नेहल शाह की कविताएँ
नेहल शाह |
संक्षिप्त परिचय:
डॉ नेहल शाह, भोपाल मेमोरियल अस्पताल एवं अनुसन्धान केंद्र, भोपाल, फ़िजिओथेरेपिस्ट के पद पर विगत 15 साल से कार्यरत हैं। उन्होंने सन 2002 से (अपने कॉलेज के द्वितीय वर्ष से) हिंदी में लेखन, प्रमुखतः कविताओं के रूप में प्रारंभ किया। वे
लगभग बीस वर्षों से कविताएँ और कहानियां लिख रही हैं। वे बुलंद प्रजातंत्र, दिल्ली से प्रकाशित समाचार पत्र के लिए नियमित लेख लिखती रही हैं। उनकी ब्लॉग लिखने में रूचि है एवं वे कहानियाँ भी लिखती हैं। उनकी कहानी और कविताएँ देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। उनका अहसास नाम से एक कविता संग्रह भी प्रकाशित है जिसमे उन्होंने अपने 18 वर्ष से लेकर 25 वर्ष की उम्र तक लिखी कविताओं का संकलन किया है।
वे बचपन से ही कला से माँड़ना और रंगोली के माध्यम से जुड़ी हुई हैं। क्यूंकि शिक्षा चिकित्सा क्षेत्र में हुई अतः मानव आकृतियों को रचनात्मक रूप में देखना का उन्हें अच्छा अनुभव मिला। अपने कॉलेज के दिनों में उन्होंने चिकित्सा क्षेत्र से सम्बंधित एक किताब के लिए एक इलस्ट्रेटर के रूप में काम किया। पारंपरिक कलाओं के प्रति उनका आकर्षण सदैव ही रहा, जैसे, माँड़ना, मधुबनी/ मिथिला कला, आदिवासी कला और वारली कला। वे कला के क्षेत्र में नए प्रयोग करने में विश्वास रखती हैं अतः उनकी कलाकृतियाँ
नवीनता का भाव उत्पन्न करती हैं।
नेहल शाह की कविताएँ
1स्त्रियाँ रसायन से चलती हैं
स्त्रियाँ रसायन से चलती हैं
एक
जैसा नहीं रहता उनका मन
और
इसलिए
हमेशा
हँस नहीं सकती।
उनके
भीतर के स्टार्च रसायन से,
जब
भी कोई भाव मिलता है,
वह
भाव
और
गाढ़ा हो जाता है।
जिसे
तरल करने के लिए कई लीटर
पानी
डालना होता है,
उनकी
भावनाओं पर।
संबंध
पानी
और स्त्री का
प्रगाढ़
है।
वे
स्त्री को
पानी
से भरा देखना चाहते हैं।
इसलिए
जितना
पानी है,
उतने
घड़े हैं
स्त्रियों के पास
सहेजने
के लिए।
मेरी
माँ कहती है,
स्त्रियाँ अपने बच्चे को पोसते हुए,
हज़ारों
घड़े दूध पिला देती हैं।
(मुझे
नहीं लगता
कि
किसी के पास
इसका
कोई हिसाब है)
और
कहती हैं
स्त्रियाँ
बे हिसाब देती हैं,
बिना
कुछ वापस लिए।
मैंने
पाया कि
इस
उदारता में वे
सबसे
अधिक अपना समय
गंवाती
हैं।
शायद
इसलिए घड़ी के मायने
उनके
लिए अलग हैं।
वे
घड़ी में या तो
उसके
डायल का आकार देखती हैं,
या
उसके पट्टे की मैचिंग,
समय
से उनका अधिक सरोकार नहीं
वे
उसकी पाबंदी बर्दाश्त नहीं करतीं।
इसके
विपरीत,
स्त्रियों
की देह
अनुशासित
होती है।
अनुशासित
देह और स्वच्छंदी मन,
शायद
संघर्षपूर्ण जीवन के लिए अपर्याप्त थे,
इसलिए
उन्हें गाढ़े दागों की काया के साथ,
बेदाग़
जीवन जीने का फरमान मिला।
औऱ
स्त्रियाँ जीती रहीं हैं
इस
क़रीने से
कि
कोई दाग न लगे कभी
उनके
कपड़ो पर,
उनकी
अस्मत पर।
जबकि
उन्हें होना चाहिए,
आज़ादी
बडे-बडे
धब्बों के साथ,
शान से जीने की।
जिजीविषा
मैंने आज देखा
स्वयं को कुछ इस तरह-
नींद के इस छोर पर खड़ी थी मैं,
युवा, स्फूर्त और सचेत।
और उस छोर पर, वे,
कांतिमय किन्तु उम्रदराज,
जीर्ण किन्तु जिजीविषा लिए हुए।
एक खूबसूरत युवा पुरुष उनकी
देख रेख कर रहा था।
मैं उन्हें देख रही थी,
एक चिकित्सक की हैसियत से
और वे मेरी ओर ऐसे देख रहीं थी,
जैसे देख रहीं हो अपना ही अक्स
एक स्वच्छ नदी में,
जो उनमें प्राण फूँक रही हो,
उन्हें उनकी युवावस्था दिखा रही हो।
वे मुझे देखती रहीं,
अपलक, निर्विकल्प।
मैंने जब हाल पूछा तो बोलीं
तुम मुझे बचा लो,
बस एक कविता से।
मैं देखती रही उन्हें आश्चर्य से,
और अगले ही पल
ढूंढने लगी कविता की किताब,
अपने आस-पास,
पढ़ने कोई कविता जो,
बचा सके उन्हें।
उनकी साँसे कुछ थमी हुई सी थीं
लेकिन वे मुस्कराई,
बोली- तुमसे मिल कर आश्वस्त हूँ,
कि तुम मुझे बचा सकोगी।
मैंने उनकी इस बात का सिरा पकड़ कर
उन्हें बिस्तर पर करवट से बिठा दिया।
वे बैठते हुए बोलीं
जानना चाहोगी- कैसे?
मैंने हाँ में सिर हिला दिया,
मेरा ध्यान उनके संतुलन पर था,
और उनका मुझ पर।
वे गुनगुनाने लगीं एक कविता,
जानी पहचानी सी,
खिड़की की ओर देख कर,
वह कविता
जो कभी मैंने अपनी युवा अवस्था के
नयेपन में लिखी थी।
उनके गाते ही मैं दिखने लगी,
खिड़की के बाहर,
हाथ में डायरी और पेन लिए,
लिखती हुई वह कविता जो गा रही थीं वे।
मैं लिखती जाती,
वे गाती जाती,
और देखती जातीं, मुझे,
कभी खिड़की के बाहर,
कभी अपने नज़दीक।
वे मुझमें अपना वर्तमान जी रही थीं।
वे कहने लगीं,
कि मैं आश्वस्त हूँ कि तुम बचा सकोगी मुझे,
क्योंकि तुम अब भी पहचानती हो कविता।
अपनी संवेदना से।
तुम रख सकती हो जीवित मुझे
एक कविता से।
और फिर,
मेरी नींद का बांध टूट गया,
सुबह कमरे की बत्ती जलने से।
मैं उठते ही उतारने लगी यह कविता
जो मैंने नींद में जाग कर रची थी,
स्वयं को जीवित रखने के लिए।
संरचना
मैंने यह जाना कि,
मनुष्य को जब से मनुष्य कहा जा रहा,
तब से उसकी संरचना तय है,
कोई खास बदलाव नहीं आया उसमें।
(इधर स्पष्ट कर दूँ कि में मनुष्य में स्त्री और पुरुष दोनों गिनती हूँ)
किन्तु!
युग बीत जाने पर भी
स्त्री-देह अब भी जिज्ञासा का विषय है। आश्चर्य है!
इतनी वैज्ञानिक प्रगति हो जाने पर भी
स्त्री की संरचना को
कोई स्वीकृति नहीं मिली।
उसे अजब अचंभे सा देखना या
अनाधिकृत टटोलना आज भी जारी है।
ऐसा भी नहीं
कि जो देखता, टटोलता है,
वह अनभिज्ञ तबका है,
या असभ्य समाज का हिस्सा.
बस उनके देखने, छूने के कारण अलग हैं।
न जाने कहाँ से आते हैं वे,
घूर कर और टटोल कर
न जाने कहाँ को चले जाते हैं?
कुछ लोग उन्हें पुरुष कहते हैं
तो क्या, पुरुष ऐसे होते हैं?
या केवल उनकी शारीरिक संरचना पुरुषों जैसी है?
क्या स्त्री को आवरण से ढ़क देना,
उसे नग्न होने से बचा सकता है किसी पुरुष की नज़रों में?
मुझे एक किस्सा याद आ जाता है,
द्रौपदी चीर हरण का,
जब पांडव उसे भरी सभा में,
जुए में हार गए थे,
और वह लज्जित हो
चीख रही थी न्याय के लिए,
रोक रही थी खींचने से अपना आवरण,
कृष्ण को याद कर रही थी,
कृष्ण आये और बढ़ा दिया उसका चीर,
भगवान जो ठहरे,
इस दृश्य पर सभी ने बहुत तालियां बजाई,
मैंने भी।
किन्तु,
क्या सही मायनों में
कृष्ण उसे निर्वस्त्र होने से रोक पाए थे?
क्या वह निर्वस्त्र नहीं हो गई थी सभा में बैठे प्रत्येक व्यक्ति की कल्पना में?
औऱ आज भी जब इस बात का ज़िक्र होता है,
वह अनावृत हो जाती है हमारे जेहन में,
किसी प्रेक्षागृह की तरह।
और हम कृष्ण को ढूंढते फिरते हैं
उसके आवरण के लिए।
और सोचिए जो कृष्ण समय पर न पहुँच पाते,
तो भी वे एक स्त्री की संरचना से अधिक
और क्या देख लेते?
नींद की चिड़िया
नींद की चिड़िया,
बिखरे हुए सपनों को इकठ्ठा कर
एक घोंसला बनाती है।
उन सपनों में से ही
किसी एक सपने की गोद में,
मैं आराम करती हूँ
कुछ देर को।
वह चिड़िया भी बैठ जाती है
मेरे जूड़े की खोह में
आंखों में नींद लिए
और चोंच में सपना।
मैं अब नींद की नींद में पहुँच कर
देखती हूँ सपने के भीतर का सपना
जहाँ कई स्त्रियाँ हैं,
जो अपने केश खोल कर
बरसों से जाग रही हैं।
वे सभी अपने गर्भ में नौ महीने का
बच्चा पाल रहीं हैं।
सबके कंधों पर चिड़ियाँ बैठीं हैं।
किन्तु चिड़ियाँ कंधों पर ठीक से सो
नहीं पा रहीं,
शायद इसलिए,
उनकी चोंच में कोई सपना नहीं है।
और स्त्रियों ने अपने सपने
गर्भ में पल रहे बच्चों के नीचे बिछा दिए।
अब संभव नहीं वहाँ
बिन नींद के सपना,
और बिन सपने के नींद।
वे स्त्रियाँ सदियों से,
राह देख रहीं हैं किसी की,
जो उस सपने के सपने में पहुँच कर उन्हें
या तो एक पल की नींद दे जाए
या सपना।
और फिर जगा कर उन्हें बाहर ले आये
उस बिन नींद और बिन सपनों की दुनिया से।
मैंने कई रातों की नींदों में दाखिल हो,
कई सपने रच लिए थे।
जिसमें से
मेरा सबसे प्रिय सपना
मेरी आठ माह की बेटी मेरे गर्भ में ही छोड़ कर चली गई थी।
मैं अपने उस सपने से,
उन स्त्रियों की इस विचित्र अवस्था तक पहुँच जाती हूँ।
विस्मय से भर जाती हूँ देख कर
उनकी सदियों से खुली सुर्ख आँखे,
सूखे होंठ, रूखे खुले केश,
दर्द भरा वक्ष, सूजे पैर
और नौ माह का परिपक्व हुआ गर्भ
मैं उन्हें रोकने के लिए आवाज लगा रही हूँ।
किन्तु न वे रुकती हैं,
न मुझे देखती हैं।
मैं प्रयास करती हूँ कि
मैं पहुँच सकूँ उस प्रथम स्त्री तक
जो पहली बार
इस बिन नींद के सपने में पहुँच गई थी
और उसे कुछ देर को सुला सकूँ,
किन्तु, वह कहीं खो गई है।
मैं रोकती हूँ
मुझे दिख रही आखरी स्त्री को चलने से,
किन्तु वह भी चलती जा रही है।
मैं उसके कंधे से चिड़िया उठा लेती हूँ
और उसे प्रेम से जगा कर एक सपना देती हूँ,
सपना देते ही वह उड़ने लगती है।
उसके उड़ते ही,
सपना अनंत गुना हो जाता है।
सभी चिड़ियों की चोंच में आ जाता है।
मैं देखती हूँ,
वे स्त्रियाँ अपने केशों को गूंथ कर बांध रही हैं,
चिड़िया उनके जूड़ों में सपने सजा रही है
वे सभी कुछ पल को सो कर जाग रही हैं।
(उस सपने के सपने से बाहर आने के लिए सो कर जागना बहुत जरूरी था)।
वे सपने से लौटते हुए अपने बच्चे जनती हैं, और उस पल भर की नींद से बाहर आकर
देखती हैं,
एक ओर उनका बच्चा,
और दूसरी ओर सपना सो रहा है।
वे खिड़की पर बैठी चिड़िया को देख कर मुस्कराती है।
खुरदुरा मन
जब तुम जा रहे थे,
छोड़ कर मुझे,
और घाव मेरे मन पर,
तब पानी की शांत सतह सा
चिकना मेरा मन,
जिस पर कभी तुम्हारा अक्स दिखता था,
कुछ हिल सा गया था,
कुछ मटमैला,
रेतीला सा,
कसमसाहट से भर गया था मेरा मन।
मेरे मन में उस दिन
पहली बार ही दर्द हुआ था,
मुझे याद है,
वह दर्द बहुत गीला था,
आखों से बह जाता था।
समय बीतता गया
और दर्द गाढ़ा होता चला गया,
ठहरने लगा,
मुश्किल से बाहर निकलता,
और ठस के रह जाता
दिल में खून के थक्के की तरह।
फिर दर्द जम गया है,
चोट में उगी पपड़ी की तरह,
कुरेदो तो नया घाव बना देता।
ऐसे ही कई घाव ले कर,
अब खुरदुरा गया है मेरा मन,
किसी पेड़ की छाल की तरह।
जिसे, अब कोई नहीं सहलाता
कोई अक्स भी नहीं बनता इस पर
किन्तु अब जो भी अंकित होता है
इसकी सतह पर,
वह रह जाता है हमेशा, हमेशा के लिए।
सच पूछो तो,
तुम्हारी चाह के विरुद्ध,
मुझे ऐसा ही मन चाहिए था
खुरदुरा सा,
चाँद की सतह जैसा,
उबड़-खाबड़।
किन्तु, मैं ये भी जानती हूँ
कि तुम चाँद से प्रेम करते हो,
चाँद की तारीफ करते हो,
तब क्या ये भूल जाते हो?
कि पृथ्वी से जो अक्स दिखते हैं
चाँद पर,
खुरदुरा है चाँद का भी मन।
प्रेम कविताएँ
कविताएँ जो तुमने लिखीं थी
प्रेम पर कभी
कागज के बचे हुए पुर्जो पर,
किसी किताब के बीच में,
दबा दी थीं कहीं,
कुछ अधूरी रह गयीं थीं,
हमारे मिलन की तरह।
तुम्हारी दी हुई किताब से, आज
ऐसा ही कोई पुर्जा निकला है,
जिसके अक्षर उड़ चुके हैं
आकाश में पक्षी बन कर।
मैं करती हूँ प्रयत्न,
जब भी उसे पढ़ने का,
तो ये पक्षी उड़ कर
मेरे आँगन में आ जाते हैं।
और तुमने जो लिखा था,
उस कागज में मुझे कहने के लिए,
मेरे एकांत में ये वही दोहराते हैं,
हमारे प्रेम की कविता पूरी कर जाते हैं।
लिबास
तुम नहीं चाहते न
कि वह देखे स्वयं को
दिन के उजाले में।
तुमने उसे लिबास में ढँक दिया,
कई रंगों के,
सिर से ले कर पैर तक।
अभी-अभी उन्होंने
किसी को दफन किया कब्र में,
मिट्टी की इतनी तहें
कि किसी साँस को अनुमति नहीं
भीतर जाने की।
सोचा है कभी,
कैसे जीती होगी उसकी देह
इतनी तहों के भीतर?
सुनो! इन कमल के
असंख्य पत्तों के नीचे छिपे
पानी की ध्वनि को,
कितनी, तरल, सरल, सौम्य है।
वो देखो,
वे उसे नसीहतें दे रहे हैं,
सलीका सिखा रहे हैं
दुनिया में रहने का।
वह चिड़िया
किसी पुराने पेड़ की खोह में
भटक गई है,
छटपटा रही है, बाहर आने को
अरे ये अंधकार!
कहाँ गया उसका लिबास?
किसने छीन लिया?
देखो न! यह अंधकार
जैसे मनुष्य के मन
की नग्नता ढँक देता है।
अरे! कितने थेगड़े लग
उसके लिबास पर सफाई से,
सभी सुराख सी दिए गए।
है न?
तुम डरे!
कि उसके लिबास के
सुराख देख न लें रोशनी,
कहीं कोई चैन की साँस ले,
स्वच्छंद न हो जाये वह।
कभी देखी है ऐसी कोई गुफा
जिसके झरोखे से
सूरज यूँ झांकता है कि मानो
रात वहीं रुक कर आराम करता रहा हो।
तुम्हारे लिए
वह एक लिबास है
अंधकार से बुना हुआ,
जो ढँक देता है
तुम्हारे हर संताप को।
अच्छा सच कहो!
क्या तुम्हें आत्मा की समझ है?
और यह भी कहो!
क्या तुम्हारी आत्मा का भी कोई लिबास है?
डिब्बी में चाँद
बचपन में माँ को
इक छोटी सी डिब्बी में,
ढेर सारे चाँद रखते देखा,
आपने माथे पर सजाते देखा,
रंग बिरंगे,
गोल,
जो कभी आधे नहीं होते थे,
छुपते भी नहीं,
अब बड़ी हूँ
तो चाँद कभी दीखता है पूरा,
कभी आधा,
कभी छुप जाता है,
रंग भी उड़ा सा दीखता है,
वह डिब्बी जो माँ के पास छूट गयी,
शायद,
उसमें अब भी कुछ चाँद पड़े होंगे।
अपनी पसंद के रंग
मैं सोचती रही कि
मुझे आज़ादी है चुनने की
रंग अपनी पसंद के।
किन्तु बाहर की दुनिया में
ऐसा संभव न हुआ,
उनके लिए मैं भी एक रंग ही थी,
जो बहुत साफ नहीं था।
मुझे मनाही थी
उन सपनों को देखने की
जिनका रंग हरा था,
लाल मुझे उनके ज्योतिषी ने
पहनने से मना किया था,
क्योंकि मेरा मंगल भारी था।
उन्हें, पीला मुझ पर जँचता न था,
काला अशुभ था,
नीला केवल वे पहन सकते थे।
सफेद पहनने से
उन्हें दाग लगने का डर था
मेरी अस्मत पर,
और उन्होंने भी सफ़ेदी
का जामा पहन रक्खा था,
भला मैं बराबरी कैसे करती
वे कहते गुलाबी बहुत नाजुक है मेरे लिए
और उसे पहनने की मेरी
उम्र जा चुकी है।
कत्थई रंग की
कई कहानियां थीं
उनके और मेरे बीच,
जिनके कथानक बहुत अच्छे नहीं थे,
और एक दर्द जैसा जम गया था,
कत्थई रंग का मेरी आँखों में।
नारंगी बहुत प्रचलित था उनके बीच,
मुझे रंग तो पसंद था
किन्तु वे नहीं
सो, मैं पहन नहीं पाती।
मैं बदरंग सी लेटी रहती
शाम के किसी छोर से
अपने बालों को गूँथ कर
एक बेरंग, फीका सा रिबन लगा कर।
मैं पड़ी रहती
बैजनी रंग की उस बेला में,
(जहाँ मुझे परहेज़ था
दिन और रात के मिलने से)
स्याह रात का नकाब ओढ़,
अपने बिस्तर के कोने पर,
किसी पलट कर रखी हुई अधपढी खुली किताब की तरह।
वे मेरा नाम पुकारते
मैं सुन कर भी को प्रतिक्रिया न देती,
क्योंकि में छोड़ चुकी थी उनका
हर एक रंग।
किराये
का
मकान
मैं अब ऊब चुकी हूँ,
किराये के मकानों से,
मैं थक चुकी हूँ,
उन्हें बदल बदल कर।
किराये के मकानों में रहने का,
उनका समय होता है,
हम नहीं ठहर सकते वहाँ,
अपनी मर्जी से,
न ही कोई कील ठोक सकते है,
अपनी इच्छा से,
किसी तस्वीर को टाँगने के लिये।
मैं हर बार
करती हूँ उपचार,
कि किराये के मकान में रहते हुए,
कभी अपने मकान की नींव डाल दूँ,
पर अपनी इच्छाओं और जिम्मेदारी
के बोझ के आगे,
कुछ भी बचा नहीं पाती,
और कभी कुछ बच जाता,
तो किराये के मकान में रहने का,
कॉन्ट्रैक्ट पूरा हो जाता।
सच मैं थक चुकी हूँ,
अधूरी नींवों से।
मैं देखती हूँ कि,
बहुत कर्मठ थे वे,
जो किराये के मकान में रहते हुए
स्वयं के घर हो गए।
और मैं,
किराये के मकानों को ही,
कई जन्मों से सजती हूँ।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)
सम्पर्क
BPT, MPT(Cardiothoracic), PhD
Under Indian Council of Medical Research,
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