क्षितिज जैन ‘अनघ’ की कविताएं
क्षितिज जैन ‘अनघ’ |
जीवन को कविता में साकार करने का अहम काम करता है कवि। वैसे जीवन अपने आप में एक कविता ही है। इसलिए जीवन से जुड़ा कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जो कविता के दायरे से बाहर हो। जीवन की जरूरतें कुछ इस तरह की होती हैं कि आदमी भीड़ में नजर आता है। लेकिन विडम्बना यही है कि आदमी भीड़ में भी वह अकेला होता है। जीवन को देखते समझते हुए आदमी जो करता है उसे कवि अपनी कविता के जरिए रेखांकित करता है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं क्षितिज जैन अनघ की कुछ नई कविताएं।
क्षितिज जैन ‘अनघ’ की कविताएं
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नीली शर्ट
मेट्रो और उपन्यास नीली शर्ट फॉर्मल ऑफिस लुक के लिए पीछे लटका है बैग बन कर प्रतीक उन सभी ज़िम्मेदारियों का जिनका सहारा पा कर खड़ा होता है आदमी भीड़ से भरी मेट्रो में ऑफिस जाते हुए उस आदमी में सब कुछ वही सामान्य है जिसे हम देखते हैं रोज़मर्रा की दौड़ लगाते हुए सिवाय छोड़ कर हाथों में पकड़ी हुई एक किताब के एक पतली से किताब पतला सा उपन्यास जिसे पढ़ता हुआ वह ऑफिसमार्गी खड़ा है जुदा सा इस भीड़ में पन्नें पलटने की उत्सुकता में सुन कर भी अनसुना कर दे रहा है स्टेशन की घोषणाओं को यह वह आदमी है जिसने रखा है जीवित जीवन संघर्षों के बीच अपने मन में कविता को और जो ढूंढ लेता है वह चुपके से ऐसा कोना जहाँ जी सके वह शब्दों की इस ईप्सा को डूबते उतराते हुए उपन्यास के पृष्ठों में वह निकल जाता है मेट्रो से देख स्टेशन का आगमन और डाल एक निगाह सरसरी बुकमार्क रख देता पृष्ठों के बीच और खो जाता है यात्रियों के आवागमन के इस अथाह चक्र में नीली शर्ट पहना वह आदमी केवल पढ़ता ही नहीं जीता भी है साहित्य को और लिए चलता है मन में कविता से आलोकित संवेदना की दीप्ति भी उतनी ही संजीदा उतनी ही संजीवित जितनी थी वह मेट्रो में खड़े हो उपन्यास पढ़ते हुए! (23 जुलाई को मेट्रो में एक उपन्यास में डूबे कर्मनिष्ठ व्यक्ति से प्रेरित) ब्लॉक करो! ब्लॉक करो! जिसे चाहो ब्लॉक करो और कह दो उसको खतरा देश राष्ट्र मानवता समाज आदि का कह दो उसके विचारों को जो चाहो भला बुरा क्यों? क्योंकि वह केवल तुमसे असहमति रखता है! और फिर करो फेसबुक पर लंबा चौड़ा पोस्ट मुनादी करो इस गौरवशाली ब्लॉकगाथा की जिस पर आएंगे लोग तुम्हारे कुनबे के अपनी अपनी गौरव गाथाएं बघारने और फिर मिल कर उनके साथ एक सा राग अलापना तुम जैसे टर्राते हैं मेंढक एक संग किसी बदबूदार कुएं में। आते रहेंगे और मेंढक इस 'विमर्श'
के कुएं में फलांग मार कर और तुम बन जाना स्वयम्भू निष्पक्ष बौद्धिक चिंतक ब्लॉकिंग के इन कारनामों से पॉलिटिकली
करेक्ट तुम कवि हो! पर पॉलिटिकली करेक्ट नहीं! तुम्हें कविता आती है पर यह कला? तुमने कभी सीखी ही नहीं! इसीलिए तुम हुए नहीं चर्चित न ही तुम्हें बुलाया जा रहा बड़े बड़े मंचों पर कौन संस्थान भला चाहेगा जुड़ना उस कवि से जो कोरा हो राजनीति में? सच की सुरक्षा करोगे तो कब करोगे सुरक्षा अपने स्वार्थों की? बस इसीलिए तुम रह गए निरे कवि के कवि यह भी भला कोई उपलब्धि हुई? सौ फीसदी सहमति- सौ फीसदी असहमति
तुम्हें
पता है? सहमत
हो सच मानो तो सौ फ़ीसदी झूठ मानो तो सौ फीसदी शेष संख्या का अस्तित्व ही इसीलिए
कह रहा हूँ अन्यथा आगे
तुम देख लो आदमी का मनोरंजन
समर्थक चिल्लाए विरोधी चिल्लाए पैनलिस्ट चिल्लाया एंकर चिल्लाया सबने उठा लिया आसमान उत्तेजक कुतर्कों से युद्ध जैसी ललकारों से और आदमी की इंद्रियों को भा गया मनोरंजन। पर निकली जैसे ही आदमी की कराह... और उभरी जैसे ही उसके नीचे दबी टीस... समर्थक चुप विपक्षी चुप पैनलिस्ट चुप एंकर चुप खुद आदमी चुप और खोखली चुप्पी देख कर खुद टीसती कराह भी चुप... मौन देख फिर दागने लगे टी. वी. के योद्धा वाग्बाणों के गोले और फिर शुरू हो गयी यह प्रक्रिया आदमी के मनोरंजन की। जंगल
का प्रतिशोध जंगल आज बहुत खुश है क्योंकि ले लिया है उसने मानव से अपना प्रतिशोध। मानव ने उसको उजाड़ा बांटा-काटा और किया छिन्न-भिन्न। बेघर कर दिया उसकी संतानों को जो हो गए मजबूर और जीवन खातिर भटकते रहे। और जंगल की वे संतानें भटकते भटकते पहुँच गईं शहर लेकिन इस बार उन्होंने घर बनाया मन में इंसान के और वे अब कर रहीं हैं खुला विचरण मानव की आत्मा में और देख रहीं हैं कहकहे लगा कर उसको भी भटकता देख मारे पाशविक वृत्तियों के विक्षिप्त-सा। जंगल भी कहाँ मरा? जड़ों को फैला कर कहीं भूतल में फैला दिया उसने शहरों में जंगलराज जहाँ कानून है जंगल का जहाँ रीति है जंगल की नीति है जंगल की और तुम कहते हो जंगल मर गया? मानव ने लूट लिया जंगल को तो जंगल ने भी खुद को स्थापित कर सभ्यता में उगा डाली हर ओर ज़हरीली नागफनी बो डाले विषाक्त काँटे देखो तो! फल-फूल रहा है जंगल इंसान की बस्तियों में और हम खामखा चिंतित हैं उसके अस्तित्व के लिए! जंगल अगर शहर बना तो उसने शहरों को भी बना दिया भयावह जंगल जहाँ हो रहा है एकछत्र आधिपत्य उसका जंगल के चेहरे पर तैर रही है एक क्रूर सी मुस्कान जो शायद सीख ली है उसने संग रह कर इंसान के। मानव
का रक्तिम व्यंग्य मानव हँसा खूब ज़ोरों से हँसा क्योंकि उसने व्यंग्य किया पृथ्वी का भक्षण कर पृथ्वी के रक्षण का। पृथ्वी रोई ज़ार-ज़ार रोई क्योंकि झुलस गईं उसकी अनगिन संतानें मानव के इस व्यंग्य में और रक्तिम हो गया नीला आंचल उसका... अनादि काल से करता आ रहा है मानव यह क्रूर व्यंग्य और अनगिन वर्षों से झुलस रहीं हैं संतानें पृथ्वी की हर नया व्यंग्य दे देता है एक नया रिसता घाव और गाढा हो जाता है खून पृथ्वी के नीले आँचल का... पढना
और अनुभूति पढ़ कर लिखो लिख कर पढ़ो पढ़ पढ़ कर लिखो पढ़ते जाओ लिखते जाओ वे भी यही मानते हैं मैं भी यही मानता हूँ। बस उनका पढ़ना है सीमित श्वेत पृष्ठों के काले अक्षरों तक और मेरा पढ़ना अध्ययन है उस अनुभूति का जो कराती साक्षात्कार हृदय का जीवन के तत्व से! ठीक ही तो है मेरे लिए काव्यत्व बस एक साधन है अनुभूति का और अनुभूति है सर्वस्व कविता की! कैंसिल
कल्चर का युद्ध अभिव्यक्ति के झंडाबरदार बैठकर सिंहासनों पर कर रहे हैं आरक्षित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपने मनमाने पक्षों के लिए और जो नहीं होता पक्ष में उनके (भले ही
न हो विपक्षी) छेड़ दिया जाता है विरुद्ध उनके कैंसिल कल्चर का युद्ध! बहिष्कार बॉयकॉट निंदा जैसे शब्दों से गूँज उठता है आकाश और वाग्बाणों से हो उठती है हताहत अस्मिता वैचारिक स्वतंत्रता की ज़रा पूछ कर तो आओ इन कैंसिल कल्चर के वीरों से क्या क्या कर सकेंगे ये लोग बहिष्कृत? क्या सड़कें, बाज़ार, तीज त्योहार इसलिए निंदित किए जाएंगे क्योंकि आते हैं वहां पर लोग 'खतरनाक विचारधारा' के लोग? और क्या कैंसिल हो जाएगा समाज ही जिसकी तथाकथित रक्षा के लिए ये लड़ रहे हैं युद्ध 'दुश्मनों' से कैंसिल कल्चर का? पर नहीं! इन वीरों को मतलब है यह भद्दा युद्ध लड़ने से क्योंकि इनका उद्देश्य कभी रहा है नहीं समन्वय और बस इसीलिए लड़कर युद्ध कैंसिल कल्चर का शांत कर रहें ये लोग अपने मन में भरी घोर प्रतिहिंसाओं को! इससे ज़्यादा लिखना शायद ठीक नहीं वरना क्या पता सभी पक्ष रोककर एकबारगी आपसी युद्ध कर दें कैंसिल कविता को ही कविता कब रास आई है दुराग्रह ग्रसित मठाधीशों को? महावीर
एक कवि थे महावीर एक कवि थे क्योंकि उन्होंने सुनाया था शाश्वत गीत अहिंसा और दया का जिसने हिला दी थीं जड़ें आडंबर में सजे उत्पीडन की। बुद्ध एक कवि थे क्योंकि उन्होंने साक्षात् किया अलौकिक रस करुणा का और महसूसा था हर जीव के दुख को। कृष्ण एक कवि थे क्योंकि उन्होंने दी थी चुनौती अपने समय की मान्यताओं को और रचा था एक सर्वथा नया और मौलिक दर्शन! मंत्रदृष्टा ऋषि कवि थे क्योंकि उन्होंने किया था साक्षात्कार प्रकृति के सत्यों में जीवन के सत्यों का और स्थापित किया था गौरव वैश्विक अनुभूति का वे सभी तपस् थे कवि जिन्होंने बैठ कर निकट एकांत में ग्रहण किया था आत्म तत्व को और पाई कविताएं आत्म रस से जो परिपाक थीं। असल में हर युग प्रवर्तक हर युगदृष्टा हर युग पुरुष स्वयं होता है कवि क्योंकि उसका हर कर्म लिए होता है मौलिकता उसका चिंतन होता है किसी कविता के छंद सा और वह भरता है स्फूर्ति निष्प्राण पड़े समय में जैसे कविता लाती चेतना निस्पंद मानव अंत:करण में और सुनाकर अपने जीवन दर्शन की कविताओं को युग प्रवर्तक लाता है परिवर्तन कविता के अनश्वर माध्यम से इसीलिए सदा याद रखना जबतक मानव करता रहेगा संघर्ष सत् के पक्ष से असत् के विरुद्ध और सभ्यता बढ़ेगी आगे उन्नयन और पतन के बीच वह कविता ही होगी जिसकी शक्ति से लाया जाएगा परिवर्तन और दी जाएगी एक नई दिशा मानवता की यात्रा को! देश और कॉन्ट्रोवर्सी देश में कॉन्ट्रोवर्सी है या कॉन्ट्रोवर्सी में है देश? देश में विवाद है या विवादित ही है देश किसी को संदेह है कि यह देश देश नहीं था बस था भूखण्ड वह तो किसी साम्राज्यवादी ताकत ने बनाया इसे देश बनाया इसे नेशन तो कुछों के अनुसार पूरी दुनिया थी समाहित इस एक देश में! हर किसी को इंडिया से ज़्यादा चिंता है आइडिया ऑफ इंडिया की जो किसी के अनुसार है केवल पचास साल पुराना तो कोई मान रहा उसे दस लाख वर्ष पूर्व स्वर्ग से उतरा हुआ इंडिया चाहे रहे न रहे आइडिया कायम रहना चाहिए! ऐसे में कहीं कल को विवादित न हो जाए भारतीयत्व की संज्ञा ही और कहीं ट्वीट न होने लगे खुद को भारतीय कहने के विरोध में वैसे भी यहाँ भारतीय है ही कौन? सब की पहचान है आश्रित अपनी अपनी पसंद के तमगों पर सब चाहते हैं कब्ज़ा करना 'भारतीय
होने' पर जैसे वह बन गया हो दो शक्तियों के बीच का 'विवादित
क्षेत्र' तभी तो कह रहा हूँ देश में कॉन्ट्रोवर्सी है या कंट्रोवर्सी में है देश?
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)
Mob - 09636407465 -क्षितिज जैन ‘अनघ’ |
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