श्रीप्रकाश शुक्ल के कविता संग्रह ‘वाया नई सदी’ की यतीश कुमार द्वारा की गई समीक्षा 'एक उम्मीद लिए अभी भी'
आज जब पूरी दुनिया एक अजीब दौर से गुजर रही है, धार्मिक कट्टरता दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। मनुष्यता के लिए स्पेस कम होता जा रहा है। आक्रामक ताकतें अपने पड़ोसियों पर शक्ति का प्रदर्शन करने से हिचक नहीं रही हैं ऐसे में कवि अगर बेहतरी की उम्मीद कर रहा है, तो यह कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। सकारात्मक सोच ने इस दुनिया को बेहतर बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। कवि श्रीप्रकाश शुक्ल उम्मीद के कवि हैं। कवि श्रीप्रकाश शुक्ल का हाल ही में एक नया कविता संग्रह आया है ‘वाया नई सदी’। इस संग्रह की एक पड़ताल की है कवि यतीश कुमार ने। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं यतीश कुमार द्वारा लिखी समीक्षा 'एक उम्मीद लिए अभी भी'।
एक उम्मीद लिए अभी भी
यतीश कुमार
बहता हुआ
शहर लटक रहा था पुल से
और एक
बहुत पुरानी नदी
अपने
किनारों में कराह रही थी!
यह धूप
सेकने का नहीं
सूरज को
सोखने का समय है!
इस संग्रह से ‘ढेला’ कविता भी मुझे बहुत अच्छी लगी। इस कविता में ढेला सपनों
के प्रतीक की तरह रचा गया है। हर बच्चे की इच्छा होती है उसका ढेला अगली बार और
आगे जाए और एक दिन अंधेरे ने जिस स्वप्न को ढाँप रखा है उसको चीर दे और उसके सपनों
में उजाला कायम हो। हम सबका बचपन और बचपन का नन्हा पाक सपना ढेला कविता में सिमट
आया है। कवि की दृष्टि प्रकृति की हर एक हरकत पर है। उसे इसके संतुलन के खोने का
भय भी है और इसी भय और चिंता के बीच वो कहते हैं- झींगुर दरअसल यह तुम्हारी
पहरेदारी है प्रकृति की सुंदरता के लुट जाने के खिलाफ। झींगुर आख़िर कौन है? मेरी नज़र
में झींगुर व्हिसल ब्लोअर है जिसकी आवाज को पहचानने की आज ज़रूरत है।
नायक बनने
की हर अकड़ को
थोड़ा
अधिक आदमी बनने की तरफ़
मोड़ दिया
जाता है।
पेड़ की
अपनी जिजीविषा
राजा का
अपना आदेश
और आदेश
से अंधे होते भक्त, सोचना होगा
अब बंदर
को बचाने का जिम्मा किसका होगा
एक कविता
में और भला कितने प्रश्न हो सकते हैं
यह कविता कविताओं
की भीड़ में एक पताका है जो अपना ध्वज़ लिए दिख रही है।
कभी कभी
हंसा करो
हंसने से
आदमी जानवर होने से बच जाता है
देखो
पृथ्वी घूम रही है
और तुम हो
कि अपनी
परिक्रमा कर रहे हो
देखो
दुनिया में कितना उजाला है
और तुम हो
कि कमरे को दुनिया समझ बैठे हो
कितनी
सार्थक पंक्तियाँ हैं जो जगाने का आह्वान कर रही हैं। वही काम जो माँ रात को
सुलाते हुए कहती रही हैं और पिता सवेरे सवेरे उठा कर कहते रहे हैं। वही बात कविता
दो ध्वनियों के लय में कह रही है- अजी सुनते हो।
हिंसक पशु
में तब्दील हो रही है
आज के
परिप्रेक्ष्य में यह कविता कमज़ोरों के साथ खड़ी एक बुलंद आवाज़ है।
कविता ‘देवदारु की दुनिया’ मेरी
नज़र में आत्मकथा व स्व-यात्रा का निचोड़ है। जैसे लगता है कवि आपबीती सुना रहे हों!
एक बानगी देखिए जब एक पेड़ को प्रतीक बना कर कितनी गूढ़ बात कितने सुगढ़ तरीके से
कही गयी है-
स्मृति की
आँच में पकी
और संघर्ष
के पसीने से छकी है
अकड़ना और
तनना एक नहीं होता
अकड़ना
अपनी नसों में खिंच जाना है
तनना
अपने हर
रेशे को सही जगह पाना होता है
इन
पंक्तियों को पढ़ने के बाद आप थोड़ी देर के लिए सन्न रह जाएँगे। शून्य में खो
जाएँगे।
कविताओं में चुप्पियों के अलग-अलग रंग हैं और कविताएँ क्रमशः अपनी बात कहे जा रही है। ‘चुप्पियों के माध्यम से मन की बात’, ‘हत्या’, ‘लेकिन’, ‘भविष्य’ और ‘चुप्पी के ख़िलाफ़’ ये सारी कविताएँ इसी श्रृंखला की हैं। ये कविताएँ यह भी चेताती है कि अपनी भूमिका को भूल कर, दूसरों की भूमिका पर प्रश्न करने वाले पहले स्व-चिंतन करो!
कवि एक सचेत दृष्टा हैं जो प्रकृति में घट रही हर गतिविधियों पर पूरी नजर रखते हैं। कचकचिया पक्षी के बहाने वह सन्नाटा तोड़ने की बात करते हैं। कवि उस पेड़ के लिए भी चिंतित हैं जो ढेरों घंटियों और धागों से पटा है और आशाओं के बोझ से गिरने वाला है। कविता जब जंगल, पेड़, पक्षी, फूल और आदम इन सभी को बचाने की मुहिम में बदल जाए तो कविताएँ अपनी सार्थकता और जिम्मेदारी का निर्वाह करती है। इन कविताओं में बड़ी मारक पंक्तियाँ रह-रह कर आती हैं।
उदाहरण के
तौर पर यह देखिए जहां कवि झुकने को रोपने जैसी बड़ी बात से जोड़ते हुए लिखते हैं-
झुकना
किसी का रोपना ही तो है।
रौ और लौ का इतना सुंदर प्रयोग दुर्लभ है। चढ़ने को उतरने का अर्थ समझाते कवि अचानक कह उठते हैं कि आत्मनिर्भर होता देश अब रोटियों से आगे निकल चुका है! कवि की नज़र से बच्चे की वह चुप्पी नहीं बचती जो खिलखिलाने की आवाज़ से ज्यादा बड़ी है। यह भी कि शांत बच्चा किसी भी अशांत नागरिक से ज्यादा मुखर है।
`बच्चा’ बहुत मार्मिक कविता है। पढ़ते हुए भावनाओं के तार झंकृत होते हैं।
न तो माँ
को पता है
न ही इस
कविता को
कि इनको
किस पते पर जाना है
सड़क
सुनसान है
और आदमी अपनी
ही छाया में क़ैद है
‘उत्तर-कोरोना’ कविता आज
का दृश्य रच रही है। आज के बदलते स्वरूप का, जिसमें आत्मीयता अदृश्य हो गयी है।
शासक उदार है पर उन्हें पाने की जल्दबाजी है। तारीफों के बीच सराहना शातिर हो चुकी
हैं। एक लम्बी दुखांत दृश्य श्रृंखला रचने वाली कविता है जो यथार्थ को अपने साथ
सही जगह पर टाँक रही है। कवि का इस विषय पर विस्तृत कार्य पहले भी हुआ है लेकिन यहाँ
कविताई है जहां पूरी किताब को चंद शब्दों में समेटना होता है। कवि अपनी इस कोशिश
में सफल हुए हैं!
संग्रह
में बहुत मीठी और प्यारी सी कविताएं है जैसे ` कोरोना में किचन’ जिसे पढ़ते हुए पाठक स्वयं मुस्कुरा उठेगा और
कहेगा हाँ ऐसा ही तो होता है। प्रेम में नोक-झोंक जब मीठे होते हैं तो उसका परवान
और प्रखर पर चढ़ता है। कविता में किचन के हवाले से यह भी कहा गया है कि चम्मच अगर
अन्य चम्मच की जगह हो तो यह प्रेम का ठहरना है और ठहरा हुआ पानी तीता हो जाता है।
कवि न सिर्फ बिखराव में प्रेम ढूँढते हैं बल्कि बिखराव से प्रेम भी करते हैं। जैसे
कवि का यह मानना कि प्रेमिका के बिखरे बाल सुलझे कढ़े बालों से सुंदर होते हैं।
कवि ‘गुरु के
नाम’ कविता में संत रविदास को याद करते हैं। ऐसे जैसे कोई
अपने अंतस में जलते विश्वास के दीये में तेल डाल रहा हो। कोरोना के समय जब ईश्वर
के डरे हुए स्वरूप की छाया कवि पर पड़ती है तो कवि रविदास के प्रति आस्था के दीपक
का लौ तेज कर देते हैं और कहते हैं- सदा जीवित हो मेरे भीतर, समस्त
अंधकार को प्रकाशित करते हुए!
कोरोना के
विषय को केंद्र में रख कर लिखी गई कविताओं में ‘असहाय
प्रार्थनाओं के इस दौर में’ एक ऐसी कविता है जहाँ कवि लिखते समय प्रकृति की
विराटता को समझाने की कोशिश करते हैं-
जब समय
ऐसा है कि प्रेम है पर कम्पन नहीं
वहाँ
एक उम्मीद
लिए अभी भी
पेड़ की
शाखाएँ एक दूसरे का आलिंगन कर रही हैं !
जीवन में
सृजन का सुख
कमरे के
भीतर नहीं मिलता
वो वहाँ
से मिलना शुरू होता है
जहाँ से
दीवारें विसर्जित होती हैं !
और अंत में शीर्षक कविता
समीक्षा- वाया नई सदी (काव्य-संग्रह)
सस्नेह आभार यतीश जी।कविता के साथ आपका गद्य भी सुंदर होता है।
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार यतीश जी।कविता के साथ आपका गद्य भी सुंदर होता है।आपकी अध्ययनशीलता आकर्षित करती है।आपके भावक की बेचैनी भी मनोहर है।
जवाब देंहटाएं