सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य की धमन भट्टियों में'
सेवाराम त्रिपाठी |
व्यंग्य एक मारक विधा है। वह गुदगुदाने के साथ साथ अन्दर तक बेध भी डालता है। इसीलिए विधाओं में वह सबसे अलग नजर आता है। वह मुंह देखी बात नहीं करता, बल्कि नजर में नजर मिला कर बात करता है इसीलिए व्यंग्य सच को कहने से किसी तरह हिचक का अनुभव नहीं करता। यही उसकी दुनिया और सरोकार है। लेकिन समय और सत्ता के बदलने के साथ व्यंग्यकारों के सरोकार भी बदल गए हैं। इसीलिए अब व्यंग्य में वह तीखापन या पैनापन नहीं दिखाई पड़ता जो उसकी मूल आत्मा है। आलोचक सेवाराम त्रिपाठी ने इसी के मद्देनजर एक आलेख लिखा है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य की धमन भट्टियों में'।
व्यंग्य की धमन भट्टियों में
सेवाराम त्रिपाठी
हमारी ज़िंदगी में चारों से नहीं बल्कि सभी ओर से पहरे हैं। व्यंग्य हमारे जीवन में एक जिम्मेदार पहरेदार की भूमिका निभाता है। जैसे मुंह से दांत झड़ जाएं तब भी जीभ की निर्विवाद भूमिका होती है ज़मीर के साथ। अरुण कमल एक कविता पढ़ें-
"दांतों ने जीभ से कहा-, ढीठ, संभल कर रह
हम बत्तीस हैं और तू अकेली
चबा जाएंगे
जीभ उसी तरह रहती थी इस लोकतांत्रिक मुंह में
जैसे बाबा आदम के जमाने में -
बत्तीस दांतों के बीच बेचारी इकली जीभ
बोली
मालिक, आप सब झड़ जाओगे एक दिन
फिर भी मैं रहूंगी
जब तक यह चोला है"
व्यंग्य का चोला जब तक है उसकी भूमिका भी तब तक है। व्यंग्य के लिए कुछ भी अलक्षित, कुछ भी गोपनीय और वर्जित नहीं है। व्यंग्य के बारे में जो नेगेटिवटी की बातें करते हैं, उसकी अवहेलना करते हैं वे खाए-अघाए और भरमाए लोग हैं। व्यंग्य का वयस्क चेहरा दमकता है। वह हर जगह प्रस्फुटित और मारक होता है हमेशा विश्वास की गूंज होती है। उसमें अंधकार को भेदने की अपार क्षमता होती है। व्यंग्य हमेशा समाज-संस्कृति और जीवन को प्रकाशवान देखने का पक्षधर है। वह मणिवंचित सर्प की तरह जीवित नहीं रह सकता? व्यंग्य मना करता है कि मैं घाऊ-घुप्प नहीं रह सकता। व्यंग्य सच को कहने से किसी तरह हिचक का अनुभव नहीं करता। यही उसकी दुनिया और सरोकार है। और जीवन को सुरम्य-सुगंधित बनाने की पक्षधर प्रतिज्ञा।
व्यंग्य बहुत गंभीरता की मांग करता है। कुछ लोग उसे निषेधवाची समझते हैं, कुछ अराजक। जब कि ऐसा भर नहीं है। वह तिरछी रेखाएं भर नहीं देखता। सीधी-सादी, उलटा-पुल्टा, ऊपर-नीचे और अन्य तरह की चीज़ें भी देखता है। व्यंग्य जितना दूसरे को घेरे में लेता है उतना ही अपने आपको भी। आत्मावलोकन और आत्मालोचन के बगैर अच्छा व्यंग्य नहीं लिखा जा सकता? व्यंग्य में अपने आपको भी दाव पर लगाना पड़ता है। व्यंग्य लिखने वाले की छाती छप्पन इंच की बजाय छियासी इंच से अधिक की ही होती है। हरिशंकर परसाई व्यंग्य लिखते थे तो सबकी ठिलठिलाहट ख़त्म हो जाती थी। वे किसी को बख्शते ही नहीं थे। व्यंग्य किसी को बचाने और छोड़ने की दुनिया कभी हो ही नहीं सकता। तू मुझे फुसला पटा मैं तुम्हें फुसलाऊँ और पटाऊं। अब व्यंग्य की फैक्ट्री में लगभग तालाबंदी हो चुकी है। प्रायः सब एक दूसरे की पीठ खुजा रहें हैं। प्रायः एक दूसरे की प्रशंसा में भिड़े हैं। तू मेरी प्रशंसा कर मैं तेरी प्रशंसा करता हूं। व्यंग्य बड़ी तीखी छुरी है। व्यंग्य बहुतों की मुस्कुराहट ठप्प कर देता है। मार्क ट्वेन ने कहीं लिखा है- "मेरा ख्याल है कि कोई भी सच्चा व्यंग्य लेखक मनुष्य को नीचा नहीं दिखाना चाहता। व्यंग्य मानव सहानुभूति से पैदा होता है। वह मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाना चाहता है।" सचमुच क्या यह छोटी बात है।
'अध्यक्ष' शीर्षक व्यंग्य पढ़ रहा हूं। इसमें संभावनाएं बहुत बनती हैं। लेखक ने विस्तार से अध्यक्ष के शब्दकोशीय रूपों को रखा है। ऐसे रूप तो संचालक, निदेशक, डायरेक्टर के भी हो सकते हैं। अध्यक्ष एक ही प्रकार के नहीं होते और न हो सकते। अच्छे भी होते हैं और मध्यम भी। ख़राब के तो कहना ही क्या? कुर्सी तोड़ भी होते हैं और बिना कुछ काम-धाम किए कुर्सी में लटके हुए भी आप को मिल जाएंगे। कुछ आजीवन भी होते हैं और बार-बार नया जीवन पाने वाले भी। मुखौटाधारी भी। अध्यक्ष भारत में ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर के भी पाए जाते हैं। अध्यक्ष व्यंग्य भी है और हकीक़त भी। व्यंग्य बनते-बनते व्यंग्य का जबर्दश्त आभास भी। अध्यक्ष चल पड़े और किसी एक खाने में पटक दिए गए। अध्यक्ष की भी अपनी बीमारी होती है। अध्यक्ष आभासी भी होते हैं और ज़िंदगी भर कुर्सी में लदे रहने वाले भी रहते हैं। वे कभी रिटायर नहीं होते, ज़िंदगी भर जमें रहते हैं। ऐसे अध्यक्ष भी होते हैं जिन्हें न ब्यापे जगत गति। हम अध्यक्षों की सिकुड़न भी देखते हैं और उनका लदावपना भी। दूर जाने की ज़रूरत नहीं। राष्ट्रीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता इसी कोटि की रही है। जो एक बार बन गया वह आजीवन जमा रहना चाहता है।
समय कुछ प्रश्नों को धो-पोंछ देता है और नए कुछ प्रश्न पैदा भी कर देता है। लेखन अपने आप में बेहद गंभीर काम है। और व्यंग्य उससे पांच-सात गुने से ज्यादा। व्यंग्य विधा कतई नहीं है और जो ऐसा सोचते हैं वे उसकी मार को, उसकी ताक़त को, उसकी शक्ति और हकीक़त को शायद ठीक-ठीक ढंग से नहीं जानते? वे शायद उसे हल्के में ले रहे हैं। व्यंग्य एक स्परिट हैं। व्यंग्य एक औजार है। व्यंग्य एक जुनून है और ज़िम्मेदारी भी। वह टरका-टरकाई का काम नहीं है। उसे लस्टम-पस्टम में किसी भी तरह नहीं लेना चाहिए। जो ऐसा कर रहे हैं वे व्यंग्य की स्वीकार्यता और ताकत से अनजान और अनभिज्ञ हैं। व्यंग्य में जीवन का व्याकरण भर नहीं होता बल्कि जद्दोजहद भी होती है। गुपचुप तरीके की कार्रवाई भी होती है। व्यंग्य लेखन एक निरंतर प्रभावी ढंग से चलने वाला घमासान युद्ध भी है। व्यंग्य में सब कुछ घिरता है। दूसरे शब्दों में कहें तो उसमें गागर में सागर भी होता है।
व्यंग्य सामाजिक सच्चाइयों का आईना भी होता है। व्यंग्य झूठ के ख़िलाफ़, अन्याय के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की बुलंद आवाज़ भी है। उसे ऐसा-वैसा न समझा जाए। सच्चाई का हर हाल में उद्घाटन व्यंग्य का काम है। व्यंग्य बड़े बड़े तीसमारखां लोगों को खलास भी कर देता है और धरासाई भी। हम एक लंबे अरसे से व्यंग्य को कालमों में घिरते देखते रहे हैं। पत्रिकाओं और अख़बारों की वे शान रहे हैं। हर अच्छा अख़बार और दूसरे अख़बार व्यंग्य की चाहत रखता है। बिक्री बढ़ाना चाहता है। इसलिए चाहता है कि कालम ज़रूर छपें लेकिन ढेर सारे अच्छे व्यंग्यकार कहां मिलेंगे? भरती के मिलेंगे तो छापेंगे ज़रूर लेकिन कम जगह में छपें, ऐसी उनकी ख्वाहिश है। इधर व्यंग्य छपा-छपाई का रोज़नामचा और खेल तमाशा हो गया है।
व्यंग्य में अच्छे लोग कम हैं और अधकचरे ज्यादा। यह मैं पूरे होश-हवास से कह रहा हूं। किसी वक्त कटी में नहीं न किसी मुगालते में? मैं भी एक अख़बार में कालम लिखता था। आई गई बात हो गई। अख़बार को कालम भी चाहिए और छोटा भी। लिखने वाला अपने हिसाब से तोड़ भांज कर के लिखता है। थोड़ी बहुत घट-बढ़ हो ही जाती है। व्यंग्य लेखन में बेहद नाप-तौल का अनुपात फैल-पसर चुका है। उससे व्यंग्य बाधित हो रहे हैं। कुछ उसी में जल-भुन रहे हैं। कितने कालम हम सब पढ़ते रहे हैं। मैं न जाने कितने कालम लिखने वालों को धकाधक स्मरण कर रहा हूं। उसमें कुछ संजीदा और ज़िम्मेदार लेखक रहे हैं। हरिशंकर परसाई के कुछ कालम याद कर रहा हूं। ये माजरा क्या है, सुनो भाई साधो, माटी कहे कुम्हार से, कबिरा खड़ा बाज़ार में, तुलसी दास चंदन घिसैं, रिटायर्ड भगवान की आत्मकथा, पूछिए परसाई से, और अंत में। उनके कालम पढ़िए और ज़िंदगी के उस ताप को अनुभव कीजिए। जिससे हम निरंतर मुठभेड़ कर रहे हैं। अच्छे व्यंग्य लिखने वालों की वजह से व्यंग्य की स्वीकार्यता और प्रतिष्ठा की गरिमा देखिए। आज के दौर से तुलना कीजिए। परसाई के कालम छापना अख़बारों और पत्रिकाओं की मजबूरी और आवश्यकता दोनों थी। परसाई ने शूद्र कहे जाने वाले व्यंग्य को जो प्रतिष्ठा दिलाई, वह बेमिसाल था।
कालम अब भी छप रहे हैं बल्कि बेतादाद छप रहे हैं और कुछ साथी बहुत मार्के का लिख भी रहे हैं। कुछ गुड़ गोबर कर रहे या भंडमसराध भी, लेकिन देखिए कि समूचा माहौल क्या है? इसे जांचने परखने की ज़रूरत है। व्यंग्य की यह जो प्रतिष्ठा है आख़िर किसकी देन है। शरद जोशी कवि सम्मेलनों में व्यंग्य पाठ करते थे। अभी भी इक्का -दुक्का ऐसे शख्स हैं। मित्रों को परसाई जी का कहना याद दिला रहा हूं- "लेखक की हैसियत से गर्दिश को फिर जी लेने और अभिव्यक्त कर देने में मनुष्य और लेखक, दोनों की मुक्ति है। …गर्दिश कभी थी अब नहीं है, आगे नहीं होगी, यह ग़लत है।। गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है। मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूं। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता। इसलिए गर्दिश नियति है।" (आत्म कथ्य)
जिस व्यंग्य लेखक में ऐसा ताप होगा और ऐसी बेचैनी होगी। उसका रास्ता कोई भाई आसानी से छेंक नहीं सकता?व्यंग्य संभावनाओं का ऐसा ही लोक है। लिखना हंसी खेल कतई नहीं है। आजकल ग्रुपबाजी के अनेक चक्कर चल रहे हैं या चलाए जा रहे हैं। जय हो कोरोना काल। तुमने क्या - क्या दिखाया? भौतिक रूप से न मिल पाने की ख्वाहिश ने लेखन कार्यशाला स्टाइल में आयोजित हो रहे हैं। भरपूर प्रशंसा का समूचा माल-मसाला इसमें चेंप दिया जाता है। व्यंग्य का हाल और भी बेहतर कीर्तिमान स्थापित कर रहा। जैसे तू मेरा मुंह सूंघता है मैं तेरा मुंह सूंघता हूं। तू मुझे उठा मैं तुझे उठाता हूं। हम एक दूसरे को पुरस्कारों से सम्मानित करें या फूल मालाओं से लादें या लदें। यह सचमुच लदा-लदाई की अपरंपार लीला है।
व्यंग्य ने बखिया उधेड़ने के रूप से बिदा ले ली। उसकी पहचान और मार से हम बाहर आ गए हैं। कुछ न कुछ करना है और कुछ न कुछ होना है। हो रहा है यह अनोखा काम। हम अपने समय की तमाम महत्वपूर्ण बदमाशियों से दूर आ चुके हैं। सत्ता प्रतिष्ठान को हम देखते नहीं। होने दो आख़िर क्या जाता है किसी का। कभी बेर की बेरी दिखाई देती है और कभी उसके कांटे। अध्यक्ष दिख जाते हैं। कभी खसम, कभी-कभी कुर्सी कभी कुछ और। जो प्रायः हमें देखना चाहिए उसे हम ज़रूर नहीं देखते। प्रायः कोरोना से होने वाली मौतों को भुला सकने की हमारी अपार क्षमता का महत्त्वपूर्ण विस्तार हुआ है। न हमें हॉस्पिटल की अधाधुंध छाई ख़ामोशी दिखती न कोई चीख पुकार। सब भालो-भालो। भालो-भालो अनुभव करो और सत्ता के गलियारों में घुसो और घूमों। व्यंग्य बाण छोड़ोगे तो कहीं न कहीं हिलगा दिए जाओगे या जेल में धांध दिए जाओगे।
अब व्यंग्य जूझने की कोटि से बाहर आकर प्रसन्न है। व्यंग्य के नाम की बड़ी-बड़ी अखाड़ा शालाएं चल रही हैं और उसी में सूरमा सुविधाओं का सुरमा आंज रहे हैं। पटल लेखन के कम गप्प लड़ाने-उड़ाने के ज्यादा हो चले हैं। हे व्यंग्य! अब तुम्हारे ये दिन भी हमें देखने को बदे थे। ऐसा लगता है कि व्यंग्य की स्वीकार्यता यहां तक पहुंच गई। क्या फिसलपट्टियां ईजाद की हैं व्यंग्य के इन महानुभावों ने। महानुभाव कुछ भी कर सकते हैं। जैसे कुछ महानुभाव देश बेंच रहे हैं और हम उनकी आरती का थाल सजाए बैठे हैं। विकास ने ये दिन दिखाए कि किडनी बेंच कर भी आम आदमी विकास के मानक रचेगा। हम किसी तरह जीवित बचे रहें यही विकास की ज्यामिति है। ये सत्ता के, सत्तानशीनों के परमखुशी होने के लपलपाते दिन हैं जो निरन्तर दिनारू होते जा रहे हैं। सत्ता हर हाल में बचनी चाहिए। नागरिकों का क्या, ये मर जाएंगे तो दूसरे आ जाएंगे। उनकी नागरिकता की छानबीन होकर दुरुस्त हो जाएगी। नागरिकता की फिसलपट्टियों में सब अगड़म-बगड़म झूलता रहेगा।
व्यंग्य की स्वीकार्यता और आवाजाही सभी जगह सम्भव है।हरिशंकर परसाई के जीवित रहते कोई देश-दुनिया की घटना ऐसी नहीं है जो परसाई जी की रचनाओं में ब्यौरेवार न आई हो। सक्षमता के साथ उपस्थित न हुई हो। व्यंग्य बच-बचा कर नहीं लिखा जा सकता। ये क्या बात हुई कि व्यंग्य लिखे जा रहे हैं लेकिन उन्होंने तय नहीं किया कि वे किसके लिए लिख रहे हैं। लेखक की एक व्यवस्थित राजनीति होती है लेकिन वह राजनीतिज्ञों की राजनीति कतई नहीं है। यही बड़ा भ्रम है हमारे लेखक में। यह भटका-भटकाई हमें कहां ले जाएगी। जुमले उछालने से कोई लेखक नहीं हो सकता? न किसी तरह बन जाता। तत्काल सफलता अर्जित करने के लिए चित्त-फद्द किया जा रहा है। वैचारिक अस्पष्टता, अपनी पक्षधरता गायब करना इस दौर का सबसे बड़ा गुण है। साहित्य लिखना ही अपने आप में बड़ा पहलू है फ़िर व्यंग्य का कहना ही क्या? हम वैचारिक विचलन के भयावह दलदल में हैं। वाट्सएप चलाना, लोगों को साधना पद्धति एक पक्ष है और जन-जीवन के विविध आयामों क्षेत्रों और मुद्दों को उजागर किए बिना लेखक और संस्कृतिकर्मियों का निस्तार नहीं सम्भव है। अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना क्या जनता से हमें जोड़े रख सकने में सक्षम हो सकता है। भाषा केवल व्यंग्य भर में नहीं होती बल्कि हर रचना के लिए ज़रूरी है। उसका प्रयोग हर लेखक अपने-अपने ढंग से ही कर सकता है। जो जनता से जुड़ा नहीं वह जनता की भाषा का वास्तविक प्रयोग कैसे कर पाएगा? हरिशंकर परसाई इसके एक सबसे बड़ा उदाहरण हैं। जनता से विचलन, उसके मुद्दों से बचना लेखक को उपयोगी नहीं बना सकता। व्यंग्य लगातार लिखे जा रहे हैं। किसिम-किसिम के तथाकथित व्यंग्य लिखे जा रहे हैं। दुधारू, लाचारू और मात्र लिखवारू रूप में हैं। व्यंग्य किसी के लिए जिम्मेदारी है और कुछ के लिए फैशन और करिश्मा।
इधर जुगाड़ू व्यंग्य भी तरह-तरह से व्यंग्य के अखाड़े में हैं। वे साहित्य की दुनिया में घंघराघोर मचाए हुए हैं। व्यंग्य में जब भी ज़मीर नहीं होगा मात्र फैशनबाज़ी होगी तो ऐसा ही परिवेश होगा। इससे किसी तरह बचा नहीं जा सकता। इधर व्यंग्य का शरीर है लेकिन उसकी आत्मा लहूलुहान है। अच्छे व्यंग्यकार के पास विषय का टोंटा कभी नहीं होता। हालांकि जिसकी जैसी पहुंच है वहीं से वह व्यंग्य को सम्भव बनाता है। व्यंग्य का आगाज़ और उसके पाने का संघर्ष अत्यंत कठिन है अन्यथा क्विंटलों बोरी लज्जा धरी की धरी रह जाती है। व्यंग्य में कोई विषय को देखता और पकड़ता कैसे है? उसका निर्वाह कैसे करता है। सुदामा के चावल, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, इन्स्पेक्टर मातादीन चांद पर, निंदा रस, अकाल उत्सव, हरिजन को पीटने का यज्ञ व्यंग्य कोई कैसे लिख लेता है? व्यंग्य के घेरे और अहाते में बहुत सार्थक भी रचा जा सकता है। लोग इस बात को प्रायः भूल जाते हैं।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)
सम्पर्क
रजनीगंधा 06, शिल्पी उपवन
अनंतपुर, रीवा (म. प्र.)
486002
बहुत कुछ समझने का मौक़ा मिला आपके लेख से , बहुत धन्यवाद आपका सर ।
जवाब देंहटाएंबढिया विश्लेषण
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