रमेश ऋतंभर की कविताएं
रमेश ऋतंभर |
रमेश ऋतंभर का
संक्षिप्त परिचय
जन्म : 2 अक्टूबर, 1970
जन्म स्थान- नरकटियागंज, पश्चिम चंपारण (बिहार)
शिक्षा : एम. ए., पी-एच. डी.
पुस्तकें : दो आलोचनात्क पुस्तकें
प्रकाशित–‘’रचना का समकालीन परिदृश्य’’ और ‘’सृजन के सरोकार’’।
एक कविता संग्रह : ‘’ईश्वर किस चिड़िया का नाम है’’ प्रकाशनाधीन।
सम्मान, पुरस्कार :
चम्पारण रत्न सम्मान,
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का युवा साहित्यकार सम्मान, कवि कन्हैया सम्मान, कवि शैलेंद्र स्मृति सम्मान।
सम्प्रति : बिहार विश्वविद्यालय के आरडीएस कॉलेज, मुजफ्फरपुर में हिंदी प्राध्यापक के रूप में कार्यरत।
जिंदगी दुनिया की सबसे बड़ी नेमत है। केवल जिंदा रहना और जिंदा रहते हुए सब कुछ सहते सुनते रहना वास्तविक जिंदगी जिंदगी नहीं होती। जिंदगी वह होती है जो अपने लिए ही नहीं बल्कि अपने समय और समाज के लिए जी जाती है। विचारक राम मनोहर लोहिया ने कभी कहा था 'जिंदा कौमें पांच साल का इंतजार नहीं करतीं।' हालांकि लोहिया का यह वक्तव्य राजनैतिक था लेकिन अगर इस वक्तव्य की तह में उतर कर देखा जाय तो यह जिंदगी जीने के तरीके को सही तरीके से उद्घाटित करता हुआ वक्तव्य है। कवि से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने समय और समाज को जागरुक करने का कार्य करें। रमेश ऋतम्भर ऐसे ही एक महत्वपूर्ण कवि हैं जो बिना शोर-शराबा किए गंभीरतापूर्वक अपना लेखन कार्य कर कर रहे हैं। अपनी कविता में रमेश लिखते हैं : "मरे हुए आदमी के चेहरे पर/ आखिर कैसे हो जाती है इतनी जल्दी/ उसकी चेतना मुर्दा?/ जिन्दा आदमी तो नहीं होता/ इतना तटस्थ और शांत कभी/ वह तो/ रहता है हमेशा सक्रिय एवं बेचैन/ सत्य की तलाश में/ रहता है हमेशा जागरूक/ गलत चीजों के ख़िलाफ़/ सचमुच मरा हुआ आदमी/ दुनिया का सबसे जिन्दा और ताजा सच है/ जिन्दा और ताजा सच/ जिसे हर कोई पा सकता है/ जीते-जी मर कर/ लेकिन इतना याद रहे जरूर/ कि मरे हुआ आदमी का/ कोई इतिहास नहीं होता"। रमेश ऋतम्भर की कविताएं हमारे कवि मित्र पंकज चौधरी ने पहली बार के लिए उपलब्ध कराई हैं। हम उनके प्रति आभारी हैं। तो आइए आज पहली बार पढ़ते हैं कवि रमेश ऋतम्भर की कुछ नई कविताएं।
रमेश ऋतंभर की कविताएं
चिंतित सदी
डाल पर बैठी चिड़िया
सोच रही है
पेड़ के बारे में
उदास तितली
सोच रही है
फूल के बारे में
बुढ़िया अम्मा
सोच रही है
चाँद के बारे में
मेरी नन्ही बिटिया सोच रही है
गुड्डे के बारे में
और मैं सोच रहा हूँ
अपनी पृथ्वी के बारे में
भोली-सी पृथ्वी के बारे में
जिसे वह उछाल रहे हैं
अपनी हथेलियों पर गेंद के समान!
एक दिन अपरिचित होगा प्यार
हम कहाँ-कहाँ नहीं गए मित्र
तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं ढूंढ़ा
पृथ्वी के इस छोर से ले कर उस छोर तक
तलाशते रहे हम तुम्हें
लेकिन शताब्दियाँ गुजर गयीं
तुम कहीं नहीं मिले मित्र
मिलीं तो सिर्फ़
शताब्दियों बाद संग्रहालय में रखी
तुम्हारी पुरानी डायरी
और मेरे नाम लिखी
बिना पोस्ट की गयीं कुछ चिट्ठियाँ
जिसमें तुमने लिखा था
मेरे लिए
सिर्फ़ एक ही शब्द
'प्यार'
जिसे पढ़ कर लोग पूछ रहे थे
एक-दूसरे से अर्थ
(अचकचाये-से)
जो उनकी दुनिया के लिए नितांत
अपरिचित था।
मरा हुआ आदमी
मरा हुआ आदमी
दुनिया का सबसे जिन्दा और ताजा सच है
क्या किसी मरे हुए आदमी को
तुमने देखा है दोस्त ?
तुमने देखा है ?
कि वह कितना बेफिक्र और निश्चिंत-सा
सोया रहता है
जैसे कि वह घोड़े बेच कर सो रहा हो बरसों से
देखी है तुमने
उसके चेहरे की मुर्दनी शांति
कितनी तटस्थ और कायर शांति दिखती है
मरे हुए आदमी के चेहरे पर
आखिर कैसे हो जाती है इतनी जल्दी
उसकी चेतना मुर्दा?
जिन्दा आदमी तो नहीं होता
इतना तटस्थ और शांत कभी?
वह तो
रहता है हमेशा सक्रिय एवं बेचैन
सत्य की तलाश में
रहता है हमेशा जागरूक
गलत चीजों के ख़िलाफ़
सचमुच मरा हुआ आदमी
दुनिया का सबसे जिन्दा और ताजा सच है
जिन्दा और ताजा सच
जिसे हर कोई पा सकता है
जीते-जी मर कर
लेकिन इतना याद रहे जरूर
कि मरे हुआ आदमी का
कोई इतिहास नहीं होता
दुनिया में कहीं भी दोस्त!
मोक्ष के विरुद्ध
जब-जब मरूँ
तब-तब धारण करूँ देह
नहीं चाहिए मुक्ति
नहीं चाहिए मोक्ष
बस बीज की तरह
धरती में धंसकर पनपता रहूँ
बनता रहूँ पूरा पेड़
फलता रहूँ खूब
देता रहूँ सबको सुख-चैन
हे नियन्ता !
बार-बार
बीज बन गिरता रहूँ
धरती में
उगता रहूँ
बार-बार
बन कर पूरा पेड़
मुक्ति की कामना से दूर
बहुत दूर।
प्रतिबद्धता
जब सारी दुनिया
निन्यानबे के फेर में फंसी पड़ी थी
उस वक्त
मैं प्यार में डूबा हुआ था.
जब सारी दुनिया
धर्म के नशे में धुत थी
उस वक्त
मैं प्यार में डूबा हुआ था.
जब सारी दुनिया
हथियारों की खरीद-फ़रोख़्त में लगी हुई थी
उस वक्त
मैं प्यार में डूबा हुआ था.
यह समय ही ऐसा था
कि मैं प्यार के सिवा कुछ सोच नहीं सकता था
यह मेरी प्रतिबद्धता का सवाल था
क्योंकि मुझे कहीं किसी को कुछ जवाब देना था।
अपने हिस्से का सच
(पलायित बिहारी युवाओं को समर्पित)
दिल्ली में भी कई-कई नरकटियागंज हैं
सिर्फ़ सेंट्रल दिल्ली ही नहीं है दिल्ली
दिल्ली जहाँ है, वहाँ गंदगी भी है
कूड़ा-करकट भी है
धूल-धुंआ भी है
पानी का हाहाकार भी है
सिर्फ चकाचौंध नहीं है दिल्ली
दिल्ली जहाँ है, वहाँ बीमारी भी है
परेशानी भी है
ठेलमठेल भी है
और भागमभाग भी है
सिर्फ एयरकन्डीशड नहीं है दिल्ली
आखिर किस दिल्ली की आस में
हम भागे चले आये दिल्ली
यह सेंट्रल दिल्ली तो नहीं आयेगा
हमारे हिस्से कभी.
चाहे हमारे जैसे लोग, जहाँ भी रहे
उनके हिस्से तो नरकटियागंज ही आयेगा
यह सेंट्रल दिल्ली नहीं....
तो फिर किसी दिल्ली की आस में
हम भाग चले आये दिल्ली।
सफलता का गीत
आप क्यों जायेंगे पहाड़ पर
आप तो दिल्ली जायेंगे श्रीमान्!
दिल्ली में पैसा है
पद है
यश है
प्रतिष्ठा है
पहाड़ पर आपको क्या मिलेगा श्रीमान्?
पहाड़ पर सिर्फ पत्थर हैं
सिर्फ झरने हैं
सिर्फ फूल हैं
सिर्फ तितलियाँ हैं
वहाँ कहाँ आपको कुरलॉन का गद्दा बिछा मिलेगा श्रीमान्?
दिल्ली में संसद है
सरकार है
अकादमी है
दरबार है
पहाड़ पर आपको क्या मिलेगा श्रीमान्?
पहाड़ तो आपको हौले-से थपथपायेंगे
कानों में आपको संगीत सुनायेंगे
आपकी उदासी को दूर भगायेंगे
जीने का आपको मर्म सिखायेंगे
दिल्ली में क्या, दिल्ली में आपको
दौड़-धक्का मिलेगा
इज्ज़त के पीछे कुरता फटेगा
सफलता के पीछे का सच दिखेगा
पर आप दिल्ली ही जायेंगे श्रीमान्!
दुनिया में आपको सफल जो होना है श्रीमान्!!
विकास-कथा
एक कस्बे में रहते थे पाँच कवि-किशोर
एक जो सिगरेट का धुंआ उड़ाते हुए
खूब बहसें किया करता था
पढ़ाई खत्म करते ही चला गया दिल्ली
पकड़ ली एक छोटी-सी नौकरी
वहीं से कभी-कभी लिखता है चिट्ठी
कि कई मोर्चों पर जीतने वाला आदमी
कैसे एक भूख के आगे हार जाता है
जताता है उम्मीद
कि एक दिन लौटेगा वह जरूर
अपनी कविताओं के घर.
दूसरा जो फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने के कारण
कॉलेज की लड़के-लड़कियों के बीच लोकप्रिय था
पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षाएँ देते-देते
हार कर बन गया
एक देशी दवा कम्पनी का विक्रय-प्रतिनिधि
आजकल कंपनी का बिक्री-लक्ष्य पूरा करने के लिए
वह अस्पतालों, डॉक्टरों, केमिस्टों के यहाँ
भारी बैग लेकर चक्कर लगाता फिरता है
पिछले दिनों आया था घर
दिखा रहा था अपनी हथेलियों के ठेले
कह रहा था 'रमेश जीवन बड़ा कठिन है'.
तीसरा जो दोस्तों से घिरा अक्सर गप्पे मारा करता था
और बात-बात में बाजी लगाया करता था
बी.ए.के बाद बेकारी से घबरा कर
खोल लिया टेलीफोन पे बूथ
आजकल वह जिला व्यवहार न्यायालय में
हो गया है सहायक
और कविताएँ लिखना छोड़ खूनियों-अपराधियों की
जमानत की पैरवी करता-फिरता है.
चौथा जो जहाँ भी कुछ गलत होता देखता
तुरन्त आवाज उठाता था
और कविताओं के साथ-साथ अखबारों में
ज्वलंत मुद्दों पर लेख लिखा करता था
उसने खोल लिया एक छोटा-मोटा प्रेस
और हो गया क्षेत्रीय अखबार का स्थानीय संवाददाता
आजकल मुर्गे की टांग और दारू की बोतल पर
खबरों का महत्व तय करता है
पाँचवां जो किताबों की दुनिया में खोया
क्रांति के सपने देखा करता था
हो गया कस्बे के एक छोटे कॉलेज में हिन्दी का लेक्चरर
वह अपनी सीमित तनख़्वाह में
घर-परिवार व पेशे की जरूरतों के बीच
महीना-भर खींचतान करता रहता है
और अपने को जिन्दा रखे रहने के लिए
कभी-कभी कविताएँ लिख लेता है
आजकल वह भी सोच रहा है
कि वह खोल ले कोई दूकान
या बन जाए किसी का दलाल।
'सबसे ऊपर मनुष्य'
(शीर्षक के लिए पूर्वज कवि चंडीदास के प्रति अनन्य आभार)
तुम्हें मनुष्य से प्यार करना था
तुम जाति, सम्प्रदाय, नस्ल व भाषा से प्यार कर बैठे.
तुम्हें देश से प्यार करना था
तुम दल व नेता से प्यार कर बैठे.
तुम्हें ईश्वर से प्यार करना था
तुम धर्म गुरुओं व ठेकेदारों से प्यार कर बैठे.
तुम्हें प्रकृति से प्यार करना था
तुम बनावटीपन से प्यार कर बैठे.
तुम्हें जीवन से प्यार करना था
तुम मोक्ष से प्यार कर बैठे.
तुम्हें लोक से प्यार करना था
तुम परलोक से प्यार कर बैठे.
अब तुम्हारे प्यार का क्या...?
तुम्हारा कहना/ मानना है कि
'मेरा प्यार ही सही है'
अब तुम्हें कौन समझाए कि
सम्प्रदाय, जाति, नस्ल, भाषादि से भी बहुत ऊपर है मनुष्य
'सबसे ऊपर मनुष्य।'
ज्ञान
ज्ञान से ही शुरू होता है दुनिया का सारा झंझट
यदि आदम और हव्वा ने नहीं चखा होता ज्ञान का सेब
तो रह रहे होते मजे में स्वर्ग के सुखी संसार में
न झेलना पड़ता उन्हें मर्त्यलोक में जीने का अभिशाप
उन्हें तब न होता
काम, क्रोध, लोभ, मोह, द्वेष, ईर्ष्या, घृणा व लज्जा का ख्याल
उन्हें तब न होता
सुख-दुख, सच-झूठ, पाप-पुण्य व नैतिक-अनैतिक का ध्यान.
ज्ञान से ही शुरू होता है दुनिया का सारा झंझट
यदि बुद्ध के भीतर ज्ञान की उत्कट प्यास नहीं जगती
तो राजमहल का सुख-वैभव छोड़ कर वह जंगल-जंगल नहीं भटकते.
यदि सुकरात के भीतर ज्ञान की अनन्य निष्ठा नहीं फूटती
तो जीवन का आनंद छोड़कर वह ज़हर का प्याला नहीं थामते
यदि कबीर के भीतर ज्ञान का विवेक जागृत नहीं होता
तो खाने और सोने का सुख छोड़कर वह रात-रात भर जागते और बेचैन नहीं होते
ज्ञान से ही शुरू होता है दुनिया का सारा झंझट
जैसे-जैसे आदमी ज्ञान अर्जित करता जाता है
वैसे-वैसे वह कष्ट एवं द्वन्द्व में पड़ता जाता है
इसलिए जिन्हें सांसारिक सुख की चाह है
वे ज्ञान के फेर में कभी न पड़े
ज्ञान का मार्ग बहुत ही कंटकमय है
इस पर विरले-साहसी ही चलते हैं
यह जानकार भी यदि ज्ञान की राह पर
आप अपना पहला कदम बढ़ाते हैं
तो आपका हार्दिक स्वागत है...
तब आप आदम-हव्वा के असली वंशज कहलाने के अधिकारी भी हो सकते हैं।
मृत्यु-दौड़
(दरोगा की नौकरी की दौड़ में हताहत युवाओं की सजल स्मृति में)
वह दौड़ रहा है
वह पूरी जान लगाकर दौड़ रहा है
पाँव लड़खड़ा रहे हैं
कंठ सूख रहा है
आँखों से चिंगारियाँ निकल रही हैं
फिर भी किसी अदृश्य शक्ति के सहारे
वह लगातार दौड़ रहा है
उसकी आँखों के आगे बूढ़े पिता का थका-झुर्रीदार चेहरा कौंध रहा है
उसकी आँखों के आगे बीमार माँ की खाँसती हुई सूरत झलक रही है
उसकी आँखों के आगे अधेड़ होती कुंवारी बहन का उदास मुखड़ा तैर रहा है
उसकी आँखों के आगे वह दरोगा की वर्दी में खुद खड़ा दिखाई दे रहा है
उसकी आँखों के लक्ष्य-रेखा करीब आती हुई नज़र आ रही है
उसकी आँखें धीरे-धीरे मुंदती जा रही है
और सारा दृश्य एक-दूसरे में गड्मड हो रहा है
अब उसे कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है
वह दौड़-भूमि में भहरा कर गिर पड़ा है
और उसकी चेतना धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है
माँ-पिता, बहनें, दोस्त सब
एक-एक कर याद आ रहे हैं
उसकी चेतना में लक्ष्य-रेखा धंस-सी गयी है
और वह अपने को लगातार दौड़ता हुआ पा रहा है
उसके प्राण-पखेरू उड़ चुके हैं
अब वह अपनी मृत्यु में दौड़ रहा है
वह लगातार दौड़ रहा है।
असर-ए-याद
जब कोई कहीं दूर गहरी नींद में डूबा होता है
तब ठीक उसी वक्त कोई उसे याद कर रहा होता है
जब कोई कहीं दूर भोजन के कौर निगल रहा होता है
तब ठीक उसी वक्त कोई उसे याद कर रहा होता है
जब कोई कहीं दूर आइने में अपने को निहार रहा होता है
तब ठीक उसी वक्त कोई उसे याद कर रहा होता है
किसी के अचानक सपने में आने, गले में कौर के अटकने
और शीशे के चटकने का कोई अर्थ होता है
किसी की याद यूँ ही बेअसर नहीं होती।
पसंद का शास्त्र
(पूर्वज कवि सूरदास को याद करते हुए)
हजारों चेहरों के बीच कोई वहीं एक चेहरा क्यों चुनता है
जो दूसरों की नज़र में न तो ज्यादा खूबसूरत होता है,
न तो ज्यादा खास.
हजारों रंग के बीच कोई वहीं एक रंग क्यों चुनता है
जो दूसरों की नज़र में न तो ज्यादा सुर्ख़ होता है
न तो ज्यादा प्यारा.
हजारों फूल के बीच कोई वहीं एक फूल क्यों चुनता है
जो दूसरों की नज़र में न तो ज्यादा दिलकश होता है
न तो ज्यादा खुशबूदार.
हजारों शहर के बीच कोई वहीं एक शहर क्यों चुनता है
जो दूसरों की नज़र में न तो ज्यादा सुविधाजनक होता है
न तो ज्यादा संभावनाओं से भरा।
यह तो किसी पर दिल आ जाने की बात है
यहाँ हमारी दुनिया का कोई अर्थशास्त्र नहीं चलता।
एक उत्तर आधुनिक समाज की कथा
एक आदमी सुबह से शाम तक खेत जोतता है
एक आदमी सुबह से शाम तक फावड़ा चलाता है
एक आदमी सुबह से शाम तक बोझ ढोता है
एक आदमी सुबह से शाम तक जूता सिलता है
तब भी उसे दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती
वही एक आदमी खाली झूठ बोलता है
एक आदमी खाली बेईमानी करता है
एक आदमी खाली दलाली करता है
एक आदमी खाली आदर्श बघारता है
तो वह चारों वक्त खूब घी-मलीदा उड़ाता है
प्रिय पाठको! यह किसी आदिम-समाज की कथा नहीं
एक उत्तर-आधुनिक सभ्य समाज की कथा है,
जिसके पात्र, घटना और परिस्थितियाँ
सबके सब वास्तविक हैं
और जिनका कल्पना से कोई भी सम्बन्ध नहीं।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व विजेंद्र जी की हैं।)
संपर्क :
मोबाइल : 9431670598
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंखूब खूब बधाई रमेश जी🌹
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