चलते-चलते जैसे कुछ ख्याल आया, वे रुक गए। किधर जा रहे हैं, अपने घर या गोपाल के पास। उस जानवर ने क्या कहा था? लेकिन गोपाल क्या देगा? उसके पास देने को है भी क्या, सिवाय रोने गिड़गिड़ाने के। क्या उसका यों ही रोना कलपना उनके हृदय को आघात नहीं पहुँचाएगा? वे स्वयं ही उसके दुःखों को देख कर स्थिर रह सकेंगे? लेकिन जाएँ तो कहाँ। यह विचार आते ही वे सिहर उठे। वह भेड़िया घर पर भी आ धमकेगा, दूसरा नौकरी का भय है। यदि नौकरी चली गई तो फिर क्या होगा घर परिवार का। नन्हे-मुन्ने बच्चे का। चलूँ, देगा तो है नहीं लेकिन मिल लेने में क्या हर्ज है। 


      मुख्तार साहब इस प्रकार बढ़े जा रहे थे जैसे कोई मूर्ख राजा एक झोपड़ी के स्वामी से अनुदान मांगने जा रहा हो। जैसे एक नँगा किसी भूखे को लूटने जा रहा हो। जाते-जाते वे फिर ठिठके -----क्या यह इंसानियत होगी। मैं भी तो एक इंसान हूँ। फिर किसी से क्यों डरता हूँ। चाहे वे गवर्नर क्यों न हो, मुफ्त में तो रोटियाँ नहीं देता है। उसके क्रूर आदेशों का पालन कर मैं भी हत्यारा क्यों बनूँ। फिर तो मैं ठहरा झोपड़ी का मालिक और झोपड़ी वाले को ही अपनी नियति पर रुलाने चला हूँ। नहीं! नहीं!! मैं नहीं जाऊँगा। 


     एक झोपड़ी वाले का दूसरे झोपड़ी वाले के खिलाफ, महल का साथ देने में ही तो इन रईसजादों की कुर्सी टिकी हुई है। चाहे कुछ भी हो वो मार डाले या नौकरी से निकाल दे, परवाह नहीं। अब की बार वो ज्यादती किया तो उसकी खैर नहीं। सारे महकमें में खलबली मचा दूँगा। इसके बाद मुझे कुछ भी भुगतना पड़े। अब और उसकी हैवानियत की इबादत नहीं करूँगा। 


      वे दृढ़ निश्चय कर चुके थे कि अब वे गोपाल के घर नहीं जाएँगे और न ही वापस बंगले पर। अब वे सीधे अपने घर जाएँगे। फिर वे मुड़ कर अपने घर की ओर चल दिए। अब उनके अंदर आत्मचेतना की चिंगारी प्रज्वलित हो उठी। वे आत्माभिमान से फुले जा रहे हैं। अचानक उनकी नजर कुछ दूर जा कर स्थिर हो गया, और वे रुक गये। वहाँ दो आदमी एक बैल को जबरदस्ती लिए जा रहा था। बैल की स्वामिनी लगभग 60 वर्षीय एक बेवस वृद्ध महिला हाय-तौबा करते बैल के पीछे-पीछे दौड़ती चली जा रही थी। बदहवास रो रही थी, चिल्ला रही थी, याचना की भीख मांग रही थी-- ”मत ले जाओ इसे, दया करो,  दो दिनों से यह बीमार है, बढियां से खा पी नहीं रहा है। कहीं मर-मुर गया तो, आषाढ़ सिर पर है खेती कैसे होगी। मेरे पास यही एक सम्पति है।"


      वह वृद्ध महिला रो रही थी लेकिन इसका तनिक भी असर उन शैतानों पर नही हो रहा था। मुख्तार साहब पहचान गए। वह दोनों लठैत बाबू साहब का आदमी थे। एक ने गरज कर कहा---”चुप रह बुढ़िया, आखिर बैल दूसरों की जागीर में तो नहीं जा रहा है, अपने ही मालिक की सेवा में जा  रहा है न! इतना चिल्ला क्यों रही हो।"


     “ऐ बुढ़िया, यह तो बैल ही है, कोई तेरे घर का खजाना तो नहीं है न।" दूसरा बोला। 


      “जिसके पास महलों का सुख न हो तो उसके लिए एक बिल्ली भी काम की चीज होती है, बाबू।  मत ले जाओ इसे, मैं हाथ जोड़ती हूँ।" वह महिला घिघिया रही थी।


      “जा, जा… नहीं तो गला दबा दूँगा।" एक ने कर्कश आवाज में चेतावनी दिया।


      “तुम शैतान हो, जानवर हो, तुम्हारा मालिक नीच और चांडाल है जो गरीबों की पीड़ा को नहीं सुनता। मैं न ले जाने दूंगी, कभी नहीं।" वह वृद्ध महिला लड़खड़ाते कदमों से सामने आ कर खड़ी हो गई। एक ने अपने डंडे का भरपूर वार उसके सिर पर दे मारा। बुढ़िया दर्द से कराहती हुई पछाड़ खा कर गिर पड़ी। 


मुख्तार साहब यह देखे तो आग बबूला हो गए। गुस्से से तमतमा उठे वे। ऐसा लगा उन्हें जैसे उस बुढ़िया की करुण चीख ने उनके अंदर जोश का संचार कर दिया हो। वे पास जा कर एक के हाथ से लाठी झपट लिए और गुस्से में गरजते हुए बोले---”शर्म नहीं आती तुम्हें एक बेवा पर अपनी मर्दानगी दिखाते हुए। तुम्हारा मालिक क्या कहता है कि कब्र में पड़ा हुआ मृत इंसान भी उसके रोब पर पानी भरे। बैल तो यूँ ही बीमार है, जानवर कहीं का, ठीक हो तो ले जाना। जाओ अभी यहाँ से भागो, दया नाम की भी कोई चीज है कि नहीं तुम्हारे अंदर।"


      “मुख्तार साहब हम मालिक के आदेश के सामने कुछ भी नहीं सुनेंगे। किसी का डर नहीं। बैल तो ले ही जाएँगे। मुझे रोको मत नहीं तो बहुत बुरा होगा।" दूसरे ने जैसे मुख्तार साहब को चेतावनी देते हुए बोला। 


      “क्या बुरा होगा, यही न कि तुम हमें मारोगे तो मारो।" मुख्तार साहब भी अपनी जिद्द पर अड़ गए। और सामने आ कर ललकारने लगे।


      एक ने उन्हें धकेल दिया। मुख्तार साहब गिर पड़े। उनका सिर पत्थर से टकराया तो मानो आँख के सामने तारे नाच गए। दूसरे पल वे झटके से उठे और लाठी सम्हाल कर एक नपा तुला वार उस पर दे मारे। वह बिलबिला कर गिर पड़ा। दूसरा तन कर सामने आया तो मुख्तार साहब फिर सम्हले---”मैं कहता हूँ, नीच….चांडाल….।" मुख्तार साहब दहाड़ उठे। 





      “हरामी कहीं का….मैं नौकरी से निकलवा दूँगा, साला…डंडे तौलता है।" दूसरा पीड़ा और अपमान से चिल्लाते हुए बोला और मुख्तार साहब पर झपटा। 


      मुख्तार साहब तैयार मिले। स्थिति को भांपते हुए वे डंडे का एक और नपा तुला वार उस पर चला दिए। वह दर्द से चीखते हुए बोला---“कमीना, हरामी तेरी ये मजाल।" लेकिन मुख्तार साहब कब रुकने वाले थे, उन पर तो जैसे खून सवार हो गया था। जीवन में आज पहली बार गुस्सा हावी हुआ था उन पर। आज पहली बार उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी से निपटने के लिए डंडे श्रीमान का सहारा लिया था। और वह डंडा उनके हाथ में आते ही नागपाश बन गया था। डंडे के चार-चार, पाँच-पाँच वार में ही दोनों शूरमा धूल चाटने लगे । एक चीखते, गिड़गिड़ाते हुए बोला---"मुझे  छोड़ दो मुख्तार साहब, मैं बैल नहीं ले जाऊंगा, मुझे जाने दो।"


      मुख्तार साहब उसे घृणा से घूरने लगे मानो विषधर साँप अपने प्रतिद्वंदी को हरा कर उसे घूर कर देखता हो। गरज कर बोले---“जाओ, भागो दुष्ट कहीं का….भाग कर टेढ़ी नजर भी इधर मत करना।"


      दोनों सिर पर पाँव रख कर भागे। मानो सियार बाघ के मांद से अपनी जान बचा कर भागता हो। दोनों चले गए तो मुख्तार साहब बैल सहित उस बुढ़िया को उसके घर तक छोड़ आए, फिर अपने घर की ओर बढ़ने लगे। 


विजय गर्व से उनका सीना फूला जा रहा था लेकिन मन ने कहा---“अब…” मुख्तार साहब एक अज्ञात भय से काँप उठे ---अब क्या होगा। मेरी नौकरी का क्या होगा। वह अत्याचारी बाबू साहब से खूब बढ़ा-चढ़ा कर कान भरेगा। तब क्या मेरी नौकरी सही सलामत रह पाएगी। यह मैंने क्या कर डाला? क्या बुरा किया है, एक दीन, बेवस, बेवा और लाचार वृद्ध महिला का साथ दिया है क्या यह जुर्म है। नहीं! हृदय ने समझाया। अपने स्वार्थ में किसी पीटते हुए इंसान को बचाव करना मानवता है, कर्तव्य है। लेकिन जो भी किया उसका कसर तो वह कायर बंगले के बाबू जरूर निकलेगा। वह अपने स्वार्थ और अपमान के लिए कुछ भी कर सकता है। तब….


सच है मजलूमों का कराह ही उसका पनाह मात्र है। 


      जैसे तैसे वे अपने घर पहुँचे। दिन के दो कब के बज चुके थे। वे अपने कमरे में जा कर धम्म से चारपाई पर बैठ गए। कुछ देर बाद जैसे उन्हें कुछ होश आया। वे अपनी पत्नी को पुकार कर पानी मंगवाए। पत्नी लोटे में पानी ला कर रख दी तो वे मतवाले हाथी की तरह उठे और लोटे का सारा का सारा पानी एक ही साँस में डकार गए। फिर वे चारपाई पर ऐसे पसरे जैसे कोई लाश पड़ा तो।


      दूसरे सुबह जब उनकी पत्नी जगाने आई तब वे जगे। उनकी पत्नी से उन्हें जानकारी मिली कि कोई आदमी उन्हें बुला रहा है। वे घर से बाहर निकले तो उसी में एक आदमी खड़ा उन्हें घूर रहा था जो कल इनके पल्ले पड़ा तो। मुख्तार साहब कठोर आवाज में बोले---”अब क्या लेने आए ले।"


      “बंगले के बड़े बाबु आएँ हैं, आपको बुला रहे हैं।" उसने जबाब दिया।


      मुख्तार साहब कुछ सोचते हुए बोले---”तुम चलो, मैं तुरंत आ रहा हूँ।"


       “नहीं आपको मेरे साथ चलना होगा, अभी…।" वह दो टूक जबाब दिया।


      “मैं क्या कोई चोर उच्चका हूँ, जो भाग जाऊँ। मुख्तार साहब बिगड़ गए।


       “कुछ भी हो साथ-साथ बुलाएँ हैं।" 


       मुख्तार साहब बोले---”ठीक है मैं आता हूँ।" फिर वे अंदर गए और हाथ मुँह धो कर कपड़े पहने और बंगले को चल दिए।


       वे इस तरह चले जा रहे थे, जैसे कोई विद्यार्थी अपने कैरियर की सबसे कठिन परीक्षा देने जा रहा हो। उनके हृदय के अंदर कोई झूठ, फरेब नहीं है। आत्मा साफ है, न नौकरी चले जाने का दुःख है और न अपने पीटे जाने का भय। वे जैसे एक कुशल खिलाड़ी की तरह, पूरी तैयारी के साथ एक-एक कदम को नाप रहे हैं। वे आत्मविजय से फूले जा रहे हैं। यदि बंगले में उन्हें पराजय भी मिली तो भी वे गर्व से अपने अस्मिता, कर्तव्य और इंसानियत को तौलेंगे।


      मुख्तार साहब बंगले पहुँचे। बड़े बाबू साहब गेस्ट हाउस में आराम कुर्सी पर लेटे थे। मुख्तार साहब उन्हें सलाम कर एक ओर खड़े हो गये। 


       बाबू साहब ने उपेक्षा से मुख्तार साहब को देखा और व्यंग कसते हुए बोले---”मुख्तार साहब तुम्हें अपने काम मे लापरवाही बरतने और छोटे बाबू के साथ गलत तरीके से व्यवहार करने का आरोप है क्या ये सच है।"


       “नहीं साहब! आप चाहें तो अपने स्तर से इस प्रकरण की जांच पड़ताल करवा सकते हैं। यह झूठ है कि……!” मुख्तार साहब बस इतना ही कह पाएँ।


       “झुठ का ईनाम लो।" बड़े बाबू साहब कुटिल मुस्कान के साथ एक कागज उनके तरफ बढ़ा दिये और जैसे फैसला सुनाए---”तुम्हे नौकरी से बर्खास्त किया जाता है। कल ऑफिस आ कर हिसाब ले लेना।"


       मुख्तार साहब सुने तो सकते में आ गए, लेकिन अगले पल वे प्रसन्न दिखने लगे। चलो अब किसी की गुलामी तो नहीं करना पड़ेगा। इस वक्त उनके हाथ मे बर्खास्तगी का पत्र था और हृदयाकाश में गुलामी की पीड़ा से मुक्ति का पताका।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क


ग्राम-असनी, पोस्ट-बलिया

थाना-गुरारू, जिला-गया, बिहार

पिन न. 824205


ईमेल-surendraprar01@gmail.com

Mob. 7061821603

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