धूमिल की कविताएं
धूमिल की कविताएं
अकाल-दर्शन
भूख कौन उपजाता है :
वह इरादा जो तरह देता है
या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँध कर
हमें घास की सट्टी में छोड़ आती है?
उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर
नहीं दिया।
उसने गलियों और सड़कों और घरों में
बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया
और हँसने लगा।
मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा—
'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं'
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खा कर, खाने के लिए
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे
हमें बसंत बुनने में मदद देते हैं।
लेकिन यही वे भूलते हैं
दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं
हमारे अपराध फूलते हैं
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
नहीं दिया और हँसता रहा—हँसता रहा—हँसता रहा
फिर जल्दी से हाथ छुड़ा कर
'जनता के हित में' स्थानांतरित
हो गया।
मैंने ख़ुद को समझाया—यार!
उस जगह ख़ाली हाथ जाने से इस तरह
क्यों झिझकते हो?
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है?
तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की
सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।
और सहसा मैंने पाया कि मैं ख़ुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हूँ और
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
जो आज़ादी और गाँधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्सा ले रहे हैं और
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।
मैंने जब भी उनसे कहा कि देश शासन और राशन...
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर वे मुझे अपराध के असली मुक़ाम पर
अँगुली रखने से मना करते हैं।
जिनका आधे से ज़्यादा शरीर
भेड़ियों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं—
'भारतवर्ष नदियों का देश है।'
बेशक यह ख़्याल ही उनका हत्यारा है।
यह दूसरी बात है कि इस बार
उन्हें पानी ने मारा है।
मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।
अनाज में छिपे 'उस आदमी' की नीयत
नहीं समझते
जो पूरे समुदाय से
अपनी ग़िज़ा वसूल करता है—
कभी 'गाय' से
और कभी 'हाय' से
'यह सब कैसे होता है' मैं उन्हें समझाता हूँ
मैं उन्हें समझाता हूँ—
यह कौन-सा प्रजातांत्रिक नुस्ख़ा है
कि जिस उम्र में
मेरी माँ का चेहरा
झुर्रियों की झोली बन गया है
उसी उम्र की मेरी पड़ोस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।
वे चुपचाप सुनते हैं।
उनकी आँखों में विरक्ति है;
पछतावा है;
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलता।
वे इस कदर पस्त हैं :
कि तटस्थ हैं।
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूँजी है।
क्रांति—
यहाँ के असंग लोगों के लिए
किसी अबोध बच्चे के—
हाथों की जूजी है।
कैथर कला की औरतें
तीज-व्रत रखतीं धान-पिसान करती थीं
ग़रीब की बीवी
गाँव भर की भाभी होती थीं
कैथरकला की औरतें
गाली-मार ख़ून पीकर सहती थीं
काला अच्छर
भैंस बराबर समझती थीं
लाल पगड़ी देखकर घर में
छिप जाती थीं
चूड़ियाँ पहनती थीं
ओठ सीकर रहती थीं
कैथरकला की औरतें
जुल्म बढ़ रहा था
ग़रीब-गुरबा एकजुट हो रहे थे
बग़ावत की लहर आ गई थी
इसी बीच एक दिन
नक्सलियों की धर-पकड़ करने आई
पुलिस से भिड़ गईं
कैथरकला की औरतें
अरे, क्या हुआ? क्या हुआ?
इतनी सीधी थीं गऊ जैसी
इस क़दर अबला थीं
कैसे बंदूक़ें छीन लीं
पुलिस को भगा दिया कैसे?
क्या से क्या हो गई
कैथरकला की औरतें?
यह तो बग़ावत है
राम-राम, घोर कलिजुग आ गया
औरत और लड़ाई?
उसी देश में जहाँ भरी सभा में
द्रौपदी का चीर खींच लिया गया
सारे महारथी चुप रहे
उसी देश में
मर्द की शान के ख़िलाफ़ यह ज़ुर्रत?
ख़ैर, यह जो अभी-अभी
कैथरकला में छोटा-सा महाभारत
लड़ा गया और जिसमें
ग़रीब मर्दों के कंधे से कंधा
मिला कर
लड़ी थीं कैथरकला की औरतें
इसे याद रखें
वे जो इतिहास को बदलना चाहते हैं
और वे भी
जो इसे पीछे मोड़ना चाहते हैं
इसे याद रखें
क्योंकि आने वाले समय में
जब किसी पर ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं
की जा सकेगी
और जब सब लोग आज़ाद होंगे
और ख़ुशहाल
तब सम्मानित
किया जाएगा जिन्हें
स्वतंत्रता की ओर से
उनकी पहली क़तार में
होंगी
कैथर कला की औरतें
हे भले आदमियों
डबाडबा गई है तारों-भरी
शरद से पहले की यह
अँधेरी नम
रात।
उतर रही है नींद
सपनों के पंख फैलाए
छोटे-मोटे हजार दुखों से
जर्जर पंख फैलाए
उतर रही है नींद
हत्यारों के भी सिरहाने।
हे भले आदमियों!
कब जागोगे
और हथियारों को
बेमतलब बना दोगे?
हे भले आदमियों!
सपने भी सुखी और
आज़ाद होना चाहते हैं।
समाजवाद
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई
हाथी से आई, घोड़ा से आई
अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...
नोटवा से आई, बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...
गाँधी से आई, आँधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...
काँगरेस से आई, जनता से आई
झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...
डालर से आई, रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...
वादा से आई, लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...
लाठी से आई, गोली से आई
लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...
महंगी ले आई, ग़रीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...
छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन
बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...
परसों ले आई, बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...
धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई
अँखियन पर परदा लगाई
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई
तुम्हें डर है
हज़ार साल पुराना है उनका गुस्सा
हज़ार साल पुरानी है उनकी नफ़रत
मैं तो सिर्फ़
उनके बिखरे हुए शब्दों को
लय और तुक के साथ लौटा रहा हूँ
मगर तुम्हें डर है कि
आग भड़का रहा हूँ
उनका डर
वे डरते हैं
किस चीज़ से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और ग़रीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे।
युग की नब्ज़ धरो
अफ़रीका, लातिन अमेरिका
उत्पीड़ित हर अंग एशिया
आदमखोरों की निगाह में
खंजर-सी उतरो!
जन-मन के विशाल सागर में
फैल प्रबल झंझा के स्वर में
चरण-चरण विप्लव की गति दो
लय-लय प्रलय करो!
श्रम की भट्ठी में गल-गल कर
जग के मुक्ति-चित्र में ढलकर
बन स्वच्छंद सर्वहारा के
ध्वज के संग लहरो!
शोषण छल-छंदों के गढ़ पर
टूट पडो नफ़रत सुलगा कर
क्रुद्ध अमन के राग, युद्ध के
पन्नों से गुज़रो!
उलटे अर्थ विधान तोड़ दो
शब्दों से बारूद जोड़ दो
अक्षर-अक्षर पंक्ति-पंक्ति को
छापामार करो!
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