रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण 'सूख मेरी पाटी, चंदन घोटी'।

 

रुचि बहुगुणा उनियाल



बच्चे की पढ़ाई की शुरुआत के साथ ही उसके जीवन का नवीन अध्याय शुरू होता है। पहले के समय में लकड़ी की पटरी पर लिखने पढ़ने का उपक्रम होता था। नरकट की कलम से लिखने से अधिकांश लोगों की लिखावट यानी हस्तलिपि भी सुन्दर हो जाती थी। हमने पहली बार पर कवयित्री रुचि बहुगुणा उनियाल के संस्मरणों को क्रमिक रूप में प्रस्तुत करना शुरू किया है। इस क्रम की दूसरी कड़ी में अपने बचपन में पढ़ाई के शुरुआत की नटखट यादों को संस्मरण में संजोया है रुचि बहुगुणा उनियाल ने। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण 'सूख मेरी पाटी, चंदन घोटी'।



सूख मेरी पाटी, चंदन घोटी


रुचि बहुगुणा उनियाल 



प्राप्ति की ऑनलाइन क्लास चल रही है और वह सुबह उठ कर फटाफट नित्य कर्म से निपट कर……. तैयार हो कर मोबाइल फोन की स्क्रीन ऑन करके बैठ चुकी हैं। उनके बराबर में छोटे महाशय भी बैठे हुए हैं और वस्तुतः दोनों आनंद ले रहे हैं कि, उनके पास माँ का फोन है। प्रियम अचानक से बोल पड़े, 


"अरे दीदी देखो तो ऊपर स्क्रीन पर अमन भैया के यूट्यूब चैनल का लिंक आया है, जरूर उन्होंने अपना नया आर्ट स्केच वीडियो अपलोड किया होगा".... 

दोनों भाई बहन उस वीडियो को देखते उसके पहले ही मैंने उन्हें टोक दिया, 

"क्लास शुरु होने वाली है न बाद में देखना यह ऊटपटांग वीडियो-शीडियो"।


प्राप्ति ने क्लास लिंक ज्वाइन कर लिया है और दोनों बच्चे मगन हो गए हैं फिर से क्लास के सब बच्चों और टीचर के साथ..... लेकिन न जाने क्यों मेरा मन उड़ चला है अपने बचपन की गलियों में। शायद ऐसा इसलिए, कि यह सब बातें हमने अपने बचपन में नहीं सीखी जो अब सीखी, और वहीं मेरे बच्चों ने बड़ी सहजता से सब कुछ छुटपन में ही सीख लिया है। जो कि हमारे बचपन में न तो था और न हम इतने होशियार थे कि सीख पाते।

   

       

छोटे थे तो सरकारी स्कूल में दाखिला दिलाया गया माता पिता द्वारा। हम तीनों भाई बहन एक ही सरकारी स्कूल से पढ़े..... बड़े भाई को पिताजी ने पहले-पहल हमारे यहां के एक अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में भर्ती किया था, फिर कुछ पारिवारिक कारणों से उसे वहां से पिता जी द्वारा हटाया गया। वह भी हमारे साथ सरकारी स्कूल में पढ़ने आता था। इस तरह तीनों भाई-बहन एक ही स्कूल में पढ़ते थे।


सरकारी स्कूल में पढ़ना तो क्या था पर दिनभर खेलना कूदना होता रहता था। हमारे जमाने में नर्सरी और एलकेजी, यूकेजी की क्लास नहीं होती थी केवल कच्ची एक पक्की एक..... फिर कक्षा एक कक्षा दो ऐसे पढ़ाई होती थी।


कच्ची एक पक्की एक में हमारे पास एक पाटी होती थी जो लकड़ी की होती थी। इस पर राख का घोल लेप किया जाता था फिर उसे सुखाया जाता था और सुखाते वक़्त एक गीत नुमा रचना हम लोग गाते थे,.... 


"सूख मेरी पाटी, चंदन घोटी

राजा आया, महल चढ़ाया 

महल के ऊपर धूप पड़ी,

मेरी पाटी सूख पड़ी"! 


उसके बाद उस पर एक मोटी कांच की शीशी का घोटा लगाया जाता था जिससे उसे खूब चमकाया जाता था। चमकाने के बाद उस पर एक विशेष घोल से सीधी-सीधी लाइनें खींच दी जाती थी। जिन्हें सतीर कहते थे यह लाइन जिस घोल  से खींची जाती थी उसे मकोळ कहते थे..... इसके बाद उसे दोनों तरफ सुखाया जाता था। एक ओर हिंदी के लिए लाइन खींची जाती थी और दूसरी ओर गणित के लिए।


पूरे दिन भर बच्चों का यही काम होता था माता-पिता भी निश्चिंत और अध्यापक भी कि बच्चा पढ़ाई कर रहा है। 





तब के पढ़े बच्चों का हस्तलेख भी बहुत सुंदर होता था और अब सोचती हूँ कि ऐसा शायद इसलिए होगा कि हमने सीधा पेंसिल या फिर पेन नहीं पकड़ा बल्कि हमने ऊँगलियों को उस घोल (मकोळ) में डुबो-डुबो कर लिखना शुरू किया था और स्वयं को कष्ट पहुँचा कर हमने विद्या का महत्व समझा था, जो कि अब बच्चों में देखना बहुत ही कठिन है। 


मैं छोटी थी तो खूब मजे करती थी अब देखती हूँ मेरे बच्चे पढ़ाई के बोझ तले दब कर रह गए हैं। कक्षा एक में आने पर हमारे पास कलम आती थी उस कलम से कॉपी के पन्ने पर लिखा जाता था स्याही होती थी जिस में डुबो कर कलम से अक्षर लिखने होते थे। कलम आजकल के पैन की तरह नहीं थी कलम एक विशेष लकड़ी की बनी होती थी जिसे रिंगाळ कहा जाता था। यह बांस की एक प्रजाति होती थी जो बहुत मजबूत और पतली होती थी। खूब सुखा कर छोटी-छोटी कलम बनाई जाती उस कलम से कॉपी के पन्ने पर स्याही की मदद से लिखाई होती थी इस प्रकार हमने बचपन में कलम पकड़ी।


छोटे भाई नितिन को बचपन में ही डबल न्यूमोनिया हो गया था इसलिए माँ के साथ - साथ हम सब भी उसका बहुत ध्यान रखते थे।

       

अक्सर नितिन की पाटी मुझे ही ले जानी पड़ती थी क्योंकि वो घर से खुशी-खुशी निकल कर आधे रास्ते से ही पाटी फेंक देता था। फिर उसका रोना-धोना शुरू हो जाता।



उसे घर और स्कूल में मार न पड़े इसलिए मैं उसकी पाटी स्कूल ले जाती और ले कर घर भी आती.... हमारे घर में बेटा-बेटी में कभी कोई भेदभाव माँ-पापा ने नहीं किया उल्टा मैं अकेली बेटी थी दो बेटों के साथ इसलिए मुझे ज्यादा प्यार मिला माता-पिता का, लेकिन चूंकि लड़कियां स्वभाववश ही ममतामयी होती हैं इसलिए मैं हमेशा नितिन को बचा लेती और उसका खयाल रखती थी। इस प्रकार उसके लिए करते हुए मुझे अच्छा भी लगता और खुद के बड़े होने का भान भी रहता। लेकिन आखिरकार थी तो मैं भी बच्ची ही..... कभी-कभी थक जाती तो उसे बोलती कि अपनी पाटी ले जाए लेकिन वो मेरे ध्यान रखने को मेरी ड्यूटी समझने लगा था इसलिए रोने लगता था। एक दिन हम दोनों भाई-बहन स्कूल से घर लौट रहे थे मैंने उसे कहा...


"अपनी पाटी खुद ले जा तू"


(नितिन तुतलाने की वजह से साफ नहीं बोलता था) 


"मैं त्यों ये  जाऊँ तू ये जा, तू ही ये  जाएगी"

(मैं क्यों ले जाऊँ तू ही ले जा, तू ही ले जाएगी) 


मुझे बुरा लगा कि एक तो मैं रोजाना इसकी पाटी ले जाती हूँ और ये खुद ले जाना तो दूर मुझे ही धमका रहा है।


"ले जा अपनी पाटी वरना मैं छोड़ दूंगी"

उस पर मेरी धमकी का भी कोई असर नहीं हुआ

उल्टे उसने मेरी लंबे बालों की चोटी पकड़ ली और खींचता हुआ बोला... 


"युच्ची दीदी तू ये जाएगी मेयी पाटी... नी तो मैं मम्मी को बोय दूंआं कि तूने मुझे युयाया था"


(रुचि दीदी तू ले जाएगी मेरी पाटी….. नहीं तो मैं मम्मी को बोल दूंगा कि तूने मुझे रुलाया था) 




बाल खिंचने की वजह से मुझे अब गुस्सा आ गया था... मैंने उसे जोर से  धक्का दे कर अपने बाल छुड़ाए और पैर पटकते हुए उसकी पाटी ज़मीन पर फेंक दी।


"खुद ले कर आना अब अपनी पाटी.... मैं भी कोई तेरी नौकरी नहीं हूँ कि रोज तेरी पाटी ढो कर ले जाऊँगी घर से स्कूल और स्कूल से घर"।


वो जोर-शोर से रोने लगा कि "अब तो मैं तबी स्तूय नहीं जाऊँआ"


(अब तो मैं कभी स्कूल नहीं जाऊँगा) 


मैंने "मत जाना" कहते हुए घर की ओर रेस लगाई तो वो भी मेरे पीछे-पीछे घर की ओर भागा।


घर आ कर भी काफ़ी देर तक रोता रहा.... मम्मी ने मुझे कहा कि

"ले आ बेटा उसकी पाटी"

तो मैंने मम्मी को बताया कि

"इसने मेरी चोटी भी खींची और झगड़ा भी किया, मैं नहीं लाऊँगी इसकी पाटी।"


माँ को भी सुन कर गुस्सा आ गया कि उसने मेरे बाल खींचे, पहले तो नितिन भाईसाहब की पिटाई हुई माँ से मेरे बाल खींचने के कारण और इसके बाद नितिन को फरमान जारी किया गया कि अपनी पाटी ले कर आए। लेकिन नितिन महाराज जी को तो कामचोरी की आदत पड़ गई थी तो क्यों जाते भला? काफ़ी देर तक जब वो नहीं गया तो अब माँ भी चुप हो गई। फिर उन्होंने उसे डराने के लिए कहा कि वो गुरु जी को बता देंगी कि उसने रुचि के बाल खींचे और अपनी पाटी रास्ते में छोड़ दी।


माँ की धमकी का असर हुआ और नितिन रोते हुए पाटी लेने गया और ले कर भी आया।


हालांकि बाद में भी बहुत बार मैं उसकी पाटी स्कूल ले गई लेकिन उस दिन के बाद उसने अपनी पाटी खुद ले जाने के लिए कभी भी नखरे नहीं किए।


 अब सोचती हूँ कि कितना प्यार हम एक-दूसरे से करते हैं शायद उसकी नींव बचपन से ही पड़ी होगी जब स्कूल आते-जाते एक-दूसरे से खूब झगड़ते भी थे हम लोग ……..!



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


  


टिप्पणियाँ

  1. Ruchi ji aap ne purni yaad taza kar di hamne bhi pati pe khub kaam kiya 1to 5tak aap ka bahut bahut dhanyawad is sunde lekh ke liye

    जवाब देंहटाएं
  2. मैं ने तो होल्डर ( टाँक) और दावात से लिखना सीखा , गर्मियों की छुट्टियों में ननिहाल आने पर हमउम्रों के साथ उनके पाठशाला जाने पर ( मेरे लिए तो पिकनिक सा अनुभव होता था )लकड़ी की पाटी और कलम से परिचय हुआ और

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