अदनान कफील दरवेश के कविता संग्रह 'ठिठुरते लैंपपोस्ट' पर आशीष सिंह का आलेख 'मेरा सामान्य व्यवहार इस लोकतंत्र में गड़बड़ा गया है'

 

अदनान कफील दरवेश

 

भारत का विभाजन उसके इतिहास का एक त्रासद अध्याय है। इस विभाजन के शिकार करोड़ों लोग हुए। बंटवारे का धार्मिक आधार होने के बावजूद इस बंटवारे को धार्मिक में कहा जा सकता। मुसलमानों की एक बड़ी आबादी ने हिन्दुस्तान में ही रहने का चयन किया। तय यह हुआ था कि हिन्दू हो या मुसलमान उसके साथ बराबरी का व्यवहार किया जाएगा। लेकिन दुर्भाग्यवश समय बीतने के साथ दोनों तरफ कट्टरता बढ़ती चली गई। हिन्दुस्तान भी इसका अपवाद नहीं रहा। लोग मनुष्य होने की बजाय कुछ अधिक ही धार्मिक होते चले गए। आज स्थिति यह है कि अल्पसंख्यकों की एक बड़ी आबादी खौफजदा है। इस आबादी की बातों को अदनान ने तारतीबवार रखने की कोशिश की है। युवा कवि अदनान कफील दरवेश का हाल ही में पहला कविता संग्रह राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अदनान ने अपने कथ्य और शिल्प के जरिए अदनान ने काव्य आलोचकों का ध्यान आकृष्ट किया है। आलोचक आशीष सिंह ने अदनान के इस नए संग्रह को आधार बनाकर उनके कविता कर्म की पड़ताल की है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं अदनान कफील दरवेश के काव्य संकलन 'ठिठुरते लैम्पपोस्ट' पर आशीष सिंह का आलेख 'मेरा सामान्य व्यवहार इस लोकतंत्र में गड़बड़ा गया है'।



'मेरा सामान्य व्यवहार इस लोकतंत्र में गड़बड़ा गया है'


'ठिठुरते लैम्प पोस्ट और अदनान की कविता' 


आशीष सिंह



अदनान कफील दरवेश युवा कवियों में एक महत्वपूर्ण नाम है। वह अपने समय की जद्दोजहद, दुश्वारियों व ऊपर से नीचे तक पसरते निरंकुश सत्तातंत्र की शिनाख्त करती कविताओं के कवि हैं। मुख्तसर से शब्दों में इन पंक्तियों को लिख कर बतौर एक पाठक मैं सोचने लगता हूँ कि महज अट्ठाइस बरस की उम्र के इस कवि की कविताओं से परिचय कराने के लिए कविता के किस सिरे को पकड़ूँ। एक तरफ आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण के दौर में गाँव में प्रवेश करते शहर की निगाह को गौर से देखते अदनान कफील दरवेश की कविताओं से बात शुरू करूँ या निम्नमध्यवर्गीय जीवन की तौर ए जिंदगी को कविता का विषय बनाते कवि से आपका परिचय कराऊँ, जो अपने काँधे पर 'गमछा' डाले पिता की याददिहानी कराता मिलता है या परम्परा से प्राप्त उर्दू-फारसी शब्दों का सटीकतम प्रयोग करते एक ऐसे कवि से मुलाकात करूँ जहाँ जायसी, मीर, गालिब व इकबाल के साथ फैज़, मुक्तिबोध जैसे कवि/ शायर इस युवा कवि की कविताओं में अनायास अपनी उपस्थिति दर्ज कराते मिलते हैं। परम्परा की जीवन्त धारा का एक सिरा थामे वर्तमान की चुनौतियों को बेहिचक कविता में दर्ज करते अदनान इसलिए भी एक अजीज कवि हैं, जिनके 'अल्फाज़' मौन आनन्द में धुनी रूई के फाहों के मानिन्द उड़ जरूर रहे हैं, लेकिन वहाँ 'चली जाती है उधर को भी नजर' से नावाकिफ नहीं हैं।



उनके काव्य संकलन 'ठिठुरते लैम्पपोस्ट' को पलटते हुए जो पहली कविता नजर से गुजरी वह थी 'बहिश्त'। 'बहिश्त 'यानी स्वर्ग-लोक। मैं जितनी बार इस 'बहिश्त' से गुजरता रहा, मेरे जेहन में अपने आस-पास जगह बना रहे 'जहन्नुम' की तस्वीर गुजरती रही। कविता लिखने की कीमत चुकाती कोई पूर्वोत्तर की लड़की है तो साम्प्रदायिक ताकत को साम्प्रदायिक कहता कोई पत्रकार हाथ बाँधे कैदखाने की ओर ठेला जा रहा है। बाहर चल रहे अंधड़ के बीच अपने-अपने 'बहिश्त' में दुबकने को अभिशप्त मनुष्य।/आओ इस युवा कवि की कविता के इस सिरे को छू कर उसकी कविता की दुनिया  में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं।



अदनान की 'बहिश्त' शीर्षक कविता ऊपरी तौर पर फैज़ की मशहूर नज्म की याददिहानी कराती मिलती है तो अन्दरखाने में वह इतनी पीड़ा से भी लथपथ है कि शब्द चुक जा रहे हैं और अन्त;अथाह पीड़ा के साथ अपने 'बहिश्त' की गोदी में ही दम तोड़ना चाहता है। 'प्लीज आ जाओ! प्लीज आ जाओ! प्लीज आ जाओ! 'का आर्तनाद बाहरी कत्लोगारत से परेशान हो कर कवि करता मिलता है या 'बहिश्त' को जहन्नुम बनाती शक्तियों को प्रश्नांकित करता है -


"जब तुम थे पास मेरे
मैं था बहिश्त में 
अपने मौन के आनंद में डूबा हुआ
अल्फाज 
धुनी रुई के फा़हे से उड़ने लगे थे पूरे कमरे में
तितलियों और जुगनुओं ने पूरे कमरे को घेर रखा था 
बाहर कत्लोगारत का सिलसिला थमा नहीं था 
बच्चों के सिर पके कटहल की तरह 
ख़ाबीदा दरख्तों से भद -भद गिर रहे थे लगातार 
मजहबी शोर से शहर की दीवारें कराह रहीं थीं 
और पूरी दुनिया गोया शरणार्थी शिविरों में तब्दील हो रही थी
लेकिन मैं था बहिश्त के आनंद में डूबा हुआ"


'बहिश्त' कविता की ये चन्द-शुरुआती पंक्तियाँ हैं। सन् 2018 में लिखी इस  कविता का 'मैं' अपने बहिश्त में डूब-उतरा रहे  धुप्प अंधेरे में क्षणजीवी-जुगनुओं से सपनों की उजास में आनंदित है, जबकि बाहर भयावह मंजर जारी है। नींद और ख्वाब में डूबे हुए मासूमों का कत्ल करते लोग क्या महज मजहबी हैं?  जिन पंक्तियों में बच्चों के सिर पके कटहल से गिरने की वीभत्स घटना दर्ज है। 'मजहबी शोर से शहर की दीवारें कराह रहीं थीं' जैसा वाक्य महज समकालीन तकलीफदेह यथार्थ को 'शब्द' भर दे रहा है, जबकि कविता 'खा़बीदा दरख्तों' व शरणार्थी शिविरों में तब्दील होती दुनिया का जिक्र कर के अफसोसनाक सच की ओर हमें लिए चलती है। 



'"रात का ठोस काला पत्थर
मेरे सीने को कुचल कर जमींदोज कर देना चाहता है
कमबख्त अब ये दीवालें भी चुभती हैं 
जी करता है इनका मस्तक फाड़ डालूँ 
फाड़ डालूँ उन सारी किताबों के पृष्ठ 
जिन पर लिखा है प्रेम 
लेकिन दिल है कि रोक लेता है बार-बार
कि इसे जिब्रील-अमीन का है इंतिजार 
जो इसे एक दिन अपना बुर्राक सौंप देंगे
कि इसे खुशफहमियाँ बहुत हैं
जिनके हाथों ये कल कत्ल कर दिया जायेगा
प्यासा और निहत्था 
किसी कर्बला में"



आज के अँधेरे को बरकरार रखने वाली काली ताकतों से जूझते मन की लड़ाई अन्दर और बाहर दोनों तरफ है। छटपटाहट और क्षोभ की सम्मिलित अभिव्यक्ति में आगे चल कर कवि रवायत से मिले पौराणिक चरित्रों का मानो आह्वान करता है। अल्लाह का पैगाम ले कर आते फरिश्तों का इन्तजार है। सत्य औ असत्य के बीच होने वाले 'कर्बला' में असत्य को जमींदोज होना ही है। इस उम्मीद और बहिश्त के आनंद में दम तोड़ती चाहना के बीच मौजूद अन्तर्विरोध को देखने की जरूरत है। आखिर आज की वास्तविक जंग में 'बहिश्त' का 'मैं'  क्या हताश-निराश अवाम का प्रतिनिधि है, जो किन्हीं फरिश्तों के आने की बाट जोह रहा है। 'अकेले किये जाते समय में' देवताओं के खेल पर पानी फेरना चाहता  है। 'प्रेम की कटार' से छलनी होते शख्स के लिए 'बहिश्त' भविष्य को निकट लाने की जद्दोजहद में निहित है। नितांत एकांतिक 'बहिश्त' से कत्लोगारत से लथपथ तल्ख हकीकतों से होता हुआ 'मैं' अन्ततः देवताओं के सातो आसमानों के मिथक से बाहर आ कर अपने 'बहिश्त' के लिए पुरजोर कोशिश में मुब्तिला है। अदनान कफील दरवेश की यह कविता उनके काव्य व्यक्तित्व की जद्दोजेहद की बेहतरीन नुमाइंदगी करती मिलती है। इस मायने से भी 'बहिश्त' के अन्दर बाहर आवाजाही करते "मैं' के उधेड़बुन को पढ़ने की जरूरत लग रही है। अदनान कफील दरवेश इसलिए भी युवा कवियों में अन्यतम लगते हैं कि वे परम्परा से प्राप्त विश्वासों पर झूठे परदे लटका कर परिवर्तनवादी लटके झटके में भरोसा नहीं करते हैं बल्कि; उन विश्वासों, मिथकों का अपनी कविता मेंं मानीखेज़ प्रयोग करते हुए आगे की यात्रा करते मिलते हैं।
      


हम इस कविता में प्रवेश करते ही अपने समय के भयानक मंजर से महज वाकिफ ही नहीं होते हैं बल्कि कवि के अंदर इस भयावहता से जनमे अकेलेपन को भी पढ़ रहे होते हैं। यह कवि अदनान की ईमानदार प्रस्तुति कि यह 'मैं' चाह कर भी बाहर तारी उन्मादी भयावहता के खिलाफ कुछ नहीं कर पा रहा है। क्या अकारण ही वह अपने 'बहिश्त' में डूब जाने को अभिशापित है। हमारे देश-समाज में जारी 'घेट्टोकरण,' 'कातिल' को  कातिल कहे जाने भर से ही अपराधी मान लिए जाने वाले समय में 'बहिश्त' की पंक्तियाँ कविता की पंक्तियाँ भर नहीं हैं! इस मायने से भी यह युवा कवि अपने समानधर्मा कवियों में विरल है। 

   

(2)


एक दिन जब सारे मुसलमान'; कविता के टोन पर गौर किया जाना चाहिए। इसे देवी प्रसाद मिश्र के 'मुसलमान' कविता के सामने रख कर पढ़े जाने से इसमें मौजूद तकलीफ़, एहसासात व सवाल को शायद ज्यादा गहरे तौर पर महसूसा जा सकता है। देवी प्रसाद अपनी कविता का प्रारम्भ 'विपत्ति की तरह आये' कहते हुए करते हैं। वे टैग लाइन के तौर पर  'वे मुसलमान थे' का इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ते हैं। 'वे मुसलमान थे' वाक्य को क्या पाठक 'अन्य' और 'हम' में परिभाषित होते देखता है या नहीं?  - यह विचारणीय है ....। या, इस समुदाय को कटघरे में खड़ी करती साम्प्रदायिक दृष्टि की तंगनजरी की बखिया उधेड़ती है। कविता अपनी मंशा में बेशक भारत आये 'मुसलमान' कौम की भाषा, संस्कृति, संगीत वास्तु कला आदि में उनके अनेकानेक योगदान को दर्ज करती है। उनकी भागीदारी से जो हासिल हुआ, उनकी अनुपस्थिति से इतिहास-समाज किन चीजों से महरूम हो जाता आदि ढ़ेरों जरूरी सवालात यहाँ उपस्थित हैं। साथ ही ' सच को सच की तरह बताने और सच को सच की तरह सुने जाने' की तजबीज के बावजूद देवी जी की यह उल्लेखनीय कविता भारतीय मुसलमान को किस नजर से देखने की अपील करती है? यह दृष्टि 'अन्य' की है या नहीं! इस सबके बावजूद 'मुसलमान' कविता और 'एक दिन जब सारे मुसलमान' को साथ रख कर पुनर्पाठ करना जरूरी लग रहा है। सम्भव है हमारी प्रगतिशील सोच और साम्प्रदायिक अंधेरे से जूझती दृष्टि में उतर आये जालों को --अन्तरावकाशों में उपस्थित 'अन्य' को देखते हुए  --हटाया जा सके। क्या नहीं?

 

खौफज़दा आबादी के अपने सवाल और बाहर खड़े कवि की अभिव्यक्ति कितनी पूरी और कितनी अधूरी हो सकती है! क्या इस तरह से भी इन दोनों कवियों  के इस  कविता का  पाठ किया जा सकता है? मुझे लगता है किया जाना ही चाहिए। तभी इस बहुसंख्यक आबादी के बीच मौजूद प्रगतिशील-सोच की हदबंदी, शबो-रोज़ एक तयशुदा चौहद्दी की ओर ढकेली जा रही आबादी की वास्तविक वस्तुस्थिति- मन:स्थिति से परिचित हुआ जा सकता है।




देश ही नहीं पूरी दुनिया में  'मुसलमान के' शब्द को चिन्हित कर के जिस तरह से कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, उसके पीछे मौजूद सामाजिक गतिकी की पहचान नये कवियों को है? और है तो उसकी दिशा बहुसंख्यक जमात के सवालों को जवाब देने के रूप में है या स्वतंत्र स्वाभाविक अस्तित्व को दर्ज करने के रूप में।




क्या यह सच नहीं है कि 'सभ्यता के संकटजेड का गान करती पश्चिमी सामाजिक-बौद्धिक शक्तियों का मूल संकट आर्थिक व उपभोग प्रणाली से जुड़ा हुआ है, जिसकी काली छाया में मानवता कुचली जा रही है और प्रतिकार में मध्ययुगीन मानसिकता अपनी जगह तलाशती मिलती है!




दुनिया के तमाम मुल्कों में पुनरुत्थानवादी ताकतों का उभार किसी एक कौम, समुदाय या मुल्क में तलाशना तंगनजरी ही नहीं बल्कि; विज्ञान व तर्क का पहिया पीछे की ओर धकेलने जैसा है।




साम्प्रदायिक-फासीवादी ताकतों व साम्राज्यवादी शक्तियों के विचार व प्रचार तंत्र आर्थिक -राजनीतिक फेल्योर को कौम-विशेष के सहारे छुपाना चाहते हैं। 


'एक दिन जब सारे मुसलमान' कविता दरअस्ल प्रकृति, मनुष्य, समाज में मौजूद सभी शख्सियतों और उनकी भागीदारी की ओर तो इशारा करती ही है, हम किससे वंचित हो जायेंगे, हम कितने अधूरे हो जायेंगे की भी बात करती चलती है। आज के समय में इस प्रकार की उद्घघोषणा जितने साहस व जोखिम की माँग करती है, कवि वह साहस और वह जोखिम उठाते हुए एक क्षण भी  झिझक नहीं रहा है। मनुष्यता पर आयत्त संकट की चिन्ता करते हुए कवि की कविता के तौर पर पढ़े जाने के बावजूद यह आवाज किस जमीन, किस जगह से उठायी जा रही है, उसे आप नजरअंदाज भी नहीं कर सकते हैं। अदनान में मौजूद कवि कितने गहरे भाव-बोध और त्रासद-यथार्थ को हमारे सामने एक चुनौती की तरह पेश कर रहा है! एक तहजीब, एक सभ्यता और एक कौम को जमींदोज करने के पीछे जो ताकतें खड़ी हैं, उनकी शिनाख्त तो होगी ही, इस प्रचार के प्रभाव में आ रही बहुसंख्यक-जमात कितनी अधूरी, कितनी छूछी हो कर रह जायेगी, क्या इस पर बात करने के लिए भुक्तभोगी-आबादी का कोई भी कवि अपनी बात सही-सही कह सकता है? कोई और कहेगा तो कितना कह पायेगा और कितना छूट जायेगा? भाषा, तहजीब और आपसदारी के तमाम-उत्सव कितने आधे होते-होते आज एक खास-दूरी लिये मिलते हैं। बन चुकी दूरी को बहुत गौर से देखने के लिए भी यह कविता हमें अपने पास खींचती मिलती है।



इस कविता को टुकड़े में सामने लाना, उस पूरे यथार्थ को टुकड़े में लाना होगा; उसकी व्यंजकता उसकी पूरी प्रस्तुति में ही सम्भव है। आओ पढ़ते हैं और अपने समय खड़े मामूली-सी लगने वाली बात की गहरी-आवाजों,  पुकारों की रूह को छूने की कोशिश करें -


''एक दिन जब सारे मुसलमान
इस धरती की तहों में सो जायेंगे
या सुला दिए जायेंगे
दुनिया से सारे कुरआन 
उठा लिये जायेंगे
और सारी टोपियाँ अन्तरिक्ष में खो जाएँगी
और दिन में पाँच बार सिर पटकने वाली कौ़म 
फ़ना हो जाएगी 
और जब आधा लखनऊ
आधी दिल्ली
आधा कानपुर 
आधा बनारस
आधा पटना 
आधा कलकत्ता
आधी बम्बई
आधा अहमदाबाद
आधा हैदराबाद 
ख़ाली हो जायेंगे
और 
सारे क़हक़हे
सारे छेड़
तमाम अहले-सुखन
और
रसूलन बुआओं
अजी़ज़न दादियों
नूरुल चाचाओं
सकीना बहनों 
और सारे महमूद भाइयों से 
ये दुनिया हमेशा-हमेशा के लिए खा़ली हो जाएगी,
उस दिन मेरे अजी़ज भाई 
मेरे बच्चे
देखना
तुमने क्या खो दिया है ......"



 (3)



एक सवाल जो अक्सर हमारे जेहन में कौंधता रहता है कि आखिर क्या वजहें होंगी कि मौजूदा हिन्दी साहित्य की तमाम विधाओं में प्रतीक, भाषाई तेवर व मुहावरे तक में मुख्य-धारा की संस्कृति व परम्परा ही प्रभावी दिखती है? क्या इसकी वजह हमारे देश-समाज में मौजूद तमाम समाजों-समुदायों के बीच आवाजाही के सूखते जाने में, खुद में सिकुड़ते जाने में निहित हैं? बेहद सहज और सामान्य-तरीके से प्रेमचंद आदि हमारे पूर्वज-लेखक सामासिक संस्कृति के क्रिया-व्यापार को अपनी रचना में जगह देते हुए दिखते हैं, आम जन के  सुख-दुख, तौर ए जिन्दगी को  अपनी रचना का विषय बनाते हैं! यह सहज भाव -धारा क्रमशः एकान्तिक होती गयी, आखिर इसकी  वजहें क्या हैं? क्या इसकी जड़ें आजाद भारत में पनप रही नयी राजनीतिक, आर्थिक संस्कृति व व्यवस्था में निहित हैं? मुख्य शक्ति समाज के प्रभावशाली-वर्चस्वशाली ताकतों के हाथों में केंद्रित होती गयी है, जिसका असर नयी-धारा के तमाम लेखकों और उनकी कृतियों में देखने को मिलता है? हमारे सामने मुस्लिम कथाकारों की एक फेहरिस्त तो मिल जायेगी, लेकिन कवियों; खासकर मुख्य-धारा की हिन्दी में अपनी अभिव्यक्ति दर्ज करने वाले कवियों की संख्या महज गिनती की है! ये रचनाकार अपनी संस्कृति, अपने पौराणिक प्रतीकों व उनसे अपने जुड़ाव व टकराव को कम, सामान्यतः सर्वसमावेशी भाव व विचार ज्यादा लिये मिलते हैं। 




ऐसे में जब अदनान कफील की कविताओं में हम फजि़र, मगरिब, मक्का, कर्बला, जिब्रील जैसे अनेकानेक मुस्लिम सामाजिक-जीवन व क्रिया-व्यापार से उपजे शब्द-प्रतीक, कविता के भाव-सम्पदा को गहरा और अर्थमयी बनाते हैं तो इस कवि के दायित्व व दिशा-बोध को गौ़र से निहारने-निरखने का मन करता है। सत्ता व्यवस्था की आलोचना से ज्यादा हमारे आसपास उपस्थित हो रही सत्ताओं की निशानदेही करने में यह कवि झिझकता नहीं; न ही अतिरिक्त-पैगाम देने की जल्दबाजी़ करता है। इसकी आन्तरिक-दुविधा, छटपटाहट पढ़ते हुए हमें मुक्तिबोध जैसे रचनाकारों के आत्मसंघर्ष की अनुगूंज सुन पड़ती है--


"जब दु:ख रिस रहे थे
हमारी आत्मा के कोनों-अँतरों से 
हम पागलों की तरह सिर धुनते 
हम स्वप्न में भी भागते 
और बार -बार गिर पड़ते 
हम अँधेरे द्वीपों के किनारे पर खड़े
विलाप करते
हमारा अन्त हमें मालूम था
आप बस इतना ही समझिए
कि हम कवि थे 
और कविता के 
निर्मम बीहड़ एकांत में
मारे गए।"
               
(हम मारे गये लोग)


दूसरी तरफ दुख, पीड़ा की नुमाइश करते  कवि /कविता को कटघरे में लाते हुए 'अपनी आत्मा से' कहता है कवि--


"अपनी पीड़ा की नुमाइश कर के
बेहिसाब तारीफें बटोरीं
ऐ मेरी आत्मा
मेरे निकट आ 
और मुझ पर थूक दे!"



कविता में आप क्या कहते हैं? कविता में उपस्थित संवेदना आपके जीवन-व्यवहार में कितनी जगह पाती है? ये सवाल आज के मौजू सवाल हैं। कल तक जो व्यवस्था के सत्ता के, दमन के और साम्प्रदायिक शक्तियों के मुखर-आलोचक थे; जिनकी कविता, अपने काव्यात्मक-उड़ान में इतनी परतदार कैसे हो सकती है कि कवि की राजनीति और वास्तविक-जीवन व्यवहार अलग ही रंग में दीखती हो? 'हत्यारा कवि' आपके आस-पास उपस्थित है और उसके विचारों से आप नावाकिफ हैं। आप आज के 'अँँधेरे ' समय में ऐसे कवि-गण को क्या पहचान पा रहे हैं --



"बहुत दिनों तक उसे उसकी कविताओं से ही जाना था 
अचानक वो मिल गया किसी गोष्ठी में
और उससे सीधे पहचान हुई
धीरे-धीरे पता चला उसका राजनीतिक पक्ष भी
जो कि नि:सन्देह हत्यारों की तरफ था 
मेरे पाँव से तो जमीन खिसक गई
विश्वास नहीं हुआ कि कैसे मेरा प्रिय कवि
हत्यारों की ढाल बन सकता है
जी हुआ कि उसकी कविताएँ जला दूँ 
जिस पढ़कर रोया था बार-बार
फिर अचानक उसकी एक और कविता पढ़ी 
और मन बदल लिया"



दो 'अचानक' के बीच कितना अजीब इत्तेफाक है कि कवि और कविता से अलग-अलग भंगिमा में भेंट होती है। कविता इसी भंगिमा को उलट कर देखने की कोशिश तो करती ही है, साथ ही कवि की अपनी ईमानदार कशमकश को भी दर्ज करती जाती है। कोई कवि इतना अदाकार कैसे हो सकता है! क्या कला इतनी महीन व नक्काशीदार होती जाती है कि कवि के विचार उभार पाना सहज न रह जाये? अदनान कफील की कविता 'हत्यारे 'को पहचान कर भी, उसकी शिनाख्त करने के बावजूद 'हत्यारे कवि' की कविता में कोई दुविधा या द्वन्द्व नहीं देखती है। कवि का द्वन्द्व आन्तरिक-द्वन्द्व में तब्दील होता जाता है। हर बार 'प्रेम की कटारी' कवि के हृदय को बेधने के लिए अग्रसर मिलती है। बाहर मौजूद एकसारता को जानते-देखते हुए भी कवि अदनान कफील उसे दर्ज करने, उसके चेहरों को पढ़ कर बताने में चूकते नहीं हैं तो उससे किनाराकशी न कर पाने की जद्दोजहद भी साथ-साथ उनकी अपनी आशंकित निगाहों से झांकती मिलती है। इसीलिए यह कहना पड़ता है कि अदनान का कवि-मन तमाम झिझक, भय और आशंकाओं के अँधेरे के बीच भी अपनी जमीन को गहरे से पकड़े हुए है, यही उसकी ताकत भी है। अपनी कविता में कवि कहाँ खड़ा है उसकी वस्तुस्थिति मन:स्थिति चमकदार भाषा में कहाँ छुपी बैठी है। मेरी नज़र में किसी कवि की निराशा, दुविधा व आत्मसंघर्ष जितनी शिद्दत से उसकी कविता में उपस्थित है वह कवि उतना ही अपनी वास्तविक जमीन पर खड़ा मिलेगा।अदनान अपनी कविता में इसी तरह उपस्थित मिलते हैं।
 
 

 


(4)


अदनान कफील दरवेश की एक बहुप्रशंसित कविता है 'कि़ब्ला'। इसी कविता को सन् 2018 में भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार भी मिला है। 'माँ ' को केन्द्र में रख कर लिखी गयी यह कविता जहाँ जीवन की हर उपस्थिति माँ को देखती-दिखाती मिलती है तो दूसरी तरफ एक स्त्री के तौर पर उसे समाज में मिले दोयम दर्जे की भूमिका को प्रश्नांकित भी करती है-


"माँ कभी मस्जिद नहीं गई
कम से कम जब से मैं जानता हूँ माँ को
हालांकि नमाज़ पढ़ने औरतें
मस्जिदें नहीं जाया करती हमारे यहाँ
क्यूंकि मस्जिद खुदा का घर है
और 
सिर्फ मर्दों की इबादतगाह"


बिना अतिरिक्त-कथन के अपने परिवेश में स्त्रियों की उपस्थिति, उनकी भूमिका को सामने लाती हुई ये पंक्तियाँ सबसे पवित्र-घेरे में भी जो श्रेणीकरण है, उसे ठीक शुरुआत में कवि दर्ज कर दे रहा है। 'माँ' के प्रति अतिशय भावुकता-भरी बातें करने से परहेज करते हुए कवि यथातथ्य को अपनी आलोचनात्मक भंगिमा के साथ दर्ज कर रहा है। आगे चल कर वह पूछता है कि जिस माँ की दुनिया में चिड़ियाँ, पहाड़, नदियाँ, अखबार, छुट्टी की जगह बिल्कुल नहीं है!अगर जगह है तो चौका-बेलन, सूप, खरल, ओखरी  और जाँता के लिये है। वहाँ फूल, इत्र की गमक नहीं; फटी बिवाई और अनवरत टप... टप चूता पसीना है। कवि माँ को उसी पसीने की गंध से पहचानता है। 


पहचान शब्द आते ही यह बताता चलूँ कि अदनान की कविता में 'माँ' अनेक बार अपने अलग रंग, गंध के साथ, कमजोर काँधे पर 'गमछा' रखते हुए अपनी जिम्मेदारी का एहसास कराने में भी पीछे नहीं हैं । 'पानी की गंध ' में माँ की गंध महसूसते या पानी के आइने में हिलती तस्वीर को माँ के अक्स में तब्दील होते देखते समय भी दरवेश अपनी कविता में उस स्त्री को नहीं भूलते, जिसके लिए अभी तक कोई मर्सिया या नौहा नहीं लिखा गया, जिसके मिहनत का मोल नदारद है -


"माँ के लिए दुनिया में क्यों नहीं लिखा गया
अब तक कोई मर्सिया, कोई नौहा ?
मेरी माँ का खु़दा इतना निर्दयी क्यों है ?
माँ के श्रम की कीमत 
कब मिलेगी आखि़र इस दुनिया में? 
मेरी माँ की उम्र 
क्या कोई सरकार, किसी मुल्क का आईन
वापिस कर सकता है?"
                              

(कि़ब्ला)


 
अदनान की कविता में अपनी जड़ों से गहरे जुड़ाव और उनसे बरतने की तजबीज ही उनकी कविता को ज्यादा जमीनी और भरोसे लायक बनाती है। यहाँ वैश्विक-चेतना की उड़ान की जगह स्थानीयता और समकालीनता प्रभावी है। वह चाहे सामयिक-सामाजिक चुनौतियाँ हों, देश-काल में घटित दुर्घट का बयान हो या भाषा /बोली की जीवित-मौजूदगी का मामला हो । उनकी कविता में उपस्थित राजनीति को किन्हीं भविष्य कथनों का सहारा नहीं लेना पड़ता। तौर-ए-जिन्दगी में सुन पड़ते, दीख पड़ते तथ्यों के उद्घाटन में ही उनकी राजनीति अपना पक्ष बयाँ करती मिलती है। 'सन् 1992' कविता हो या कि 'तारीखी फैसला' हो, यहाँ कविता जो कुछ कहती है, उसे न बौद्धिक जमात साफ-साफ कह पाता है और न ही अख़बार कुछ कहते हैं। इसीलिए ऐसी कविताएं वह सब कुछ कहती हैं, जो आम जनमानस की चेतना में गहरे पैबस्त तो हैं, लेकिन तत्कालीन राजनीतिक धुंध और वर्चस्व का आतंक न कहने देता है और सुनना चाहता है।इसी जगह पर कविता की समकालीन-उपस्थिति अपने काल को भेद कर वास्तविक तथ्य अगली पीढ़ी को सौंपती मिलती है। हमें इसी कविता के साथ राजेश जोशी की कविता 'वली दकनी की मजार ' अनायास याद आती जा रही है। खैर! 


क्या 'सन्1992' में सिर्फ तीन गुम्बद ही गिरे थे! कविता कहती है, 'नहीं तब से भारतीय तंत्र व समाज में गिरावट जारी है।' और "जो गिरा था, वो शायद एक इमारत से काफी बड़ा था।'' कवि पूछता है ---

''मेरे मुल्क के रहबरों और जिंदा बाशिंदों
बतलाओ मुझे
कि वो क्या चीज़ है
जो इस मुल्क के हर मुसलमान के भीतर 
एक ख़फी़फ आवाज़ में
न जाने कितने बरसों से मुसलसल गिर रही है
जिसके ध्वंस की आवाज़
अब सिर्फ स्वप्न में ही सुनाई देती है" 



इस घटना के बाद इसके गुनहगारों को सरेआम बा-इज्जत बरी करने की घटना वह 'तारीखी-फैसला' है जो रही सही, बची-खुची उम्मीद को भी ध्वस्त कर देने जैसा था। बहुसंख्यक जमात के नाम पर हो रही राजनीति मुल्क के लिए कितनी खतरनाक हो सकती है, उसके चेहरे आये दिन अपने बघनखे के साथ सामने आते जा रहे हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों के अपहरण के इस दौर को कितनी आसानी से होते जाते दीख पड़ रहा है, क्या यह सब महज 'घटना' भर है -


"कोई गोली नहीं चली
कोई दंगा नहीं हुआ
कोई जुलूस नहीं निकला

सबने मिलकर कहा
जो हुआ अच्छा हुआ
आखि़र सब कुछ पवित्र -शांति में निपट गया 
सबने मिलकर राहत की साँस खेंची
वे लोग भी घरों में ही रहे 
जिन्हें यकीन था 
कि एक कलंक आखि़रश धुल गया
एक जमीन थी जो पाक हो गई
लेकिन आज जश्न में उनकी दिलचस्पी कम थी
इतने लम्बे संघर्ष ने उन्हें भी थका दिया था
थके हुए लोग हमेशा ही  करुणा के पात्र होते हैं"


'थके हुए लोग हमेशा ही करुणा के पात्र होते हैं' वाक्य तक आते आते कवि की दृष्टि की व्यापकता में, उसके हृदय में मौजूद मनुष्य-मात्र के प्रति जो लगाव दीख रह है उसे संकुचित दृष्टि वाले शायद ही पढ़ पायें। कवि महज तंज करके अपने कर्तव्य की इतिश्री करने में भरोसा करता बल्कि; उन्मादित-आबादी के पीछे खड़ी शक्तियों और 'मलबे के ढेर' पर खड़े मालिकानों की बेबसी भी दर्ज़ कर रहा है। तमाम लोग किनके लिए महज इस्तेमाल कर लिए जाते हैं और हतभाग्य ! इन्हें महज करुण निगाहों से देखा भर जा सकता है।

 
इसी के साथ बौद्धिक-साहित्यिक जमात के "ठिठुरते लैम्पपोस्ट'' की दयनीय दशा को भी दर्ज करने में अदनान का कवि-मन पीछे नहीं हैं। जिन मध्यवर्गीय बौद्धिक जमातों से मानवीय संकट के घनीभूत दौर में तर्क-विवेक व साहसपूर्ण अभिव्यक्ति की उम्मीद की जानी चाहिए, वे महज नतग्रीव-मूकदर्शक बने दीख रहे हैं। 'अतिशय विनम्रता' से झुके ये लोग आदमियों की बस्ती में रहते जरूर हैं, लेकिन 'आदमियों की दुनिया में' रहस्य की तरह विचरण कर रहे हैं। ये अघोषित-आपातकाल जैसे समय के ऐसे-गवाह हैंं, जिनकी भूमिका संदिग्ध है। 'अँधेरे में' डोमा जी उस्ताद के साथ गुजरते हुए सफेदपोश बौद्धिकों को कवि देख रहा है और उनकी भूमिका भी देख रहा है-


"जिस दिन हमारे भीतर
लगातार चलती रही रेत की आँधी 
जिसमें बनते और मिटते रहे
कई धूसर शहर
उस रोज़ मैंने देखा 
खौ़फनाक चीखती सड़कों पर
झुके हुए थे
बुझे हुए 
ठिठुरते लैम्प पोस्ट ......" 


अभी पिछले दिनों ही 'ठिठुरते लैम्प पोस्ट' शीर्षक से अदनान कफील दरवेश का पहला काव्य-संकलन प्रकाशित हुआ है। हालांकि वे विगत छह- सात  सालों से कविता की दुनिया में अपनी भाषा,सघन-भावबोध व विषयवस्तु के जरिए अपनी अलहदा पहचान बनाते चले आ रहे हैं। उनकी कविता परम्परा से प्राप्त उर्दू-फारसी शब्द संपदा और भोजपुरी बोली बानी के अपनी सम्पूर्णता के साथ सामने आती है। 


कविता में ग्रामीण-जीवन की छवियाँ निम्नमध्यवर्गीय जीवन की दुश्वारियों, स्मृतियों व विडम्बनाओं की एकमेक क्रियाशील-बिम्ब लिये मिलती हैं। यहाँ जीवन का महज दृश्य-वर्णन नहीं बल्कि; उनसे जूझते मनुष्य की तस्वीर है। इनके यहाँ पर पुन्नू-मिस्त्री, बाबूलाल चौकीदार हैं, सूखे चेहरे वाले बेरोजगार-नौजवान हैं तो बरसात में रात भर उकड़ूँ बैठे वे तमाम लोग हैं, जिनमें कवि दृष्टा भाव से नहीं भोक्ता भाव से शामिल है -


"आज रात-भर होगी बारिश 
आज रात-भर होगी बारिश 
आज रात-भर होगी बारिश .....
और मेरी स्मृति में 
कोई छप्परनुमा मकान टपकेगा
टप्-टप्-टप्.......

                  
(बरसात और गाँव)


'चनरमा खटिया पर लेटे-लेटे 
आसमान में मद्धिम पड़ चुके 
कचबचिया की तरफ देख रहा है
और खखार रहा है"
                                
(फ़जिर)


'देर रात जब मेरी नींद खुलती 
मैं देखता सभी को, गहरी नींद में सोते हुए
और दूर झुरमुट में खड़े बाँसोंं को झूलते हुए....

मुझे बँसवाड़ को देख कर लगता

मानो ये बाँस नहीं स्त्रियाँ है
जो आधी नींद में खड़े-खड़े ऊँघ रही हैं
जैसे लगातार काम करते हुए
ऊँघती थी माँ। "

                          ( बँसवाड़)



अदनान के यहाँ 'हँसी अभ्यास से आती है' तो रोने की भी एक कला है। हँसती और छुप कर रो लेती स्त्री है तो खाबीदा खामोशी भी है।' काली रात गवाह है  तमाम सफेदपोश चेहरों की' तो रात एक बहुत बड़ी 'आँख' है, जिसमें शहर पुतली की तरह नाचता मिलता है। रात उनके यहाँ एक हाँफती-कुतिया सरीखी है, जिससे चाह कर भी कोई भाग नहीं पाता। रात जितने रूपों में यहाँ उपस्थित है, उसके अर्थों में उतरने की कोशिश तमाम परेशानहाल चेहरों को नजदीक से देखने की कोशिश भी है । 'रात' अदनान की कविता में बहुत बार अपनी केंद्रीय उपस्थिति लिए मिलती है। उनके यहाँ 'अँधेरा' महज रात के रूपक में नहीं भयाक्रांत करते वस्तु-तथ्य के रूप में भी है। अदनान की कविता मिली-जुली संस्कृति और जीवन-शैली की गवाही देती मिलती है। आर्थिक प्रतिबंधों के इस प्रतिक्रियावादी दौर में ये कविताएं हमारी सामाजिक-जरूरत हैंं। अदनान कफील दरवेश के काव्य जगत में  गाँव और शहर के जितने भी दृश्य हैं, अँधेरे में अपनी पहचान तलाशते-जूझते अनगिनत लोगों की अकथ कहानी से भरे हुए हैं! इन तमाम कहानियों, कशमकश औ व्यवस्था की तंगनजरी को आइना दिखाती कविताओं के कवि को अपनी माटी, अपनी बोली-बानी से गहरा अपनापा है, वही उसकी कविता की  खनिज-सम्पदा है। "क़ब्र का पत्थर" की पंक्तियाँ पढ़ते हुए गहरी निराशा के बीच चमकती कटार-सी उम्मीद का दामन थामे कवि की मिट्टी की महक को सूंँघने की कोशिश जरूरी है -


"मैं मरूँ तो न हिन्दुस्तान में
न पाकिस्तान में
न अरब में  न फा़रस में 
न मास्को में न बर्लिन में 
न हिन्दी में न उर्दू में
न हिंदुओं में न मुसलमानों में
मैं मरूँ तो अपनी माँ की बोली में मरूँ
भोजपुरी में मरूँ"



 
 
 
आशीष सिंह

 


सम्पर्क

आशीष सिंह
ई-2 /653 सेक्टर -एफ
जानकीपुरम ,लखनऊ -226021
08739015727






टिप्पणियाँ

  1. बहुत सारगर्भित एवम कृतित्व में कवि की बेचैन मौजूदगी को बख़ूबी प्रदर्शित करती आलेखीय अभिव्यक्ति।

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  2. अदनान की कविताओं पर इतना सुचिंतित और गंभीर लेख पढ़ा. समय के तनावों को दिखाती कविता और कविता के माध्यम से समय और कविता में आवाजाही का अद्भुत क्रम है लेख में.

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  3. अदनान की कविताओं पर इतना सुचिंतित और गंभीर लेख पढ़ा. समय के तनावों को दिखाती कविता और कविता के माध्यम से समय और कविता में आवाजाही का अद्भुत क्रम है लेख में.
    प्रज्ञा

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