मधु कांकरिया की कहानी 'वह भी अपना देश है'
मधु कांकरिया |
मनुष्य को मनुष्य से जोड़े रखने के लिए एक मजबूत तंतु है 'मनुष्यता'। यह जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र सबसे मजबूत तंतु है। मनुष्यता की राह में इनमें से कोई भी आड़े नहीं आता। अन्ततः जीत मनुष्यता की ही होती है। मधु कांकरिया एक बेजोड़ कहानीकार हैं। इसी पृष्ठभूमि पर उन्होंने एक उम्दा कहानी लिखी है 'वह भी अपना देश है'। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं मधु कांकरिया की कहानी 'वह भी अपना देश है'।
वह भी अपना देश है
मधु कांकरिया
वे ढाका के अनमने से दिन थे। बंद दरवाज़े सा बंद जीवन। न कोई दस्तक, न कोई पुकार। सुबह थोड़ी कम सुबह होती। उसका मिजाज गायब रहता। दोपहर बहुत ज्यादा दोपहर होती थी - नीरस, अंतहीन दहकती, कुतरती! बाहर कुत्ता रोता था भीतर मैं। उदासी की चादर में लिपटी स्याह काली रात बड़ी और नींद छोटी होती थी। न ढले, न बीते, न रीते। कोलकाता में थी तो दोपहर कभी इतनी एकाकी न थी पर ढाका की दोपहर ने मुझे एकदम हताश और एकाकी बना छोड़ा था और उस पर कोरोना का कहर! कुछ बड़े पेड़ गिर गए थे, उनका खालीपन भी मन पर पसरा हुआ था।
‘हम तो हैं परदेस में, देश में निकला होगा चाँद ...
मेरा देश पुकारता था मुझे। पर हर पुकार का जवाब तो नहीं होता न! काश! मन का भी होता कोई घर जहाँ संभाल कर रख पाती इसे। बेघर मन हर रात स्वप्न देखता कि मैं जी भर बतिया रही हूँ, सचमुच के इंसानों से। दिन भर पीछा न छोड़ता वो मीठा सा स्वप्न। पर परदेश में कौन बैठा था मुझ से बतियाने को। दिल बहलाने को। कल पूरे दिन मैं सिर्फ दस शब्द गिनती के बोली थी। आज तो अभी तक खाता भर खुला है । मैं बुद्ध के पास गयी, कविता के पास गयी, कहानियों के पास गयी, लोक कथाओं के पास गयी यहाँ तक कि परिंदों के पास भी गयी पर सबने मायूस लौटा दिया।
ऐसे विकट समय एक अलसायी उनींदी दोपहर में मंदिर की घंटियों सी एक मिली जुली हंसी की आवाज़ गूंजी। क्या यह स्वप्न था? मुझे विश्वास नहीं हुआ। पर वह यथार्थ था। कुछ आगे बढ़ी तो जैसे बादलों से झाँकने लगा था चाँद! जैसे सूखी डाल पर फूट आयी हो कोई कोंपल!
गेहूँ की फसल सी इठलाती वे दो युवतियां थी। हरी मिर्च सी फातिमा, भोर की हवा सी सात्विक रुक्साना। दोनों हमारी सेविकाएं थीं। चौके के पास के खुले आँगन में दरी बिछा कर गप्पे मार रही थीं और जाने किस बात पर यूं खिलखिला रही थीं जैसे यह खिल खिल उनकी आत्मा से फूट रही हो। अकेलेपन की मारी मैं। मुग्ध थी उनकी हंसी और उनकी खिल खिल पर!
उन दिनों रमजान चल रहा था। रमजान के साथ कोरोना की जानलेवा लहर का प्रकोप भी। इस लहर के बाद हमारी चेतना में सिर्फ एक चीज टंगी रह गयी थी - मौत और मौत! जिंदगी के सारे सुन्दर पाठ हमारी चेतना से जैसे धुल पुछ गए थे। अमूमन तो कोई मिलता ही न था पर भूले भटके कोई मिल भी जाते तो बात होती कोरोना और सिर्फ कोरोना की। हम भूल गए थे कि इसी संसार में कुछ सुन्दर भी है, अनमोल भी हैं, चाँद सितारे भी हैं। हंसी और गुलमोहर भी हैं।
यूं देखा जाए तो मैं अभी तक कोरोना से बची हुई थी, पर सच पूछा जाए तो मैं भी कहाँ बची हुई थी, दिन भर चील की तरह मंडराती बुरी ख़बरों और मौत की छाया में जीना भी क्या जीना था। आज यह कल वो, अब किसकी बारी? पर शाम की तरंग में पूरी खुशमिजाजी के साथ वे दोनों जी रही थी। सचमुच। उस गंधहीन, संवादहीन और स्वादहीन समय में ऐसी हंसी और खिलखिलाहट? विरल ही थी। जब सब कुछ बेआवाज़ हो जाए तो इंसानी आवाज़ कितना सकून देती है। उन पलों उनकी बतकहियाँ पल पल मुझे जैसे पुकारती थी! काश! मैं भी उनमें शामिल हो पाती। आखिर कोई कब तक खुद को सूखे पत्तों की तरह हवाओं के हवाले करे?
उनमें जैसे कोरोना का कोई डर ही नहीं था। वे एकदम मुक्तात्मा थीं। पर मेरी मुश्किल थी कि मैं उनकी बॉस थी। मैं बॉस और सेविका के रिश्तों की परतें छील कर उनकी महफ़िल में घुसी भी, अपना तापमान उनके बराबर रखा भी लेकिन मेरे घुसते ही कोई छाया जैसे उनके चेहरे से गुजरती। पत्ते खड़कते। हवा रुक रुक कर बहने लगती। वे दोनों जैसे मेरी उपस्थिति से सजग हो उठती। मैं इस अंतर को महसूस कर पाती थी, शायद इसके पीछे एक कारण यह भी था कि उन दोनों मुस्लिमों के बीच मैं इकलौती हिन्दू थी। लेकिन एकला चलो रे से मैं परेशान हो गयी थी। मुझे जो टीम मिली थी, मैच मुझे तो उसी टीम के सहारे जीतना जो था। फिलहाल जो भी था उसी पानी में मछलियों की तरह घुल मिल जाना मेरे लिए मुक्ति की साँसें थी। पेड़ से लिपट कर पेड़ को दुःख सुनाने से तो कहीं अच्छा था कि जिन्दा लोगों के साथ दुःख सुख बांटा जाए। दो तीन दिनों की उनकी सूखी संगत के बाद मैंने महसूस किया कि कुछ ऐसा किया जाए कि मालिक बॉस के अंतर का विंध्यांचल सिमट जाए और हिन्दू मुस्लिम का भी। हम सब बस एक नौका पर सवार हो जाएं। एक आईडिया भीतर कुलबुलाया कि तमाम विभिन्नताओं के बाबजूद एक चीज हमारे बीच कॉमन थी - हमारा बंगालीपन और हर बंगाली के लिए अड्डेबाजी हवा पानी जैसी होती है। बस एक चमकती दोपहर मैंने उनसे कहा हम सब लोग हर रोज एक एक कहानी कहेंगे अपने अपने अनुभवों की. अपने अपने मुल्कों की।
वे खुश हो गयी!
प्रस्ताव मेरा तो यह दायित्व भी मुझे ही सौंपा गया।
क्या सुनाऊँ! क्या सुनाऊँ?
मैंने पूछा क्या वे राम सीता की कहानी जानती हैं? उन्हें सिर्फ इतना पता था कि राम एक राजा थे जिन्होनें अपनी पत्नी को छोड़ दिया था। मुझे लगा यह अच्छा है, इसी बहाने उन्हें अपनी संस्कृति के प्रकाश स्तम्भ के बारे मी भी बता दूँगी और हमारी गोष्ठी मजहबी रंगत पाने से भी बची रहेगी। मैंने उन्हें उस दिन भगवान् राम और सीता की कहानी सुना दी।
वे मंत्र मुग्ध!
मैंने उन्हें राम सीता की तस्वीर भी दिखायी! तस्वीर देख खुश होने की बजाय रुक्साना की आँखें सिकुड़ गयी। उसने झिझकते हुए पूछा मुझसे ,
- एक बात पूछूं आंटी!
- हाँ हाँ पूछो !
- आप बुरा तो नहीं मानेंगी! उसने अपनी सुरमा मढ़ी आँखें मुझ पर टिका दी।
- नहीं, बिलकुल नहीं!
- आप लोग बूत को किस प्रकार पूज लेती हैं। तस्वीर में देखा कि आप लोगों ने बुतों को महंगे कपडे और जेवर तक पहनाया है। मैंने आप लोगों के मंदिरो की तस्वीर भी देखी है। भजन, घंटियां और मोर मुकुट में सजे धजे कृष्ण, गोपियों से बांसुरी बजा बजा रास रचाते कन्हैया, लाल जीभ से खून टपकाती और मुण्डमाल पहनी काली जी। हमें ताज्जुब होता है आपा कि आप लोग कैसे मूर्तियों से इतना प्यार कर पाती है? की कोरे (कैसे )? एटा कि कोरे होते पारे (ऐसा कैसे हो सकता है)? क्योंकि हमारे मजहब में बुतपरस्ती गुनाह है। और इधर आपके भगवानों को देखो जब तब सजे धजे आते जाते रहते हैं और एक हमारे अल्लाह मियां है जाने किन गुफाओं कंदराओं में छिपे रहते हैं’... जरा लचक के साथ कहे गए इन शब्दों के साथ ही उनके चेहरे पर उच्चता और श्रेष्ठता के भाव छा गए। मैंने उनसे ऐसे सवाल की उम्मीद नहीं की थी इस कारण कुछ देर के लिए मेरी बोलती बंद हो गयी। बहरहाल दाहिने कान के नीचे के हिस्से को खुजलाते हुए हकलाते हुए किसी प्रकार जवाब दिया मैंने।
- हाँ! हमारे मजहब में मूर्ति पूजा में लोगों का विश्वास है।हम मूर्तियों में भी प्राण प्रतिष्ठा कर लेते हैं। हमारे यहाँ कहते भी हैं कि मानो तो शंकर नहीं तो कंकर। मैंने तो ऐसी ऐसी महिलाएं देखी हैं जो गर्मियों में घंटों ठाकुर जी को हवा करती रहती है कि इतनी गर्मी में ठाकुर जी कैसे रहेंगे। अब सोचो जिन ठाकुर ने पूरी सृष्टि बनायी, चाँद -तारे बनाए, उनको गर्मी से क्या वह महिला बचा लेगी?लेकिन है लोगों का भोला विश्वास।
बांये गाल पर बैठे मच्छर को मच्छरमार ताली से मारते हुए मुंहफट फातिमा ने पूछा - आपके भगवानों के लाखों करोड़ों के जेवर क्या कभी इंसानों के काम आते हैं?
- नहीं यार! हम भी चाहते हैं कि इस कोरोना संकट में ही कम से कम यह करोड़ों अरबों की संपत्ति मानवता के काम लग जाए।
- आपके मंदिर दौलत का खजाना होते हैं न!
- इसीलिए तो हमारे सोमनाथ के मंदिर को बार बार लूटा गया। तल्खी से बचने के लिए मैंने जानबूझ कर किसी का नाम न लिया। पर समझदार फातिमा जो कि नौवीं तक पढ़ी लिखी भी थी। उसने इशारा शायद समझ लिया था इसलिए मेरी बात पर दहला मारते हुए कहा
- आंटी बुरा न माने तो एक बात पूछूं?
- हाँ, हाँ पूछो!
- मैंने सुना है कि आप लोगों के मंदिरों में छोटी जाति के हिन्दुओं को घुसने नहीं दिया जाता है। छोटी जाति का छुआ पानी तक नहीं पीते। जबकि हमारी मस्जिदों में तो धनी गरीब सभी एक पंक्ति में बैठ कर नमाज पढ़ते हैं।हमारी ‘ज़कात‘ की सोच भी बहुत मानवीय है। जकात मतलब - हर सच्चा और समृद्ध मुस्लिम अपनी आय का 2.5 हिस्सा ज़कात यानि मदरसा, यतीमखाने और गरीबों को दे - ऐसा पैगम्बर मोहमद साहब का आदेश है।
बात सही थी लेकिन फिर भी मुझे उनके मुंह से सुनना अच्छा नहीं लगा। एक चीज और लक्ष्य की मैंने कि वह जब बोलती थी तो उसके मुँह, कान, नाक, आँखें … उसका पूरा शरीर बोलने लगता था। इससे उसका कहा और भी तीखा हो कर चुभने लगता था। बहरहाल … मैंने भी ईंट का जवाब पत्थर से देते हुए सिक्सर मारा।
- आपके यहाँ भी तो महिलाओं को कहाँ मस्जिद में घुसने दिया जाता है? आपकी जकात की सोच चाहे मानवीय हो पर आपके यहाँ जो बलि प्रथा है वह भी तो कितनी हास्यास्पद है। जिससे कोई नेह नाता नहीं उस मूक निरीह पशु की बलि?? मेक्सिको की किसी आदिम जाति के कबीले में तो अपनी सबसे प्रिय वस्तु के अलावा किसी और की बलि तो कबूल ही नहीं की जाती है।
पल भर के लिए फातिमा की भवें उठीं, रुक्साना की आँखें मिचमिचाई, मेरे ललाट पर सिलवटें उभरी लेकिन फिर जाने क्या हुआ कि हम थ्री इडियट्स ही ही हो हो कर हंस दिए। बिना एक दूसरे के विचारों को नीचा दिखाए। हमें खुद ही पता नहीं चला कि कब मेरे भीतर का ओंकार अजान में बदल गया और कब उनकी अजान मेरे ओंकार में बदल गयी।
एकाएक रुक्साना ने गाना शुरू कर दिया ‘आमार सोनार बांग्ला, आमी तोमाके भालो बासी ... ‘
हम सब सप्तम स्वर में गाने लगे।
उन लम्हों हम दूसरे ही थे - लहरों पर चलने वाले!
बादलों में उड़ने वाले!
जीवन की ओर मुड़ने वाले!
याद आया इस, इस्लाम में गाना नाचना निषिद्ध है फिर भी ये पांच वक़्ती नमाजी नाच भी रही थी और गा भी रही थी। मन हुआ पूछूं, पर नहीं पूछा मैंने - इस लय ताल को क्यों बेसुरा करना। पर जिस सूफियाने इस्लाम के बारे में सुना था, शायद वह यही था।
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बहरहाल कुछ तिलिस्म ऐसे होते हैं जो टूट कर भी नहीं टूटते। उनके लिए हिन्दू और मेरे लिए इस्लाम का तिलिस्म कुछ ऐसा ही था। बुर्के में लिपटी औरत बचपन से ही मेरे लिए एक रहस्य और डर थी। जाने किसने कह दिया था कि ये औरतें बुर्के में बच्चों को छिपा कर ले जाती हैं। एक बार जब मेरी उम्र कोई दस ग्यारह साल की रही होगी, माँ ने मुझे पास की दूकान से माचिस लाने को भेजा था। जैसे ही मैं घर लौटने को हुई कि मेरी नजर एक काले बुर्के वाली पर पड़ी। मैं तो इतना डर गयी कि पास के ही मकान में घुस गयी और दरवाज़े की ओट से ऊँट की तरह गर्दन उचका उचका कर देखती रही। थोड़ी देर बाद जब वह निकल गयी तब मैं उस मकान से बाहर निकली। इतने सालों बाद भी यह तिलिस्म बरकरार था। पहली बार इस तिलिस्म को मैंने तब महसूसा जब ढाका प्रवास की पहली गर्म सुबह घंटी बजने पर मैंने दरवाज़ा खोला और चौंक गयी। मैंने ऊपर से नीचे तक बुरका और हिजाब में पर्दानशीं रुकसाना और फातिमा को देखा। चश्में के पीछे से झांकती फातिमा की दिप दिप आँखें और निहायत सुरीले आवाज़ में - अस्लाम वालेकुम।
दूसरा तिलिस्म तब महसूसा जब मैंने एक बार फातिमा को सुबह थोड़ा जल्दी आने को कहा, तो उसने मना कर दिया - मैं बिना फजर (सुबह की नमाज) अदा किये घर से नहीं निकलती आंटी। एक बार दोपहर मैंने उसे किसी काम से आवाज़ लगाई, कोई जवाब न पा कर मैंने सर्वेंट क्वार्टर में झाँका, सर्वेंट क्वार्टर हमारे चौके से ही जुड़ा हुआ था तो मैंने देखा वह घुटनों के बल झुकी हुई थी, उसने मेरी आवाज़ सुन ली थी। नमाज से उठ कर उसने बताया कि वह दोहर (दोपहर की नमाज) अदा कर रही थी। फातिमा सुबह की नमाज करके आती है। हर औसत मुस्लिम जहाँ तक संभव हो नमाज अदा करना अपना परम धार्मिक कर्तव्य मानता है। पहले नमाज फिर दुनिया के बाकी गौरख धंधे!
उस घटना के बाद मैंने समय नोट कर लिया था कि मुझे किन पांच समय उसे डिस्टर्ब नहीं करना है। तब पहली बार मुझे पता चला कि दोहर के बाद असर (जिसका समय पौने चार के आस पास होता है) और उसके बाद मगरीब (सूर्यास्त के पांच मिनट बाद) की नमाज भी वह हर दिन अदा करती है।
मुझे पहली बार ताज्जुब हुआ कि क्या इस प्रकार समय देख कर ईश्वर के ध्यान में लीन हुआ जा सकता है। क्या यह यांत्रिक नहीं है? उस समय मैंने उनसे कुछ नहीं कहा। आज मैं उनसे इतना हिलमिल गयी थी कि जो जी में आए पूछ सकती थी। मैंने पूछा भी। तो उनका जवाब था - ऐसा कुरान में कहा गया है। और जो पांच वक़्त का नमाजी होता है उसे बहुत इज़्ज़त मिलती है।
फिर उन्होंने मुझे पैगंबर मोहम्मद की कहानी सुनाई और यह भी कैसे इनके यहाँ कुर्बानी शुरू हुई। कैसे बेटे की कुर्बानी बकरे की कुर्बानी में बदल गयी। मेरी यादों में तैर गयी इस बार की बकरीद। बाप रे! हम तो रह ही नहीं पाए। सप्ताह भर पहले से अखबार के मुख्य पृष्ठ पर कुर्बानी के लिए मिलने वाले जानवरों के विज्ञापन। मैं जिन रास्तों से निकलती वहां दुनिया भर की जाम, हर नुक्कड़ पर गोरू छगालों की हाट। हर जगह गाय बकरी के विज्ञापन! हर ट्रक और थ्री व्हीलर पर जिरह के लिए लदी हुई बकरियां और गाएं। पहली बार अहसास हुआ कि मुस्लिम देश में हूँ। एक भिन्न मजहब वाले देश में हूँ। पर मैंने हिम्मत नहीं हारी जैसे भी हो रहूंगी यहीं, पर वह हिम्मत जवाब दे गयी जब घर के नुक्कड़ पर ही कई बकरियों को कतार में बंधी देखा और रात भर उनकी बाँय बांय सुनती रही। उसी दिन सुबह की उड़ान से ही हम सप्ताह भर के लिए कोलकाता लौट गए थे। बहरहाल मैंने बिना ‘क्यों’, ’ ‘कैसे’ के सुना यह सब। जानती थी कि उनसे मजहब और मोहम्मद की बातें करना तनी हुई रस्सी पर चलना है। सबसे पहले तो मेरे घर वाले ही मेरे खिलाफ खड़े हो जाएंगे। लेकिन तमाम हिचकियों के बाबजूद भी देखते देखते हमारी महफ़िल समय और सृष्टि के पार राम, कृष्णा, शिव शंकर और पैगंबर मोहम्मद, मक्का, हज और कुर्बानी के इर्द गिर्द घूमती रही।
कभी हममे से कोई अतीत को आवाज़ देता तो कभी किसी का सपना हकीकत से टकरा जाता।
हंसी ख़ुशी के ये कुछ लम्हें हमारे भीतर एंटी बॉडी विकसित कर रहे थे जिनकी हमें उन दिनों सख्त जरूरत थी।
कुछ दिनों बाद हम भगवान् से उतर कर कर इंसानों पर आ गए। मिथकों और कल्पना से यथार्थ पर उतर आए। फातिमा को कुछ टाका (रुपया) अग्रिम चाहिए थे। उसे गैस सिलिंडर खरीदना था। उसके और उसकी पड़ौसिन के बीच साझा चूल्हा था। एक ही कुकिंग गैस और एक ही सिलिंडर दो पड़ौसियों के बीच। मैंने पूछा ,
- तो क्या तुम लोगों का चौका भी साझा है?
- नहीं आंटी. हम लोगों के पास दो चूल्हे वाला गैस है। एक चूल्हा पड़ौसी के घर में एक चूल्हा हमारे घर में। बीच में जो दीवार थी न उसकी कुछ ईंटों को नीचे से हम लोगों ने हटा दिया।
- क्या बात है! मुंबई में मैंने एक साझा दूकान देखी थी, ऊपर पान की दूकान, नीचे चाय की दूकान और दोनों दुकानों के बीच में रेल के स्लिपर की तरह था हॉरिजॉन्टल पार्टीशन। सही परिस्थिति और मजबूरी जो न कराए, थोड़ा।
गैस सिलिंडर से शुरू हुई कहानी के तार तार जुड़ गए फातिमा की सांस सांस में रचे बचे उसके बचपन से। किशोरावस्था से। जाने कितनी कीलें कसके धंसी हुई थी वहां। मैंने हल्की सी दस्तक दी तो अपने ही प्रवाह में रोने गाने लगी वह,
- मदरसे में पढ़ रही थी आंटी और चौदह वर्ष की थी तब देखा था पहली बार सिलिंडर क्योंकि तब मेरा निकाह 26 वर्षीय ज़ाहिर सुमैया से होने वाला था. मैंने उसकी एक झलक भर देखी थी। माशाअल्लाह! पहली झलक में बुरा नहीं लगा। नहीं आंटी अब्बू ने मुझसे कुछ भी नहीं पूछा था। वैसे पूछते तो भी मैं मना नहीं करती ....बोलते बोलते चेहरे के भाव थोड़े कोमल हो गए उसके। मोबाइल में भूतपूर्व शौहर की तस्वीर भी दिखाई, तस्वीर पर एक निगाह खुद भी डाली और फिर चालू हो गयी - क्योंकि वैसे भी बचपन में भी कोई मस्ती नहीं थी। बचपन तो बड़े लोगों का होता है न आंटी, हम तो शायद पैदा ही बड़े हुए। सबसे पहली याद आती है घर में झाड़ू बुहारी कर रही हूँ और अब्बू दिखा रहे हैं कोने में पड़ा कचरा। इसलिए निकाह को ले कर मन में लोभ था। लगता था कि निकाह के बाद ढेर सारे नए कपडे मिलेंगे। दावत मिलेगी। उपहार मिलेंगे। मेरी एक सहेली थी उसका स्वामी रोज उसकी बीवी के लिए फूल लाता था। सुमैया मोबाइल कंपनी में काम करता था। पैसा भी अच्छा था मैंने एक बार कहा ‘मेरे लिए फूल ला, वह लाया भी। शादी का खुमार उतरा भी न था कि सुमैया सिंगापूर चला गया। जाते वक़्त दिलासाएँ और स्वप्नों को मेरी आँखों में भर गया। तुम्हें जल्दी बुला लूँगा। दिन बीते, महीने और साल दर साल गुजरते गए, जाने कितनी गुहारें मैंने पद्दो नदी (पदमा नदी) से की, उससे फुसफुसाते, उसके साथ गुनगुनाते। जाने कितनी चिठ्ठी पतियाँ उसमें छोड़ी कि वे मेरे दिल की धड़कनों को, धड़कनों के संदेशों को उस तक पंहुचा दे, पर वह तो जेठ की तप्ति भूमि पर छोड़ कर यूं गया कि फिर लौट कर नहीं आया। बस कभी कभार फोन भर आता। पीछे से सास ने भी रंग बदल लिया। हिनहिनाना छोड़ किचकिचाना शुरू कर दिया था उन्होंने क्योंकि मैं भी उनके लिए अब उतरा हुआ गिलाफ हो गयी थी। मेरी थाली में हर दिन दो चम्मच भात के साथ एक करछुल गाली भी परोस देती थी। उन्हीं दिनों उसने मेरा कमरा भी मुझसे ले लिया, मुझे चौके के भीतर सोने के लिए भेज दिया जहाँ मुझे पाँव मोड़ कर सोना पड़ता था। मुझे तभी लगा कि कुछ गड़बड़ तो जरूर है। पर क्या? समझ नहीं पायी। समय निकलता रहा। खाली होते ही मन को ठीक रखने के लिए मैं घर के बाहर की खाली जमीन पर कुम्हड़े, बैंगन, करेला उगाती रही। चार वर्षों पोरे आमि जानते पेलाम। (मुझे तो पता भी चार वर्ष बाद चला) उसके किसी दोस्त से कि सिंगापूर में सुमैया ने दूसरी शादी कर ली, पता चला तो होश उड़ गए मेरे। बहुत दिन तक बहते रहे आंसू। दिन भर सोचती रहती कि हमारे बीच तो कभी कुछ भी तो नहीं टूटा था फिर सब कुछ एकाएक कैसे टूट गया। कि कोरे होलो एटा? (कैसे हुआ यह) बाद में जब मैंने सर में उठती घुमेर को किसी प्रकार थामे हुए कांपते हुए पूछा सुमैया से फोन पर तो उसने कहा - हाँ उसने कर ली है। उस दिन बिस्तर से उठ तक नहीं पायी। फफोले पड़ गए थे। फिर यह सोच कर कि जो आंसू देकर चला गया उसके लिए आंसू क्या बहाना, मैंने खुद को बिखरने से बचाना शुरू किया।नौकरी की। बाद में पांच साल बाद जब वह नौआखली में अपने घर वापस आया तो मैंने भी जम कर पंगा लिया। वो बेटी को देखना चाहता था। मेरे साथ भी.. मैंने भी ललकार दिया।
- फौकट का बाप मत बन, आदमी है तो मुझे मेरा मेहर दे और बेटी के नाम कुछ कर के जा। मैंने साफ़ कहा, कबूलनामे में तुमने मुझे पचास हजार का मेहर देने का वादा किया था। सच्चा मुसलमान है तो दे दे मेरा मेहर। इस्लाम में मेहर न देना पाप है। इस्लाम में साफ़ बोला हुआ है कि मेहर की रकम लड़की को मिलनी चाहिए। मेरी छोटी बहन को मिली मेहर की रकम… बोलते बोलते उसकी तीखी आँखों से चिंगारियां छूटने लगी थी। तो उस कमीने ने जवाब दिया कि उतना इस्लाम कौन मानता है। इस्लाम में तो टीवी देखना भी वर्जित है पर तेरे घर में क्या नहीं है टीवी? बोल? इस्लाम में नेलपॉलिश और ओंठों को रंगना भी पाप है पर देख खुद को तेरे ओंठ तो अभी भी रंगे हुए है।
- इन सब के बजाय तुमने उस पर हर्जाने का दावा क्यों नहीं किया। उसने तो यूं भी अपराध ही किया, बिना तलाक के दूसरी शादी कर ली। उसकी आँखें मिचमिचाई। डेढ़ आँखों से मुझे देखते हुए फट पड़ी वह। ,
- मैडम, इस्लाम में बिना तलाक के दूसरा निकाह कबल है, इसलिए घर वालों ने पंगा लेने से रोक दिया था।. लेकिन घर वाले भी भूल गए कि कुरान कहता है कि बंदा दूसरी शादी तभी कर सकता है जब पहली बीवी बच्चा देने में असमर्थ हो, या पागल हो या बहुत अस्वस्थ रहती हो। आंटी, हमारे समाज में सिर उठाती औरत को कोई सह नहीं पाता है फिर भी जितना बन पाया मैंने भी पंगा ले ले कर तब मिलवाया बेटी से जब उसने बेटी के लिए पांच लाख की एफ डी करवा दी ।
- था उसके पास पांच लाख? वह एकाएक कांटेदार हो गयी, आवाज तमतमा गयी उसकी।
- खूब था आंटी, यहाँ नौआखली में ही उसके तीन मकान है, उसमें से एक को बेच कर भी सिर्फ आधा पैसा बेटी के नाम किया, जानता है न कि मैं अच्छे से पाल रही हूँ तो काहे खर्च करना। मैंने तो कहा था कि एक मकान ही बेटी के नाम कर दे। बोलते बोलते घर की खुशबू में भींगा उसका मन फिर पीछे की ओर मुड़ गया था .... आँखों में बादल तैरने लगे थे।
- और उसके साथ रहने की उसकी इच्छा का क्या जवाब दिया तुमने? क्या तुम फिर रही उसके साथ…. नहीं चाहते हुए भी मुंह से निकल ही गया। वह चुप रही। गर्दन नेपोलियन सी तन गयी उसकी। जवाब रुक्साना ने दिया ,
- तौबा! तौबा! आंटी आपनी जाने ना फातिमा आपा के (आंटी आप नहीं जानती फातिमा आपा को), वो अपने घर की इकलौती मर्द है। उसके बेरोजगार भाईजान तो चाहते थे कि यहाँ जब तक सुमैया था ढाका में तब तक उसके साथ रहते रहते कुछ और ऐंठ ले उससे, कम से कम एक मकान तो झटक ही ले। पर आपा ने तो एकदम से डपट दिया उस कमीने को - पहले मर्द तो बन।
- मर्द नहीं तो क्या हूँ मैं? वह गुर्राया था।
- कबूतर है तू कबूतर, जहाँ मिला दाना वहीँ बैठ गया चुगने। औकात नहीं तेरी मेरे स्वामी बनने की। उसने बम फोड़ दिया था पूरे घर के सामने। खुद उसके मामू चाहते थे उससे निकाह करना पर उसे तो अब मर्दों के वजूद से ही आज़ाद होना था। उसने मुझे कहा भी था कि तू क्यों रोती रहती है उसको, अरे मर्द कभी औरत का हुआ है, बिस्तर ठंडा हुआ कि मर्द मर्दुआ हुआ, तू तो बस उड़ना सीख और आज़ाद पक्षी बन जा।
- तुम उसके बारे में इतना कैसे जानती हो रुक्साना?
- हम दोनों एक दूसरे की रूह हैं आंटी! और वह खिलखिला पड़ी।
- माशाअल्लाह! क्या बात है!
कनखियों से देखा मैंने फातिमा की ओर, एक अलौकिक दुःख झांक रहा था उसकी आत्मा के भीतर से जहाँ न दुनिया से कोई शिकायत थी न कोई हायतौबा था। बस थी एक वीतरागी उदासीनता, निस्संगता। स्वीकार-अस्वीकार से परे किसी वनपाखी सी अपने ही भीतर के अरण्य में तल्लीन वह दूर पेड़ की सबसे ऊपर वाली टहनी पर बैठी नीले पंखों वाली किंगफिशर को देख रही थी (जो इन दिनों कोरोना के चलते कभी कभार दिखने लगी थी।) शायद उनसे बाँट रही थी अपना अँधेरा, अपना दर्द!
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अपशकुन सी एक सुबह फिर उत्तरी हमारे आँगन जब सुबह सुबह ही आया रुक्साना का घबड़ाता हुआ फोन।
- मेरा बेटा मदरसे से गायब हो गया है आंटी।
- मदरसे से?
- हाँ आंटी, वो इस्लाम इयासिन कुरआन नामक मदरसे में पढता था वहीं से कल शाम से गायब है। अभी मदरसे के मौलवी का फोन था।
मैं परेशान। मैंने दूसरी बाई फातिमा से पूछा - वो तो बोर्डिंग मदरसे में था, ऐसा कैसे हुआ? उसके जवाब ने तो मेरे होश ही उड़ा दिए, उसने कहा
- आंटी बांग्लादेश में मदरसे से बच्चे बहुत बार गायब हो जाते हैं वे फिर नहीं लौटते। मेरा खुद का मामू मदरसे से जो गायब हुआ, सालों उसकी कोई खबर नहीं मिली बाद में पता चला कि वो जेहादी हो गया है।
बाप रे! तो क्या उसके बच्चे को भी जेहादी अपने ग्रुप में ले कर जेहादी बना देंगे? आशंकाओं के हजारों हजारों डंक मुझे डसने लगे। पल पल रूप बदलती जिंदगी! रुक्साना का इकलौता सपना था उसका बेटा। क्या होगा उसका?
मेरा बेटा ड्राइवर महमूद भाई के साथ उसके मदरसे में गया। हमारे साथ दिक्कत यह थी कि भारतीय होने के चलते हमारा आत्मविश्वास यूं ही तीन चौथाई डूबा रहता था। यहाँ के स्थानीय मामलों में हिस्सा लेने का गलत अर्थ कभी भी लग सकता था। मदरसे के लोगों से भी महमूद जी ने बात की। पता चला कि दो छात्रों के आपसी झगडे के चलते (उसने किसी जूनियर को पीट दिया था जो एक प्रभावी व्यक्ति का बेटा था।) वह भाग गया था।
दिन भर आशंकाओं की नागफनियाँ हमें डसती रहीं। बेटा गाडी लिए लिए दौड़ लगाता रहा। उसके पूर्व पति से भी सम्पर्क किया गया। शाम पांच बजे फोन आया उसके बेटे का। वो भाग कर अपनी दादी के यहाँ पहुंच गया था।
फिर अगले दिन लौट आया उसका सपना।
इसके साथ ही फिर लौटा हमारा चैन!
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दिन बीतते रहे। झिमिर झिमिर बादल बरसे कि फिर उतरती बरसात में धुला निथरा, अलबेला, अनूठा दिन आया हमारे जीवन में!
फिर जमी महफ़िल! विगत स्मृतियाँ के टीले से इस बार उतरने की बारी थी रुक्साना की। कुछ इधर उधर, दाएं बाएं घुमा कर मैंने इतने हौले से पूछा उससे कि कहीं आत्मीयता का झीना झीना सा बुना ताना बाना चटक न जाए।
- तुम्हे मिला मेहर ? दुप्पटे को नीचे खींचते हुए कहा उसने।
- आधा मिला।
- आधा क्यों ?
फातिमा ने मुंह बनाते हुए कहा
- अल्लाह! स्वामी ओ तो आधा पेयेछे (शौहर भी तो आधा ही मिला।)
- क्या मतलब?
- मतलब, इसका स्वामी तो और भी रुस्तम निकला, मेरे वाले ने तो सिंगापूर जा कर गुल खिलाया, इसका वाला तो इसके नाक के नीचे ही दूसरी से टांका भिड़ाता रहा।
- अरे! आंटी यह तो इतनी बुद्धू थी एक ही शहर में रहते हुए भी इसको भनक तक नहीं पड़ी, इसके बेटे की मुसलमानी थी, बेटे को बुखार हो गया था और वो भडुआ नयी नवेली से रास रचा रहा था। यह तो जब उसने पैसे देने एकदम ही बंद कर दिए तब जा कर इसको शक हुआ।
- मुसलमानी यह क्या?
- हाय अल्लाह! आप नहीं जानती? इतनी तो किताबें पढ़ती हैं आप? हर मुस्लिम बच्चे का बचपन में जो होता है।
- अरे तो खतना कहो न!
- हाँ आंटी, इसने अपने बच्चे का थोड़ा देर से कराया इसलिए उसे तकलीफ हुई। नहीं तो हमारे यहाँ तो अस्पताल में ही
- अब क्या स्थिति है?
- इंशाअल्लाह बेटा दुरुस्त है!
- अरे मैं बेटे की नहीं तुम्हारे शौहर की पूछ रही हूँ, मैं झल्लायी।
- अब उसने उसी से शादी कर ली है, दो बेटियां हैं। दिनों तक तो सो नहीं पायी मैं, एकदम ही काठ हो गयी थी। की होवे .. कोथाय होलो भूल (क्या हुआ, क्या भूल हुई मुझसे) बस यही सोचती रहती? क्या मैं देखने में सुन्दर नहीं? लोग तो कहते हैं कि मैं सुन्दर हूँ आमार कपाल (मेरा भाग्य )… बोलते बोलते उसकी आँखें फिर डबडबा गयी थी।
- तुम्हे तलाक दिया?
- नहीं आंटी, हमारे यहाँ बिना तलाक के ही सब कुछ चलता है। बोलते बोलते उसकी आँखें सिकुड़ गयी थी।
- बिना तलाक के दूसरी शादी?
- हाँ आंटी! हमारे इस्लाम में तो इजाजत है न इसकी? ओंठ गोल करते हुए कहा उसने।
- तुमने भी हर्जाने का, खर्चे पानी का दावा नहीं ठोका उस पर?
- आंटी, ठोक सकती थी मुक़दमा लेकिन हूँ तो मैं भी न बेटी वाली, जिसकी अम्मी अल्लाह मियां की गाय उसकी लड़की को तो सब ले लेते हैं, पर रणचंडी जैसी पटाखा औरत की बेटी को कौन लेगा यही सोच कर नहीं लिया पंगा। बोलते बोलते उसका चेहरा स्याह पड़ गया था।
- तुम्हारी भी सास का जुल्म बढ़ गया ?
- नहीं आंटी, मेरी सास बहुत भली औरत है। उसकी हर खिड़की अल्लाह की ओर खुलती है। उसी के कारण मैं अपराध बोध के मुक्त हुई। वह गांव में रहती है, उसने मुझे बहुत बुलाया। पर मैं जानती थी कि वहां डौल नहीं बैठेगा। मुझे अपने बच्चों को मानुष बनाना था, इसलिए मैं नहीं गयी। सास ससुर मेरे बच्चों की पढ़ाई का खर्च नहीं निकाल सकते थे। आज भी मेरा स्वामी अपनी दूसरी पत्नी को ले कर मेरी सास के घर में नहीं घुस सकता।
निर्वाक वह! भींगे पाखी के भींगे पंखों सा फड़फड़ाता रहा उसका मौन! कानी आँखों से देखती रही मैं उसकी ओर।
- तुम्हारा भी कोई रोमांटिक सपना था क्या ?वह भौंचक्का! ऐसे देखा मुझे जैसे पहली बार देख रही हो। एक आँख हंसी फिर दूसरी आँख रोयी थी उसकी।
- कुछ पलों के विराम के बाद खुला उसका मुंह।
- एक पिक्चर में देखा था हीरो हीरोइन पद्मा नदी में पांव डुबो कर पास पास बैठे हुए हैं ..
- तो पूरा नहीं हुआ वो सपना?
- कैसे होता आंटी, उसके लिए तो मैं सिर्फ बिस्तर ही थी न! शुरू शुरू में तो मैं पास आने से भी डरती थी। उम्र भी क्या थी महज चौदह साल। उन दिनों तो बस दूर से ही चिड़िया की तरह सेती रहती थी उसको। जब तक डर निकला वो भी निकल गया। अभी तक पीछा करता है वह सपना .. बोलते बोलते समुद्र बन गयी थी उसकी आँखें। मैंने देखा अभी भी बहुत जान बची हुई थी उन सपनीली आँखों में।
गलती मुझसे हो गयी थी, अनजाने ही सही अधबने सपनों की किरचें चुभो दी थी मैंने। जाने क्यों मुझे लगा था कि वो जमीने वे छोड़ चुकी हैं पर जमीनें कहाँ छुटटी है जनाब! अधूरे जीवन से उपजी कुंठाओं के चमदागड चीखने लगे थे। बुझ चुकी भट्टी में फूंक मारा तो राख तो उड़नी ही थी, उड़ रही थी।
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रमजान चल रहे हैं इन दिनों। पहली बार मैंने फातिमा को मगरीब की अजान के बाद नारियल के पानी और खजूर के साथ रोजा खोलते देखा था। दिन भर वह कुछ भी नहीं खाती थी यहाँ तक पानी भी नहीं पीती थी, शाम छह बजे के आस पास वह दिन का पहला आहार लेती थी। उसे रोजा करते देख मुझे हमारे यहाँ होने वाली तपस्या याद आती जिसमें मेरी माँ सूर्यास्त के बाद पानी तक नहीं लेती थी। भारत की तरह यहाँ भी भूखे रहना शौक, व्रत और कला था फर्क बस समय का था।
- नाश्ता क्या बनाऊं? एकदम मरती हुई आवाज़ रुक्साना की।
- इतनी मरी मरी आवाज़ जैसे आ रही है? कल कुछ खाया नहीं क्या मैंने पूछा रुक्साना से?
- नहीं आंटी, कल रात इस कदर घोड़े बेच कर सोई कि नींद ही नहीं खुली तो खा भी नहीं पायी, अभी रोजे जो चल रहे हैं, रात साढ़े तीन तक जो भी खाना हो, फिर हम दूसरे दिन के छह बजे तक पानी भी नहीं पीते।
- अरे! चलो ऐसा करते हैं मैं तुम्हें रात फोन कर याद दिला दिया करूंगी। लेकिन एक बात बताओ, यह क्या बात हुई कि दिन को खाओ तो पाप और रात को खाओ तो पुण्य... वैसे ही बकरीद में यह कैसी कुर्बानी कि खुद के जिस्म में तो खरोच भी न लगे और बकरा जिबह हो जाए। हिसाब से तो इसमें क़ुरबानी आपकी नहीं बकरे की है ......कह कर मैंने जीभ काट ली। कहीं ये बुरा मान गयी तो? लेकिन उन्होंने बुरा नहीं माना बल्कि हंसती ही रही। शायद हम औरतें थी इसीलिए हमारा अहम, व्यक्तित्व और चेतना सब उस सामूहिकता के रंग में रंग जाती बिना किसी तल्खी के भी। न इस्लाम गरजता-तरजता, न हिंदुत्व फ़नफनाता। बल्कि अब तो आलम यह था कि उड़ते पाखी की मानिंद हम जब तब महफ़िल की डाल पर झूलते नज़र आते। उन्हें मुझसे क्या मिलता राम जाने पर मुझे उनकी जीवटता, उनके अंधेरों से जैसे रौशनी मिलती।
देखते देखते रमजान अपने आखिरी चरण में कि फातिमा की तबियत अचानक बिगड़ गयी। मई की सात तारीख थी। उसका बीपी काफी कम हो गया था। वह मुश्किल से खड़ी हो पा रही थी। अपने कमरे में जा कर वह लेट गयी। मैंने उसे समझाया - क्यों न रोजा वह कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दे, बाद में उसकी भरपाई कर ले। मुझे पता था कि रोजा में यह छूट है कि स्त्रियां भी यदि रोजा के बीच पीरियड हो जाए तो कुछ दिन पवित्र रोजा रोक कर बाद में इसे शुरू कर सकती हैं। मैंने फातिमा को आश्वस्त करने के लिए रुकसाना से पूछा - मैं सही कह रही हूँ न कि बाद में भी इसे किया जा सकता है।
- हाँ, एकदम।
- अच्छा एक बात बताओ, मान लो बाद में भी फातिमा न कर पाए तो?
- तो भी आंटी उसका रास्ता है, आप किसी और को पैसा दे कर उससे फातिमा के लिए रोजा रखवा सकते हो। बस, आपको खर्चा देना होगा।
- क्या? ऐसा भी हो सकता है?
- हाँ आंटी। बस आपको तीन टाइम खाने का खर्चा और हजार के करीब टाका देना होगा।
क्या बात है! उसके रोजा ने मुझे अपनी एक पड़ौसिन के एकादशी के उपवास की स्मृति दिला दी। पड़ौसिन के पति गुजर गए थे। वे खुद भी एकादशी का व्रत रखती थी और अपने पति के लिए अपनी बहु से व्रत रखवाती थी इस विश्वास के चलते कि उस व्रत का पुण्य उनके दिवंगत पति को मिलेगा। फातिमा की नाजुक हालत देख मेरी स्मृति में मेरे बचपन की सखी मंजू घूम गयी जिसने अठाई (आठ दिनों की तपस्या के दौरान सातवें दिन दम तोड़ दिया था। यदि तुरंत ही उसे आहार जल दे दिया जाता तो नहीं होता वह हादसा। उस समय तो मैं खुद बच्ची थी लेकिन आज तो मैं बच्ची नहीं, नहीं मैं फातिमा को अभी ही आहार जल खिला दूँगी। मैंने फिर उससे अनुरोध किया कि एक बार वह कुछ ले ले। फातिमा तैयार हो गयी - अच्छा आंटी थोड़ी देर बाद ले लूंगी।
मैंने उस थोड़ी देर को लम्बा नहीं टाना और खुद ही उसके लिए चाय बिस्कुट ले कर हाजिर हो गयी। वह लज्जा से सिकुड़ गयी और मुझे इसका इनाम दे दिया। उसने चाय पी ली।
मैं अपनी ख़ुशी को ठीक तरह से खुल कर मना भी न पायी थी कि सामने मेरी बहुरानी। तवे की तरह गर्म। ललाट पर तीन बल। ऐसे मुबारक मौकों पर उस विदुषी की दबी हुई तेजस्विता अक्सर उभर आती है। वह फनफनायी।
- मम्मा, यह ठीक नहीं है। किसी के निजी धार्मिक मामलो में इतनी दखलंअंदाजी? ठीक है आपने उसे सलाह दी पर यह क्या खुद चाय ले कर ही हाजिर हो गयी। यह ठीक नहीं। हो सकता है कि उसने आपसे डर कर चाय पी ली हो, आखिर हो तो आप उसके बॉस ही न! उनके लिए रोजा तोडना पाप है। फिर अभी एन सी आर और सी ए ए के चलते राजनैतिक गर्मी बढ़ी हुई है उधर भी और इधर भी।
- अरे गर्मी आज है तो कल चली भी जाएगी। अखबारों की ख़बरों पर न जाओ तो क्या कभी तुम्हे लगा कि पराये मुस्लिम देश में हैं, बताओ? रही बात इन दोनों की तो हम तीनों जोगी आत्माएं हैं, न हिन्दू हैं न मुसलमान गृह युद्ध की आशंका के मद्देनज़र मैंने हल्ला बोल हमले को हल्के में उड़ाना चाहा।
उसने माथा पीट लिया। झपट पड़ी मुझ पर जैसे झपट पड़ती है छिपकली कीड़े पर - आप कभी खुद भी डूबेंगी और हमें भी डुबाएंगी। पीछे से कॉफ़ी के घूँट लेते बेटा चिंचिनाया,
- सोशल सर्विस जितनी भी करनी हो घर के बाहर करो अम्मा, घर के अंदर नहीं। भूल गयी मुंबई की घटना, बचाने गयी थी मेड की सैलरी, लिया पंगा पड़ौसिन से ही और हुआ क्या? तुम पर ही अनुशासनहीनता और हस्तक्षेप का आरोप लग गया।
हो गया टंटा! वीरतापूर्वक उनका मुकाबला करने के बाद मुंबई वाली घटना की स्मृति से मैं कच्ची पड़ गयी। विचार थकने लगे। ढह गयी। भरे चौराहे बन गया इज़्ज़त का फालूदा, अपनी पतंग न उड़ा पायी तो उसी की उड़ती पतंग में लगा दिया पेँच, अवरुद्ध कंठ से किसी प्रकार घरघराते निकले शब्द।
- बेकार का मत हिनहिनाओ, एक बार यदि मिसकैरेज हो जाय तो क्या औरतें गर्भधारण करना छोड़ देती हैं? अभी कितनी गरमागरम बहसें हुई लेकिन हमारी महफ़िल इंशाअल्लाह आज तक कभी नहीं बनी पानीपत का मैदान, बनी क्या? क्योंकि यह हम औरतों की दुनिया है जहाँ नदियों की तरह न कोई देश है न जातीय दम्भ। न तंगदिली है, न असहिष्णुता और न ही सत्य के साथ कोई मिलावट है।
- वाह! क्या आत्मविश्वास! जुम्मा जुम्मा चार दिन की गोष्ठी और इतना विश्वास! मेरी सफाई ने गर्म तवे पर छींटे का काम किया। पाँव पटकता वह मेरा जवाब पूरा सुने ही फिर से अदृश्य बंदिशे मुझ पर ठोक कर अपने कमरे में चला गया?
एक मन किया चाँद तारों को नोंच लूँ। लेकिन दूसरे मन का सारा ध्यान अटका रहा उसकी भाषा पर, उसके जुम्मा जुम्मा चार दिन वाली भाषा पर! कहाँ से सीखी इस कॉर्पोरेट वाले ने इतनी उर्दू!
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फिर भी कोई तंतु था महीन पर दमदार जो हमें खींचा रहता था एक दूसरे के पास। इसलिए टूटा धागा फिर जुड़ा।
उस दिन ढाका अपने पूरे नूर पर था जब रुक्साना अपनी सात वर्षीय बेटी को ले कर काम करने आयी थी। दरवाज़ा मैंने ही खोला था। मैं देखकर अवाक थी। उसकी सात वर्षीय बेटी भी हिजाब से एकदम ढकी ढूमी। लाल होता सुन्दर चेहरा पसीने से एकदम तर बतर!
देखा मैंने, धर्म की डाल से झड़ते जीवन के पत्तों को।
मैंने देखा लालटेन के भीतर कैद जलती लौ को।
मुझसे रहा नहीं गया। हिम्मत कर मैंने आखिर तो कह ही दिया, ‘रुकसाना इतनी छोटी बच्ची से भी पर्दादारी? क्यों करवा रही हो? इतनी गर्मी में देखो ये कैसे पसीना पसीना हो रही हैं?
उसके बोलने की टोंटी खुल गयी थी - अभी से ही आदत डालेंगे तभी तो बड़ी हो कर वे बुर्के की अभ्यस्त होंगी। मैंने कहा
- लेकिन देखो ये बच्ची कितनी पसीने पसीने हो गयी। कितनी तकलीफ हो रही होगी उसे। वह घुग्घू की तरह मुझे बिटर-बिटर ताकने लगी फिर धीरे से फुसफुसायी - इस्लाम को निभाना है तो थोड़ा कष्ट तो उठाना ही होगा।
सुबह की ठंडी हवा में मेरे बाल उड़ रहे थे लेकिन उसके बाल बालों की सीमा रेखा से हिजाब से ढके हुई थे। हिज़ाब के लिए भी निर्देश है कि हिजाब इस कदर पहना जाए कि औरत के सर का एक बाल भी न दिखें क्योंकि तरह तरह के केश विन्यास औरत का आकर्षण बढ़ाते हैं।
पहली बार अहसास हुआ कि सर ढकना सिर्फ सर ढकना ही न था वरन स्त्री सोच और चेतना, स्व के भाव को तर्क और विवेक से बाहर कर नियंत्रित करना था।
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घर में बच्चे रह रह कर मुझे चेताते कि मुझे दोनों सेविकाओं से थोड़ी दूरी रखनी चाहिए अन्यथा बाद में उन्हें हैंडल करने में मुझे ही दिक्कत आएगी। बहुरानी ने जो हिदायत दी उसके शब्द ध्यान नहीं पर भाव यही थे कि नीच और निम्बू बिना दबाव के परिणाम नहीं देते। मुझे उनसे दूरी बरतनी चाहिए और उनसे व्यक्तिगत बातें विशेषकर उनके मजहब से संबंधित बातें तो बिलकुल भी नहीं करनी चाहिए। बेटे ने चेताया कि भारतीय दूतावास से भी उन्हें ऐसे ही निर्देश मिले हुए हैं। लेकिन मैं मानती थी कि यह हम औरतों की दुनिया है, नेताओं की नहीं। हम खुल कर अपनी भावनाओं का इज़हार करती हैं। हमारे अपनत्व के रास्ते में मजहब की बिल्ली रास्ता नहीं काटती।
मैं यह मानती कि रिश्ते में आत्मीयता हो तो काम ज्यादा अच्छा होता है। मेरा भतीजा इस आत्मीयता के सख्त खिलाफ था।उसका अनुभव था कि यह डर ही है जो उन्हें अनुशासित रख कर सारा काम करवा लेता है। बेटे का भी यही कहना था - एक बार मैंने अपने ऑफिस के चपरासी से गप्प क्या मारनी शुरू कर दी बंदे के भीतर से सारा डर ही काफूर हो गया, ऑफिस में सबसे अंत में चाय मुझे ला कर देता, एकदम ठंडी। और फिर यह भी तो सोचो कि तुम उनसे इस्लाम, कुर्बानी, बुर्का जैसे विवादस्पद विषयों पर बात करती हो, कौन जाने तुम्हारी इन बातों के तार कहाँ से कहाँ जुड़ जाए, मत भूलो कि सद्भावना के लोप होते ही हम यहाँ के लोगों के लिए काफिर हो जाएंगे, कोई भी कट्टरपंथी हमारे पीछे पड़ जाएगा, एम्बेसी ने भी हमें इन विषयों से दूर रहने की हिदायत दे रखी है.
बहरहाल समझ ने इतनी समझदारी मुझे दे रखी थी कि उनकी नासमझी वाली हिदायतों का मुझ पर अधिक असर नहीं पड़ता था। बेटा था वह बस, मेरी चेतना का वाहक कतई नहीं था। पर फिर भी बेटे बहू के बार बार मना करने पर मेरा उत्साह मरने लगा था। मैंने कुछ दिन उनसे दूरी बना कर रखी भी पर शीघ्र ही जैसे मन डूब जाता, नींद की नौका पार न लगती, मन की भीतरी सांकल बजने लगती, ’निकलो बाहर, निकलो बाहर ‘ और मैं फिर पाती खुद को उनके बीच।
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रुक रुक कर ही सही फिर तार जुड़े और चल पड़ी हमारी बतकही, एक दिन फातिमा ने छुट्टी मांगी।
- आंटी मैं आज जल्दी घर चली जाऊंगी, मेरी बहन के लड़की हुई है।
- माशाल्लाह! मुबारक हो! बेटी आई है घर में।
- आंटी हमें तो शुरू से ही पता था।
- पता था? और तभी ध्यान आया कि ढाका में सेक्स डिटर्मिनेशन पर पाबंदी नहीं है। तब तो जश्न की तैयारी तभी से शुरू हो गयी होगीी। इस बार उसके ओंठ विकृत हुए। आंटी आपा की यह तीसरी बेटी है। डॉक्टर अफजल के चलते बच गयी बेटी वरना हम तो शक्ल भी न देख पाते उसकी।
- अरे ऐसा कैसे?
- उसकी दादीजान नहीं चाहती थी फिर बेटी घर में आए, तो हमने पहले से ही डॉक्टर को बता दिया। बहुत मुश्किल से डॉक्टर राजी हुआ और जब दादी जान ने पूछा आने वाला बेटा है या बेटी तो डॉक्टर ने कहा - आने वाला वही है जो आप चाह रही हैं।
- बाप रे! इस मामले में सचमुच हिन्दू मुस्लिम सब भाई भाई हैं, मैंने व्यंग्य से कहा। फातिमा ने जोड़ा
- आंटी, यहाँ लड़का होते ही जोर जोर से अजान गायी जाती है, लड़की होने पर उसके कान में दादी नानी धीरे से अजान के शब्द डाल देती हैं। आपके यहाँ भी कुछ ऐसा होता है क्या?
- हाँ, हमारे यहाँ भी लड़का होने पर थाली बजायी जाती है।
- और लड़की होने पर?
- घोड़े का डीम!
हम तीनों हो हो कर हंस पड़े था। फातिमा जा चुकी थी। उसकी हिजाब पहनी बेटी आँखों के आगे घूमती रही। मैं अब रुक्साना की तरफ मुखतिब हुई।
- रुक्साना क्या तुम चाहोगी कि तुम्हारी बेटी भी बुरका हिजाब पहने? मेरी उम्मीद के विपरीत उसने जवाब दिया।
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क्यों नहीं, बल्कि मेरी बेटी तो मुझसे भी ज्यादा बुर्के में यकीन
करती है। ग्यारह साल की उम्र उसकी और अभी से ही वह
बाहर निकलती है तो मुझसे भी ज्यादा अपना चेहरा ढक कर
निकलती है।
·
तुम्हारा बेटा तो नई पीढ़ी का है वह नहीं रोकता तुम्हे बुरका
पहनने से? वह मुस्कुरायी।
·
मैडम वह मदरसा में पढता है, छह हजार, छह सौ सोलह
आयतों वाली कुरान लगभग उसे कंठस्त है। जब आठ वर्ष का
था तभी उसने कुरान का सुरैया सीन (एक महत्वपूर्ण चैप्टर)
पूरा कंठस्थ कर लिया था। बहुत तेज है। इतना प्रभाव है
कुरान का उस पर कि जब भी मैं घर से बाहर निकलती हूँ तो
मेरे खुले हाथों और पैरों से भी उसे तकलीफ होती है। एक
बार उसने मुझे कहा भी।
·
तुम सिर्फ आँख भर जितना मुंह खुला रखा करो। हाथों में
और पैरों में भी मोजा पहना करों। मैंने जवाब दिया कि अभी
तो मैं चाकरी कर रही हूँ जब तुम मुझे बैठा कर खिलाओगे न
तब हाथ पैर और पूरा मुंह ढका करूंगी। वैसे वह उतना गलत
भी नहीं है क्योंकि बुरका तो औरतों की हिफाजत के लिए है।
किसी ने कहा भी है कि बिना बुर्के के औरत टेबल पर खुली
रखी स्वीट डिश है जो हर किसी को स्वाद लेने के लिए
आमंत्रित करती है। वह पुलकित थी कि जब उसका बेटा बड़ा
होगा तो वह हजरत बनेगा और खुद वह हजरत की माँ
कहलाएगी। मैंने उसे समझाने की कोशिश की।
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देखो, जितना मैं जानती हूँ पांच बुनियादी बाते हैं जिस पर
इस्लाम टिका हुआ है। वे हैं
(१). ईमान (यानी अल्लाह में विश्वास)
(२). नमाज (पांच बार)
(३). रोजा
(४). जकात (दान)
(५). हज।
अब तुम्ही बताओं कि इस्लाम में कहाँ लिखा है कि औरतों को
पर्दे में रहना चाहिए।
·
आंटी मुझे देर हो रही है ....कहती हुई वह यह जा वह जा।
जाहिर था कि उसे मेरी यह जिरह पसंद नहीं आ रही थी। मैं भी बाहर निकल गयी। गुलशन में देखा एक कपड़ों की दूकान पर एक टी शर्ट लटक रहा था जिस पर लिखा था ‘गर्ल्स रूल दी वर्ल्ड‘। पढ़ कर बेहताशा मैं सड़क पर ही हंस पड़ी।
मैं खुद को समझाने लगी ,कितना मुश्किल है कील की तरह अंदर तक घुसे विश्वास को बाहर निकालना। बाद के दिनों में उन दोनों ने मेरी भरपूर मदद की ढाका को समझने में। मैं जब भी उसे बुर्के में देखती मुझे लालटेन के भीतर कैद जलती लौ की याद आती।
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समय पंख लगा कर उड़ने लगा। देखते देखते बीता एक साल।
फिर आयी वह रात जिसमें जिंदगी की सबसे उदास कविता लिखी गयी। अल्ट्रा साउंड में पता चला, बहूरानी की गर्भस्थित अठमासी बच्ची कुछ ठीक नहीं है। बहुत कुछ किया पर बचा न पाए उस नन्ही जान को। हमारी सारी निःशब्द प्रार्थनाओं को धता बताते हुए भोर के तारे सी ही ओझल हो गयी वह अठमासी। गर्भ में ही। बहू के ऊपर भी जान का संकट मंडराया हुआ था। बच्ची को नार्मल डिलीवरी द्वारा ही निकालना था। उसी दौरान रक्त की जरूरत हुई। कौन दे रक्त? विदेश में बहुत कम जान पहचान थी और उस पर कोरोना और रमजान। मैंने न फातिमा को बताया था न ही रुक्साना को। जाने कैसे, घर के किस बिस्तर ने चुगली खा दी कि सूरज की पहली किरण के साथ ही दोनों की गुजारिश - हम देंगे रक्त।
जरूरत तो थी, कैसे करते इंकार। तीन दुःख एक हुए। ले गए दोनों को। फातिमा का रक्त काम आ सकता था, पर उसका रमजान था। डॉक्टर ने मना कर दिया - रमजान में रक्त नहीं ले सकते। घायल पाखी की तरह वह फड़फड़ायी। फिर कुछ देर बाद दृढ स्वर में कहा फातिमा ने - यदि ऐसा है तो इसी पल मैं रमजान तोड़ देती हूँ, पर मेरा रक्त ले लें।
फातिमा का रक्त ले लिया गया।
सामान्य डिलीवरी से बाहर निकाला उस अठमासी को। अब समस्या थी उसे दफनाने की। हम चाहते थे कि हिन्दू संस्कार के अनुसार उसे भरपूर प्यार और सम्मान के साथ चार घंटे के भीतर ही दफना दें। दिन भर की अकथनीय थकावट और मरे मन के बचे खुचे दम ख़म के साथ बेटा उसे ले गया घर के सबसे करीब के कब्रिस्तान में जो कि बनानी में था। लेकिन वहां हम हिन्दू थे इसलिए हमें जगह नहीं मिली। वापस बच्ची को अस्पताल के मुर्दा घर में रखवाया। क्योंकि रात हो चुकी थी।
दूसरी सुबह अचेत और जर्रा जर्रा बिखरी पत्नी को नर्सों के हवाले कर बेटा मृत बच्ची को लिए लिए फिर एक और कब्रिस्तान में। वहां भी इजाजत नहीं मिली। एक विदेशी कहानी पढ़ी थी जिसमें एक रुसी औरत अपने क्रन्तिकारी पति का शव लिए आधी रात के अँधेरे में गाँव दर गाँव भटकती रहती है पर उसे कहीं भी उसे दफनाने की इज़ाज़त नहीं मिलती है। वह तो क्रांतिकारी था पर यह तो अठमासी बच्ची! बहरहाल फिर किसी ने बुरी गंगा किनारे बसे पोस्ता गोला श्मशान का नाम सुझाया। वहां कोई हिन्दू मंदिर था उसी के पिछवाड़े में खुला आँगन था। वहां हिन्दू पुरोहित भी था। वहीँ भारी मन से विदा दी उसे। बहुत मन था उस मिटटी को एक बार चूम लूँ, प्यार से हाथ फेर दूँ जहाँ चिर निद्रा में सो रही थी मेरी पोती, मेरी आत्मा का अंश। कहूँ उससे ‘ना जा बबुनी, वापस आजा बाबुल के द्वार।‘
पर ऐसा संभव न हो सका।
हम नहीं चाहते थे कि इस बच्ची का जन्म ढाका में हो और उसके जन्म सर्टिफिकेट पर जन्मस्थान ‘ढाका लिखा जाय‘। पर कोरोना के चलते हम असमंजस में थे कि जाएंगे कैसे। बिटिया रानी ने जन्म लेने से इंकार कर हमें इस दुविधा से भी मुक्त कर दिया लेकिन अपनी चिर निद्रा के लिए चुना भी उसी माटी को।
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उसके बाद हमारी गोष्ठी फिर कभी नहीं जमी। तब भी नहीं जब रुक्साना ने चार दिनों की छुट्टी ले रखी थी। उनके एक चचाजान की दो दिन पहले ही दिल का दौरा पड़ने से मौत हो चुकी थी। वो जिस कम्पनी में जूनियर अफसर थे उसे किसी बहुरष्ट्रीय कम्पनी ने खरीद लिया था। उस बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने कुछ कर्मचारियों की छटनी की थी उसी में उनके चचाजान का भी नाम था। 'अब क्या होगा?’ के सवाल ने उनके दिन रात का चैन छीन लिया और दो दिन बाद ही उन्हें दिल का भयंकर दौरा पड़ा, और वे मर गए। मुझे सब कुछ पता चला फातिमा से, लेकिन हमारे मुर्दा मन फिर कभी गोष्ठी के लिए इकठ्ठे नहीं हुए। हमारे भीतर न जीवन का उल्लास बचा था और न ही मृत्यु के शोक का सुकून।
हम कम बोलने लगे थे। कम जीने लगे थे। शांति और अशांति के बीच भटकता हमारा मन एक सूखी नदी की मानिंद बहने लगा था।
करीब तीन महीने बाद फिर खुली बांग्लादेश की सीमाएं।
हम भी अपने वतन की ओर वापस! फातिमा और रुक्साना की भरी हुई आँखें देखी न गयी मुझसे। जाते वक़्त इतना भर कह पायी - रख लो ये पाज़ेब हिंदुस्तान की बनी हुई है। मेरी तरफ से दे देना अपनी बेटियों को।
वे गले लग हिलग हिलग रोने लगी।
बेटे ने इशारा किया, मैं थोड़ी दूरी बरतूं, कोरोना का संक्रमण हो सकता है।
आँख भर देख भी न पायी। जी भर गले भी न लग पायी।
पराजित समय!
दूर से हाथ हिलाया। पर आँखें तब तक पीछा करती रहीं उनका जब तक वे ओझल न हो गयी।
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चल खुसरो घर आपने… विदा मेरी देशी राग! जब जब तुम बजती, यहाँ की धरती, आसमान, चाँद तारे सब अपने बन जाते! हवाएं ठंडी हो जाती। फूल खुशबू देने लगते। तुम्हारी घनी सतरंगी छाँव में मेरा बिगडा मन मिजाज संभल जाता। तुम धरती का नमक, तुम मेहनत की महारानियाँ! अब शायद ही फिर कभी फिर मिल सकूं तुम दोनों से। जा रही हूँ तुम्हारे कर्जे के साथ। यहाँ की हरियाली, रकम रकम के चावल, प्रार्थना सा पवित्र तुम्हारा संग साथ, दूर दूर जाती हुई जाती नौकाएं मुझे खूब याद आएंगी।
विदा ढाका! मेघेर ढाका ढाका (मेघों से घिरा ढाका)! मेरे बंगाल का ही प्रतिरूप ढाका! मेरे नायकों की जन्मभूमि! नहीं जानती कि तुमने मुझे कितना रचा।
कितनी विचित्र बात कि बस आधे घंटे की हवाई यात्रा और मुल्क बदल जाएंगे। तुम अपने वतन में रह जाओगी और मैं उदास हवाओं के उसपार तथाकथित अपने वतन में। बदल जाए वतन, माटी तो फिर भी एक ही रहेगी हमारी! जमीन पर खिंची इन रेखाओं का खेल हम क्यों माने?
बहती हवाओं और बहते पानी की तरह कभी बहते बहते आ जाना मेरे द्वार भी! तब जब तुम आओगी देखोगी कि मैं खुद को तुमसे बतियाते देख रही हूँ।
देखो ये हवाएं भी चुपके से गुनगुना रही हैं।
"धीरे चल रे
कहरा
देखी लेबै
बाबुल के बहियार" (धीरे धीरे चल कहार, जिससे देख लूँ बाबुल के खेतों को)
खुली हुई है गाडी की खिड़की। खुली ही रहने देती हूँ मैं, सहला रही है मुझे यहाँ की धूल, माटी और पुरवैया। आंसुओं की झिलमिल के पार देख रही हूँ इस माटी को, फिजाओं को, ऊंचे ऊंचे दरख्तों को, हिलते पत्तों को। सुन रही हूँ इन बहती हवाओं को। इंशाअल्लाह! जैसा छोड़ के जा रही हूँ वैसा ही मिले मुझे ढाका, नहीं बिके इसकी धूप, इसकी हरियाली, इसकी नदियां, इसकी पहाड़ियां। बेटा कहता है अब दुबारा नहीं आना होगा, शायद नहीं हो लेकिन मैं अपने सपनों को दाना देती रहूंगी। इसी माटी में मेरी पोती सो रही है। गहरा संबंध है इस धूल माटी से… कभी शायद फिर लौट पाऊं इन फिजाओं में जैसे लौटती हैं पत्तियां पेड़ों पर। उड़ती है कोई तितली ख्यालों की, कि तभी बेटे की आवाज़ गूंजती है - बंद करिये खिड़की के ग्लासों को, कितनी धूल आ रही है भीतर।
मैं सुना अनसुना कर देती हूँ। और जल्दी जल्दी जितनी हो सके भर लेती हूँ इन हवाओं को अपने भीतर।
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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MADHU KANKARIA
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सारयुक्त तथ्यों के साथ सुंदर कथानक।
जवाब देंहटाएंआधी कहानी कल और आधी आज पढ़ी। मधु कांकड़िया जी की कहानियों को पहले भी पढ़ चुका हूँ। ऐसे लेखकों को पढ़कर लगता है कि कोई सार्थक काम किया है। जिस निष्पक्षता और ईमानदारी से लेखनी चली है,काबिलेतारीफ है। पहली बार का भी सार्थक चयन के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंललन चतुर्वेदी