नितेश व्यास का आलेख 'इरफ़ान : रूहदार नहीं मरा करते'

 



इरफ़ान, यही तो सीधा सादा परिचय था उस अभिनता का जो अपनी अदा से अपने करोड़ों प्रशंसकों के दिलों पर राज करता था। रोजमर्रा में जीने के हम कुछ ऐसे आदी होते हैं, कि भूल जाते हैं कि यह दुनिया फानी है। कौन जानता था कि हमारा प्रिय नायक ऐसी बीमारी से जूझ रहा है, जिसमें जीवन को अन्ततः पराजय स्वीकार ही करना पड़ता है। इरफान फिल्म व टेलीविजन दोनों क्षेत्रों के एक बेहतरीन अभिनेता थे। उन्होने 'द वारियर', 'मकबूल', 'हासिल', 'द नेमसेक', 'रोग' जैसी फिल्मों मे अपने अभिनय का लोहा मनवाया। 'हासिल' फिल्म के लिये उन्हे वर्ष 2004 का फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ खलनायक पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। बालीवुड ही नहीं हॉलीवुड मे भी इरफान ने अपने अभिनय का लोहा मनवाया। वह 'ए माइटी हार्ट', 'स्लमडॉग मिलियनेयर', 'लाइफ ऑफ़ पाई' और 'द अमेजिंग स्पाइडर मैन' फिल्मों मे भी काम कर चुके हैं। 2011 में उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया। साठवें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 2012 में इरफ़ान को फिल्म 'पान सिंह तोम'र में अभिनय के लिए श्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार दिया गया। सन 2017 में प्रदर्शित 'हिंदी मीडियम' फिल्म के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता चुना गया। 2020 में प्रदर्शित 'अंग्रेज़ी मीडियम' उनकी प्रदर्शित अंतिम फ़िल्म साबित हुई। 29 अप्रैल 2020 को इरफान का निधन हो गया। अजय ब्रह्मात्मज ने इरफान पर बड़ी आत्मीयता से एक किताब लिखी है 'इरफ़ान ...और कुछ पन्ने कोरे रह गए'। नितेश व्यास ने पहली बार के लिए इस किताब की एक समीक्षा लिख भेजी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं नितेश व्यास का आलेख 'इरफ़ान : रूहदार नहीं मरा करते'।




इरफ़ान : रूहदार नहीं मरा करते



नितेश व्यास 



यूं तो हम सभी ब्रह्म के आत्मज या सन्तानें है लेकिन जिनका नाम ही है अजय ब्रह्मात्मज, नामोच्चरण से ही परमात्मा के श्रेष्ठ-सृजन मनुष्य मात्र की सौरभ अनायास ही नासा-रन्ध्रों मे भर उठती और फिर उनकी मित्रता इरफ़ान से। जिनके नाम का अर्थ मैने रेख़्ता शब्द-कोश मे देखा तो पाया इसका अर्थ है ब्रह्मज्ञान, विज़डम, ज्ञान। और भी सूक्ष्मता से देखें तो आत्म-ज्ञान। ब्रह्मात्मज ही जब आत्म-ज्ञान के विषय में कुछ लिखे या उसके कहने भर से कोई इरफ़ानियत से सराबोर भाव-रसिक अपनी स्वयं की प्यास के बारे में लिखे तो वो लेखन किस श्रेणी का होगा? इसे आप 'इरफ़ान ...और कुछ पन्ने कोरे रह गए' पुस्तक को पढ़-समझ कर ही जान सकते हैं। इरफ़ान स्वयं एक प्यासी रुह से इस दुनिया-ए-फ़ानी में आए और जाते हुए जो विरासत छोड़ गये वह भी एक कांटा-प्यास ही है। अपने होने में न होने की प्यास और अपने न होने में होने की प्यासी चुभन जो किसी विश्वास की तरह हम चाहने वालों के सीने में दफ़न हो गयी। रुह की बेचैनी ऐसी कि ग़ालिब का एक शेर याद आता है।



अल्लाह रे ज़ौके दश्तनवर्दी कि बादे मर्ग़

हिलते हैं खुद ब ख़ुद मेरे अन्दर कफ़न के पांव



अभी यह किताब शुरु ही हुई थी लगा कि हर एक पन्ना प्यासी धरती-सा जो मेरे नेत्र-वारिधि से नीर लिये बिना उसे आगे न बढ़ने दे। इरफ़ान का चेहरा और उनकी आवाज़ की खनक कभी उनके लिखे पत्र से हो कर तो कभी साक्षात्कार के उत्तरों से हो कर कानों मे रस घोलती।



उनकी उपस्थिति तो पहले भी न थी मेरे आस-पास, लेकिन कहीं  तो थी जो कभी चलचित्र के माध्यम से मुझ में सचित्र होती थी। अब आगे उसका भी अभाव रहेगा, लेकिन अभाव की व्याप्ति इतनी बड़ी कि विश्व-पटल भी ससीम लगता, उस असीमता के बरक्स। हम सब किसी के सुख-दुःख  में अपना सुख-दुःख खोज ही लेते। किसी चहेते का बीच मे से उठ कर यूं चले जाना, हमारे भीतर भी कुछ तोड़ जाता। एक रिक्तता जो हवा की तरह सांय सांय बजती, परावर्तित होते कुछ शब्द-चित्र। आत्मा का एकान्त सघन होता, देह के एकान्त में स्मृतियों के कंकरों से उठती हिलोर, शोर नहीं कुछ ओर, पर क्या...? जिसे लिखने में हाथ असमर्थता जताते, स्मृतियां उसकी उपस्थिति को तो दर्शाती पर आंखें उसे आस-पास खोजती। उसे नहीं पा कर विह्वल हो जाती तरसती-बरसती भिगोती पन्नों को जो भरे-भरे हो कर भी लगते कोरे-कोरे। इन्हीं कोरे पन्नों को समेट अजय भाई ने आंसुओं की लेई से ज़िल्द चढ़ा एक किताब की शक्ल दी। नाम दिया 'इरफ़ान ...और कुछ पन्ने कोरे रह गये'।



पढ़ना भी स्वयं को मथना है मन्थन मानस-वारिधि का, मन्थन आत्म-सरित् का। मथने से कुछ नया तो प्रकट होता ही है। अमृत हो तो देव-दानव दोनों उस पर झपटते। अगरचे हो विष तो भोलेनाथ ही उसे धर पाते कंठ में। पुस्तक पढ़ते हुए मुझमें जो मथीजा उसका उपसंहार यहां चढ़ा रहा। यह किसी और के लिये हो ना हो मेरे, इरफ़ान और अजय भाई के बीच का वह सेतु तो है ही जिस पर चल-टहल मैं इरफ़ान के ओर निकट और इरफ़ानियत के ओर भीतर तक उतर पाया।



जौन एलिया के एक शेर से इस बात अधूरा छोड़ता हूं कि



रुह प्यासी कहां से आती है

ये उदासी कहां से आती है

तू है पहलू मे फिर तेरी खुशबू

हो के बासी कहां से आती है।।




इरफ़ान : रूहदार नहीं मरा करते


किसी की जिजीविषा

इतनी तीव्र कि

जलने लगे ईश्वर के पंख


इरफ़ान

तुम्हारे पंख मांगता है

मेरा ईश्वर


..............


तुम्हें अपने फ्लैट के सामने

नही थी पसन्द कोई बिल्डिंग या बस्ती

जैसे

तुम्हारे चाहने वालों को अपने सामने

हर किरदार में पसन्द थे

तुम ही


..............



अधूरी मुलाकातें

कोरे पन्ने

खुला आकाश

स्थिर झूला

या फिर समन्दर

कहीं तो है तुम्हारी उपस्थिति



अनुपस्थिति ने

ओर भी गहरा किया है तुम्हारे होने को


..............


तुम्हारी मुस्कान...

यात्राएं

हर्ष है

ना कि संघर्ष

वह जीवन की हो या अभिनय की


..............



हज़ारों पुरस्कार

करोड़ों तालियों के बोझ तले

दब जाती होगी

जब तुम्हारी आत्मा

तब तुम

बस एक पवित्र तारीफ का

सहारा ले कर

उबार लेते होगे खुद को-


उसने तुमसे हाथ भी नहीं मिलाया

कहा सिर्फ इतना कि

पान सिंह तोमर ने मेरा जीवन बदल दिया

कितने गद-गद थे तुम



एक पवित्र-तारीफ

मेरे पास भी सुरक्षित है तुम्हारी

मेरे रुहदार


..............



संध्या-छाया में

सुरेखा सीकरी का अभिनय देख कर

अभिभूत  तुमने

पकड़ लिए उनके पांव

रोए भी थे

तुम्हारे हर किरदार के

पांव पकड़ कर रोया हूं मैं भी

जीवन के अभिनय में

हे सहस्रपाद

कुछ गीले तो हुए होंगे तुम्हारे पांव


..............



टकराहट और कोलाहल अवश्यम्भावी है

बाहर कुछ टकराता

तो भीतर उठता कोलाहल

बाहर के कोलाहल से भी

भीतर

खुद ही से होता रहता रोज़ टकरावए

तुम कला के अर्श पर

फर्श पर मैं

दृश्यों में तुम (अनुस्यूत) 

हूं शब्दों पर (आश्रित) 

कोलाहल मेरा प्रातराहार

टकराहट रात्रि-भोज


..............



चौंकता हूं मै भी

हर रोज़

जीवन को देख

जैसे तुम अपने ही सीन को देख

जीवन मुझे चोंकाता है

अनायास कल बीस-पचीस तोते

एक साथ दिख गये

खड़ी पांत में

उनका सामुहिक रव

फूलों का रंग

धूप जो आकृतियां बनाती

कभी सवेरा

तो कभी भौंचक  सांझ

मुझ तक आती, कहती

मनुष्य हो...

अचम्भा है


..............



तेरी आंखों के सिवा....


जिसने भी देखा

आंखों में देखा

जिसको भी देखा

आंखों में देखा

देखने ही मे तो है जीवन

पूरी देह... केवल आंखें, 

देहाक्षि

मृत्यु ने देखा

तुम्हारी आंखों में किसी प्रेयसी की तरह

पागल-प्रेमी से

सब कुछ छोड़ चल दिए उसके साथ

एक जोड़ी आंखें

हो गयी सहस्राक्ष

अनन्त.वाचक है सहस्र शब्द


..............


अजय ब्रह्मात्मज



साहिबज़ादा इरफान अली ख़ान


जैसे कोई संन्यास ग्रहण से पूर्व

त्यागता है अपनी उपाधियां

तुमने छोड़ा साहिबज़ादा

और पहुंचे जयपुर से दिल्ली



जैसे त्यागता अपना धर्म

तुमने नाम में कम किया अली

और पहुंचे दिल्ली से मुम्बई



जैस छूटता गोत्र

छूट गया ख़ान भी पीछे कहीं

रह गया एक ही नाम

इरफ़ान

आत्मज्ञान का वाचक एक शब्द

स्वयं को खोजने की प्रक्रिया में

वह शब्द भी

घुल गया आकाश में


.............



सुतपा से हुए इरफ़ान

श्रेष्ठ तपस्या ने पाया आत्मज्ञान


.............



डिफिकल्ट

अंग्रेजी का छोटा सा शब्द

बड़ी मुसीबत

तुम नहीं बोल पाए वह शब्द

वह मुस्कुराया, बोला-

क्या कभी सुना नही यह वर्ड

तुमने कहा-

अगर यह सुना होता तो अभी तक समोसे ही तल रहा होता

मैं वही सुनता हूं जिससे मेरे इरादे मजबूत हों



एक साधारण विज्ञापन से

जो जीवन का फ़लसफ़ा दे जाए

उस पर क्यूं ना विश्व के युवा

वारी-बलिहारी जाए


.............



खस्ता मजे का खोजी

रिवायतों का निगेहबां... इरफ़ान

आम आदमी की सच्चाई, उसके भरोसे को

शब्द देता विज्ञापन-वाक्य

तुम्हारे जीवन-दर्शन को समझने में

किसी बड़ी किताब-सा

मायने रखता है



अपने आनन्द के लिए

जिसमें रहो तुम बन्धनों से मुक्त

किरदार जो पहले तुम्हें भरे

खाली करे तुमसे

उसी को अपनाते हुए

परकायाप्रवेश से दीक्षित

कायान्तरणों की एक लम्बी परम्परा के बावजूद भी

तुम्हारी स्फटिक-चेतना

निष्कलुष रही अन्त तक

मानो

ज्यूं की त्यूं धर दीनी चदरिया...


.............



करीब करीब सिंगल

बाहरी दुनिया के जितने करीब

अपने भीतर उतने ही सिंगल



वो जो था ख्वाब सा

वो रहें कि जाने दें

ये जो हे कम से कम...



याद... 

इसको तो हमारे पास ही रहने दो

इतना तो हक़ हमारा भी है


.............



दिल कहता

तू कब मिला इरफ़ान से

क्या तेरा कोई सगा था वो

जो तू इतना उदास, रोया भी

कहता हूं मैं

वो आदमी कम विचार ज्यादा है

देह न्यून आंखों भाता था

संक्रामक-विचार

सात्विकता का संक्रमण फैलाने वाला मदारी

जिसे देख कर सुन कर पढ़ कर

जाग उठता जीवन का साहस

जीवन के कुरुक्षेत्र में

चन्द्रमा का पुत्र वर्चा ही था अभिमन्यु

जिसे बहुत कम समय हेतु अपने से अलग कर

धरती पर भेजा था उसने

देवताओं के विशेष आग्रह पर

अपने छोटे से जीवन में स्थापित किया उच्च आदर्श

अमूर्त-कला ने लिया मानवावतार

दिखाये अनोखे रंग

धूल-सी उड़ी

किसी की आंख में घिरी

किसी की आत्मा पर

आंख को मसला

आत्मा को निचोड़ा

आंखें सजल हुई

आत्मा निर्मल


.............



आसमान के आंगन से

टूट गिरा एक फूल

धरती के आकाश से

छिटक गया एक तारा



मुरझाये हुए तारे

बनते है खिलखिलाते फूल

टूटे फूल

टंग जाते आसमान में

चमकते

खुशबू से

नयनतारों सा चमक जो

बन गया अब फूलतारा

घनासारा


.............



मैने साहित्य शास्त्र में पढ़े

नौ रस और

उनके नौ स्थायी भाव

तुमने जीवन को बताया दसवां रस

दुख है जिसका स्थायी भाव



.....................




अभिनय का घुमक्कड़ी शास्त्र

भरे-पूरे रहने से नही होता जीवन्त अभिनय

जीवन का अभिनय भी मांगता कुछ खालीपन,

अभिनय के जीवन की अपेक्षित रिक्तता

देहावली से निकल

आ सिमटी आंखों में

एक भूख

एक प्यास

एक तितिक्षा

तितीर्षा भी

सब कहां मिलता लिखित शास्त्र में

जीवन की धूल फांके बिनाए

बड़ी लम्बी साधना फाकामस्ती की

भटकाव का अलिखित शास्त्र

क्रिकेट के मैदान

चाय की थडियों

पान की घुमटियों

चौराहे पर टंगी मजदूर टोलियों

बसों रेलों मे थरथराती आत्माओं

एन एस डी की छतो-केंटीन

बेपरवाह यारियों

तुम्हारे द्वारा थियेटर-सिनमाहॉल में

दो-दो, तीन-तीन बार देखी गयी

पिक्चरों-नाटकों

शिक्षकों से होने वाली झड़पों

आदमकद आइने मे टंगी अपनी छवि

समुद्र का ज़र्फ

ओर भी न जाने कहां-कहां, किस-किस

से मिल कर बना था वह अभिनय

जो भी किरदार आता

तुम्हारी आत्मा, देह सा ओढ़ लेती

निकल पड़ती घुमक्कड़ी की अनचिन्ही गलियों में

जिधर देखने मात्र से

बेचैन जो जाती समकालीनता

निर्बाध वायु से बह निकलते तुम

अब जब सारे किरदार

मुंह ताकते देहवत् पड़े

त्वमात्मवत् निकल पड़े घुमक्कड़ी करने

(किसी असमाप्त पटकथा के साथ)



.............



रोग की असफलता की पीड़ा

तुम सहर्ष झेल गये थे

नियति नाराज़ होती है

जलती है उनसे

जो रोग को रोग और पीड़ा को पीड़ा

नहीं मानते

मुझे लगता

तभी नियति ने दिया तुम्हें महारोग

तुम उसे भी निभा गये बिला शिकायत


.............


जीवनान्धकूप मे गिरे

हम सब

कभी दूसरों के अहंकार से टकराते

आत्मखोजी खुद के एकान्त में

अपने अहंकार के पर्वत को

धैर्य के हथौड़े से टुकड़े टुकड़े करता

असफलताओं को चखता

कटुफल-सा

रख देता मन की टोकरी में

फेंकता नहीं कि कोई दूसरा उसे खा जए

अपने मनस्तापों पर असफलताओं को पकता

धीमी आंच पर

अवसर पड़ने पर उन्हें प्रकट भी करता

लेकिन इतनी शालीनता से कि

वह उसकी अदाकारी का अंग ही लगता


तुम्हीं से कह रहा हूं मेरी जान

ओ इरफ़ान....


.............



सोलह बरसों का संघर्ष

और फिर हुई 'हासिल'

रोज़ सूरज अरब सागर मे डुबकी लगाता

हौंसला डगमगाता भी होगा कभी

सोलह मिनट भी अगर कोई मेरी लिखी कविता को फेसबुक पर नोटिस न करे तो

बेचैन हो जाता हूं

सोलह साल

सोलह कलाएं

जैसे हर वर्ष बढ़ती गयी

एक एक कला

पुर्ण चन्द्रोदय 'हासिल' हुआ सिने-आकाश को


...................


तुम्हारे रहते-दिखते भी

तुम्हारा चुप्पी

बहुत कुछ बोल जाती



तुम नहीं हो

एक चुप्पी, खुली पाठशाला सी

जिससे सिर टिका

बैठेगा जब भी कोई

कलाप्रेमी

तुम्हारी अदृश्य चुप्पी होगी

उसकी दीक्षा




मैं आपसे जितनी चीज़े चुरा सकता हूं चुरा लूंगा - टाॅम हैंक्स

ये एक विदेशी कलाकार का प्रेम ही था

जो तुम्हारी जादूगरी से बच न सके

तुम्हारे पास लुटाने को क्या कुछ नहीं था



सब कुछ दे दिया

मनए सुतपा को पहले ही



एक जोड़ी आंखें,

पकी हुई खामोशी

साधारण देह यष्टि

संवेदनात्मक दृष्टि

ओर भीतर

भावनात्मक सृष्टि

और भी न जाने क्या कुछ

जाने-अनजाने दिया सबकोएबांट दिया खुद को



सच कहना

क्या मृत्यु ने चुराए थे तुम्हारे प्राण

या उसकी असहायता पर रीझ गयी थी

तुम्हारी आत्मा

(ले भागी प्राणों को)


.................


अभिनय परकायाप्रवेश है

जिसका मूल मन्त्र है 'यदि'

तुमने रुसी लेखक स्टानिस्लावस्की को पढ़ा होगा या नहीं, मुझे नामालूम

लेकिन तुम्हीं ने उसे जिया कि

यदि मैं पान सिंह होता........

कहकर डूब जाते तुम उसमें

जब निकलते बाहर

तो इरफ़ान कहीं पीछे खड़ा देख रहा होता

पान सिंह तोमर


.........................


36/ 42/ 53

आयु के 36 वे वर्ष में लांघी पहली बड़ी सफलता

42 वे में  समुद्र की सीमाएं

53में लांघ गये देह की सीमा



ओ मन-वा-मन तुम

हो गये असीम

तीन पग में नाप ली सृष्टि


.................



यहां आने से पहले ही लिखी जा चुकी होती हैं

हमारी पटकथाएं

हम जो भी करते जो भी होते

वह होता कथानुकूल ही

कलाकार दृश्य का निर्वाह करते हुए

खुद दृश्य हो जाता

कुछ ही कलाकार, लिखी गयी कथा में करते हस्तक्षेप

उनके होने में छुपा न होना

न होने में होना

मिट्टी तो मिलेगी ही मिट्टी में

पर रुह

और रुह पहने रुहदार कहां फ़ना होते

रुहदार नहीं मरा करते

किताब से झांक अभी कह रहे मुझसे-

'पण्डित जी

आप ज़िस्म हैं मैं रुह

आप फ़ानी मैं लाफ़ानी

दरिया भी मैं दरख़्त भी मैं

झेलम भी मैं चिनार भी मैं

दहर भी मैं हरम भी मैं

शिया भी हूं सुन्नी भी

मैं हूं पण्डित

मैं था मैं हूं और मैं ही रहूंगा'


मेरा मुझ में तू




सम्पर्क


नितेश व्यास

गज्जों की गली, 

पूरा मोहल्ला, भजनचोकी, 

जोधपुर; 342001, राजस्थान


मो - 9829831299


ई मेल : niteshsanskrit@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. बोलती आँखों वाले प्रिय अभिनेता इरफ़ान खान पर उम्दा टिप्पणी के साथ बहुत मर्मस्पर्शी कवितायें लिखी हैं नितेश व्यास बाबजी ने | "पहली बार" को साधुवाद कि यह साझा किया |
    इरफ़ान खान को विनम्र श्रध्दांजलि🙏🙏

    जवाब देंहटाएं
  2. अरे भई ज़ोरदार नितेश जी
    ग़ालिब का शेर ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी लेखनी की जितनी तारीफ की जाए कम होगी । बेहद उम्दा लिखा। आपकी लेखनी मन को छू जाती है।

      हटाएं
  3. शानदार प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह, आपने मर्म को छू लिया। आपकी रचनाएं हमें प्रेरित करने वाली है। खूब खूब शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
  5. हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं सर

    जवाब देंहटाएं
  6. Sir aap hamesha apni writing se hamare jese naye bacho ko Dara dete hai 🙏

    जवाब देंहटाएं

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