विमलेश त्रिपाठी का आलेख रेणु की कहानी पर बनी फिल्म संवदिया के बहाने कुछ बेतरतीब बातें
फिल्म का साहित्य से गहरा नाता रहा है। यह अलग बात है कि फिल्मों के साहित्य से सामंजस्य स्थापित कर पाने की कोशिश अक्सर विवाद का विषय रही है। जहां साहित्य अनंत आकाश की ऊंचाइयां भर सकता है वहीं फिल्मों की अपनी कुछ फिल्मगत सीमाएं भी होती हैं। फिल्मकार जनता की रूचियों और साहित्य के बीच एक सेतु बना कर चलने का काम किया करता है। इसीलिए वह किसी भी रचनाकार की कहानी या उपन्यास पर फिल्म बनाते समय ज्यों का त्यों नहीं चल पाता और यही साहित्यकारों की फिल्मकारों से शिकायत भी होती है कि वह कहानी को अपने अनुसार बदल लेते हैं। बहरहाल ऋतेश पांडे ने हाल ही में प्रख्यात उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी 'संवदिया' पर एक फिल्म बनाई है। इस फिल्म में कवि कहानीकार विमलेश त्रिपाठी ने भी एक छोटी भूमिका निभाई है। विमलेश त्रिपाठी ने खुद को अलग करके इस फिल्म को देखने की एक निर्मम कोशिश की है और इसी क्रम में यह समीक्षा लिखी है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं विमलेश त्रिपाठी का आलेख 'रेणु की कहानी पर बनी फिल्म संवदिया के बहाने कुछ बेतरतीब बातें'।
रेणु की कहानी
पर बनी फिल्म संवदिया के बहाने कुछ बेतरतीब बातें
विमलेश त्रिपाठी
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मेरा यह मानना है कि किसी भी कहानी पर
बनी फिल्म को देखने के पहले कहानी को पढ़ लेने की लालसा आपके अंदर नहीं जगनी चाहिए, अगर यह लालसा जगी और आपने
कहानी पढ़ ली तो उस पर बनी फिल्म देख कर उसके मूल्यांकन में आपसे अन्याय हो जाने की
संभावना शेष रह जाती है। कम से कम मेरे साथ तो यही है। दूसरी जो बात है वह कि किसी
साहित्यिक वह भी विशुद्ध साहित्यिक कहानी पर फिल्म बनाने के अगर बहुत सारे जोखिम
हैं जो उसके देखने के भी जोखिम जरूर होने चाहिए। उस जोखिम को जो दर्शक नहीं समझते
उन्हें हो सकता है कि फिल्म बहुत बकवास या उबाऊ लगे।
यहाँ एक बात और जोड़ देने का मन करता
है कि जिस तरह साहित्य के पाठकों में सहृदयता की जरूरत गुरू लोगों ने स्वीकार की
है उसी तरह साहित्यिक कथा पर बनी फिल्म को देखने वाले दर्शक से भी यह अपेक्षा रखना
कोई विवाद का मसला नहीं बनना चाहिए। तो पहले फिल्म देखी जानी चाहिए और बाद में अगर
जरूरी लगे तो कहानी पढ़ लेने में कोई बुराई नहीं है। लब्बोलुआब यह कि विशुद्ध
साहित्त्यिक कथा बर बनी फिल्म को बनाने के अगर औजार अलग हैं तो उनके दर्शक भी विशिष्ट
होने चाहिए वर्ना फिल्म की ऐसी की तैसी होना लाजमी है। यह बिल्कुल ‘पाती’ बात है और इस
बात से बहुत लोगों की असहमति हो सकती है। लेकिन बात है तो है।
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फिल्म किसने बनाई है या कितने संघर्ष
से बनाई है ब्ला ब्ला ब्ला से एक आम दर्शक का खास मतलब नहीं होता है – वह फिल्म को
फिल्म की तरह देखने का आदी होता है, दर्शक अगर सहृदय मानुष है और फिल्म उससे संवाद
स्थापित कर पाती है तो यह फिल्म की एक बड़ी सफलता मानी जानी चाहिए। मैं जोर दे कर
कहना चाहता हूँ कि 'संवदिया' फिल्म यह करने में सफल है इसलिए मैं इसे साहित्यिक कृति
पर बनी सफल फिल्मों की सूची में रखना चाहूँगा। मेरे पास इस फिल्म को देख कर कई
दर्शकों के भावुक हो जाने के संदेश आए। यह इसलिए कि बहुत निम्न स्तर पर ही सही, इस
फिल्म से मेरा भी जुड़ाव है। लेकिन सच मानिए इस फिल्म को मैं एक दर्शक की तरह ही देख
रहा था और बहुत पैनी नजर से देख रहा था - खुद को फिल्म बनने की प्रक्रिया इत्यादि
से डिटैच कर के भी। शायद यही वजह है कि मुझे अपने छोटे रोल के अभिनेता पर बहुत तेज
गुस्सा भी आया। यहाँ वह गुंजाईश दिखती है कि इस छोटे से रोल को यादगार बनाया जा
सकता था जिस तरह कि एक और कलाकार साथी मनोज झा ने किया है। वे अपने एक सीन में
जितने रिअल हैं उतना ही रिअल यदि फिल्म का हर चरित्र हो पाता तो फिल्म कुछ और ही
होती।
लेकिन यह एक ऐसे दर्शक की माँग है
जिसने फिल्म देखने के लिए घर में चोरियाँ कीं, माँ के कटु वचन और पिता के रूल को
भी सहा और तो और भाई बहनों की उपेक्षा भी सही। जिसने सड़ी से सड़ी हिन्दी की
कमर्शियल फिल्में देखी और समानांतर कहे जाने वाले सिनेमा को भी देखा-परखा -
अंग्रेजी भाषा की समझ न होने के कारण अंग्रेजी फिल्में गिनी-चुनी ही देख पाया लेकिन
पिछले 3 सालों में लगभग चार सौ बांग्ला की फिल्में और सिरीज भी देखे। लेकिन बहुत
सीमित संसाधनों से बनी एक फिल्म से इस तरह की माँग मुझे ज्यादती ही लगती है।
इस फिल्म के निर्देशक से जब इस बारे में मेरी बात हुई तो उन्होंने अन्य समस्याओं के साथ जो बड़ी समस्या गिनाई वह बजट की ही थी। अच्छा मान लिजिए कि संवदिया के रूप में अगर पंकज चतुर्वेदी या मनोज वाजपेयी को कास्ट किया जाता और बड़की बहुरिया के रूप में स्वरा भास्कर को तो फिल्म में क्या परिवर्तन आता? जाहिर है कि इस या इस तरह के कई और प्रश्नों के उत्तर आप जानते हैं। यहाँ कहना यह है कि निर्देशक ने उपलब्ध कलाकारों के साथ बहुत ही सीमित बजट में एक बहुत ही मार्मिक फिल्म बनाई है, नहीं, बनाने का जोखिम लिया है और इस जोखिम की तारीफ होनी चाहिए।
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फिल्म की एक बहुत बड़ी विशेषता इसकी
फोटोग्राफी है। मैने बुद्धदेव दास गुप्ता की लगभग सारी फिल्में देखी हैं। उनकी फिल्मों में दृश्य कविता की तरह आते हैं। मुझे लगता है कि उनकी
फिल्मों के कई दृश्य ऐसे हैं जिनके सामने बहुत अच्छी कविताएँ भी नहीं टिक सकतीं।
यहाँ कहना यह है कि इस फिल्म में फोटोग्राफर ने कई दृश्यों में कथा के सूत्र रचे
हैं, फिल्म का पहला ही दृश्य एक मुकम्मल कथा की तरह आता है और दर्शकों को अपने
सम्मोहन में ले लेता है। विशाल ने इस फिल्म में कैमरे का अद्भुद इस्तेमाल किया है
जो उनकी प्रतिभा की झलक तो देते ही हैं साथ ही वे इस फिल्म में वह कर दिखाते हैं
जो रेणु कहानी में नहीं कर सकते थे या बहुत कम कथाकार कर पाएंगे। यह इसलिए भी है
कि माध्यम की भिन्नता के कारण कहानी में जहाँ हर पाठक अपनी समझ और प्रतिभा के साथ
दृश्य को कल्पित करता है वहीं फिल्म में वह उसके सामने साक्षात उपस्थित रहती है –
यहीं एक डीओपी और निर्देशक की चुनौती बढ़ जाती है क्योंकि उसे दर्शक के सामने एक
ऐसा दृश्य उपस्थित करना होता है जो उसके मनो मस्तिष्क में जगह बना ले। कहना चाहिए
कि इस फिल्म में दृश्यों का संयोजन बहुत ही अर्थगर्भित और कथात्मक है। कथात्मक कह
दिए जाने से कविता पीछे नहीं छूट जाती। यहाँ उपस्थित दृश्यों में कथा के भीतर
अदृश्य कविता को आप महसूस कर सकते हैं।
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फिल्मी भाषा में यह एक नायक प्रधान
फिल्म है। फिल्म का शीर्षक भी 'संवदिया' है जिसका काम लोगों के संवाद दूर-दराज तक
पहुँचाना है। फिल्म का पूरा फोकस नायक पर ही है। फिल्म यह बताने में बहुत हद तक
सक्षम है भी कि डाक के आ जाने के बाद संवदियों की भूमिका समाप्त हो गई है और वे
लगभग बेरोजगारी और तंगहाली का जीवन जीने को बाध्य हैं। लेकिन फिल्म यह भी बताती है
कि संवदिया ऐसे लोग होते थे जो कामचोर और भूखड़ होते थे जिनके आगे पीछे रोने-गाने
वाला कोई न होता था उनका जीवन ‘यहाँ साँझ वहाँ विहान’ के
सिद्धांत पर आधारित हुआ करता था। लेकिन फिल्म के आगे बढ़ते-बढ़ते संवदिया एक बहुत
ही दायित्वशील, भावुक और ईमानदार चरित्र बन कर उभरता है। अवश्य ही नायक की भूमिका
निभाने वाले दीपक ठाकुर उस चरित्र को और प्रभावी, विश्वसनीय और मार्मिक रूप दे
सकते थे। इस किरदार को जीते हुए उनके अभिनय की सीमा समझ में आ जाती है। यहाँ एक
बात उनके कस्ट्युम पर भी कर लेनी चाहिए। यह मेरी अपनी व्यक्तिगत धारणा हो सकती है
लेकिन यदि संवदिया की धोती थोड़ी मटमैली होती, बार-बार
पहन कर धूसर-सी हो गई, गमछा भी पुराना ही होता और कुरता गुलाबी न हो कर क्रीम कलर
का होता और वह भी प्लास्टर का, अधी का तो बिल्कुल नहीं तो क्या उस समय के संवदिया
कहे जाने वाले लोगों की तंगहाली की झलक थोड़ी और अधिक न उभर पाती? हाँ, अगर आपको संवदिया को ऐसा ही दिखाना था तो जब नया कुरता था, नया
गमछा था और नया छाता था तो एक नया जूता भी पहना ही सकते थे न। जब कास्ट्यूम की बात
हो रही है तो बड़की बहुरिया की माँ की साड़ी रंगीन न होनी थी और उनके माथे पर
बिन्दी तो बिल्कुल ही न होनी थी – उनकी माँग में सिंदुर का न होना उनके विधवा होने
का संकेत देता है और जिस समय रेणु कहानी लिख रहे थे या जिस समय की कहानी रेणु लिख
रहे थे या यह भी नहीं तो जिस समय की कथा यह फिल्म कह रही है उस समय गाँव की
विधवाओं का पहनावा किस तरह का रहा होगा, इस पर तनिक ठहर कर सोचने की जरूरत थी। हो सकता है कि वे विधवा न भी हों तो उनकी माँग का सिंदुर स्पष्ट होना
चाहिए था। और यह कि माँ की भूमिका में आशा पाण्डे की उम्र थोड़ी और ज्यादा दिखनी
थी। उनके होंठ का लिपिस्टिक मुझे थोड़ा खटका। यह भी कि उन्हें देख कर लगता है कि
उन्होंने सन्यास धारण कर लिया है और उनके जीवन में माला जपने के अलावा और कोई काम
नहीं रह गया है। यह स्वाभाविक नहीं लगता या हो सकता है
रेणु ने बड़की बहुरिया की माँ को अपनी कहानी में ऐसा ही वर्णित किया हो। बहरहाल
उनके अभिनय कौशल पर कोई टिप्पणी न करते हुए बस यही कहूँगा कि उनका प्रयास सराहनीय
है।
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चलते-चलते एक-आध बातें और। पूरी फिल्म
देखते हुए आप उसके साथ जुड़े रहते हैं – निर्देशक के रूप में यह ऋतेश पाण्डेय की
सफलता है। लेकिन यहीं एक और बात यह जोड़ना चाहूँगा कि यह फिल्म, फिल्म मेकिंग के क्षेत्र में नया कुछ भी नहीं
जोड़ पाती। हमने हाल में कई ऐसे निर्देशकों से परिचय किया है जिन्होंने कथा
प्रस्तुत करने के ढंग, सिनेमैटोग्राफी और संवाद के जरिए बहुत नये प्रयोग किए हैं।
कई लोगों के इन प्रयोगों की सराहना भी मिली है। ऋतेश एक युवा निर्देशक हैं और
थिएटर से भी उनका जुड़ाव रहा है तो उनसे हमारे जैसे दर्शकों की अपेक्षाएँ बढ़ जाती
हैं। मुझे यकीन है कि वे जिस रफ्तार से आगे बढ़ रहे हैं – वे जरूर फिल्म के इतिहास
में कुछ नया जोड़ेंगे। यह इसलिए कि पहली फिल्म से इस फिल्म तक की यात्रा में उनकी
क्षमता का विकास लागातार लक्षित किया जा सकता है। दूसरी बात यह कि कॉस्टिंग को लेकर
सजगता की दरकार के साथ अभिनेताओं से रगड़ कर काम लेना एक निर्देशक की संजीदगी का
ही अंग है – यह गुर भी ऋतेश को सिखना होगा। एक अन्य बात कि बथुआ साग का बार-बार
जिक्र होना थोड़ा कान को खटकता है। मुझे नहीं पता है कि रेणु ने बथुआ साग का जिक्र
अपनी कथा में कितनी बार किया है लेकिन फिल्म में बथुआ साग को जरूरत से ज्यादा बार
दुहराया गया है। अगर यह दुहराना जरूरी ही था तो उसके लिए स्क्रिप्ट लेखक को और
मिहनत करने की जरूरत थी – खासकर संवाद लेखन में। संवाद की भाषा पर और काम करने की
जरूरत थी – और संवाद अदायगी में एकरूपता लाने की कोशिश होनी चहिए थी। दीपक का
अभिनय औसत है जबकि वे नायक हैं। मृणमयी विश्वास ने अपना काम ठीक ठाक किया है
हालांकि उनसे और बेहतर काम लिया जा सकता था। दीपक बाबू के खैनी मलने की शैली थोड़ी
अजीब लगी – बिहार के 98 प्रतिशत लोग जिस तरह खैनी मलते हैं उससे अलग शैली में खैनी
मलना थोड़ा खटकता है। हाँ, एक बात यह भी याद आई कि मेहदी वाले सीन में जो
बैकग्राउण्ड का दृश्य है वह उस बहुत अच्छे सीन को फीका कर देता है।
बहरहाल इन कुछ कमियों के बावजूद इस
फिल्म में बहुत सारी बढ़िया बाते भी हैं जिनकी वजह से यह फिल्म देखी जाएगी और सराही
भी जाएगी। एक ऐसे समय में जब साहित्य को फालतू समझ लिया गया है, एक साहित्यिक
कहानी पर कम संसाधन और बजट में इतनी अच्छी फिल्म बना पाना बूते की बात है और यही
एक बात फिल्म की कुछ-एक कमजोरियों को भी सकारात्मक पहलू देने में सक्षम है। अवश्य
ही मृत्युंजय कुमार सिंह की पार्श्व आवाज आकर्षक है
और दीपक की अवाज की डबिंग करने वाले राकेश कुमार त्रिपाठी ने बहुत मिहनत से काम
किया है। मैं इस फिल्म से जुड़े सभी साथियों को दिल से बधाई देने से खुद को रोक
नहीं पा रहा। अब ऋतेश भाई को लघु से दीर्घ की यात्रा शुरू कर देनी चाहिए।
पुनश्च : ऊपर की सारी बातें एक आम दर्शक, जो मैं हूँ, के
नाते कही गई हैं। बहरहाल फिल्म देखनी हो तो नीचे का लिंक चटका सकते हैं। अस्तु।
https://www.mxplayer.in/movie/watch-samvadiya-movie-online-3e41a62aee7ed2b0ab3733ec77183fbf
सम्पर्क
मोबाइल : 9088751215
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