व्योमेश शुक्ल के कविता संग्रह पर नीतेश व्यास की समीक्षा 'अग्निसोमात्मकं जगत्'

 



बनारस का नाम लेते ही एक ऐसे शहर का अक्स हमारे जेहन में उभर कर सामने आता है जो आधुनिकता में भी पूरी तरह पारम्परिक है। धर्म, साहित्य, कला, संस्कृति की एक समृद्ध विरासत इस शहर के पास है। शहर के ही रहवासी कवि व्योमेश शुक्ल की हाल ही में एक पुस्तक प्रकाशित हुई है 'आग और पानी'। इस पुस्तक पर हमें एक समीक्षा लिख भेजी है नीतेश व्यास ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं व्योमेश शुक्ल की पुस्तक 'आग और पानी' पर नीतेश व्यास द्वारा लिखी गई समीक्षा 'अग्निसोमात्मकं जगत्'।



'अग्निसोमात्मकं जगत्'


नीतेश व्यास


यह सारा जगत् अग्नि और सोममय है। जो भी सूखा है वह अग्नि है जो भी तरल है वह सोम है। इस अर्थ मे व्योमेश शुक्ल द्वारा रचित यह बनारस पर एकाग्र गद्य आग और पानी के निरन्तर साहचर्य को रेखांकित करता है, साथ ही सृष्टि चक्र की ओर भी इंगित करता है। जीवन की तरह सृष्टि भी संतुलन रखती है।हर नया पुराना होने को आतुर और हर पुराना नया होना चाहता।आसीत् और भविष्यति को दोनों हाथों से पकड़े आस्ति पर स्थित है बनारस।


आग में भी एक शीतलता है। शीतलता में है आग, समुद्रव्यापी वडवानल इस बात का निदर्शन है। हो-हल्ले को समर्पित यह पुस्तक शोक और हर्ष के बीच एक पुल बनाती है जिस पर टहलता है अप्रतिम बनारस।


क्या बनारस की कोई प्रतिमा है? या प्रतिमाऐं है -खंडित, अखंडित, विखंडित, इन सब के बीच एक अक्षत प्रतिमा भी है जिसे बनारस में जन्मने वाला हर नया प्राणी प्राणवन्त करता है, अपनी एक एक सांस मिला कर।


भूतकाल से वर्तमान काल तक आवाजाही करता हुआ बनारस अनगितन मृत्यु-आकांक्षाओं को अपने कांधे पर ढोता हुआ भी सीधा चलता है, गलियां भले ही टेढ़ी-मेढ़ी हों गन्तव्य एक रेखीय है। चार दिन बनारस में और दो दिन इस पुस्तक के साथ बिताने वाला मैं, इस पुस्तक के माध्यम से ही उन संकरी गलियों तक फिर पहुंच पाया जहां कबीरचौरा या कबीर का घर है। बीच में कबीर का घर और चारों तरफ संगीतकारों, तबलावादको, गायकों के घर। पुस्तक के शब्दों में कहूं तो-

कवि और कविता की परिक्रमा करते हुए गायक, तबलावादक,नर्तक और सितारवादक। साहित्य और संगीत की ऐसी जुगलबंदी। जहां साहित्य के छन्द-अलंकार संगीत के छन्द-अलंकारों का श्रृंगार करते हैं। वे दो कहां है वे तो एक ही हैं या फिर एक ही मां के अंग-द्वय। कहा भी है सुभाषितरत्नभांडागारम् में

संगीतमपि साहित्यं सरस्वत्यास्तनद्वयं।

एकमापानमधुरमन्यदालोचनामृतम्।।

संगीत और साहित्य सरस्वती के दो स्तन हैं जिस एक से मधुर आनन्ददायी सत्व प्रकट होता है तो दूसरे से आलोचना रूपी अमृत। ऐसी ही साहित्य-संगीत-कलाओं की लीलास्थली है बनारस। जहां मृत्यु-राग के साथ सदैव ही जीवन-थाप भी चलती रहती है। कभी क्षणभर रागी विराम लेता तो संगतकार साज़ को ऊंचा उठाता, कभी लय-आलापों में झूमती राग संगत को कुछ विश्रान्ति देती। इन सब के बीच धूमिल होती गंगा की कान्ति की करुण-कथा भी है तो आग और पानी।

बनारस की बात चली है तो ग़ालिब का ज़िक्र क्यों न हो। 

'चरागे दैर' क्यूं कर दूर रहे 

सो वह भी चली आई।

अहा, क्या मस्नवी लिखी है ग़ालिब ने बनारस पर। वहां के हवा, पानी, जन-जीवन, लोगों का हिलमिल स्वभाव, प्रकृति के अनेक रंग हमें उस मस्नवी मे दीख पड़ते हैं। बनारस को हिन्दुस्तान का काबा कहने वाले ग़ालिब 108 फारसी छन्दों मे बनारस की स्तुति करते हैं। अपने दोस्त को एक पत्र में यहां तक लिखते हैं कि मन होता कि सब कुछ छोड़ कर जनेऊ पहन गंगा के घाट पर ही बैठा रहूं।

काशी प्राप्य विमुच्येत नान्यथा तीर्थकोटिभि: के भाव को अपने फारसी लहज़े में लपेटते हुए वे लिखते हैं-


ज़हे आसूदगी बख़्श-ए-रवांहा 

कि दाग़-ए-चश्म मी शूयद ज़ जांहा 


धन्य है 

धरती बनारस की 

जो हर इक 

आत्मा को 

शांति प्रदान करती है 

जो सारी आत्माओं से 

बुरी नज़रों के 

हर प्रभाव को 

धो डालती है 

हर बला को 

टालती है

(मूल फारसी से सादिक द्वारा अनुदित)


लेखक ने पुस्तक को मेले की संज्ञा भी दी है। ये कोई साधारण मेला नहीं, ऐसा मेला जिस में हर कोई गुम हो जाना चाहता है, खो जाना चाहता है इसके जादू में, बनारस में एक जादू है जो पकड़ते पकड़ते छूट जाता और छूटते छूटते कुछ रह जाता। मैं इस जादू को देखते हुए कहता हूं-


पुस्तक सजाती है मेला

करती है आमन्त्रित

डूबने को

कलावन्तों, संगीत-साधकों, साहित्यकारों की त्रिवेणी के साथ

चरखे पर झूलते जुलाहे-गीत

जो गडरिये-गीतों से मेल खाते

तो कभी निकल जाते कुछ आगे

बकरियां कहीं नहीं गुम होती

उन्हें पता है

किस पेड़ की छांव मे लेटा है मालिक

वे लौटने का पता जानती हैं


जीवन और मृत्यु का सह-नर्तन या संवाद आप बनारस में देख सकते। मुझे फिल्म 'मसान' याद आती है, याद आते हैं डोमराजा।सारी सारी अतिरंजनाऐं, अतियों से भी परे का अतीत कालातीत।


अतियों के ताने-बाने से

बुना गया असंभव शहर

जहां जीवन और मृत्यु साथ-साथ

बैठकर एक ही थाली में

भोग लगाते हैं

दोनों के हाथ कभी नहीं धुलते

वे जूठे हाथ लिए

बनारस के घाटों और गलियों मे टहलते हैं

अतीत के गमछे से मुंह पोंछते

काल का बीड़ा मुखवास होता

महाकाल उपवास 


चलते-चलते पंक्ति पकड़ती है, मै ठहरता हूं-पानी माया है,उसे आगे ले जाना चाहता पर कहां:


पानी माया है

माया मन है

मन ही है पानी 

मन कस्तुरी रे

जग दस्तूरी रे

बात हुई ना पूरी रे...


इन सब के बीच एक तड़प गंगा की भी, जिसे एक कलाप्रेमी कैसे अनसुना कर सकता। नगरों की बसावट और जनसंख्या के बढ़ते सम्मर्द ने नदियों को कितना आहत किया है। अगर नदी बोल सकती, वह रो सकती तो एक खार धरती पर ऐसा छाता कि नमक फीका हो जाता। बनारस की जीवनधारा गंगा की पीड़ा को लेखक ने सिर उठा कर रेखांकित किया है। सरकारों के कागज़ी प्रयत्नों को आइना दिखाते हुए नदी किनारे बसे नगरों को यह हिदायत भी दी है कि वे मल-विष्ठा का उत्सर्जन नदियों में न करे, तब वे ऐसा सोचें के नदी है ही नहीं। है को ही नहीं मान कर बढ़ता हुआ उत्सर्जन किस विकरालता तक जाएगा, जिसे पीढ़ियां भुगतेंगी। गंगा में शव-विसर्जन की खबरें कुछ माह पूर्व जोर-शोर से आ रही थी। कभी इस तट पर शव तैरते दिखते तो कभी उस तीर, कलुषित गंगा-नीर जबकि गंगा से ही है बनारस, गंगा गयी कि गये विश्वनाथ,पीछे-पीछे सारे देवता, शव ही शव तैरते दीखते। 

दूर-दूर तक जल-दाग, घुले हुए शव

*दरस, परस, मज्जन अरु पाना* को भूल कर दुर्दशा दुर्दशा

लेखक की पीड़ा में अपनी पीड़ा घोलता हूं  कुछ पंक्तियां बोलता हूं-


अस्थि-विसर्जन कर के 

कितने फूल उगाए इसमें

इस जल को दूषित कर-कर के

शूल चुभाए कितने

मातृ-नदी मृत-नदी बन गयी

अब तो आंखें खोलो

गंगा में शव घोलो


बिकी थी जब भूमि

तब क्या जल भी बेचा था हमने

बिकी थी जब वायु

उसका स्पर्श भी बेचा हमने

तेज बेच कर सूरज का

फिर बल्ब जलाया हमने

बिका था जब आकाश तो

घर घर दीप जलाया हमने

दीप बन गया अग्निकांड अब

अब तो चैन से सो लो 

गंगा में शव घोलो


सबसे पहले पाप थे घोले

मल-मूत्र और विष्ठा

फिर घोले कैमिकल सारे

कहां गयी तब निष्ठा


जिन नदियों ने पाला

संस्कृतियों के रूप को ढ़ाला

जिन नदियों के तटबंधों पर

पी जीवन की हाला

कंठाभरण भूमि की

और हिम-शैलराज की बाला

कैसे उन माओं का हमने

चीरहरण कर डाला

देखो अब तांडव प्रकृति का

मन-मरघट पर रो लो

गंगा में शव घोलो


सरक सरक सरकारें देती

एक दूजे को आसन

ऐसे ही चल रहा आज कल

राम राज्य में शासन

महलों वाले लूट ले गये

झोंपड़ियों का राशन

और सिखानें चले हैं मूऐं

जीवन का अनुशासन


वाम और दक्षिण, लिबरल सब

मिल कर जय जय बोलो

गंगा में शव घोलो


भारतीय मनीषा के अनेक तत्व-चिन्तकों, दार्शनिकों, कवियों, सन्तों, संगीतज्ञों की उपजाऊ भूमि रहा है बनारस। कला का कोई आयाम इससे अछूता नहीं। शास्त्र का कोई भी पक्ष नही अस्पृश्य। मानो कला की देवी ने अपने प्रथम-निवास के रूप में कैलासवासी के आवास को ही चुना। कबीर, तुलसी, भारतेन्दु, प्रेमचन्द, उस्ताद बिस्मिल्लाह खां, पंडित किशन महाराज।


व्योमेश शुक्ल


मदनमोहन मालवीय के सम्पर्क मे रहने वाली ऐनी बेसेंट की मान्यताएं भी हिन्दू धर्म और शास्त्रों के प्रति मालवीय जी से भी बढ़ कर थी। किसी प्रश्न पर अटकने पर वे यही कहती कि -शास्त्रों मे इस बारे में क्या लिखा है।


एक तरफ लोक का रंग दूसरी तरफ शास्त्र का ढंग लिए बनारस अपने बुढ़ापे में भी सदा आदरणीय है। जैसे कहा है-


विद्या शस्त्रे च शास्त्रे च द्वे विद्ये प्रतिपत्तये।

आद्या हास्याय वृद्धत्वे द्वितीयाऽद्रीयते सदा।।


संकटमोचिनी शहनाई मे अपनी सांसें भरते हुए बिस्मिल्लाह हो जाते रहमानो रहीम, मां गंगा और बाबा विश्वनाथ की गोद खिलय्या यह बूढ़ा यूं ही नहीं बन गया गंगा जमनी तहजीब का मर्कज़। संगीत के चार मतों में एक मत हनुमान जी का भी है।


संगीत जिनके लिए इबादत है ऐसे अनेक उस्तादों को गंगा मैय्या ने अपने पालने झुलाया है। कुछ स्व-विस्थापित हो गये कुछ स्थगित, कुछ हुए संस्थापित अपनी पुरातनता के साथ ऐसे बिस्मिल्लाह खां जिनकी शहनाई मन्दिर के नौबतखाने से संसार के ख़ानेखानाओं तक पहुंची, हजार मन्नतों और आग्रहों के बाद भी अपनी जड़ों को नहीं छोड़ा। उन्होंने और उनके शिष्यों ने अपने जीवन की अनगिनत सासों की मालाऐं शहनाई को चढ़ाई।क्या शहनाई के हर स्वर मे नहीं टीसती फेफड़ों की आत्मा?


पुस्तक के मध्य में अनायास मृत्यु की बात आती है। वाक्य है-यदि हर चीज़ का अन्त है तो मृत्यु का भी होगा। मृत्यु शोक से परे जाने का यही मार्ग है। कोरोना काल मे अकाल-मृत्यु का ग्रास बन रही आर्त मनुष्यता की पुकार, अकाल मृत्यु को संबोधित एक कविता लिखी, जिसकी अन्तिम पंक्तियां थी-


एक दिन ऐसा आएगा जब सृष्टि का अवसान भी होगा

महाकाल के जबड़ों मे तेरे हिस्से का काल भी होगा

उस दिन बडी व्यथित होगी तू

फिर भी मनु स्मित ही दिखेगा।।


पुस्तक का मध्य भाग संगीत साधकों के जीवन चरित्र से हमारा परिचय करवाता है। बनारस की घनी-धनी सांगीतिक परम्परा जिसमें गीत और वाद्य विषयक दो संगीतांगों के ऐसे ऐसे साधक जिन्होंने अंधेरी कोठरियों मे बैठ कर अठारह अठारह घंटों तक रियाज़ किया और जब थक कर रुके तो अभ्यास को सोचते हुए पुनः तानों और पलटों और चक्रधार तिहाइयों, रागों की अपरिचित वीथियों में निकल पड़े, जब होश‌ आता तो कोई ओर ही उन्हें उठा कर घर ले जाता, निष्कलुष स्वर को साधने तथा ताल के शुद्ध रूप को खोजने वाले साधकों की गलियों में आज भी उनके अभ्यास सूनी रात्रियों में बजते होंगे, वे कान कहां हैं?


सारा जगत् ही रामलीला है पर बनारस की रामलीला जो अतीत से चली आ रही उसकी अपनी परम्परा है, मानक हैं उसके भिन्न, यही बनारस की अभिन्नता है कि पांच वक्त का नमाज़ी संकटमोचन में साधनारत है तो ऐसा ही दूसरा राम जी और हनुमान जी के वस्त्रों की सज्जा में दत्तचित्त।


आज भी वहां सब लोग 'हम राम जी के राम जी हमारे' के भाव से देखते हैं रामलीला। अजान और चौपाई का सम्मिलित स्वर खटकता है सत्ता के कानों में।


गंगा अपने इतिहास और वर्तमान के साथ मिल कर लेखक की स्मृति मे रचती है एक स्मार्त-गंगा, विचार की नौका पर आरूढ़ लेखक गगन-विहारी हो कर आर-पार होता रहता। वह कागज़ पर गंगा शब्द लिखता है और सुबह तक वह कागज़ पेड़ हुआ जाता है, नये में पुराने होने की तलब का नाम भी है आग और पानी। गद्य की बहुत महीन पकड़ कविता की एक अन्तर्धारा अचानक गद्य-मृतिका से फूट पड़ती। रामलीला के मृदंग को ढ़ोता हुआ किसी व्यक्ति का कंधा अनायास एक चरित्र बन जाता। वहां लेखक का कवि बोलता है-


एक मूर्तिमान स्वरूप। मानस की पंक्तियों के गान में उस कंधे का आकार है। मैं उस सज्जन को करीब बीस साल से जानता हूं लेकिन उसके कंधे को कितना जानता हूं? कोई भी उस कंधे को कितना जानता है? आदि पंक्तियां समाप्त होती है। पंक्ति आती है-परम्परा अक्सर ऐसी ही मुश्किल है। यहां याद आती है विनोद कुमार शुक्ल की कविता हताशा से एक आदमी बैठ गया था...


लेखक जिस कंधे की बात कर रहा है कहीं वो इसी सनातन मनुष्यता का आदिम स्कन्ध तो नही?


इसी प्रकार भारतेन्दु, संकटमोचन संगीत समारोह, प्रेमचंद से आवारगी तक के सारे आख्यान एक वैराट्य को निज मे समोते हुए हमारे पास आते हैं। संकेतों, इंगित-इशारों में भी बहुत कुछ अलिखा पढ़ा जा सकता। अथ से भी पूर्व अनादि शहर की कथा 124 पन्नों मे इति कैसे हो सकती। यह तो बनारस की प्रस्तावना है। सतत लिखे जा रहे महोपन्यास का आमुख या अनादि काल से चले आ रहे महानाटक की पूर्वपीठिका जिसके पात्र अभी नैपथ्य-गृह में सज्ज हो रहे हैं।



नीतेश व्यास



सम्पर्क 


मोबाइल - 9829831299





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