शिवदयाल का आलेख 'टोकरी में दिगन्त: स्त्रीवाद का काव्यमय भारतीय पाठ'

 




कुछेक अपवादों को छोड़ कर पुरातन काल से ही स्त्री जीवन की अपनी व्यथा कथा रही है। वे इस व्यथा कथा के साथ ही अपना अस्तित्व आज तक बनाए बचाए हुए हैं। पुरुष समाज उन्हें वह प्रतिष्ठा देने से हमेशा कतराता रहा, जिसकी वे हकदार हैं। छठीं शताब्दी ई पू में गौतम बुद्ध ने धम्म का उदघोष किया। यह उदघोष बदलाव का था। नूतनता इसके मूल में थी। जो बुद्ध शुरू में ही स्त्रियों के संघ में प्रवेश को ले कर आशंकित थे, उन्होंने ही संघ में स्त्रियों के प्रवेश को स्वीकार किया। अनामिका का एक संग्रह थेरी गाथाओं पर केन्द्रित है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों की स्थिति को जानने, परखने और समझने के सन्दर्भ को अनामिका के ‘टोकरी में दिगंत’ को  पढ़ा जा सकता है। शिवदयाल जी ने अपने आलोचनात्मक आलेख में उचित ही लिखा है कि 'इतना तो निश्चय ही कहा जा सकता है कि यह टोकरी जिसमें दिगंत कवयित्री ने रखा है, वह वास्तव में लोकतंत्र की ही सुलभ कराई है।' आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं शिव दयाल का आलोचनात्मक आलेख 'टोकरी में दिगन्त: स्त्रीवाद का काव्यमय भारतीय पाठ'।




         

'टोकरी में दिगन्त: स्त्रीवाद का काव्यमय भारतीय पाठ'



शिवदयाल 


‘ऐसे अतिप्रश्न न करो गार्गी, तुम्हारा मस्तक फट जाएगा!’ - जनक की ब्रह्म विद्या पर आयोजित विद्वत सभा में ब्रह्मवेत्ता याज्ञवल्क्य से ब्रह्मज्ञानी और जिज्ञासु प्रश्न पूछ रहे थे जिनका वे समाधान करते जाते थे। ब्रह्मवादिनी गार्गी ने दो चरणों में आत्मा और ब्रह्म से सम्बन्धित प्रश्न याज्ञवल्क्य से पूछे - प्रश्न पर प्रश्न पूछे और मुनि उत्तर देते चले गए और प्रथम चरण में इस प्रश्नोत्तरी का अंत इस प्रकार हुआ। गार्गी चुप हो गई। फिर दूसरे चरण में उसने याज्ञवल्क्य मुनि से काल और स्थान (टाइम ऐण्ड स्पेस) से संबंधित दो प्रश्न पूछे और इस बहाने यह भी पूछ लिया कि यह ब्रह्माण्ड किसके अधीन है? तब मुनि ने उसे अक्षरतत्व के बारे में विस्तार से बताया - ‘एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गी।’ कोई अक्षर, अविनाशी तत्व है जिसके प्रशासन में ब्रह्माण्ड है। गार्गी ने याज्ञवल्क्य को परम ब्रह्मनिष्ठ मान लिया और उन्हें प्रणाम कर सभा से विदा ली। सभा ने भी गार्गी की प्रशंसा करते उसे ब्रह्मवादिनी माना। वास्तव में वृहदारण्यक उपनिषद में दो स्त्रियों की उपस्थिति सबसे महत्वपूर्ण है - गार्गी और याज्ञवल्क्य मुनि की दूसरी पत्नी मैत्रेयी। इन दोनों परम विदुषियों के साथ मुनि के बड़े गहरे, सार्थक संवाद हैं। इसी उपनिषद् में वह संसार की सबसे बड़ी प्रार्थना है (स्वामी विवेकानंद के मत में) - 



असतो मा सद्गमय, 

तमसो माँ ज्योतिर्गमय, 

मृत्योर्मामृतंगमय! 


इस प्रार्थना की रचयिता स्वयं देवी मैत्रेयी हैं।

       



अनामिका की कविता पुस्तक ’टोकरी में दिगन्त - थेरीगाथा 2014’ बुद्ध के समय की, उन्हीं के धम्म में दीक्षित ज्ञानदीप्त स्त्रियों की कथा - थेरीगाथा को आज के संदर्भ में प्रस्तुत तो करती ही है, साथ ही इन स्त्रियों की समकालीन, पूर्ववर्ती और परवर्ती मनस्विनियों, मिथकों-किंवदंतियों में उपस्थित विदुषी स्त्रियों के बारे में जानने, उन्हें याद करने के लिए भी प्रेरित करती है।



राजा अश्वपति जब अपनी परम तेजस्विनी पुत्री सावित्री के लिए योग्य वर नहीं ढूँढ सका तो उसने स्वयं उसे अपना वर चुनने को कहा। वन में अपना राज्य हार चुके द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को वर कर सावित्री वन का दुष्कर जीवन अपने लिए चुनती है, यह जानते हुए थी कि सत्यवान को छोटा जीवन मिला है। जब यम स्वयं चल कर सत्यवान के प्राण हर कर ले जाने लगते हैं तो वह भी उनके पीछे चल पड़ती है। अपनी बला छुड़ाने के लि नहीं, बल्कि, सावित्री की बुद्धि-वाग्मिता और पति के प्रति अखण्ड निष्ठा और समर्पण से चमत्कृत हो कर उसे वर देते चले जाते हैं। कहते हैं - ‘‘सावित्री, तुम्हारे मुख से मानो पराग झड़ रहे हैं। ज्यों-ज्यों मैं तुम्हारे सुंदर विचारों को सुनता जाता हूँ, तुम्हारे प्रति मेरा सम्मान बढ़ता ही जाता है। माँगो, कोई अतुलनीय वर माँगो।’ सावित्री ने अपनी दिव्यता और तेज से मानो साक्षात् यम को अपने वश में कर लिया है। वह उसे अनेक संतानों की माता होने का वर दे बैठते हैं। उन्हें जैसे सावित्री की जीत पर खुशी है, गर्व भी। सत्यवान को वे आयुष्य का आशीर्वाद देते कहते हैं कि वह अपनी पत्नी सावित्री के नाम के साथ अमर रहेगा।





एक कथा है, पत्नी अरुँधती को आश्रम में अकेली छोड़ वशिष्ठ सप्तर्षियों के साथ हिमालय तप करने चले गए। कुछ समय बाद ही उस क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा। अरुँधती ने भूखे रह कर ही शिव जी की तपस्या शुरू कर दी। शिव जी ब्राह्मण का वेश धर कर आए और कुछ खाने को माँगा। अरुँधती ने बदरी के बीजों को ही पकाने के क्रम में परम विदुषी अरुँधती ने ब्राह्मण वेशधारी शिव जी से धर्म-चर्चा शुरू कर दी जो पूरे बारह वर्ष चली और सप्तर्षियों के लौटने पर ही सम्पन्न हुई। अरुँधती को सप्तर्षियों में स्थान मिला। नभमंडल में सप्तर्षियों में द्वितारे हैं - वशिष्ठ और अरुँधती। विवाह के बाद नव-विवाहित जोड़े इस द्वितारे से अटल, अटूट दाम्पत्य का आशीर्वाद माँगते हैं।




आदिग्रंथ ऋग्वेद में मातृशक्ति की महिमा गाई गई है। स्वयं पृथ्वी माता है, नदियाँ माताएँ हैं, जल को ही सृष्टि की माता कहा गया है। ऋग्वेद में अनेक देवियाँ हैं - वाग्देवी, वनदेवी या अरण्यानी, ऊषा देवी, श्रद्धा देवी और मनीषा देवी भी हैं। विदुषी, मनीषी, तेजस्विनी, ब्रह्मविद्या में निपुण स्त्रियों की उपस्थिति वेदों, उपनिषदों, पुराणों, धर्मशास्त्रों में सामान्य है, अपवाद के रूप में तो बिल्कुल नहीं है। वेद ऋचाओं की रचयिता स्त्रियाँ भी रही हैं। धर्म और अध्यात्म में स्त्रियों की रुचि और निष्ठा केवल सनातन धर्म तक ही सीमित हो, ऐसा भी नहीं। छह सौ वर्ष ई. पू. बुद्ध और उनके धर्म के प्रति भी स्त्रियों का आकर्षण बना। बुद्ध को भिक्षुणियों को भी बौद्ध संघ में शामिल करना पड़ा। उसी प्रकार लगभग उसी काल में वर्द्धमान महावीर के जैन संघों में भी आर्यिकाएँ और साध्वियाँ जुड़ीं। तीर्थंकर का धर्म-द्वार भी स्त्रियों के लिए खुला था। ध्यान देने की बात यह है कि बुद्ध के धर्म में ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं है, जबकि जैन धर्मों में आत्मा की परिशुद्धता को परमात्मा का पर्याय या उपलब्धि मानते हैं। इन दोनों ही धर्मों में ईश्वर या ब्रह्म को ब्रह्माण्ड की एकमात्र चालक शक्ति के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है।




इसी काल में यदि हम पश्चिम की ओर दृष्टि डालें तो रोम, बेबीलोन, मिस्र, और मेसोपोटामिया में समाज भले ही पुरुषसत्तात्मक हो, लेकिन बहुदेववाद में देवियों की प्रचुर उपस्थिति थी जो अलग-अलग शक्तियों से युक्त थीं और अलग-अलग प्रकार से जीवन पर प्रभाव डालती थीं। आखिर ये देवियाँ कहाँ विलुप्त हो गईं? सातवीं सदी तक तो पश्चिम एशिया, मध्य पूर्व में इनका कोई नामलेवा भी नहीं बचा। बल्कि इसमें यूरोप को भी शामिल कर सकते हैं। इस समय तक पैगम्बरवादी धर्म अधिक से अधिक संगठित होते गए, यहूदी और ईसाई मजहब के बाद इस्लाम के उदय ने धार्मिक परिदृश्य ही बदल दिया। प्राचीन धर्मों में से अधिकांश धार्मिक साम्राज्यवाद का शिकार हो गए। या तो वे मिट गए या नाम लेने को बचे। एक ही आदि पैगम्बर से अपने को जोड़ने के बाद भी यहूदी, ईसाई और मुस्लिम आपसी होड़ और संघर्षों में उलझे। यहूदी आकार और प्रभाव में सिकुड़ गए, और ईसाई और मुसलमान सैंकड़ों साल तक रक्तरंजित धर्मयुद्धों में उलझे रहे। इस्लाम को जो बढ़त तेरहवीं-चैदहवीं सदी तक अपने धर्म-प्रसार में मिली थी - समुद्री अभियानों और उपनिवेशवाद की बदौलत ईसाइयों ने उसकी भरपाई कर ली। इन धर्मों के अंदर के छोटे-बड़े सम्प्रदायों-पंथों के आपसी संघर्ष का इतिहास अलग है - ये आंतरिक संघर्ष भी भयानक रूप से हिंसक थे।





सवाल है कि पूरी धरती पर आधिपत्य जमाने का इरादा रखने वाले इन बड़े धर्मों-मजहबों में, इनके कार्यकलापों में स्त्री की कोई हैसियत भी थी? धार्मिक समानता की तो कोई बात ही नहीं, उनकी कोई सामाजिक और राजनीतिक हैसियत भी नहीं थी। स्त्रियों के लिए देखें तो पहली सदी से ले कर लगभग बीसवीं सदी तक, यूरोप, मध्येशिया, अफ्रीका में उनके लिए अंधकार युग ही था। भारत भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रहा। कितनी अजीब बात है कि स्त्री और पुरुष दोनों एक मान की इकाइयाँ हैं, यह मानने में यूरोप को ’ज्ञानोदय’ के बाद भी तीन-सौ साल लग गए। दुनिया के एक और दो नंबर के मजहबों में आश्चर्यजनक रूप से कोई स्त्री-प्रतीक खड़ा नहीं हो सका - धार्मिक या राजनीतिक प्रतीक (पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी में जोन ऑफ़ आर्क और एरागाॅन की कैथरीन जैसी कुछ महान महिलाओं को छोड़ कर) तो बिल्कुल नहीं। कुछेक आध्यात्मिक प्रतीक खड़े भी हुए तो वे धर्म/ मजहब की मुख्य धारा में नहीं थे। राजनीतिक और धार्मिक सत्ता केन्द्रों से स्त्रियाँ बाहर ही रहीं। ज्ञानोदय के दौर में सामाजिक जीवन में यूरोप की आम महिलाओं का महत्व कुछ बढ़ा भी लेकिन पश्चिम और मध्येशिया में वह भी नहीं हुआ।





तीसरे बड़े धर्म बौद्ध धर्म ने यों तो वे धर्म-दीक्षा में स्त्री-पुरुष में भेद नहीं किया लेकिन छठी सदी ई.पू. में तथागत बुद्ध की पालक और मौसी महापजापति गौतमी जिन्होंने धम्म की दीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त किया था, साथ ही बौद्ध संघ को स्त्रियों के लिए खुलवाने में जिनकी बड़ी भूमिका रही थी, के बाद पाँचवीं सदी में एक बड़े बौद्ध स्त्री-व्यक्तित्व के रूप में प्रज्ञाधारा का जिक्र मिलता है। इन दोनों व्यक्तित्वों के बीच लगभग हजार वर्ष का अंतर है। यों अधिकतर बौद्ध सम्प्रदायों में स्त्री की आध्यात्मिक स्थिति और पात्रता को ले कर एकमत नहीं है। यह भी माना जाता है कि स्त्रियाँ बुद्ध नहीं बन सकतीं, एक स्तर की आध्यात्मिक ऊँचाई प्राप्त करने के बाद वे बुद्ध तो बन सकती हैं लेकिन अगले जन्म में जबकि उन्हें पुरुष योनि में जन्म लेना पड़ेगा। अर्थात पुरुष शरीर में ही बुद्धत्व संभव है। वैसे बौद्ध देशों अथवा समाजों में स्त्रियों की स्थिति बेहतर रही है।





ज्ञान, उसमें भी ब्रह्मज्ञान, अध्यात्म हमेशा से बहुत कम लोगों की रुचि और चुनाव का क्षेत्र रहा है, वह भी दुर्गम। पुरुषों में भी बहुत कम पुरुष इस ओर उन्मुख होते रहे हैं। उसी प्रकार बहुत कम स्त्रियाँ इस ओर आकर्षित होती रही हैं, लेकिन इनके लिए यह क्षेत्र और भी दुगर्म और दुर्लभ रहा है। उनकी पारिवारिक भूमिका ने उनकी दुर्लंध्य स्त्रियोचित मर्यादाएँ तय कर दी हैं। तब भी वैदिक काल से ले कर आज तक - इसमें बुद्ध और महावीर का काल भी शामिल है - भारतीय स्त्रियाँ न केवल ज्ञान और भक्ति की राह को चुनती रही हैं, बल्कि संन्यस्त भी होती रही हैं। अर्द्धनारीश्वर जैसा प्रतीक, मातृशक्ति की अराधना, शक्ति-सिद्धिदात्री देवियाँ - जो शक्ति, विद्या, लक्ष्मी, बुद्धि, श्रद्धा के मूल में हैं, इनकी प्रेरणा का आधार हैं। एक प्रकार से प्रकृति की समस्त शक्तियाँ मातृ-शक्ति का ही प्रकटन और विस्तार हैं। जिस मनु-स्मृति को घृणा से देखा जाता है, उसी में ऐसे उल्लेख मिलते हैं - ‘जहाँ नारियों की पूजा होती है, देवता वहीं बसते हैं,’ ‘स्त्रियों को ससुराल में साम्राज्ञी की तरह रहना चाहिए।’ इसी मनु-स्मृति में तीन व्यक्तियों का किसी व्यक्ति के जीवन में उच्चतम स्थान माना गया है - गुरु, पिता तथा माता। यहाँ गुरु ब्राह्मण का, पिता ब्रह्म का तथा माता पृथिवी का प्रतिनिधित्व करती है - तीनों समान धरातल पर, कोई पदानुक्रम नहीं। याज्ञवल्क्य स्मृति में स्त्री-अधिकारों को लेकर अनेक निर्देश तो हैं ही, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर भी अद्भुत विवेक और न्यायबुद्धि का परिचय दिया गया है। एक श्लोक में कहा गया है 'अच्छा दाम्पत्य तब संभव है जब पति-पत्नी के शारीरिक समागम की इच्छा पत्नी की ओर से आई हो।' स्त्री की सुरक्षा और संरक्षण पर स्मृतिकारों का बहुत जोर है और इसकी जिम्मेदारी पुरुष को सौंपी गई है। आज के युवाओं को यह जान कर आश्चर्य होगा कि पराशर वचन में पाँच स्थितियों में विधवा पुनर्विवाह की स्वीकृति दी गई है - 



यदि पति विलुप्त हो गया हो, 

पति की मृत्यु हो गई हो, 

पति ने सन्यास ले लिया हो और गृह त्याग दिया हो, 

पति निर्वीर्य अथवा नपुंसक हो, 

तथा/अथवा पति के दुष्कर्मों के लिए उसे मानमर्दित तथा दण्डित किया गया हो। 



तो धर्मशास्त्रों और स्मृतियों और संहिताओं को एक प्रबुद्ध वर्ग भले ही स्त्री-विरोधी मानता हो, ज्ञान-मार्ग का वरण करने वाली मोक्ष की कामना करने वाली स्त्रियों को वास्तव में इनसे प्रेरणा ही मिलती रही है, इन्हीं की बदौलत उन्होंने अपने ऊपर आरोपित बंधनों को चुनौती दी और अपनी राह आसान की। तत्व के स्तर पर, न वैदिक, न बौद्ध, न जैन धर्म में स्त्री-पुरुष के बीच भेद माना गया है, जो भेद है वह बाहरी है, आत्म के स्तर पर दोनों एक ही हैं। इसीलिए हमारे यहाँ अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, गार्गी, मैत्रेयी, सिक्ता, शर्मिष्ठा, सूर्या, यमी, श्रद्धा, विश्वम्भरा, देवयानी और सावित्री, आचार्य शंकर को चुनौती देने वाली भारती मिश्र, दक्षिण में अण्डाल और अक्का महादेवी, महाराष्ट्र में जनाबाई, मुक्ताबाई, कन्होपात्रा, राजस्थान में मीराबाई, मालवा गुजरात में लोयण और कश्मीर में देवी लल्लेश्वरी या लल्लद्यद तक ब्रह्मज्ञानी, बुद्धिमती, तेजस्विनी स्त्रियों की सशक्त उपस्थिति मिलती है। इसी कड़ी में जैन आर्यिकाओं और अशोक की पुत्री संघमित्रा समेत बौद्ध स्त्री परिव्राजकों को भी शामिल माना जाना चाहिए जिन्होंने थेरीगाथा रची। इन सबको मिला कर ही यह एक समवेत, समांतर परम्परा बनती है जो उपनिवेश काल में भी जीवित रही और सन्यासी विद्रोह की देवी चौधरानी और रानी तपस्विनी जैसी विद्रोही योद्धा नायिकाओं से एक ओर तो दूसरी ओर राशोरानी देवी (दक्षिणेश्वर काली मंदिर की अधिष्ठात्री) माँ शारदा, भगिनी निवेदिता, जैसी साधिकाएँ और पंडिता रमा बाई और सावित्री बाई फुले जैसी विदुषी, विद्या प्रसारक प्रतिभाओं से जुड़ती है। बीसवीं सदी में आध्यात्मिक संगठन भी अस्तित्व में आते हैं। अब तक भारतीय स्त्री राष्ट्रीय आंदोलन का अभिन्न अंग बन चुकी है - प्रत्येक धारा में उसकी उपस्थिति और सहभागिता है। लेकिन यहाँ मुद्दा आध्यात्मिक समानता का है और चर्चा को इसी विषय पर केन्द्रित रखना है। 1935-36 में सिन्ध के हैदराबाद में एक धनी स्वर्णाभूषण व्यापारी लेखराज खूबचंद कृपलानी ने एक ‘ओम मण्डली’ की स्थापना की जो जल्द ही स्त्रियों द्वारा नियंत्रित एक आध्यात्मिक संगठन में बदल गई। हालाँकि इसका स्वरूप एक शैक्षणिक संस्था का ही रखा गया - ब्रह्मकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय। इसकी प्रमुख स्थापनाएँ हैं - यह जाति-लिंग भेद को नहीं मानती, यह मानती है कि स्त्री को अविवाहित रहने का अधिकार है, और विवाहिता को यह अधिकार है कि यदि वह चाहे तो ब्रह्मचर्य का पालन करें। हैदराबाद (सिंध), कराची होता हुआ आज इसका मुख्यालय माउंट आबू में है, भिक्षुणी संघ के बाद शायद यह इतना बड़ा पहला धार्मिक स्त्री संगठन है जिसकी शाखाएँँ देश-विदेश में फैली हुई हैं।




बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में अध्यात्म के क्षेत्र में एक बड़ा स्त्री-व्यक्तित्व उभर रहा था - माँ आनन्दमयी (1896-1982)। ये अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थीं, लेकिन कम उम्र में ही इन्हें अलौकिक अनुभूतियाँ होने लगीं। बारह वर्ष की उम्र में इनका विवाह हुआ और सत्रह वर्ष की आयु में ये पति के साथ रहने लगीं। पति रमणी मोहन चक्रवर्ती को शीघ्र ही पता चल गया कि वे सामान्य स्त्री नहीं है और सामान्य पत्नी-धर्म नहीं निभा सकतीं। छब्बीस वर्ष की आयु तक माँ आनन्दमयी की ख्याति फैल चुकी थी। इसी समय स्वदीक्षा से वे संन्यस्त हो गईं। ज्ञान और गोक्ष-प्राप्ति के लिए वे स्त्री-पुरुष का भेद नहीं मानती थीं। वे आध्यात्मिक समानता के प्रति दृढ़ और प्रतिबद्ध थीं, इस सीमा तक कि उन्होंने ब्रह्मज्ञानी स्त्रियों को यज्ञोपवीत पहनाया। उन्होंने अपने पति को स्वयं ही संन्यास की दीक्षा दी और उन्हें नया नाम दिया - भोलेनाथ। वे स्वयं एक सिद्ध संत हुए।





उपरोक्त उदाहरणों और दृष्टांतों को प्रस्तुत करने का आशय यह है कि भारतीय स्त्रियाँ प्रागैतिहासिक काल से शिक्षा-धर्म-अध्यात्म के क्षेत्र में दखल देती आई हैं, विशेषकर मध्य युग की लाख प्रतिकूलताओं के बावजूद। ये स्थापित सत्ताओं को चुनौती देती रहीं और कुल मिला कर उन्हें पुरुष वर्ग का भी साथ मिला। इन्होंने धर्मशास्त्रों का सहारा भी लिया और अपनी आवश्यकतानुसार उसकी पुनर्व्याख्या भी दी। आज स्थिति यह है कि स्त्रियाँ नगा सन्यासिनी बन रही हैं। उन्हें अखाड़ों में प्रवेश मिला है, वे महामंडलेश्वर की पदवी पा रही हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले दिनों में शंकराचार्य पद को कोई सिद्ध स्त्री सुशोभित करे। यहाँ राज-काज संचालन करने वाली और योद्धा स्त्रियों की चर्चा नहीं की गई, न ही समय-समय पर चले आंदोलनों और सामाजिक-राजनीतिक उभारों में सहभागी रही स्त्रियों की। यह उपलब्धि इसलिए भी अत्यधिक महत्व की हो जाती है कि पिछले कम से कम एक हजार वर्षों में अनेकानेक हिंस्त्र अभियानों और आक्रमणों ने भारतीय समाज को आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर गहरी क्षति पहुँचाई। स्त्रियों की स्थिति और भूमिका पर इनका सबसे विनाशकारी प्रभाव पड़ा। विडम्बना और दुर्भाग्य यह कि भारत की केन्द्रीय सत्ता पर उन्हीं मजहबों का कब्जा रहा जिनके यहाँ स्त्री-पुरुष समानता कोई महत्व का विषय ही नहीं रहा। और यह दौर लगभग सात सौ वर्षों का रहा जिसमें आम भारतीय स्त्री की स्थिति निम्नतम स्तर पर चली गई, और उससे उबारने का श्रेय भी हमारे विदेशी, औपनिवेशिक शासकों को मिला। अस्तित्व रक्षा के लिए हजार वर्षों से लगातार जूझते भारतीय समाज ने स्वतंत्रता का विहान देखा तो इसके पीछे ‘नवजागरण’ भले एक कारण रहा हो, लेकिन असल कारण तो हमारी खोई हुई स्मृति की पुनर्लब्धता था, जिसमें हमारे जीवन मूल्य थे, हमारे स्वप्न थे, हमारे संघर्ष थे - विद्रोहों-प्रतिरोधों की अटूट श्रृंखला जिनमें स्त्रियाँ न केवल भागीदार थीं, बल्कि कभी-कभी तो उनका नेतृत्व भी किया। स्मृतिहीनता और गुलामी से उपजी आत्महीनता के गर्त से हमें बाहर निकालने का काम मूलतः हमारे कवियों ने किया। उन्होंने अनेक विस्मृत महान स्त्री पात्रों की भी महिमा गाई, उन्हें पुनर्सृजित किया और यह पूरे उपमहाद्वीप में हुआ।





आज भारत में महिलाएँ जिस मुकाम पर हैं - लगभग सर्वत्र उनकी उपस्थिति है, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, उसे वास्तव में लोकतंत्र ने संभव बनाया है। भारत ही नहीं, यूरोप की महिलाओं ने भी बीसवीं सदी में जो कुछ अर्जित किया, वह लोकतंत्र से ही अर्जित किया। यों बीसवीं सदी के पुर्वार्द्ध में समाजवादी राज्य अस्तित्व में आए जो स्त्री-पुरुष के बीच कोई भेद सिद्धांततः नहीं मानते थे। दुनिया में कोई छत्तीस देश समाजवादी बने, आज उनमें से तीन ही बच गए हैं, लेकिन स्त्रियाँ कहीं भी राष्ट्राध्यक्ष नहीं बनीं, निर्णयकारी स्तर पर भी उनकी प्रतीकात्मक उपस्थिति भर रही। लेकिन लोकतंत्र ने स्त्रियों के लिए वह सब लभ्य कराया जिसकी कामना की जा सकती है।




अनामिका के ‘टोकरी में दिगंत’ को उपरोक्त संदर्भ और पृष्ठभूमि में रख कर उसके तत्त्व और महत्त्व को समझा जा सकता है। और इतना तो निश्चय ही कहा जा सकता है कि यह टोकरी जिसमें दिगंत कवयित्री ने रखा है, वह वास्तव में लोकतंत्र की ही सुलभ कराई है।




महाभारत के अट्ठारह श्लोकों में सावित्री की कथा आई है। इन श्लोकों को श्रीअरविन्द अपनी विचक्षण दृष्टि से देखते हैं और चौबीस वर्षों में चौबीस हजार पंक्तियों का महाकाव्य अंग्रेजी में लिख देते हैं - सावित्री। उसमें भी बारह बार संशोधन। बौद्धिक नहीं, अंतःप्रेरित, अंतरबोध से उपजा यह उद्यम है जिसके बारे में माँ (मदर) कहती हैं - ‘सावित्री’, विश्व को बदलने वाला मंत्र है। ध्यान देने की बात यह कि सावित्री उर्वशी नहीं है, यशोधरा भी नहीं, न ही वैशाली की नगरवधु आम्रपाली है। वह अपने आप में धरती पर ‘अतिमानस’ का अवतरण है - भौतिक जीवन को दैविक जीवन में रूपांतरित करने के लिए!


अनामिका



‘टोकरी में दिगन्त, थेरीगाथा 2014’ पढ़ते हुए सावित्री की कथा और श्रीअरविन्द का गढ़ा गया यह अपूर्व रूपक ध्यान में आता है। अनामिका कहती हैं कि नालंदा के खण्डहरों के निकट पुलकन सरोवर के किनारे नालंदा विश्वविद्यालय और उसके जलाए गए पुस्तकालय की राख की पोटली लिए बैठी थेरीगाथा की थेरियों की झलक उन्हें मिली थी। इसके बाद उन्हें बुखार आ गया, बुखार की तंद्रा में ही उनका थेरियों से संवाद चला जिसकी निष्पत्ति इन कविताओं (या कि कविता) के रूप में हुई। अर्थात ये कविताएँ एक अर्द्धचैतन्य अवस्था में रची गई हैं - अंतःप्रज्ञा से निःसृत भाविक ऊर्जा के आवेशन में। इनमें ज्ञान अनुभव, स्मृति और कल्पना - सब सन्निविष्ट हैं। इनमें प्रवाहमान चेतना कालगति का भी अतिक्रमण करती हैं। इन कविताओं में एक बेचैनी है जो किसी खोई हुए अनमोल वस्तु की खोज के लिए होती है। ‘वितृष्णा थेरी अब बोल पड़ी मेरे ही भीतर से’ कविता से यह खोज स्पष्ट होती है - 




‘...ऐसे ही किसी रोज

घर से निकली होंगी थेरियाँ

जो यह नहीं जानता,

वह कहाँ जा रहा है,

जाता है वह बहुत दूर,

कहती थी दादी

तो मैं भी चल ही दी!

जाना था मुझको नालंदा,

बुद्ध से मिलना

एकदम जरुरी था,

चली जैसे चलती है लू

हहास लिए,

बेरोक-टोक, आर-पार!’




विभिन्न पृष्ठभूमि की महिलाएँ अपने जीवन से विरक्त हो कर मानसिक शांति और आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए धम्म की शरण आई थीं। उन्हें परम पुरुष बुद्ध मिले, शांति मिली, मुक्ति मिली। इन स्त्रियों के लिए उन्होंने संघ के द्वार खोल दिए, यह जानते हुए भी इससे धम्म की आयु कम हो जाएगी। लेकिन जैसा कि भूमिका में अनामिका कहती हैं - "बुद्ध को अविश्वास स्त्रियों पर नहीं, पुरुषों के निग्रह पर था। उन्हें मालूम था कि स्त्रियों के संघ में शामिल होने के बाद भी पुरुष समाज अपने को इस हद तक नहीं बदल पाएगा जिसमें वह स्वतंत्र, स्वाधीन इकाई के रूप में स्त्री-अस्तित्व को स्वीकार कर सके। ढाई हजार साल पहले बुद्ध के सान्निध्य और मार्गदर्शन में ये महिलाएँ सम्बुद्ध हुईं, उन्हें चुनाव की स्वतंत्रता मिली और धार्मिक समानता के आधार पर मोक्ष की पात्रता मिली।"





थेरियों ने जो उदान में, अपने उद्गारों में जो अपने पूर्व जीवन की व्यथा-कथा कही है, ढाई हजार वर्ष बाद प्रायः उन्हीं जीवन-स्थितियों को अनामिका ने आज के नालंदा, मुजफ्फरपुर, वैशाली, मगध आदि क्षेत्रों में समाज जीवन और महिलाओं की स्थिति के बरक्स देखा, बल्कि उन पर लागू कर के देखा है। यह पूरा क्षेत्र कुल मिला कर थेरियों का धम्म-क्षेत्र, उनकी मुक्ति-भूमि है। ‘टोकरी में दिगन्त’ में ऐसे सांप्रतिक चरित्रों में थेरियों की तलाश है जो अपने साधारण जीवन के बड़े संघर्षों से जूझते बुद्धत्व प्राप्त कर रहे हैं। इनमें केवल थेरियाँ नहीं, थेर भी हैं। आम्रपाली, सुजाता, सुमंगला माता, मल्लिका जैसी संबुद्ध थेरियों और 2014 के मुजफ्फरपुर की मोनकिया धाय और फुर्सत बुआ के बीच कई सहस्त्राब्दियों का अंतराल पसरा है।





यह कविता पुस्तक अपनी संरचना में भी भिन्न है, विशेष है। भूमिका के बाद ‘पुरोवाक्’ में चार कविताएँ पूर्वपीठिका रचती हैं। इसके बाद तीन अंक हैं।



अंक-1- ‘थेरियों की बस्ती’ में अट्ठाइस, 

अंक-2-‘ये मुजफ्फरपुर नगरी है, सखियों’ में चौवालिस 

और 

अंक-3- ‘चलो दिल्ली, चलो दिल्ली, वैशाली एक्सप्रेस: 2009 में तीस कविताएँ हैं।


सातों समुन्दर मेरा आँचल

सन-सन-सन बहती हुई सब दिशाएँ मैं

सृष्टि का पहला आँसू,

उद्दीप्त मुस्कान पहली

...सारा यह रूप तुम्हारा, तुम्हारी यह चेतना

मेरा उपहार है तुम्हें!’’ 




शब्द कैसे मुक्त कर सकते हैं, मुक्तिपथ तैयार कर सकते हैं, स्त्री-स्वातंत्र्य के संदर्भ में इसे बड़े नाटकीय अंदाज में, उल्लास-आह्लाद के साथ व्यक्त किया गया है - 



‘‘शब्द उड़े!

शब्द थे, पहुँचे तो होंगे

कहीं तक!


.... कहीं न कहीं तो पहुँचते हैं!

इन शब्दों की सोचते ही

पैरों में पंख लग गए मेरे!

छूट गए काम-धाम,


..छूट गई मैं पूरी-की-पूरी:

कम से कम कुछ क्षण

ऐसा लगा कि गा रही हैं हवाएँ होली,

उड़ रही हूँ, गुलाल बन कर मैं,

पीछे है बच्चों की टोली!

मत्तगयंद छंद में

पेड़ जंगल के

लिख रहे हैं

एक फगुनाहट-

लाल स्याही में गुलमुहर लिखते

और नीले में बस कुटम-कट-कट!

बज रही है ढोलकी,

भली भई मेरी मटकी फूटी,

मैं तो पनिया भरन से छूटी!’’ 



(वितृष्णा थेरी अब बोल पड़ी मेरे ही भीतर से)।


एक धरातल पर आ गए हैं। गली-मोहल्ले, चैराहे, स्कूल-काॅलेज- विश्वविद्यालय- पुस्तकालय, गणिकास्थान- देवस्थान- राजेन्द्र शाह की मजार .... सत्तर-अस्सी के दशक के शहर का मानो पुनर्जन्म हुआ है। इससे पहले चौवालीस कविताओं में किसी शहर का विश्वकोष इस प्रकार इतनी आत्मीयता, उत्कटता और रागात्मकता से शायद ही समाया हो। अनामिका अपनी भाषा में सामाजिकता का उत्सव रचती हैं। उनकी रचनाओं में रिश्तेदारियों-नातेदारियों और नेगचार के मोजराए हुए पेड़ हैं जिनकी सुगन्ध विभोर करती रहती है। उनकी पहली ही कविता में ननिहाल आता है और अंतिम कविता (हवामहल) में पापा। बीच के पन्नों में दादियाँ, मौसियाँ, फूफियाँ, चाचियाँ, दीदियाँ... अलग-अलग रूपों और संदर्भों में मिलती ही रहती हैं। सामाजिक सम्बन्धों का जैसा सघन और वृहत वृत अनामिका की कविताओं में मिलता है, बल्कि कथा-रचना में भी, वह अन्यत्र दुर्लभ है। उनके यहाँ जो भाषा में मिठास और आत्मीयता है उसका कारण यही है। इन्हीं सम्बन्धों को लिए वे वृहतर लोक से जुड़ती हैं - जहाँ सब अपने हैं, पराया कोई नहीं, और शत्रु तो खैर कोई भी नहीं। उनके अंदर संसार को ले कर मानो एक पारिवारिक भाव है 



‘‘...प्रिय मार्क्स

किसको कहें दुश्मन,

किससे संघर्ष करें

कि करीब से देखने पर

सब ही लाचार लगे:

किसिम-किसिम के दुःखों में गिरफ्तार!

हे बुद्ध, आप मार्क्स से एक काॅन्फरेंस काॅल कर लें,

हम भी तो सोच ही रहे हैं 

- क्या करें, क्या करें!’’ 


(दुःख की प्रजातियाँ)।




अंक-2 में कुछ बहुत प्यारी, मीठी कविताएँ हैं। इन्हें पढ़ कर मानो पाठक की मनश्चेतना में बताशे घुल जाते हैं - ‘वृद्ध दम्पति का प्रेमालाप: मिठनपुरा मुजफ्फरपुर’, ऐसी ही कविता है - 



‘‘...कुछ तो मुगाललें जरूरी है जीवन में:

बतरस-नदी और छंद-वंद, फूल-वूल

चिड़िया, तितली, चाँद, हिरण-विरण,

धरती की पूरी हरीतिमा

उपमानों से भी गायब हो गई तो बचेगा क्या?

तुमने मेरी सोच सुन ली

और हल्का मुस्कुराए

चूँकि मैं कंघी किए जा रही थी,

तुमने मजाक में कहा-

‘‘रूपसी, तेरा घन केशपाश....!’’



मैं भी हँसी और बोली-



‘‘अच्छा तो इतने दिनों में सुध आई,

अब, जब कि कंघी लगाते ही

इन बादलों में

चम से चमक जाती है सफेद बिजली

नई बहुरिया की फुर्ती से!’’



‘‘चाँदी का तार ये मुबारक है’’ तुम बोले


.../मुझको चौके तक जाने दो,

तीन बार खौला,

खौल-खौल सूख चुका पानी

क्या कहेगी केतली रानी-

‘‘कितने गपोड़े हैं ये दोनों प्राणी!’’


पूरी धरती ही है

वही सुजाता वाली

खीर की कटोरी!’’ (वापसी)। 



लेकिन यह मुक्ति सभी की मुक्ति में फलित होनी है, अनामिका के शब्दों में - 



‘‘आखिर तो मुक्ति स्त्री ही है,

तब ही तो हँसती-बतियाती

सदा झुंड में चलती है,

किसी को कभी भी अकेली नहीं मिलती!’’ 


(दुःख की प्रजातियाँ)।



अनामिका बार-बार अपनी परम्परा में लौटती हैं - स्त्री-स्वातंत्र्य के प्रतीक ढूँढने ही नहीं; बुद्ध के रूप में स्त्री-संवेदी ‘नवल पुरुष’, के पुनराविष्कार के लिए भी। वे मानो मातृभाव से संसार को देखती हैं और ‘मार’ को भी नया जन्म देने का हौसला और संकल्प रखती हैं - 


‘‘... तू मक्खी तो है ही, बैठे कहीं भी

लेकिन मुझमें व्यापेगा कैसे?

मेरा रस अन्तस्थ है। माँ हूँ मैं,

उदर में प्रवेश करेगा, तो आ,

आ, तुझको नया जन्म दे दूँ!’’ 


(उत्पलवर्णा थेरीगाथा)।



वास्तव में 'टोकरी में दिगन्त ....’’स्त्री-पुरुष समानता और ऐक्य के सन्दर्भ में कहीं न कहीं विऔपनिवेशिकीकरण का पाठ भी है जिसमें देशी स्रोतों और पाठों-दृष्टांतों को संजोने का यत्न है, और सम्भवतः, बल्कि तत्वतः, जिसका लक्ष्य सामाजिक अद्वैत को साधना और स्थापित करना है।





सम्पर्क 


शिव दयाल, 

ए1/201, आर. के. विला,

महेश नगर, पटना-800024




मो-9835263930


ई-मेल   sheodayallekhan@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. सुचिंतित व विश्लेषणात्मक आलेख।हार्दिक बधाई!

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  2. आलेख बहुत सुंदर बन पड़ा है। प्राचीन काल से आजतक के स्त्री-पात्रों जिसमें विदुषी, साध्वी, ध्यानी, तार्किक तथा आंदोलनकारी और क्रांतिकारी तक हैं, का समावेश है, आपने इतनी कुशलता से किया है कि आज का स्त्री विमर्श का प्रयास इसके आगे फीका लगता है।

    जवाब देंहटाएं

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